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All That Breathes : प्रदूषित पर्यावरण के आगे प्रदूषित मानवीय रिश्तों की पड़ताल

मूवी रिव्यू: 'ऑल दैट ब्रीद्स' भारत की राजधानी दिल्ली की हवा पर वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि समकालिक नज़रिये से राजनीतिक टिप्पणी भी करती है।
All That Breathes
ऑल दैट ब्रीद्स का एक सीन, चित्र साभार- फेस्टिवल-द-कान्स

उत्तर भारत मे होने वाले हिंदू-मुस्लिम फसाद पर एक सामूहिक समझ कैसे बनाई जाए? और अगर हिंदू-मुस्लिम फसाद पर सामूहिक समझ बनानी ही है तो क्यों ना इसको प्रदूषित हवा और इससे सारे जानवर समुदाय पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के संदर्भ मे समझा जाये?

कुछ दिन पहले HBO के ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज हुई भारत की तरफ से ऑस्कर में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री की श्रेणी मे नामांकित और कान्स फिल्म महोत्सव मे गोल्डन आई अवार्ड जैसे विश्वविख्यात पुरस्कारों को जीत चुकी शौनक सेन द्वारा निर्देशित ऑल दैट ब्रीद्स को देखते हुए उक्त प्रश्न मेरे दिमाग मे आते हैं।

ऑल दैट ब्रीद्स का किस्सा उन्हीं चीलोंं के आस-पड़ोस घूमता है जिनसे मेरा सामना शौनक सेन के अल्मा मेटर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU), नई दिल्ली, की कैन्टीन मे फिश करी खाते हुए उस समय हुआ था जब खुले आसमान के तले मेरी प्लेट से एक चील मछली का समूचा टुकड़ा ले उड़ी थी। ऑल दैट ब्रीद्स मे चीलोंं का इलाज करने वाले दो भाईयों में से एक चरित्र अपनी काव्यात्मक भाषा में कहता है कि 'चीलों को गोश्त खिलाने से सवाब मिलता है, वो आपकी दिक्कतें खा जाती हैं' तो पहली नजर में ऐसा लगता है जैसे ऑल दैट ब्रीद्स भी शायद उसी पुराने ढर्रे पर एक एलीट निगाह से पर्यावरण के जुड़े मुद्दों को समझने की कार्रवाई है जिसमें पर्यावरण बचाने की पहल को महज क्लाइमेट चेंज की निगाह से दिखा दिया गया है। लेकिन जैसे-जैसे ऑल दैट ब्रीद्स आगे बढ़ती है दर्शकों को समझ आता है पर्यावरण इतनी छोटी चीज़ नहीं है कि उसे अपनी सुरक्षा के लिये मानव जाति की सहायता की आवश्यकता हो। 'प्रकृति को बचाओ' जैसे सामान्य नारों से इतर जिनसे हमें आभास होता है कि मानव जाति ने प्रकृति को संरक्षण दे रखा है और संरक्षित चीजो का शोषण नहीं करना चाहिये ऑल दैट ब्रीद्स हमें ये समझा करके चौंकाती है कि प्रकृति को मानव जाति से किसी प्रकार के संरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है बल्कि प्रकृति के द्वारा बनाया गया एक दूसरे प्राणी - चील - के सामने शायद मनुष्य इतना निरीह हो सकता है कि वो आपकी थाली से मछली का टुकड़ा झट से ले उड़े और तमाम मानवीय ज्ञान से लैस होने के बावजूद आप कुछ ना कर पायें।

ऑल दैट ब्रीद्स हिंदी के शब्द 'हवा' के बहुआयामी पक्षों को बड़े सलीके से पर्दे पर उकेरती है। ऑल दैट ब्रीद्स भारत की राजधानी दिल्ली की हवा पर वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि समकालिक नजरिये से राजनीतिक टिप्पणी भी करती है। मुस्लिम समुदाय से आने वाले दो वयस्क लड़के अपने एक किशोर भाई की मदद से उन चीलों को चिकित्सकीय सुविधा मुहैया कराते हैं जो चीले या तो चोटिल हो गयी होती है या जिसके लिये दिल्ली की अति प्रदूषित हवा मे उड़ना दूभर हो गया होता है। लेकिन ऑल दैट ब्रीद्स सिर्फ एक वैज्ञानिक लेन्स से हवा को 'साफ' 'गंदा' या 'अति-गंदा' जैसी शब्दावली से नहीं परखती है बल्कि ये भी बताती है कि इस दौर में एक प्रदूषित शहर मे रहने वाले लोगों के मानवीय मूल्यों में भी कितनी भयंकर गिरावट आयी है कि भारत की राजधानी - दिल्ली- के उत्तर पूर्वी इलाके में वर्ष 2020 में अल्पसंख्यक मुसलमानों का संप्रदायिक दंगों मे कत्लेआम किया जाता है और दक्षिणपंथी ध्रुवीकरण के इस राजनीतिक दौर मे अधिकांश समाज को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। शायद इस दौर के पूँजीवादी अर्बन स्पेस में आदमी एक दूसरे आदमी से उतना ही जुदा है जितना वो उन तमाम चीलों, घोड़ो, कीड़े-मकौड़ो यहां तक की उन गायों से जुदा है जो ऑल दैट ब्रीद्स मे टी.वी. की स्क्रीन पर एक- एक करके तैरते नजर आते हैं। और शौनक सेन की लिये मनुष्य इन तमाम जानवरों मे से मात्र एक जानवर है। ना दूसरे जानवरों से कम और ना ही ज्यादा।

ऑल दैट ब्रीद्स कई सारे मोर्चों पर एक साथ खेलते हुए अपनी बात कहने में सफल होती है लेकिन इन सभी मोर्चों पर एक जरूरी मोर्चा है इलीट सिम्बलिज्म का। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि उन तमाम जानवरों को जिनको शौनक सेन अपने कैमरे से पकड़ने की कोशिश करते हैं उन जानवरों में अधिकांश जानवर कोई अंग्रेजी ब्रीड का लेब्राडोर कुत्ते सरीखे जानवर नहीं हैं जो नव पूंजीवाद के समय मे उस कॉरपोरेट क्लॉस के लोगों के घर में पाये जाते हैं जिसके लिये शायद पर्यावरण को बचाने का प्रयास इतना भर है कि बंबू अर्थात् बाँस से बने टूथब्रश को किसी मॉल मे जाकर खरीद लिया जाये। बल्कि ऑल दैट ब्रीद्स मे दिखाये गये अधिकांश जानवर सूअर, गधा, कीड़े या फिर चील टाइप हैं जो महज किसी अमीर वर्ग का स्टेटस सिम्बल ना हो कर के भारत जैसे विकासशील देश में जमीन पर रहने वाले तमाम दलित, बहुजन समुदाय के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। और इस दलित, बहुजन समुदाय की पर्यावरणीय नैतिकता बंबू से बने टूथब्रश को खरीदने तक सीमित ना हो कर के उन मांसाहारी चीलों को खाना खिलाने तक जाती है जो चीले उस समाज के एक मनुष्य समान नागरिक है जो समाज शाकाहारी होने की नैतिकता की आड़ मे एक हट्टे-कट्टे आदमी की लिंचिंग करने से भी नहीं चूकता।

आगामी १२ मार्च की ऑस्कर अवॉर्ड सेरेमनी मे इस बात का फैसला होगा कि पर्यावरण, राजनीति और मानवीय नैतिकता पर एक साथ टिप्पणी करने वाली ऑल दैट् ब्रीद्स कोई पुरस्कार जीत पाती है कि नही। और इसी बीच उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगो के तीन साल भी पूरे हो चुके हैं। उम्मीद है ऑल दैट ब्रीद्स देखते हुए हम सब अपनी आत्मा को इतना जरूर तरोताजा करेंगे कि हम दिल्ली की हवा में कुछ अतिरिक्त ऑक्सीजन से आगे आदमी के आदमी और आदमी के जानवरों से जो भी संबंध हैं, उनमें कुछ गैलन और ऑक्सीजन फूँक पाएं। 

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, से समाजशास्त्र विषय में एमए हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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