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चमोली के मंडल में कीटभक्षी पौधों का अद्भुत संसार

चटक रंगों और खुशबू से ये कीटों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इनकी संरचना ऐसी होती है कि करीब आने वाले कीट इनसे चिपक जाते हैं और ये उन्हें अपना निवाला बना लेते हैं। इन पौधों के मुंह के पास बालों जैसी बारीक संरचना होती है, जैसे ही कोई उड़ता कीट इन बालों जैसी संरचना को छूता है, एक फ्लैप खुलता है और पौधा उसे निगल लेता है।
चमोली के मंडल में कीटभक्षी पौधों का अद्भुत संसार

चमोली में रुद्रनाथ ट्रैक के करीब 22 किलोमीटर पैदल सफ़र के दौरान गीली ज़मीन पर बिछी काई के बीच यूट्रिकुलेरिया के पौधे मिले। ये कीड़े-मकोड़ों को खाने वाले मांसाहारी पौधे थे। जिनके बारे में हमारी जानकारी बेहद सीमित है। वैज्ञानिकों ने भी इन पर बहुत काम नहीं किया। उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र के शोधार्थी मनोज सिंह ने यूटिकुलेरिया समेत राज्य में पाए जाने वाले तीन कीटभक्षी पौधों की प्रजातियों की खोज और पहचान की है। चमोली के मंडल में कीटभक्षी पौधों का संरक्षण केंद्र बनाया गया है। जहां आप अचंभित करने वाले इन कीटभक्षी पौधों को देख सकते हैं।

कीटभक्षी पौधों का परिवार

तीन परिवारों (Droseraceae, Nepenthaceae और Lentibulariaceae) की 40 प्रजातियां देश में कीटभक्षी पौधों के रूप में दर्ज हैं। इनमें से सिर्फ तीन प्रजातियां उत्तराखंड में पायी जाती हैं। ड्रोसेरा पेल्टाटा (Drosera peltata), यूट्रिकुलेरिया समूह (Utricularia) और पिंजिकुला अल्पाइना (Pinguicula alpina)। यूट्रिकुलेरिया समूह की कुल 240 प्रजातियों की पहचान की गई है। इनमें से 17 उत्तराखंड में पायी जाती हैं। ड्रोसेरा पेल्टाटा और पिंजिकुला अल्पाइना की एक-एक प्रजातियां राज्य में मौजूद हैं। ड्रोसेरा पेल्टाटा को स्थानीय भाषा में मुखजली भी कहा जाता है। यूट्रिकुलेरिया स्ट्रिएटुला को पापनी नाम दिया गया है। लेकिन सभी पौधों को स्थानीय पहचान और नाम नहीं मिले। पिंजिकुला अल्पाइना, उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के विलुप्त होने की कगार पर आ पहुंचे 16 प्रजातियों में से एक है। यूट्रिकुलेरिया समूह के कुछ पौधे भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहे हैं।

ड्रोसेरा पेल्टाटा.png

कीड़े क्यों खाते हैं ये पौधे

अमूमन पेड़-पौधे अपनी खुराक मिट्टी से लेते हैं। जड़ें मिट्टी के पोषक तत्वों को खींचती हैं तो पत्तियां फोटोसिंथेसिस यानी प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से भोजन बनाती हैं। लेकिन मांसाहारी पौधों की जड़ों का काम उन्हें मिट्टी में जमाए रखना है और इनकी पत्तियां भोजन बनाना नहीं जानती। तो खुद को जिंदा रखने की खातिर जरूरी पोषक तत्वों के लिए ये पौधे कीड़े-मकोड़ों का शिकार करते हैं। उनसे उनका नाइट्रोजन चुरा लेते हैं बाकि सब उनके लिए कचरा है।

कैसे करते हैं ये पौधे अपना शिकार

शोधार्थी मनोज बताते हैं कि कीटभक्षी पौधे उन्हीं जगहों पर पाए जाते हैं जहां की मिट्टी में नमी होती है और जरूरी पोषक तत्व पूरे नहीं होते। चटक रंगों और खुशबू से ये कीटों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इनकी संरचना ऐसी होती है कि करीब आने वाले कीट इनसे चिपक जाते हैं और ये उन्हें अपना निवाला बना लेते हैं। इन पौधों के मुंह के पास बालों जैसी बारीक संरचना होती है, जैसे ही कोई उड़ता कीट इन बालों जैसी संरचना को छूता है, एक फ्लैप खुलता है और पौधा उसे निगल लेता है। कुछ पौधों के डंठल पर चिपचिपा गोंद जैसा पदार्थ होता है, जिससे कीट उनमें चिपक जाता है और हिल-डुल नहीं पाता। भोजन पचाने के लिए कुछ पौधों के पास एनज़ाइम्स होते हैं तो कुछ के अपने बैक्टीरिया। कीटों और उनके लार्वा को खाकर ये अपने आसपास इनकी संख्या भी नियंत्रित करते हैं और जैव विविधता में अपना योगदान देते हैं।

चमोली में हैं कीटभक्षी पौधों का समृद्ध संसार

मनोज बताते हैं कि स्थानीय लोग भी इन पौधों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं रखते। ड्रोसेरा पेल्टाटा का इस्तेमाल मुंह के छाले ठीक करने के लिए होता है। स्वर्णभस्मा चूर्ण बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है। ये मैदानी और पर्वतीय दोनों क्षेत्रों में पाया जाता है। उत्तराखंड में ये चमोली के मंडल, देवलधर, नारायणबगड़, गैरसैंण के साथ अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ के थल केदार के पास पाया गया।

यूट्रिकुलेरिया समूह के ब्रैशियाटा पौधे उच्च हिमालयी क्षेत्र रुद्रनाथ के घास के मैदानों और तुंगनाथ के आसपास मिले। 2-5 सेंटीमीटर लंबे ट्यूब जैसी संरचना वाले पौधे के एक-दो छोटे सफेद फूल और रोएंदार पीला गला होता है। ये उत्तराखंड की दुर्लभ स्थानीय प्रजाति है। इसी समूह का स्ट्रिएटुला अफ्रीका, श्रीलंका, बारत, नेपाल, भूटान, चीन समेत कई देशों में मौजूद है और उत्तराखंड के मंडल और गोपेश्वर में पाया गया।

यूट्रिकुलेरिया स्केंडन्स भी समुद्रतल से 2300 मीटर तक की ऊंचाई पर मंडल घाटी में पाया गया। इसका संसार भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान तक फैला है। इसके पीले फूल और रोएंदार गला कीटों को गटकने का काम करता है। यूट्रिकुलेरिया कुमाऊंनिसिस बेहद छोटे कद और 2250 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पाया जाता है।

यूट्रिकुलेरिया पौधे बहते पानी के नज़दीक होते हैं। पानी में बह कर आए कीट-लार्वा या बेहद सूक्ष्म कीटों को इसका ट्रैप सिस्टम पकड़ लेता है, फिर अंदर गटक लेता है। इनके फूल बारिश के दो महीनों के दौरान ही निकलते हैं।

6-7 वर्ष में एक बार खिलता है पिंजिकुला अल्पाइना का फूल

वहीं पिंजिकुला अल्पाइना समुद्र तल से 3000-5000 मीटर तक की ऊंचाई पर पाया जाता है। सिक्किम और जम्मू-कश्मीर में भी पाए जाने वाले इस पौधे में 6-7 वर्ष के अंतराल पर फूल आते हैं। इतनी देरी से फूल खिलने का मतलब कि बीज बनने की प्रक्रिया भी इतनी ही लंबी होती है। मनोज सिंह कहते हैं ये पौधे ज्यादातर बर्फीले क्षेत्रों में पाए जाते हैं जहां भूस्खलन जैसी प्राकृतिक मुश्किलें बनी रहती हैं। यदि एक बार भी भूस्खलन या अन्य किसी वजह से पौधा खत्म हो गया तो वहां से पूरी तरह मिट जाता है। इसीलिए ये विलुप्त होने की कगार पर आ पहुंचा है। हरे रंग की इसकी चौड़ी पत्तियों पर कीड़े चिपके हुए दिखाई देते हैं। ये पौधे भी औषधीय गुणों वाले होते हैं।

उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र के मुख्य वन संरक्षक संजीव चतुर्वेदी बताते हैं कि कीटभक्षी पौधों पर उत्तराखंड में बेहद कम काम हुआ है। पिछले वर्ष इन पौधों के संरक्षण के लिए प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। चमोली के मंडल केंद्र में कीटभक्षी पौधों की प्रजातियों को संरक्षित किया गया है। वह बताते हैं रिसर्च एडवाइजरी बॉडी ने इस प्रोजेक्ट के लिए पांच वर्ष का समय दिया था। लेकिन शोधार्थी और कर्मचारियों ने एक वर्ष के भीतर ही राज्य में मौजूद सभी प्रजातियां संरक्षित की हैं। संजीव कहते हैं कि देश के दूसरे हिस्सों में भी हम इन पौधों को देखना चाहते हैं। ताकि इन पौधों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सके। इन पर वैज्ञानिक अध्ययन किया जा सके।

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