जलवायु परिवर्तन, विलुप्त होती प्रजातियों के दोहरे संकट को साथ हल करने की ज़रूरत: संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिक
द ब्रेंबल के मेलोमी (मेलोमी रुबिकोला) जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष परिणामस्वरूप विलुप्त होने वाला पहला स्तनपायी जीव है। द ग्रेट बैरियर रीफ में ब्रेंबल के द्वीप के लिए स्थानिक, इसका प्राकृतिक निवास स्थान, समुद्र के बढते जलस्तर के कारण नष्ट हो गया है। (चित्र साभार: हेनरी गोंज़ालेज़/फ्लिकर)
प्राकृतिक विश्व दो व्यापक संकटों के बीच से गुजर रहा है जो वर्तमान में इसके अस्तित्व के लिए खतरा बने हुए हैं, वह है: जलवायु परिवर्तन एवं जैव विविधता का नुकसान। ये संकट आपस में गुंथे हुए हैं। जलवायु परिवर्तन वर्तमान में संकटग्रस्त प्रजातियों की आईयूसीएन रेड लिस्ट (दुनिया की लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची) में सूचीबद्ध 19% प्रजातियों को सीधे तौर पर प्रभावित कर रहा है।
वर्तमान में हम छठी विलुप्तता के अनुभव से गुजर रहे हैं, जो धरती के इतिहास में छठी प्रमुख विलुप्तता की घटना है और मानव गतिविधियों की वजह से होने वाली एकमात्र घटना है। छठी विलुप्तता न सिर्फ खुदबखुद तेजी से बढ़ा रही है – बल्कि यह जलवायु परिवर्तन को भी अग्रगति प्रदान कर रहा है, और इसके चलते विनाशकारी फीडबैक लूप को उत्पन्न कर रहा है। अब वैज्ञानिक इस बात को समझने लगे हैं कि एक अन्य प्रकार का विनाशकारी फीडबैक लूप घटित हो रहा है: जलवायु को संरक्षित करने की हमारी खुद की कोशिशों से वास्तव में जैव-विविधता को नुकसान पहुंच सकता है।
10 जून को संयुक्त राष्ट्र की दो अलग-अलग निकायों- इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) और इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पालिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडाइवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज (आईपीबीईएस) ने एक संयुक्त रिपोर्ट जारी की, जिसमें उन्हें उम्मीद है कि समाज जिस प्रकार से इन संकटों से जूझ रहा है उसमें बदलाव संभव है। यह रिपोर्ट चार दिवसीय वर्चुअल बैठक का नतीजा थी जिसे आईपीबीईएस एवं आईपीसीसी द्वारा जुटाए गए वैज्ञानिक संचालन समिति द्वारा संचालित किया गया था, और इसमें विश्व के 50 लब्धप्रतिष्ठ जलवायु एवं जैव विविधता विशेषज्ञों ने भाग लिया था। इन विशेषज्ञों ने इस बाद की पड़ताल की कि किस प्रकार से जलवायु एवं जैव विविधता की नीतियां और रणनीति एक दूसरे से संबंधित हैं, कई बार एक दूसरे के विपरीत काम करती हैं और कैसे इनमें आपस में सामंजस्य स्थापित कर इनसे अधिकतम सकारात्मक प्रभावों को हासिल किया जा सकता है।
इस रिपोर्ट के लेखकों ने एक “नए संरक्षण प्रतिमान [जो] रहने योग्य जलवायु, आत्मनिर्भर जैव विविधता, और सभी के लिए बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन के उद्देश्यों को संबोधित कर सके। नई सोच में नवाचार के साथ-साथ मौजूदा दृष्टिकोणों का अनुकूलन एवं उन्नयन दोनों को शामिल किया जायेगा।”
वैज्ञानिक समुदाय के भीतर जलवायु एवं जैव विविधता को लेकर अक्सर अलग-अलग विचार-विमर्श होता रहता है, जिससे सूचनाओं का अलग-अलग सांचे निर्मित हो जाते हैं जो अंततः इन अंतर्संबंधित दुविधाओं को हल करने में मददगार साबित नहीं होते हैं। (उदाहरण के लिए यह मामला: संयुक्त राष्ट्र की संयुक्त रिपोर्ट दो अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति निकायों के लिए बनाई गई सर्व प्रथम संयुक्त उपक्रम का प्रतिनिधित्व करती है।) इस रिपोर्ट में पाया गया कि इन नीतियों ने आमतौर पर दो मुद्दों को एक दूसरे से स्वतंत्र तौर पर संबोधित किया है, जिसके चलते कई अवसरों पर चूक का सामना करना पड़ा, जिसे वैश्विक विकास लक्ष्यों को हासिल करते हुए दोनों मोर्चों पर अधिकाधिक प्रयासों को किया जा सकता था।
वैज्ञानिक संचालन समिति के सह-अध्यक्ष प्रोफेसर हांस-ओटो पोर्टनेर का इस बारे में कहना था “मानव-जनित जलवायु परिवर्तन से और इसके योगदान से प्रकृति एवं लोगों के लिए खतरा उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है, जिसमें इसके जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद करने की क्षमता में ह्रास भी शामिल है। दुनिया जितनी गर्म होती जायेगी, उतना ही प्रकृति विश्व के कई क्षेत्रों में हमारे जीवन में भोजन, पेयजल और अन्य महत्वपूर्ण योगदानों को कम उपलब्ध करा पाएगी। जैव-विविधता में बदलावों के कारण जलवायु पर प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से नाइट्रोजन, कार्बन और जल चक्रों पर प्रभाव के माध्यम से यह परिवर्तन प्रकट होता है।”
एक तरीका यह है जिससे समाज, जलवायु सहित इस गृह की जैव-विविधता दोनों ही की रक्षा कर सकता है, और वह यह है कि भूमि एवं समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण और पुनर्स्थापित करना, जो कार्बन और प्रजातियों दोनों ही मामलों में समृद्ध हैं। ऐसे क्षेत्रों को मानव विकास से अछूता छोड़ देने से या इन्हें इनकी प्राकृतिक अवस्था में वापस लाने से - इनमें संगृहीत कार्बन, वातावरण से बाहर ही बना रहता है, जहां पर आकर यह ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा करेगा, और जो प्रजातियां वहां पर निवास कर रही हैं उनको स्वस्थ्य, कार्यशील प्राकृतिक वास से लाभ पहुंचेगा।
इसके अतिरिक्त, जंगलों को यदि बरकरार रखा जाता है तो उदहारण के लिए, मानव समाज को उनसे मिलने वाले पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं से लाभ मिलता रहेगा, जैसे कि बाढ़ को नियंत्रण में रखने, समुद्री तटों की रक्षा करने में, जल स्रोतों की गुणवत्ता को बढ़ाने में, मिट्टी के कटाव को रोकने और पौधों के परागण में मदद प्राप्त होगी। रिपोर्ट में पाया गया कि वनों की कटाई और वनों के क्षरण को कम करने से वार्षिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में हर साल 5.8 मीट्रिक गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने को संभव बनाया जा सकता है।
रिपोर्ट के अनुसार, स्थायी कृषि एवं वानिकी प्रथाओं में वृद्धि के जरिये – ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने, कार्बन पृथक्करण को बढ़ाने और जैव विविधता में अभिवृद्धि को संभव बनाया जा सकता है – इस तरीके से भी इन दोनों मुद्दों से निपटा जा सकता है। खेतों का जिस प्रकार से प्रबंधन किया जा रहा है, उसमें सुधार लाकर, विशेष कर मिट्टी की गुणवत्ता के संरक्षण एवं उर्वरकों के इस्तेमाल में कमी लाकर हम हर साल लगभग 6 मीट्रिक गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को रोक सकते हैं।
रिपोर्ट के लेखक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि प्रजातियों के संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्रों का निर्माण जहां अत्यावश्यक है, वहीं यह भी सत्य है कि ये क्षेत्र इस गृह के पैमाने पर प्रजातियों की तेजी से गिरावट को रोक पाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि वर्तमान में भूमि का मात्र 15% हिस्सा और समुद्र का 7.5% हिस्सा ही संरक्षित है। यहां तक कि उनमें से अधिकांश क्षेत्रों में कानूनों को ठीक ढंग से लागू नहीं किया जाता है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि “कुलमिलाकर संरक्षित क्षेत्र (और अक्सर व्यक्तिगत तौर पर) न सिर्फ बेहद छोटे आकार के हैं, बल्कि वे अक्सर उप-पर्याप्त रूप से विघटित और आपस में परस्पर जुड़े हुए हैं, संसाधनों के लिहाज से अपर्याप्त एवं प्रबंधित हैं और डाउनग्रेडिंग का जोखिम बना हुआ है।”
अप्रैल 2019 में, 19 प्रमुख वैज्ञानिकों के एक समूह ने “ग्लोबल डील फॉर नेचर” (जीडीएन), “पृथ्वी पर जीवन की विविधता एवं बहुतायत को बचाने के लिए समयबद्ध, विज्ञान-संचालित योजना” का प्रकाशन किया था, जिसे जब पेरिस जलवायु समझौते से जोड़ा गया तो इसका आशय “भयावह जलवायु परिवर्तनों से बचने, प्रजातियों के संरक्षण और आवश्यक पारस्थितिकी तंत्र सेवाओं को सुरक्षित करने के लिए” है। जीडीएन का मुख्य उद्देश्य “30×30” का संरक्षण करना है: धरती के 30% हिस्से को 2030 तक इसके प्राकृतिक स्वरुप में बनाये रखने के लिए। यह विचार एक अंतरराष्ट्रीय आकर्षण का केंद्र बन गया है, जिसमें 50 देश शोषण, निकासी और विकास से अक्षुण्ण पारिस्थितिक तंत्र की बड़ी पट्टी की रक्षा के लिए इस आंदोलन में शामिल हो रहे हैं।
वाशिंगटन डी.सी. स्थित, एक निजी धर्मार्थ संस्था, द वीस फाउंडेशन द्वारा, “समुदायों को सशक्त [करण] ... और भूमि से जुड़ाव को मजबूत करने के लिए समर्पित” नेशनल जियोग्राफिक के साथ मिलकर प्रकृति के लिए वीस अभियान को शुरू किया है, जिसमें – “[राष्ट्रों], समुदायों, [और] देशज लोगों की मदद करने के लिए 1 अरब डॉलर का निवेश” 30×30 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए रखा है। अभियान ने एक सार्वजनिक याचिका शुरू की है, जिसमें उन पारिस्थितिकी तंत्रों की रक्षा के लिए तत्काल कार्यवाई करने का आग्रह किया गया है जो अभी तक मानवता के अविश्वसनीय विस्तार से पूरी तरह से नष्ट नहीं हुए हैं। अभियान कहता है "2030 (30×30) तक हमारे पूरे ग्रह के 30 प्रतिशत की रक्षा करना एक महत्वाकांक्षी किन्तु हासिल करने योग्य लक्ष्य है।“ इसमें आगे कहा गया है कि "इसे हासिल करने के लिए, सभी देशों को इस लक्ष्य को अपनाना चाहिए और इसमें अपना योगदान देना चाहिए, स्वदेशी अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए; और संरक्षण के प्रयासों को पूर्णरूपेण वित्त पोषित किया जाना चाहिए।"
इसी प्रकार, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में “देशज लोगों की बाहरी मान्यता” और देशज समुदायों द्वारा शुरू, डिज़ाइन और शासित किये गए समुदाय संरक्षित क्षेत्रों और इलाकों (आईसीसीए)” के साथ-साथ “प्रकृति के लिए वित्त पोषण को बढाने” के लिए वित्तीय संसाधनों के जरिये पर्याप्त वृद्धि का आह्वान किया है।
रिपोर्ट में उन चिंताओं को भी सामने रखा गया है जिनमें कुछ जलवायु परिवर्तन शमन रणनीतियां वास्तव में जैव विविधता को नुकसान पहुंचा सकती हैं। उदाहरण के लिए, जैव ईंधन के लिए मक्के को उगाने या जब्त किये गए कार्बन को दफनाने के लिए भू-संपदा के उपयोग में बदलाव करने की आवश्यकता होगी, जो वन्यजीवों के आवास क्षेत्रों को कम करने या उसके साथ समझौता किया जा सकता है। (इसके विपरीत, वैज्ञानिकों को कोई भी ऐसा प्रजाति संरक्षण उपाय नहीं मिला, जिससे जलवायु पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा हो।)
पोर्टनर ने इस बारे में कहा, “सबूत स्पष्ट है: लोगों और प्रकृति के लिए एक स्थायी वैश्विक भविष्य अभी भी हासिल करने योग्य है, लेकिन इसे हासिल करने के लिए आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है जिसमें द्रुत एवं दूरगामी क़दमों को लेने की जरूरत है जैसा आज तक प्रयास नहीं किया गया है, जिसे महत्वाकांक्षी उत्सर्जन में कमी लाने के जरिये हासिल किया जा सकता है। जलवायु एवं जैव विविधता के बीच कुछ मजबूत और स्पष्ट रूप से अपरिहार्य व्यापार-बंदी को हल करने के लिए प्रकृति से जुड़े व्यक्तिगत एवं साझा मूल्यों में गहन सामूहिक बदलाव की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए जीडीपी विकास पर ही पूर्ण रूप से आधारित आर्थिक प्रगति की अवधारणा से परे हटकर, एक बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए प्रकृति के विविध मूल्यों के साथ मानव विकास के बेहतर सामंजस्य का प्रयास, जबकि इसमें जैव-भौतिक और सामाजिक सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना होगा।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में वैश्विक परिवर्तन विज्ञान के अध्यक्ष साइमन लेविस ने संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भाग नहीं लिया था, लेकिन उन्होंने इसे “एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर” कहा। उन्होंने कहा “आख़िरकार दुनिया की विभिन्न संस्थाएं एकजुट होकर 21वीं सदी के सबसे गंभीर संकटों में से दो पर वैज्ञानिक जानकारी का संश्लेषण करने में जुटी हैं। जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की तुलना में जैव-विविधता के नुकसान को रोकना कहीं अधिक कठिन कार्य है।
रेनार्ड लोकी इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट में राइटिंग फेलो हैं, जहां वे संपादक के तौर पर कार्यरत हैं और धरती/भोजन/जीवन के लिए मुख्य संवावदाता हैं। पूर्व में उन्होंने आल्टरनेट में पर्यावरण, भोजन और पशु अधिकार पर संपादन कार्य एवं जस्टमीन्स/3बीएल मीडिया के लिए एक रिपोर्टर के तौर पर स्थिरता एवं कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी को कवर किया है।
इस लेख को इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की एक परियोजना, अर्थ/फ़ूड/लाइफ द्वारा निर्मित किया गया था।
इस लेख को अंग्रेजी में इस लिंक के जरिए पढ़ा सजा सकता है।
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