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वामपंथी आंदोलन और अम्बेडकर के सवाल 

भले ही त्रिपुरा या पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकारें गिर‌ गई हैं, लेकिन इसके बावज़ूद भारत में फासीवादियों को कम्युनिज्म का भूत सबसे अधिक सताता रहता है। 
ambedkar

“आप किसी भी दिशा में मुड़ें, जाति का राक्षस आपको रास्ता मिलेगा। जब तक आप इस दानव को ख़त्म नहीं करते, तब तक आप न राजनीतिक सुधार कर सकते हैं और न ही आर्थिक सुधार को अंजाम दे सकते हैं।” 

- डॉ. अम्बेडकर, जाति का विनाश

“अगर लेनिन हिन्दुस्तान में जन्मे होते, तो वे जब तक जातिवाद और अस्पृश्यता को नहीं दफ़नाते, तब तक इन्क़लाब का विचार भी उनके मन में नहीं आया होता।”

-डॉ. अम्बेडकर 

दलित आंदोलन और वामपंथ के संबंधों को लेकर भारतीय वामपंथ में आज गहरे अंतर्विरोध दिखाई पड़ते हैं। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद सारी दुनिया सहित भारत में वामपंथी आंदोलन को गहरे पराजय का सामना करना पड़ा था तथा पहले ही से टूट-फूट और बिखराव का शिकार यह आंदोलन इस दौर में अपने को संगठित न कर सका, इन सबके बावज़ूद यह विचार के रूप में एक बड़ी ताक़त बना हुआ है। भले ही त्रिपुरा या पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकारें गिर‌ गई हैं, लेकिन इसके बावज़ूद भारत में फासीवादियों को कम्युनिज्म का भूत सबसे अधिक सताता रहता है। इससे यह तो ज़रूर सिद्ध होता है कि भारत में आज भी वामपंथ एक बड़ी ताक़त है, परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि “भारत में उत्पीड़ित वर्ग तथा सर्वहारा की इतनी बड़ी उपस्थिति होने के बावज़ूद लगातार वामपंथ का आधार क्यों सिकुड़ता गया?” एक समय‌ था जब त्रिपुरा, बंगाल और केरल के अलावा उत्तर भारत में; विशेष रूप से बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टी का जबरदस्त आधार था। 

अगर आज देखें तो बिहार के कुछ इलाक़ों को छोड़कर उत्तर भारत में इनका आधार क़रीब-क़रीब समाप्त हो गया है। संसदीय राजनीति में आज़ादी के बाद 1956 में पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजमगढ़, मऊ, घोसी और गाजीपुर जैसी जगहों से कम्युनिस्ट पार्टी से अनेक सांसद और विधायक चुने जाते थे तथा इन इलाक़ों में कम्युनिस्टों ने मज़दूरों, किसानों और बुनकरों की समस्याओं को लेकर बड़े-बड़े आंदोलन चलाए। गोरखपुर तक में; जो आज फासीवाद का गढ़ बना हुआ है, वहां भी एक समय में बुनकरों के बीच ‌अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा आधार था। इन इलाक़ों में कम्युनिस्ट आंदोलन को बड़ा आघात तब लगा, जब 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई। पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में 27% का आरक्षण मिला तथा भारतीय राजनीति में मध्य जातियों का पहली बार उभार हुआ, जिसके फलस्वरूप जिन इलाक़ों में कभी कम्युनिस्ट पार्टी का आधार था, वहां सपा-बसपा जैसी पार्टियों का वर्चस्व हो गया। यह‌ प्रक्रिया क़रीब-क़रीब सारे उत्तर भारत में दोहराई गई।‌ दक्षिण भारत, बंगाल तथा त्रिपुरा में इसके साथ ही कुछ अन्य कारण भी थे। गाजीपुर के कम्युनिस्ट नेता ने इसी दौर में मुझे बातचीत में बतलाया था कि “कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े दलित और पिछड़े हमारे साथ आंदोलनों में भाग लेते हैं, जेल जाते हैं, कुर्बानियां तक देते हैं, लेकिन चुनाव में वोट कम्युनिस्ट पार्टी की जगह सपा और बसपा को देते हैं।” इसके क्या कारण हैं? 

अगर हम देखें तो तेभागा, तेलंगाना से लेकर नक्सलबाड़ी तक कम्युनिस्टों ने जितने भी आंदोलन चलाए, वे दलित पिछड़ों और जनजातियों के ही बीच थे। फ़िर क्या कारण था कि दलित-पिछड़ों का
झुकाव तेज़ी से कम्युनिस्ट पार्टियों की जगह दलित-पिछड़ों की राजनीति ने ले ली। इस संबंध में लेखक और एक्टिविस्ट सुभाष गताडे लिखते हैं, “ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ चले‌ संघर्ष का समय रहा हो या आज़ादी के बाद मेहनतकशों-शोषितों के हक़ और सम्मान का संघर्ष‌ से यह बात साफ़ है कि इनमें सबसे बड़ी तादाद में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने कुर्बानियां दीं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि एक संगठित ताक़त के रूप में इतनी बड़ी कुर्बानियों की दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है और यह भी स्पष्ट है कि इन संघर्षों और कुर्बानियों के चलते उन-उन इलाक़ों में जनसाधारण की वंचना की स्थिति में कमी आई, उसे ज़मीन या सम्पत्ति पर अधिकार प्राप्त हुए तथा इंसान होने के उसके हक़ को स्वीकारा गया। रेखांकित करने की बात यह है कि तमाम ऐसे इलाक़े; जहां कम्युनिस्ट अपना आधार क़ायम कर सकें, उनका मजबूत आधार दलित जातियों में ही रहा। 

एक तरफ़ कुर्बानियों का बेमिसाल सिलसिला तेलंगाना-तेभागा से लेकर नक्सलबाड़ी जैसे कई ऐतिहासिक मील के पत्थर, तो दूसरी तरफ़ यह विडम्बनापूर्ण स्थिति थी कि जाति जैसे श्रेणीबद्ध संरचना के-जिसे धर्म एवं समाज से भी वैधता हासिल है, प्रश्न के साथ अपनी अंतर्क्रिया में वाम की तरफ़ से हुई भूलें, बेहद यांत्रिक समझदारी से दिया गया परिचय। अपनी इस भूल को गम्भीरता से स्वीकार करने वाले उल्लेख वाम आंदोलन के दस्तावेजों में टुकड़ों-टुकड़ों में ज़रूर नज़र आते हैं, मगर उसकी समग्रता में विवेचना का मामला आज भी बना हुआ है।”
(बीसवीं सदी में डॉ० अम्बेडकर का सवाल, दखल प्रकाशन,पृष्ठ-128-129)

लंब समय तक कम्युनिस्ट यह मानते रहे कि वर्ग और जाति एक ही ‌है, जैसे-जैसे समाज में वर्ग समाप्त होंगे, वैसे-वैसे जाति भी समाप्त हो जाएगी, इसलिए वे वर्गों के आधार पर सर्वहारा को संगठित करते रहे। इस संबंध में दलित विचारक गेल ओमवेट लिखती हैं, “अस्पृश्यों के अधिकारों के लिए कम्युनिस्टों के संघर्ष में अम्बेडकर से टकराव का प्रस्ताव रखा गया तथा ‘अलगाववादी’ ‘अवसरवादी’ और ब्रिटिशपरस्त’ कहते हुए उनकी भर्त्सना की गई थी। उसने जाति अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के लिए कोई ठोस कार्यक्रम दिए बगैर ‘जाति पूर्वाग्रह’ बुर्जुआ विभाजकता माना। जाति शोषण की विशिष्टता में जाने की कोशिश नहीं की और अस्पृश्यों का आह्वान किया कि वे ‘जनतांत्रिक इंकलाब से जुड़ें (जिसकी वे ‘रिजर्व’ ताकत थे अर्थात मुख्य नहीं थे)

(दलित्स एण्ड डेमोक्रेटिक रेवोल्यूशन, पृष्ठ संख्या-183)

निश्चित रूप से यह एक बड़ी त्रासदी है कि दो आंदोलन वाम और दलित आंदोलन-जो शोषित और उत्पीड़ित अवाम की मुक्ति के लिए काम करने का दावा करते हैं, आज की तारीख में अलग-अलग दिशाओं में बढ़ते प्रतीत होते हैं, इस‌ संदर्भ में आनन्द तेलतुंबडे की बात‌ से सहमत हुए नहीं रहा जा सकता कि “दुनिया में कहीं भी सर्वहाराओं के ‌आंदोलन इतने निराशाजनक ढंग से आपस में बंटे हुए नहीं दिखते, जितने वे भारत में नज़र आते हैं।”
 
आज वामपंथी आंदोलन की तरह दलित आंदोलन भी व्यापक रूप से पराभव का‌ शिकार हैं, लेकिन दलित आंदोलन की स्थिति वामपंथ से ज़्यादा ख़राब है। आज अम्बेडकर द्वारा बनाई गई रिपब्लिकन पार्टी हो या फ़िर कांसीराम द्वारा बनाई गई बहुजन समाज पार्टी-दोनों ही‌ आज भाजपा के फासीवाद की सेवा करने के लिए तत्पर हैं।‌ केवल ‘जय भीम’ और ‘लाल सलाम’ के नारे से ही दोनों धाराओं में एकता नहीं हो सकती है। वास्तव में आज सबसे पहले कम्युनिस्टों को अम्बेडकर तथा अन्य दलित नायकों का समग्र मूल्यांकन करना पड़ेगा तथा व्यक्ति पूजा से ऊपर उठकर इस‌ बात पर भी विचार करना होगा कि अम्बेडकर का ‘जाति का विनाश’ कार्यक्रम क्यों असफल हुआ। वास्तव में अम्बेडकर की मूर्ति पूजा के धुंध से ऊपर उठकर इस बात पर विचार करना होगा कि दोनों धाराएं किस जगह पर आपस में मिलती हैं? अम्बेडकर ब्रिटिश फेबियनवादी समाजवादी थे। फेबियनवादी मूलतः एक‌ मार्क्सवादी विरोधी विचारधारा है, फिर भी वे उद्योगों के राष्ट्रीयकरण और ग़रीबों के लिए ज़मीन वितरण की बात ‌करते थे। दलितों के लिए अम्बेडकर की भूमिका अमेरिका में अश्वेतों के लिए संघर्ष करने वाले ‘मार्टिन लूथर’ ‌से कम नहीं थे, कई‌ मामले‌ में तो उनसे ज़्यादा थे। आज भारत में संघ परिवार बड़े पैमाने पर दलितों का हिंदूकरण करके अपने ब्राह्मणवादी एजेंडों को आगे बढ़ाने के लिए उनका प्रयो‌ग‌ कर रहा है, इसलिए भारत फासीवाद के‌ ख़िलाफ़ संघर्ष करना है तो इन दो धाराओं को एकजुट होना ही होगा।

लेनिन ने टाल्सटाय को रूसी क्रांति का दर्पण कहा था, टाल्सटाय की‌ अनेक‌ कमियों-विसंगतियों के बावज़ूद। इसी तरह से भारत में किसी भी व्यापक सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में मार्क्स और अम्बेडकर दोनों के विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

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