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विश्लेषणः कांग्रेस का असल संकट विचारहीनता और स्वप्नहीनता है!

अगले राष्ट्रीय अधिवेशन में होगा नये अध्यक्ष का चयन। राहुल-प्रियंका नहीं तो गहलोत, बघेल, अमरिंदर और शिवकुमार में कोई एक हो सकता है परिवार की पसंद।
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फाइल फोटो। साभार : The Quint

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक पहले से तय थी। लेकिन सोमवार की बैठक से पहले ही पार्टी के 23 वरिष्ठ और महत्वपूर्ण नेताओं की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखी एक चिट्ठी रविवार को सार्वजनिक हो गई। मीडिया में उसके प्रकाशन के बाद पार्टी में दलंबदी तेज हो गई। पार्टी के एक खेमे ने इसे विस्फोटक पत्रकहा तो दूसरे खेमे ने यह कहते हुए इसे खारिज किया कि यह कुछ कुंठित और निराश लोगों की कारगुजारी है, जिन्हें लगता है कि अब आगे उन्हें राज्यसभा में जगह नहीं मिलने वाली है। संयोगवश, चिट्ठी में जिन लोगों के हस्ताक्षर सबसे ऊपर हैं, उनमें अधिकांश राज्यसभा के सदस्य हैं या रह चुके हैं। बहरहाल, चिट्ठी पर सोमवार की कार्यसमिति बैठक में गर्मागर्म चर्चा हुई।

जहां तक मुझे याद आ रहा है, बीते दो दशक के दौरान पार्टी की यह पहली कार्यसमिति बैठक थी, जिसमें शीर्ष नेतृत्व की क्षमता और सामर्थ्य पर 23 नेताओं की चिट्ठी के हवाले गंभीर सवाल उठाया गया। लेकिन इस चिट्ठी का आलाकमान यानी नेहरू-गांधी परिवार के समर्थक-कांग्रेसिय़ों के बड़े हिस्से द्वारा पुरजोर विरोध भी हुआ। कांग्रेस शासित राज्यों के सभी मुख्यमंत्रियों-अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, अमरिन्दर सिंह और वी नारायणसामी आदि ने आलाकमान का पुरजोर समर्थन किया और सोनिया गांधी को अपने पद पर बने रहने या उनके स्वतः हटने की स्थिति में राहुल गांधी को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनाये जाने की मांग की।

अब तक जो बातें सामने आई हैं, उसके मुताबिक बैठक में तय किया गया कि पार्टी का नया अध्यक्ष चुनने के लिए जल्दी ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाया जायेगा, जिसमें देश भर से तकरीबन 8000 डेलीगेट शामिल होंगे।

सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से वैसे भी अध्यक्ष पद छोड़ने की इच्छुक हैं। पिछले दिनों उन्होंने पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं से अपनी मुलाकात में भी यह बात जोर देकर कही थी कि अब उनका पद पर बने रहना उचित नहीं है। सवाल उठता है- सोनिया के बाद कौन? सन् 2017 के अंत में सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी अचानक ही अध्यक्ष बने थे। इससे पहले वह अध्यक्ष पद को लेकर लगातार ना-नुकूर करते आ रहे थे। अपनी अध्यक्षता के दौरान उन्होंने पार्टी में कुछ युवा चेहरों और अपेक्षाकृत कुछ जमीनी नेताओं को आगे लाने की कोशिश की। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में पार्टी को कामयाबी मिली। मध्य प्रदेश में लंबे समय से भाजपा सरकार होने के बावजूद कांग्रेस को बहुत मामूली बढ़त थी। किसी तरह सरकार बनी पर वह ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। राजस्थान में भी पार्टी को मामूली बढ़त मिली थी और बसपा विधायकों को साथ लाकर अशोक गहलोत ने किसी तरह सरकार बनाई। गहलोत सरकार भी हाल के दिनों में सचिन पायलट की अगुवाई में कुछ कांग्रेसी विधायकों के भाजपा-प्रायोजित विद्रोह के चलते जाते-जाते बची है। अभी तक सिर्फ छत्तीसगढ़ और पंजाब में कांग्रेस सरकार किसी परेशानी के बगैर काम कर रही है।

कुछ राज्यों की कामय़ाबी के बाद कांग्रेसियों ने राहुल गांधी से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा लीं। अति-उत्साह में कांग्रेस को समानधर्मा क्षेत्रीय दलों से गठबंधन तक नहीं करने दिया गया और दलील दी गई कि पार्टी इन राज्यों में भाजपा का मुकाबला करने में स्वयं ही सक्षम है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल की अगुवाई में कांग्रेस बुरी तरह हारी। वह अभी तक इतने अनुभवी और राजनीतिक रूप से परिपक्व नहीं थे कि हार के असल कारणों को समझते और पार्टी को समझा पाते। हार की समीक्षा के लिए बैठक करने या नेताओं से फीड बैक लेने की बजाय उन्होंने सबसे पहले अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। आदर्श की बात करें तो कोई गलत कदम नहीं था। पर संकट से जूझती पार्टी के लिए अच्छा भी नहीं था। पूरे 77 दिनों के बाद पार्टी कार्यसमिति ने अध्यक्ष पद से उनका इस्तीफा मन मसोस कर स्वीकार किया और उनकी मां सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनीं। तब से वही अध्यक्ष हैं। इस बीच वह गंभीर रूप से बीमार भी पड़ीं। उसी दौरान कुछ राज्यों में कांग्रेस के सामने गंभीर संकट भी पैदा हुए। अगर कांग्रेस चुनावी स्तर पर कुछ बेहतर प्रदर्शन कर रही होती तो उसके अंदर आज जैसी विस्फोटक स्थिति नहीं पैदा होती कि आलाकमान यानी नेहरू-गांधी परिवार द्वारा मनोनीत नेता ही अपने नेतृत्व पर सवाल उठाना शुरू कर दें और कहें कि कांग्रेस को ज्यादा सक्षम और समर्थ दिखने वाला सक्रिय नेतृत्व चाहिए। 23 नेताओं की चिट्ठी में एक और महत्वपूर्ण मांग या सुझाव एक संस्थागत नेतृत्वकारी तंत्रका है, जो सामूहिक समझ और दिशा से पार्टी के सुदृढीकरण को सुनिश्चित करे। नब्बे के दशक के बाद की कांग्रेस में यह पहली घटना है, जब उसके अंदर से सामूहिक नेतृत्वकारी तंत्रके गठन की मांग उठी है।

बताया जाता है कि इन मांगों और चिट्ठी लिखकर उसे योजना के तहत  सार्वजनिक कराये जाने से नेहरू गांधी परिवार रविवार को सकते में आ गया। कुछ खबरों में यह भी कहा गया कि राहुल गांधी ने इस चिट्ठी-कांड के पीछे भाजपा या उससे मिलीभगत कर पार्टी को कमजोर करने में जुटे कुछ कांग्रेसी नेताओं का हाथ बताया। लेकिन कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद जैसे वरिष्ठ और लंबे समय तक परिवारके बेहद वफादार रहे नेताओं की नाराजगी भरी टिप्पणियों के बाद स्वयं राहुल ने सफाई दी और कहा कि उन्होंने बैठक में ऐसा बिल्कुल नहीं कहा।

कार्यसमिति की बैठक ने दिशा तय कर दी है कि पार्टी के जल्दी ही होने वाले अधिवेशन में नया अध्यक्ष चुना जायेगा। ऐसे में बड़ा सवाल उठता है-कौन होगा कांग्रेस का नया अध्यक्ष? वह नेहरू-गांधी परिवार का होगा या परिवार से बाहर का? ‘परिवारसे चुना जाना है तो वह राहुल या प्रियंका में कोई भी हो सकता है। अगर बाहर से चुना जाना है तो वह कौनकोई पसंद करे या नहीं करे, आज की कांग्रेस परिवारकी  पार्टी है। यह वो कांग्रेस नहीं है, जिसने आजादी की लड़ाई की अगुवाई की थी य़ा आजादी के लिए लड़ने वाले तमाम दलों, समूहों या धाराओं के लिए एक तरह की विराट छत्रछाया जैसी थी। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ही इसका परिवारीकरणहो चुका था पर उसमें विरासत की वैचारिकी के कुछ अंश कायम थे। राजीव गांधी के दौर में वह वैचारिकी भी गायब हो गई। राहुल गांधी की सबसे बड़ी परेशानी और चुनौती यही है कि वह कांग्रेस को कुछ वैचारिकी से लैस तो करना चाहते हैं पर उसके लोकतांत्रीकरण का उनके पास कोई ब्लू-प्रिंट नहीं है। वह सेक्युलर मूल्यों के प्रति अपनी वचनबद्धता दुहराते हैं पर उग्र बहुसंख्यकवाद के बवंडर से टकराना भी नहीं चाहते। कश्मीर और अयोध्या जैसे बड़े मुद्दों पर उनकी पार्टी का रूख इसके ठोस प्रमाण हैं। सीएए-एनआरसी जैसे मुद्दे पर पार्टी की निष्क्रियता भी आलोचना का विषय बनी। उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता ऐसे मुद्दों पर अपनी सुविधा और इच्छा के मुताबिक बयान देने के लिए आजाद दिखते हैं। अर्थनीति के स्तर पर भी कांग्रेस ने भाजपा के अंध-कारपोरेटवाद और सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण-विनिवेशीकरण से टकराने के मानस या माद्दे का कभी संकेत नहीं दिया। यूपीए-2के दौरान कांग्रेस-नीत सरकार स्वयं य़ही काम कर रही थी। राहुल गांधी पार्टी में तब भी प्रभावी थे। पर कोई हस्तक्षेप नहीं किया।

कांग्रेस के उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक अगर राहुल गांधी या प्रियंका गांधी पार्टी की अध्यक्षता के लिए तैयार नहीं होते तो संभव है कि अगले अधिवेशन में परिवार द्वारा समर्थित किसी वफादार नेता को नया अध्यक्ष बनाया जाय। इसके लिए अशोक गहलोत, पी शिवकुमार, भूपेश बघेल या अमरिंदर सिंह में कोई भी एक हो सकता है। लेकिन चिट्ठी लिखने वाले 23 नेताओं में किसी को भी पार्टी के नये अध्यक्ष के रूप मं  मंजूरी नहीं मिलने वाली है। माना जा रहा है कि इस चिट्ठी के पीछे पार्टी के कुछ ऐसे बड़े नेताओं का हाथ है, जो सोनिया गांधी के दौर में पार्टी-संगठन में बेहद प्रभावी रहे पर राहुल जिन्हें ज्यादा तरजीह नहीं देते। पर इससे क्या कांग्रेस की समस्या और संकट का समधान हो जायेगा

कांग्रेस का बुनियादी संकट विचार और व्यवहार का है। बीते कई दशकों से सोनिया गांधी, राहुल गांधी या आज प्रियंका गांधी, ‘परिवारके ये सभी नेता अपने कुछ कथित वफादार-सलाहकारों के सहयोग से पार्टी चलाते आ रहे हैं। कांग्रेस में कार्यसमिति के किसी सदस्य से ज्य़ादा महत्व इन सलाहकारोंका होता है। कई बार तो मुख्यमंत्रियों और कैबिनेट मंत्रियों से भी ज्यादा होता है। यूपीए-1 या यूपीए-2 के दौरान वित्त मंत्री हों या गृह मंत्री, इन सबके ऊपर होते थे अहमद पटेल। प्रधानमंत्री तक को सीधे सोनिया गांधी या श्री पटेल के यहां से किसी भी महत्वपूर्ण फैसले के लिए जरूरी संदेश या सुझाव मिलते थे। इसलिए पूरी पार्टी एक या दो व्यक्तियों के इर्दगिर्द केंद्रित रहती थी। पर कांग्रेस के सामने आज एक ऐसी सत्ता है, जिसके पीछे भाजपा का ताकतवर संगठन और आरएसएस जैसा उसका वास्तविक नीति-निर्देशक सांगठनिक तंत्र है। कोई पसंद करे या न करे। पर भाजपा-संघ के पास एक स्वप्नहै-भारत के संवैधानिक-लोकतंत्र को पलटकर एक निरंकुश सत्ता के जरिये उसे एक हिंदुत्वा-राष्ट्रबनाने का। मौजूदा कांग्रेस के पास क्या स्वप्न है? मुझे लगता है, कांग्रेस का असल संकट सिर्फ व्यक्ति या परिवार का नहीं है, उसका असल संकट उसकी विचारहीनता है। उसकी स्वप्नहीनता है! उसकी नेतृत्वविहीनता के संकट की असल वजह भी यही है। इससे वह कैसे निपटेगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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