कोविड-19 का एक और साल, भारतीय श्रमिक वर्ग की तबाही

अप्रैल-मई 2020 में करीब 10 करोड़ लोगों की नौकरियां गईं थीं। अधिकतर श्रमिक जून 2020 तक काम पर वापस आ गए थे। फिर भी 2020 के अंत तक 1.5 करोड़ श्रमिक बिना काम के रहे।
भारत में एक श्रमिक की औसत आय (खासकर अनौपचारिक श्रमिक की बात करें तो) जनवरी 2020 में 5,989रु से गिरकर अक्टूबर 2020 तक 4,979रु हो गई थी।
ये बातें अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी के सेंटर फाॅर सस्टेनेब्ल एम्प्लॅयमेंट (Centre For Sustainable Employment, CSE) द्वारा प्रकाशित स्टेट ऑफ इंडिया रिपोर्ट (State of India Report) 2021, ‘वन यिअर ऑफ कोविड-19’ (One Year of Covid-19) में सामने आई हैं। रिपोर्ट में मार्च 2020 से लेकर दिसम्बर 2020 तक के आंकड़ों को आधार बनाया गया है। इस रिपार्ट में रोज़गार और आय पर महामारी के प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट दूसरी लहर से पहले की है।
इस रिपोर्ट में कुछ और चौंकाने वाले तथ्य भी सामने आए हैं।
मसलन जीडीप में श्रमिक वर्ग का हिस्सा 2019-2020 के दूसरे चौमासे में 32.5 प्रतिशत से घटकर 2021 के दूसरे चौमासे में 27 प्रतिशत तक पहुंच गया।
इसके मायने हैं कि अर्थव्यवस्था में औसत मांग भी इसी अनुपात में संकुचित हुई होगी।एक और चौंकाने वाला तथ्य जो सामने आाया वह है कि नौकरियों के जाने की वजह से श्रमिकों की कुल आय का जो नुकसान हुआ है, वह केवल 10 प्रतिशत है, बाकी 90 प्रतिशत वेतन कटौती की वजह से हुआ है।
यह भी देखा गया कि जबकि पुरुषों में केवल 7 प्रतिशत श्रमिक काम पर वापस नहीं लौटे थे, महिलाओं में लगभग आधी संख्या, यानि 47 प्रतिशत महिला श्रमिक काम पर नहीं लौंटी।
पुरुष अनौपचारिक श्रम की ओर बढ़े और महिलाएं श्रमश्क्ति से ही बाहर हो गईं। जवान श्रमिकों को अधिक नुकसान झेलना पड़ा क्योंकि 15-24 आयु श्रेणी में 33 प्रतिशत श्रमिकों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ा जबकि 25-44 आयु श्रेणी वालों में केवल 6 प्रतिशत श्रमिकों का रोज़गार छिना।
लाॅकडाउन के बाद क्या हुआ? पूर्व वैतनिक श्रमिकों का तकरीबन आधा हिस्सा अनौपचारिक श्रम में चला गया, जिसका 30 प्रतिशत हिस्सा स्व-रोज़गार की तरफ गया, जैसे छोटी दुकान खोलने पर मजबूर हो गया; 10 प्रतिशत कैसुअल वर्कर बन गए; और 9 प्रतिशत ऐसे वैतनिक अनौपचारिक श्रमिक बने जिनकी नौकरी में बने रहने की कोई गारण्टी नहीं थी।अधिकतर नौकरियां शिक्षा, स्वास्थ्य, पेशेवर सेवा क्षेत्र में गईं। ये श्रमिक कृषि क्षेत्र की ओर चले गए।
आय में कमी
श्रमिकों की मासिक आय पहले औसत 17 प्रतिशत गिरी-कैसुअल वर्करों की आय 13 प्रतिशत गिरी और स्व-रोजगार करने वालों की 18 प्रतिशत तक गिरी; अस्थायी वैतनिक श्रमिकों की आय 17 प्रतिशत कम हुई और स्थाई वैतनिक श्रमिकों का वेतन 5 प्रतिशत घट गया।
गरीबी बढ़ी
महामारी के कारण 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे पहुंच गए, और इनकी आय 375रु प्रतिदिन से भी कम हो गई थी।
अधिक साहसिक राहत उपायों का प्रस्ताव
जबकि रिपोर्ट ने इशारा किया है कि आत्मनिर्भर भारत और गरीब कल्याण योजना जैसे सरकारी राहत उपायों से केवल 1.5-1.7 प्रतिशत जीडीपी का निर्माण होता है, उसने प्रस्ताव भी रखा है कि कुछ अधिक बोल्ड राहत उपायों को लाने की जरूरत है:
* जून के आगे भी, यानि 2021 के अंत तक पीडीएस (PDS) के तहत मुफ्त राशन की व्यवस्था की जाए
* डिजिटल माध्यम से अधिक-से-अधिक हाशिये पर जीने वालों को 5000रु का कैश ट्रान्सफर हो, जिसमें जन धन खाताधारी भी शामिल हों।
* मनरेगा (MNREGA) की पात्रता को 150 दिनों तक बढ़ा दिया जाए और कार्यक्रम के तहत वेतन को बढ़ाकर राज्य के न्यूनतम वेतन के बराबर कर दिया जाए। कार्यक्रम के बजट को कम-से-कम 1.75 लाख करोड़ तक बढ़ाया जाए।
* सबसे अधिक प्रभावित जिलों में ‘अर्बन एम्लाॅयमेंट’(urban employment) का पायलट प्राॅजेक्ट शुरू करना होगा, खासकर महिला श्रमिकों को केंद्र करते हुए।
* वृद्धा पेंशन में केंद्र के हिस्से को बढ़ाकर कम-से-कम 1500रु किया जाए।
* ऐसे सभी मनरेगा कर्मियों को, जो निर्माण कार्य करते हैं, बिल्डिंग ऐण्ड अदर कन्सट्रक्शन वर्कर्स ऐक्ट के तहत स्वतः पंजीकृत किया जाए ताकि उन्हें सामाजिक सुरक्षा लाभ मिल सके।
* 25 लाख आंगनवाड़ी और आशा कर्मियों को 6 महीने तक 5,000रु प्रति माह, यानि 30,000रु का कोविड विपदा भत्ता दिया जाए।
इन सारे उपायों को साथ लिया जाए तो 5.5 लाख करोड़ का अतिरिक्त व्यय होगा, जिससे कोविड राहत हेतु कुल वित्तीय परिव्यय, या फिस्कल आउटले 2 वर्षों में जीडीपी का तकरीबन 4.5 प्रतिशत हो जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार इन आगे बढ़े हुए कदमों के माध्यम से श्रमिकों का आने वाले कोविड सेकेंड वेव से निपटने में मदद मिलेगी। हम आज देख रहे हैं कि दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक तबाही मचा रही है।
महामारी और उसके चलते होने वाले लाॅकडाउन सहित आर्थिक मंदी श्रमिकों के ऊपर दोहरी मार है।
यद्यपि तकनीकी तौर पर अर्थव्यवस्था मंदी से बाहर आ गई है, रिकवरी में कितनी कमी रह जाती है, यह आगे आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा।
कइयों को काम पर वापस नहीं लिया गया है या कम वेतन पर रखा गया है। देश के विभिन्न हिस्सों में लाॅकडाउन पुनः लागू हुआ है, पर श्रमिकों को पिछले लाॅकडाउन जितनी राहत भी नहीं मिली है।
अशोका विश्वविद्यालय की रिपोर्ट
संयोग से, अशोका विश्वविद्यालय के सेंटर फाॅर इकनाॅमिक डाटा एण्ड एनेलिसिस, (CEDA) और सेंटर फाॅर माॅनिटरिंग द इंडियन इकनाॅमी, (CMIE) की एक रिपोर्ट आई है, जो रोजगार पर महामारी के प्रभाव के बारे में है।
यह अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट जितनी विस्तृत तो नहीं है, पर उसके हाल की बुलेटिन में छपी एक संक्षिप्त रिपोर्ट है।
इसके द्वारा लाए गए तथ्य भी होश उड़ाने वाले हैंः
-भारतीय मैनुफैक्चरिंग में रोज़गार चार सालों में, यानि 2016 से 2020 में 5 करोड़ 10 लाख से घटकर 2 करोड़ 7 लाख हुआ। इसके मायने हैं 46 प्रतिशत रोजगार कम हुए हैं।
-इस 46 प्रतिशत में 32 प्रतिशत कमी पीक महामारी वर्ष 2019-2020 में नहीं, बल्कि केवल 2020-2021 वर्ष के दौरान आई।
एक और महत्वपूर्ण बात, जो सामने आई, वह है कि कृषि में काम करने वालों की संख्या 4 प्रतिशत बढ़ गई है।
इसका मतलब है कि बहुत सारे श्रमिक जो शहरों में रोजगार से हाथ धो बैठे थे, जीवित रहने के लिए कम वेतन वाले कृषि कार्य में लग गए।
एक और परेशानी की बात है कि वित्तीय क्षेत्र को छोड़कर पूरे सर्विस सेक्टर में रोजगार घट गया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र ही एक ऐसा क्षेत्र था जिसमें तेज़ी से विकास हो रहा था, यानि वह जीडीपी का 52 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार था। इसमें पिछले दो दशकों में सबसे अधिक रोजगार बढ़ रहे थे, इसलिए यहां काम घटने के परिणाम रोज़गार के क्षेत्र और मैक्रो-इकनाॅमिक फ्रंट दोनो स्तर पर दीर्घकालीन प्रभाव के होंगे।
यदि हम क्षेत्र के हिसाब से देखें तो पिछले 5 सालों में कपड़ा उद्योग में रोजगार 25 प्रतिशत घट गया-यानि 6.9 करोड़ से घटकर 5.37 करोड़ पर आ गया। कृषि के बाद दूसरा सबसे अधिक रोज़गार देने वाला क्षेत्र था निर्माण क्षेत्र। यह उन श्रमिकों के लिए सहारे का काम करता था जो कृषि और मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में संकट में होते थे या विस्थापित होते थे। अब तो ‘शाॅक ऐबज़ाॅरबर’(shock absorber) स्वयं शाॅक में चला गया है!
खनन के क्षेत्र में 5 सालों के भीतर रोज़गार 38 प्रतिशत घटा है, यानि 14 लाख से 8.8 लाख हो गया है। ओडिशा, झारखण्ड और राजस्थान पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ा होगा।
इस रिपोर्ट का सबसे मजबूत पहलू है कि इसे सीएमआई के साथ मिलकर तैयार किया गया है, जोकि देश में रोजगार की स्थिति को दर्शाने के लिए मौलिक व नियमित सर्वे कराता रही है।
एनएसएसओ (NSSO) डाटा की तुलना में इनके सालाना सर्वे रिपोर्ट आज देश में रोजगार संबंधित डाटा के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं, क्योंकि एनएसएसओ डाटा काफी समय-अंतराल के बाद आता है।
सीएमआईई डाटा के अनुसार शहरी बेरोज़गारी अप्रैल के अंतिम सप्ताह में 9.55 प्रतिशत से बढ़कर 11.72 प्रतिशत तक पहुंच गयी थी। और पश्चिम और दक्षिण भारत पर ही बेरोजगारी की गाज सबसे अधिक गिरी है। सीएमआईई के महेश व्यास के अनुसार कपड़ा उद्योग में रोजगार 2016-17 में 1 करोड़ 26 लाख से घटकर 2020-21 में केवल 55 लाख रह गया है। इसी समयांतराल में निर्माण सामग्रि बनाने वाली कंपनियों में रोजगार 1 करोड़ 14 लाख से घटकर केवल 48 लाख रह गया है, क्योंकि निर्माण कार्य में काफी कमी आई है।
नीति विकल्पों की अभिव्यक्ति
यह रिपोर्टें कोविड के एक वर्ष में श्रमिक वर्ग की तबाही संबंधित तथ्य ही नहीं एकत्र कर रहे थे। वे खासकर अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की रिपोर्ट ने एक पाॅलिसी पैकेज का सुझाव भी दिया है ताकि भारतीय श्रमिक वर्ग के संकट को और कम किया जा सके। इन अर्थों में हम कह सकते हैं कि ये रिपोर्टें केवल सर्वे नहीं हैं बल्कि नीति निर्धारण के लिए सशक्त ब्लूप्रिंट भी प्रस्तुत करती हैं।
इन रिपोर्टों को हम अंतरिम प्रकृति के दस्तावेजों के रूप में देखें, क्योंकि 2021 में कोविड-19 की दूसरी लहर आ गई है और पुनः
लाॅकडाउन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। विशेषज्ञों के अनुसार अभी तीसरी लहर का आना बाकी है। फिलहाल इसका कोई अंत नज़र नहीं आ रहा है।
मोदी सरकार की लापरवाही के कारण टीकाकरण की प्रक्रिया भी बाधित हो गई है। परंतु हर हाल में श्रमिक आंदोलन कोविड की दूसरी लहर से उभरने वाली स्थिति पर उपयुक्त प्रतिवाद तैयार कर रहा है, जिसके बारे में हम अगले लेख में बात करें।
लेखक आर्थिक व श्रम मामलों के जानकार हैं
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