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अगले चुनावी साल से पहले भाजपा को सता रही हैं पिछली गलतियां

भाजपा अगले साल एक के बाद एक होने वाले चुनावों की एक श्रृंखला को लेकर परेशान और हताश दिख रही है।
अगले चुनावी साल से पहले भाजपा को सता रही हैं पिछली गलतियां

कोविड-19 महामारी से सक्षम तरीक़े से नहीं निपट पाने के बावजूद इस साल की शुरुआत में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसका शासन अपने पूरे शबाब पर दिख रहे थे। संक्रमण की दर बहुत धीमी हो गयी थी और इस धीमी दर ने प्रधान मंत्री की अगुवाई में इस पार्टी को वायरस पर "जीत" का दावा करने के लिए प्रेरित कर दिया था। भारत को वैश्विक स्तर पर किसी मिसाल की तरह पेश किया जाने लगा था। इस स्थिति ने उस समय महामारी और शासन की नाकामी से पैदा हुए प्रवासी संकट के बीच भी जनता दल (यूनाइटेड) या जद-यू और अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन में भाजपा को नवंबर 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में जीत दिलाकर मदद की थी।

हालांकि, वह एक मामूली जीत थी। भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने 243 सदस्यों वाले विधानसभा में 125 सीटें हासिल की थीं। ग़ौरतलब है कि अपने सहयोगी दल जद-यू को पीछे छोड़ते हुए उसे मिली 43 सीटों के मुक़ाबले भाजपा ने 74 सीटों पर जीत हासिल की थी,हालांकि राष्ट्रीय जनता दल (RJD) को सबसे ज़्यादा 75 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन,यह देखते हुए कि 2019 के आम चुनावों के बाद से यह भाजपा/एनडीए की पहली स्पष्ट विधानसभा जीत थी, इससे केंद्र के  सत्तारूढ़ दल में आत्मविश्वास पैदा हुआ था।

इस घिसी पिटी कहावत को बल मिलता दिख रहा है कि थोड़े समय में ही राजनीति में बहुत कुछ बदल सकता है। ऐसा हो भी रहा है। कुछ ही महीनों में भाजपा परेशान और हताश होती दिख रही है। क्योंकि उसके सामने अगले साल एक के बाद एक होने वाले चुनावों की एक श्रृंखला है। फ़रवरी-मार्च में उत्तरप्रदेश,और दिसंबर में होने वाले गुजरात चुनाव पार्टी की सूची में सबसे ऊपर है। उत्तर प्रदेश के आस-पास गोवा,मणिपुर और उत्तराखंड जैसे उन राज्यों में चुनाव होंगे,जो इस समय एनडीए के कब्ज़े में हैं; पंजाब पर इस समय कांग्रेस की हुक़ूमत है। अक्टूबर में उस हिमाचल प्रदेश में भी चुनाव होने हैं, जहां सत्ता में एनडीए काबिज है। जम्मू-कश्मीर की क़िस्मत का फ़ैसला होना अभी बाक़ी है।

इन हालात को देखते हुए जो कुछ इस समय हो रहा है,उससे भाजपा के ख़ुश होने की संभावना नहीं है। इसका व्यापक संदर्भ महामारी से है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी इसे चाहे जिस भी तरह का रंग देने की कोशिश करें और गोल-गोल बातें करने वाली उनकी टीम इन घटनाओं पर चाहे जितना भी "सकारात्मक" रंग चढ़ाने का प्रयास करें, सच्चाई तो यही है कि बड़ी संख्या में लोगों के बीच यह बात एकदम से साफ़ हो गयी है कि यह सरकार की उदासीनता और अक्षमता ही थी, जिसकी वजह से देश में महामारी की दूसरी लहर को तबाही मचाने में मदद मिली।

मोदी के पास कोई इसका जवाब नहीं था,पहले तो उन्होंने एक ऐसी चुप्पी साधे रखी,जिसे समझ पाना मुश्किल था और इसके बाद उन्होंने उसे ढकने की कोशिश की और फिर शीशे से बाहर आये। इससे बहुत कम लोग बेवकूफ़ बन पाये हैं। इसके साथ ही टीकों के उत्पादन,मूल्य निर्धारण और वितरण के सिलसिले में सरकार की तरफ़ से लगातार बदलता रुख़ और तैयारियों की कमी की वजह से टीकाकरण कार्यक्रम पूरी तरह विफल हो गया है। टीकाकरण को लेकर अभी भी भ्रम पैदा किया जा रहा है।

इसमें थोड़ी भी हैरत नहीं होनी चाहिए कि राजनीतिक रूप से भाजपा इस समय जिन चुनौतियों का सामना कर रही है,उससे वह घबरा गयी है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में अपने दम पर तीन-चौथाई से ज़्यादा का प्रचंड बहुमत पाने और 2019 के आम चुनावों में राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 62 पर जीत हासिल करने वाली,यह पार्टी गंभीर समस्याओं से घिरी हुई है। .

इस महामारी से ठीक तरह से नहीं निपट पाने को लेकर मोदी और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के बीच गंभीर टकराव की स्थिति पैदा हो गयी है। झूठ फ़ैक्ट्री से चाहे जितने भी झूठ निकल रहे हों, मगर लोगों को यह समझाना मुश्किल हो रहा है कि राज्य में हुई तबाही उतनी बड़ी नहीं है, जितनी कि दिखती है। गंगा में बहती बेशुमार लाशें संक्रमण और मौतों को कम दिखाने के प्रयासों को झूठ क़रार दे रही हैं।

महामारी के चरम के दौरान मई में उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में भाजपा के ख़राब प्रदर्शन ने पार्टी को इस हक़ीक़त से रू-ब-रू करा दिया होगा कि उसका समर्थन घट रहा है। उस चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) कहीं आगे निकल गयी है। पंचायती राज ढांचे के तीन स्तरों में सबसे ऊपरी स्तर, ज़िला स्तर पर 3,050 वार्डों / सीटों में समाजवादी पार्टी ने भाजपा की 900 के मुक़ाबले 1,000 से ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल की है।

चूंकि ये चुनाव आधिकारिक तौर पर पार्टी के प्रतीकों पर नहीं लड़े जाते हैं, इसलिए क्षेत्र पंचायत (ब्लॉक) स्तर (75,852 वार्ड/सीट) या ग्राम पंचायत स्तर (732,000 वार्ड/सीट) पर पार्टी-वार जीत की संख्या को सुनिश्चित कर पाना मुश्किल है। इसके अलावा, हर स्तर पर 1,000 से ज़्यादा ज़िला स्तर पर बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवारों के जीतने वाले वार्डों को देखते हुए  कार्यकारी निकायों के गठन में समय लगता है।

लेकिन, इसमें संदेह नहीं कि ये नतीजे भाजपा के लिए एक बहुत ही सुखद चुनावी स्थिति की ओर इशारा तो नहीं ही करते हैं। छह महीने से चल रहे किसान आंदोलन ने इसे ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और कमज़ोर कर दिया है। हक़ीक़त यही है कि केंद्र ने बातचीत की कम से कम कोशिश की है, और अगर कुल मिलाकर देखा जाये,तो इससे किसानों का रुख़ और सख़्त हुआ है।

इसी पृष्ठभूमि में भी आदित्यनाथ और मोदी सत्ता संघर्ष में शामिल रहे हैं। केंद्र ने मुख्यमंत्री को दोष देने की परोक्ष कोशिश की है, हालांकि इसके लिए राज्य और केंद्र,दोनों ही सरकार ज़िम्मेदार हैं। मोदी ने उत्तर प्रदेश में अपने खासमखास एके शर्मा को राज्य मंत्रिमंडल में लाने को लेकर एड़ी-चोटी की कोशिश की है। लेकिन,आदित्यनाथ ने उन तमाम कोशिशों को विफल कर दिया है। 19 जून को शर्मा को पार्टी की राज्य इकाई के उपाध्यक्ष के तौर पर चुना गया, जबकि दो अन्य लोगों को मंत्रालय में शामिल किया गया।

ज़ाहिर है, मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की कद्दावर जोड़ी को आदित्यनाथ पर लगाम लगाने के अपने तमाम प्रयासों में कामयाबी इसलिए नहीं मिली है क्योंकि उन्हें पता है कि योगी के पास एक शक्तिशाली जनाधार है और उन्हें आसानी से इधर-उधर नहीं किया जा सकता है।

इन परेशानियों के बीच भाजपा के एनडीए के एक सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के भीतर भी खींचतान शुरू हो गयी है। नेतृत्व को लेकर चल रही प्रतिस्पर्धा से इसके टूटने का ख़तरा पैदा हो गया है। पार्टी के संस्थापक रामविलास पासवान का बिहार चुनाव से ठीक पहले 8 अक्टूबर 2020 को निधन हो गया था। चिराग़ पासवान की अगुवाई में लोजपा एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही थी,लेकिन हर सीट पर चुनाव लड़कर कई निर्वाचन क्षेत्रों में इसने जद-यू की हार को सुनिश्चित कर दिया था। ज़ाहिर है,चिराग़ को भाजपा का समर्थन इसलिए हासिल था,ताकि बिहार गठबंधन में बढ़त बनाने में भाजपा को मदद मिल सके।

अब चिराग़ की जगह रामविलास के भाई पशुपति पारस लोकसभा में लोजपा के नेता चुन लिये गये हैं। हालांकि, यह तय दिखता है कि नये गुट के लिए पार्टी को संभाल पाने की कोशिश आसान नहीं होगी। ऐसा लगता है कि बिहार में पार्टी के ज़्यादातर लोग और पार्टी को भारी समर्थन देने वाले दलित पासवान जाति के ज़्यादातर लोग भी चिराग़ के ही साथ हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भंग की जा चुकी और पुनर्गठित कार्यकारिणी भी चिराग़ के समर्थन में दिखती है।

सवाल है कि इस तरह के भीतरघात से भाजपा को क्यों परेशान होना चाहिए ? इसका जवाब यह है कि आख़िरकार चिराग समेत लोजपा के सभी सांसद लोकसभा में बीजेपी का समर्थन करते हैं। बिहार विधानसभा में इस पार्टी के पास कोई सीट नहीं है। यह समस्या दरअस्ल विधायी निकायों के बाहर की है। चिराग़ में स्थिरता की कमी है और अगर उन्हें अपनी पार्टी का समर्थन हासिल है,तो उन्हें ऐसा मुश्किल विकल्प का चुनाव भी करना पड़ सकता है, जिससे बिहार में शक्तियों का पुनर्गठन हो। इससे राज्य में एनडीए की सरकार भले ही जल्द नहीं गिरे, लेकिन इससे इस अहम राज्य में एक नया मंथन ज़रूर होगा।

उत्तराखंड में भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं दिख रहा है क्योंकि यहां मुख्यमंत्री के बदलाव से जितनी समस्याओं का समाधान हुआ है, उससे कहीं ज़्यादा समस्यायें पैदा हुई हैं। बीजेपी के इस राजनीतिक गढ़ से बाहर कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा भी गंभीर असंतोष का सामना कर रहे हैं और राज्य भाजपा इकाई तीन गुटों में विभाजित होती दिख रही है। कुल मिलाकर, बीजेपी के लिए राजनीतिक आसार इस साल के दूसरे हिस्से में भी अनुकूल नहीं दिख रहे हैं।

इसके बावजूद,अनगिनत कारणों से भाजपा पश्चिम बंगाल में मिली चोट को लेकर लगातार शांत है, जिससे इसकी चोट और गहरी होती जा रही है। ऊपर से अन्य मामलों से निपटने को लेकर उसके पास सीमित गुंज़ाइश है। बीजेपी और इसके दोनों दिग्गज जोड़ी साफ़ तौर पर हड़बड़ाये हुए हैं। फिलहाल,ऐसा लगता नहीं कि मामले जल्द से  जल्द बेहतर होने वाले हैं।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

As Another Hectic Election Year Approaches, Past Follies Dog BJP

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