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बात बोलेगी: हार के कारणों के साथ जीत के भाजपा तंत्र पर भी मंथन ज़रूरी

भाजपा के ‘जीत के मंत्र’ पर बहुत बात होती है, लेकिन उसके ‘जीत के तंत्र’ पर भी बात होनी चाहिए। पांच राज्यों के चुनाव परिणाम चुनावी तंत्र, चुनावी प्रबंधन के अदृश्य तत्वों की ओर भी इशारा कर रहे हैं।
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लोकतंत्र का ककहरा सिखाता है चुनाव। लोक पर तंत्र के हावी होने की कहानी बता रहे हैं पांच राज्यों में हुए विधनासभा के चुनाव। इन पांच राज्यों में से तीन हिंदी पट्टी के बड़े राज्यों— राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी को मिली अप्रत्याशित छप्पर फाड़ जीत का सीधा-सहज असर पड़ना था इंडिया गठबंधन के भविष्य पर। और, वह पड़ गया। कांग्रेस को छह दिसंबर को बुलाई गई इंडिया गठबंधन की बैठक को टालना पड़ा। यह भाजपा और खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चौथी जीत के तौर पर दर्ज होना चाहिए। इंडिया गठबंधन का न्यूक्लियस कांग्रेस है और कांग्रेस पर हमला भीतर से व बाहर से जितना तेज होगा—भाजपा के लिए यह उतना ही फायदेमंद होगा। ये सारा घटनाक्रम एक स्क्रिप्ट को पढ़ने जैसा लग रहा है।

जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिर और हार का ठीकरा कांग्रेस नेता राहुल गांधी के सिर फूटना तय ही था। इससे विपक्ष और विपक्ष के गठबंधन- इंडिया की धार को कुंद करने का सफल दांव चल दिया गया। अब सारा फोकस इस ओर हो गया कि कांग्रेस ने, कांग्रेस नेतृत्व ने क्या-क्या गड़बड़ी की, उस पर चर्चा हो। इससे राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय लोकतंत्र को विपक्षहीन बनाने की ओर आराम से बढ़ा जा सकता है। कांग्रेस की गड़बड़ियों पर निश्चित तौर पर चर्चा होनी ही चाहिए, लेकिन साथ ही जीत के अदृश्य तंत्र पर भी।

विपक्षहीन लोकतंत्र एक भयावह कल्पना है और अगर उस दिशा में देश बढ़ रहा है, तो इसकी वजहों की तलाश-शिनाख़्त बेहद ज़रूरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन राज्यों में जीत के बाद संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत में जो भाषण दिया, उसमें यही कहा कि विपक्ष हारा क्योंकि उसने नकारात्मक प्रचार किया। जबकि हकीकत यह है कि इन तीन हिंदी-भाषी राज्यों में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा का प्रचार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (कन्हैयालाल की हत्या), राहुल गांधी पर अमर्यादित टिप्पणी (महामूर्खों का सरदार, फांसी दो) आदि पर केंद्रित था। अगर इसमें असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वसरमा या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के भाषणों को जोड़ दिया जाए— तो पता चलता है कि किस कदर सांप्रदायिक विद्वेष की बातें की गई और हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का दांव चला गया। लेकिन इन सबका हिसाब रखेगा कौन?  देश के संविधान के मुताबिक इन सारी टिप्पणियों पर चुनाव आयोग को कार्रवाई करनी चाहिए, मतदाताओं के बीच सांप्रदायिक वैमन्सय फैलाना अपराध है, लेकिन अपना चुनाव आयोग तो ख़ास है, ख़ास पर मेहरबान है। उसे पनौती शब्द से मुश्किल होती है, लेकिन इन सबसे नहीं।

पांच राज्यों में भाजपा की किसी भी अनुमान से बेहतर जीत दर्ज करने के संदर्भ में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती का बयान काबिलेगौर है। मायावती इस सख्त और दो-टूक अंदाज में बहुत ही कम टिप्पणी करती नजर आती हैं। मायावती इन चुनावी परिणामों को विचित्र, एक-तरफा और हजम न होने वाला, गले नहीं उतरने वाला कहती हैं। वह यहीं नहीं रुकतीं, सोशल मीडिया पर डाले अपने बयान में कहती हैं, ऐसे रहस्यात्मक मामले पर गंभीर चिंतन और उसके समाधान की जरूरत है। चुनाव के पूरे माहौल को देखते हुए ऐसा विचित्र परिणाम लोगों के गले के नीचे उतर पाना बहुत मुश्किल है। पूरे चुनाव के दौरान माहौल एकदम अलग, कांटे के संघर्ष वाला और दिलचस्प था, मगर चुनाव परिणाम उससे बिल्कुल अलग होकर पूरी तरह से एकतरफा हो जाना, एक ऐसा रहस्यात्मक मामला है जिस पर गंभीर चिंतन व समाधान ज़रूरी है।

यहां जो बात मायावती ने उठाई है, वह बेहद मौजूं व गंभीर है। गंभीर इसलिए है क्योंकि इससे भारतीय लोकतंत्र का भविष्य जुड़ा हुआ है। इसे अगर मैं छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनावी परिणाम के संदर्भ में देखती हूं तो वाकई रहस्य बहुत गहरा है। इस तरह की अनदेखी-अज्ञात (unnoticed) लहर का मध्य प्रदेश में होना कि वर्ष 2018 में हुए चुनावों की तुलना में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 54 सीटें अधिक मिलना—चुनावी तंत्र पर लाजमी तौर पर सवाल उठाता है। इसी तरह से छत्तीसगढ़ के परिणाम—जहां जनता के मन को कोई भी नहीं भांप पाया—ये अगर कौतुहल न पैदा करे तो हैरानी है।

मध्य प्रदेश में मतदान के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भोपाल में हुई एक बैठक के बारे में एक छोटी सी खबर भी बहुत कुछ बता रही है। प्रकाशित खबर के मुताबिक, संघ के सह प्रांत प्रचारक विमल गुप्ता ने देखा कि हॉल में मौजूद ज्यादातर लोगों के चेहरे मायूस नजर आ रहे हैं। उन्होंने 1971 में रिलीज हुई फिल्म, कल, आज और कल का गीत गाया...

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इस तरह की तमाम चीजें-सवाल उठ रहे हैं जो मेरी समझ से एक बड़े चेंज, सिस्टमैटिक चेंज यानी व्यवस्था में परिवर्तन—ढांचागत परिवर्तन की ओर इशारा कर रहे हैं। वह है लोकतंत्र में चुनाव जीतने का तंत्र। जिसे लोकप्रिय आवरण दिया गया है— मोदी मैजिक का। साम-दाम-दंड-भेद के जरिए चुनाव जीतना ही अंतिम लक्ष्य बन गया है। इसके लिए जो उपकरण—जो औजार इस्तेमाल होते हैं—उनकी लिस्ट बहुत लंबी है—चुनावी बॉन्ड (election bond) से लेकर जांच एजेंसियों (ED) आदि के खुल्ले इस्तेमाल से लेकर निर्वाचन आयोग (Election commission) से लेकर कई अदृश्य तत्व (Invisible factors). इन सबके जरिये अंततः यह माहौल बनाना, मतदाताओं में इस अवधारणा को स्थापित करना कि भाजपा (यहां इसे मोदीजी भी पढ़ा जा सकता है) को हराना मुश्किल है। हर हाल में वह जीतेगी ही और जहां जीत नहीं हासिल कर पाएगी, वहां जिसकी भी सरकार बनेगी—उसमें तोड़-फोड़ करके अपनी या अपने समर्थन वाली सरकार बना लेगी। वर्ष 2014 के बाद से खरीद-फरोख्त करके, जोड़-तोड़ करके विधायकों को चार्टेड प्लेन से यहां से दौड़ लगाता भाजपा का चुनावी तंत्र यादगार तस्वीरों में शामिल है, क्या गोवा, क्या महाराष्ट्र...। लेकिन कर्नाटक की हार के बाद से इस तंत्र में अपनी रणनीति में तब्दीली की है। मिसाल के तौर पर जो राज्य बेहद जरूरी है जीत के लिए-मोदी मैजिक के अपराजय छवि के लिए—वहां जीत का सेहरा हासिल करने का मंत्र।

चूंकि बात उत्तर भारत के तीन राज्यों के परिणामों पर सबसे अधिक है और आगामी लोकसभा चुनावों के हिसाब से राजस्थान-मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ बेहद अहम हैं—लिहाजा इनकी अलग लैंस से विवेचना करनी चाहिए। इन तीन राज्यों में आदिवासी पार्टियों ने पांच सीटें जीती, लेकिन 20 सीटों पर तीसरे नंबर पर रहीं। इन राज्यों में 24 सीटों पर इन्होंने हार-जीत को सीधे-सीधे प्रभावित किया। तीनों राज्यों को मिलाकर 101 सीटे आदिवासी बहुल थीं, एसटी रिजर्व थीं। इनमें से करीब 35 सीटों पर भारत आदिवासी पार्टी (BAP), गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (GGP) और भारतीय ट्राइबल पार्टी (BTP) का प्रभाव रहा। छत्तीसगढ़ में 31 फीसदी, मध्य प्रदेश में 12 फीसदी और राजस्थान में 13.5 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। राजस्थान में कांग्रेस का आदिवासी पार्टी— भारत आदिवासी पार्टी (BAP) से समझौता न करना बड़ी रणनीतिक चूक के तौर पर सामने आया है। यहां  भारत आदिवासी पार्टी (BAP) ने कुल मिलाकर 27 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से 17 आदिवासी रिजर्व थीं और इनमें से तीन जीत लीं। भाजपा ने छह जीती और कांग्रेस ने बस दो। इस पूरी बेल्ट में उसने कांग्रेस का खेल खराब किया। कमोबेश यही हाल मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी रहा।

अब आप इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजय भाषण में दिये गये आदिवासियों को आभार से जोड़ कर देख सकते हैं। उन्होंने कहा कि इन तीनों राज्यों में आदिवासी बहुल इलाकों से कांग्रेस का सफाया हो गया और यह कांग्रेस के लिए सबक है।

एक और सबक जो कांग्रेस के राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय नेतृत्व को ये चुनाव परिणाम दे रहे हैं, वह यह है कि वे भाजपा की बी-पार्टी बनकर उससे चुनावी समर नहीं जीत सकते हैं। चाहे मध्य प्रदेश के कलमनाथ हों या फिर छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल वे जिस तरह से बाबाओं और मंदिरों के वंदन करके चुनावी नैया को पार लगाने की रणनीति बना रहे थे, उसे मुकम्मल जवाब मिल गया है।

तेलंगाना में कांग्रेस की जीत और मिज़ोरम में ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट (ZPM) की जीत बता रही है कि भाजपा के चुनावी तंत्र को ज़मीनी धारदार पकड़ से ही विपक्ष चुनौती दे सकता है।

फिलहाल, कांग्रेस को नये नेतृत्व और धारदार ज़मीनी कैम्पेन के बारे में सोचना ही होगा। साथ ही इंडिया गठबधंन में शामिल तमाम दलों को यह मंत्र भी याद करना होगा कि अगर वे अब भी साथ नहीं रहे—तो वे खुद को भी नहीं बचा पाएंगे।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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