विधानसभा चुनाव 2021 : मोदी की सोने की नाव जिसकी कोई दिशा नहीं
एक दिल को छूनेवाली प्रसिद्ध कविता जिसका शीर्षक ‘सोनार तोरी’ यानी गोल्डन बोट है, उसमें रवींद्रनाथ टैगोर ने बहुत मार्मिक वर्णन किया है कि कैसे एक अकेला किसान किसी उफनती नदी के किनारे खड़ा किसी का इंतजार कर रहा है कि कोई आए और उसकी फसल के साथ उसे ले जाए। फिर, इस भीषण बारिश के बीच, एक सुनहरी नाव आती है, उसकी फसल लेती है लेकिन उसे अपने साथ ले जाने से इंकार कर देती है।
गुरुदेव बेशक कविता में दार्शनिक सवालों पर गहराई से चर्चा करते हैं - लेकिन माफी चाहूँगा – भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के उन्मादी चुनाव अभियान में उसी तरह की समानता देखी जा सकती है, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विधानसभा चुनाव के मौजूदा दौर में कर रहे हैं।
सार्वजनिक सभाओं और रोड शो की कदम दर कदम कवरेज़, 'विकास’ के वादे, स्थानीय संस्कृति के संदर्भ, न छिपने वाले धार्मिक इशारे, विरोधियों का मजाक उड़ाना, किसी अन्य की उपलब्धियों को अपना बताकर शैखी बघारना – यानी हर किस्म की सामग्री इस अभियान में मौजूद हैं, और अघोषित संसाधनों से भरे खजाने की सहायता से चिकनाईयुक्त पैकेज आम जनता में वितरित किए जा रहे हैं।
लेकिन ऐसा पहले भी हो चुका है, 2018 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान या कर्नाटक, या उसके बाद बिहार भी याद है? यह सब कुछ काम नहीं आया था। बिहार को छोड़कर, जहां भाजपा ने जैसे-तैसे सत्ता हासिल की, लेकिन वह बाकी सभी राज्यों में हार गई थी।
चुनाव के इस दौर में हालात और भी बदतर हैं। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है कि अब जिन दो राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां बीजेपी को 2016 में हुए विधानसभा चुनावों में लगभग 10 प्रतिशत वोट मिले थे। ये राज्य पश्चिम बंगाल और केरल हैं। भाजपा केरल की 140 विधानसभा सीटों में से केवल एक सीट ही जीतने में कामयाब रही थी, जबकि पश्चिम बंगाल में इसने 294 में से केवल तीन सीटें जीती थी।
तमिलनाडु में बीजेपी का प्रदर्शन काफी खराब रहा था। जहां उसे महज 2.8 प्रतिशत वोट मिले थे और एक भी सीट नहीं जीती थी। यह केवल असम था जहां भाजपा को सफलता मिली थी, जहां उसने 126 सदस्यीय विधानसभा में 60 सीटें जीती थी और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बना ली थी। असम में उसे केवल 30 प्रतिशत वोट मिले थे, जो कि बहुत बेहतरीन जनादेश नहीं था।
इसलिए, स्पष्ट है कि तब से पाँच वर्षों में इसे बहुत काम करना था। शायद, इसके वर्तमान अत्याधिक आत्मविश्वास का 2019 के लोकसभा चुनावों से कुछ लेना-देना है, जहां- केरल को छोड़कर- इसने इन सभी राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया था, चाहे खुद या फिर अपने (तमिलनाडु में) वरिष्ठ गटबंधन के साथी के माध्यम से किया हो।
इसमें खास बात जो नोट करने की है कि पश्चिम बंगाल में इसकी सफलता काफी अच्छी थी, जहां इसे 40 प्रतिशत वोट मिले थे और लोकसभा की 42 में से 18 सीटें जीतीं थी। वास्तव में, गृहमंत्री अमित शाह कह 2019 के लोकसभा परिणाम की बिना पर बंगाल में 200 से अधिक सीटों की परिकल्पना कर रहे हैं।
लेकिन यह सब बतौलेबाज़ी लगती है। हाल के वर्षों में, मतदाताओं ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों के बीच साफ अंतर किया है। आप एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान या यहां तक कि दिल्ली के परिणाम पर गौर फ़रमाए। इन राज्यों ने लोकसभा में भाजपा के पक्ष में मतदान किया था लेकिन विधानसभा चुनावों में एक विपक्षी दल को चुना। इसलिए, इस तथ्य के आधार पर बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता है कि बंगाल में मतदाताओं ने 2019 में भाजपा को बढ़ावा दिया था तो विधानसभा में भी समर्थन देंगे।
लेकिन इस चुनावी संख्या के मुकाबले भाजपा के विलाप की कहानी कुछ और ही है।
मोहभंग
इन वर्षों में, खासकर पिछले दो वर्षों में, आम जनता का दिल्ली में बैठी भाजपा सरकार से मोहभंग बढ़ा है। इसका मुख्य कारण आर्थिक संकट है, जिसके लिए मोदी सरकार सीधे तौर पर जिम्मेदार है। उन्होंने जनता से जंगली वादे करके खुद की हालात और खराब कर ली हैं जैसे कि हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने का वादा करना – सीएमआईई सर्वेक्षण रिपोर्टों के अनुसार 2019 में 45 साल के इतिहास में बेरोज़गारी सबसे ऊंचाई पहुँच गई थी, फिर पिछले साल हुए लॉकडाउन के दौरान बेरोज़गारी की दर बढ़कर लगभग 24 प्रतिशत हो गई और अब वह हर महीने 6-8 प्रतिशत के बीच डोलती रहती है।
विनाशकारी परिणामों के साथ जो इनमें से सबसे असफल वादे साबित हुए उनमें- 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने वाल वादा था। इतना ही नहीं कि मोदी सरकार अपना वादे पूरा करने से बहुत दूर है, बल्कि वह कॉर्पोरेट हितों को भयंकर अनुपात में आगे बढ़ाने और कृषि को कॉर्पोरेट की झोली में डालने के लिए कुख्यात तीन कृषि-कानूनों को पारित करा लिया, और इस प्रकार किसानों की आय को बढ़ाने के अपने वादे को और उसकी तमाम संभावनाओं को हमेशा के लिए दफन कर दिया।
इसी तरह, एमएसएमई यानी मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्यम क्षेत्र की तबाही की, पहले नोटबंदी करके और उसके बाद माल और सेवा कर यानी जीएसटी लागू करके, जिसने छोटे व्यवसायी यानी भाजपा के सबसे पहले आधार को गंभीरता से नष्ट कर दिया। भाजपा, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का थोक में विचारहीन निजीकरण करके सार्वजनिक क्षेत्र के मध्यम वर्ग के कर्मचारियों का समर्थन भी खो चुकी है। इसने, नौकरी की सुरक्षा को उत्पन्न हुए खतरों के कारण शिक्षकों, और स्वास्थ्य कर्मियों जैसे पेशेवर कर्मचारियों को अपने से दूर कर दिया है।
भाजपा की आर्थिक नीतियों और उसके उच्च जाति के जातिगत वर्चस्व के कारण दलितों और आदिवासियों के बड़े तबके में कड़ुवाहट पैदा हो गई है, खासकर आदिवासी तबके में क्योंकि कारपोरेट को देने के लिए उनकी जंगल की जमीन छीनी जा रही है।
ये और कई अन्य कारणों की वजह से जनता में अब मोहभंग और असंतोष की भावना पैदा हो गई है। खुद की शेख़ी भघारने वाला मोदी का जादू अब खुद की कमजोर छाया बन कर रह गई है क्योंकि लोग अब उनसे सहमत नहीं हैं। लोग मोदी और उनकी भाजपा को गोल्डन बोट के रूप में देखते हैं– जो उनसे लेती सबकुछ है लेकिन उन्हें पीछे छोड़ देती है।
विभाजन
इन विनाशकारी आर्थिक नीतियों के साथ-साथ मोदी सरकार ने 2019 में वापस चुनाव जीतने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एजेंडे को जोर-शोर से लागू करने का बीड़ा उठा लिया है। इसका मतलब वंचित अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति हिंसा का बढ़ना और उन्हे हाशिए पर धकेलना है– नागरिकता कानून को बदलकर और अंतर-धर्म विवाहों (नाजी युग की याद ताजा करने वाले) के खिलाफ नए कानून बनाकर; तथाकथित अवैध आप्रवासियों को निर्वासित करने की बार-बार धमकी देना और धार्मिक या रीति-रिवाजों को मनाने पर रोकथाम करना; और कथित रूप से जनसंख्या में बड़ी वृद्धि का हवाला देकर देश पर अल्पसंख्यक समुदाय के कब्ज़े होने के आधारहीन खतरे को गिनाना आदि शामिल है।
हाल के वर्षों में भाजपा के चुनाव अभियान का यह मुख्य केंद्र रहा है, और यह इस दौर में भी जारी है- जय श्री राम के बार-बार संदर्भ पर गौर करें और कौन इसका समर्थन करता है या नहीं, मौलानाओं और पादरियों का संदर्भ देना, एक खास समुदाय को आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने की बात करना, और बहुसंख्यक हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के दावे करना।
क्या यह काम करता हैं? क्या यह वोट खींचता है? जैसा कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में दिखा, यहां तक कि सबसे निर्लज सांप्रदायिक अभियान भी भाजपा को चुनाव जीतने में मदद नहीं कर सका और उन्हें करारी हार मिली। लेकिन दीर्घकालिक रूप से देखा जाए तो इस तरह का अभियान सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाता है, विशेषकर केरल, बंगाल और असम जैसे राज्यों में जहां अल्पसंख्यक आबादी काफी है या बेहिसाब है। और अगर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास कुछ हद तक काम भी करते हैं, तो आने वाले दिनों में लोगों के हितों को बड़ा नुकसान होगा।
बैसाखी
एकमात्र चीज़ जो भाजपा को पूरी तरह आपदा और विनाश से बचाती हैं: वह इसकी कुशल प्रचार मशीनरी, इसके हवाले विशाल संसाधन, इसकी खैरात बांटने की नीतियां- और एक कमजोर और बिखरा विपक्ष है।
पहले दो– यानी प्रचार और संसाधनों पर किसी खास टिप्पणी की जरूरत नहीं है। खैरात की नीतियों को वास्तविकता से बड़ा बनाकर पेश किया जाता है- कभी-कभी इसके लिए झूठ का सहारा भी लिया जाता है, जैसा कि एक महिला निर्माण मजदूर के मामले में सामने आया जिसे भाजपा के विज्ञापन में सरकार की आवास योजना की लाभार्थी के रूप में दिखाया गया था। हक़ीक़त में, वह एक निर्माण मजदूर है और उसके पास खुद का कोई घर नहीं है- वह किराए पर रहती है।
लेकिन, महामारी के दौरान थोड़ा-बहुत अनाज का वितरण, एलपीजी कनेक्शन का प्रावधान करना, आवासीय इकाइयाँ, और ऐसी अन्य योजनाएँ जो जरूरतमंदों के छोटे से हिस्से तक ही पहुँचती हैं, उसे सरकार की उस छवि को बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जैसे कि सरकार सबकी फिक्र करती है। यह प्रचार कुछ वक़्त तो काम करता है, लेकिन बाद में विफल हो जाता है। इसीलिए इसे उन राज्यों में नुकसान हुआ जहाँ इसने शासन किया था। मोदी और भाजपा के लिए निर्णायक रूप से जो एकमात्र कारक काम करता है वह एक खंडित और कमजोर विपक्ष का होना है।
यह उन राज्यों की तुलना में कहीं अधिक आसानी से नज़र आता है जहां एक जिम्मेदार और व्यवहार्य विपक्ष मौजूद है। और चुनाव के इस मौजूदा दौर में, वह मज़बूत नज़र आता है– जो ज़िंदा तो है ही साथ में इसे लतिया भी रहा है। इसलिए यह लगभग तय है कि भाजपा केरल और तमिलनाडु में हार जाएगी। इसके पश्चिम बंगाल में भी हारने की संभावना बड़ी है, हालांकि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस भ्रष्टाचार में इस कदर डूबी हुई है कि उसे करारा झटका जरूर लगेगा। असम में, फिर, विपक्ष अभी भी कुछ हद तक बंटा हुआ है, हालांकि पिछली बार की तरह बुरी तरह से विखंडित नहीं है। और राज्य की बीजेपी सरकार पिछले वर्षों में कुछ खास नहीं कर पाई है।
इसलिए बीजेपी के सामने कड़ी चुनौती है।
सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद लगता है कि मोदी और भाजपा कुछ खास अलग नहीं दिखने जा रहे हैं यानी पांच साल पहले वे जहां थे आज भी वहीं पर हैं। यदि ऐसा होता है, तो यह उनकी नीतियों और विचारधारा दोनों पर एक गंभीर तोहमत होगी।
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