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आज़ादी के अमृत महोत्सव में कहां हैं खेतिहर मज़दूर

देश का बड़ा हिस्सा है जो आज़ादी की परिधि से बाहर छूट गया है अपनी स्तिथियों का गुलाम है। बेशक 14.5 करोड़ से ज्यादा खेत मज़दूरों की भी यही हालत है।
agricultural laborers

आज़ादी का ख़्याल ही बहुत खूबसूरत है। हालांकि यह बात अलग है कि हमारे देश में आज़ादी के 75 वर्ष तक पहुंचते पहुंचते 'आज़ाद ख़्याल' नाक़ाबिल-ए- बर्दाश्त हो गया है। अगस्त महीने में हमारे देश में आज़ादी का उत्सव शुरू हो जाता है। सभी तरफ तिरंगें लहराते नज़र आते हैं। हो भी क्यों न। हमने देश की आज़ादी ब्रिटानिया साम्राज्यवाद के खिलाफ लम्बे संघर्षो और अनेक बलिदानों के बाद हासिल की है। हमें आज़ादी खैरात में नहीं मिली। देश की बहादुर जनता ने एकजुट होकर इसे साम्राज्यवादी हुकूमत से छीना है। इसके लिए पूरे देश ने बड़ी कीमत चुकाई है। इसलिए हमारे देश में आज़ादी के पर्व को जोश से मनाना ही चाहिए ताकि हमारी वर्तमान और आने वाली पीढ़ियां इसका महत्व समझते हुए इसकी रक्षा की जिम्मेवारी लें।

आज़ादी के लिए सबके अपने मायने है। आम नागरिक के लिए आज़ादी के मायने यही थे कि ब्रिटानिया हुकूमत की जगह लोग आज़ाद देश में अपनी सरकार बनाएंगे। देश में सब समान होंगे। हर वर्ष आज़ादी का दिन मनाने के साथ हमारी जिम्मेवारी है इस पर चर्चा करने कि क्या आज़ादी का हासिल सब तक पहुंचा है? विडम्बना है कि वर्तमान समय में ऐसी चर्चा करते ही आपको एक अलग दृष्टि से देखा जायेगा। यह सामान्य है कि आपको देश हितैषी न समझा जाये। जो समझ सरकारी कार्यालयों में बैठे भाजपा के नेता फैला रहे है- वह आपको देशद्रोही ही करार देगी।

इनकी समझ के अनुसार आज़ादी का मतलब केवल तिरंगा फहराना ही है। यह सही है कि इस तिरंगे को फहराने के लिए देश की जनता ने अनेक कुर्बानिया दी हैं। लेकिन जिन लोगों ने तिरंगे को राष्ट्रीय झंडा न मानने के साथ इसके रंगों में शामिल, देश की विवधता की अवधारणा को न केवल नकारा बल्कि इसके खिलाफ लगातार संघर्ष किया, वह आज तिरंगे की राजनीति कर रहे है। हालाँकि तिरंगे को मज़बूरी में उनके द्वारा अपनाना (चाहे राजनीति के लिए ही हो) भी उनके विचार की हार ही है।

चलिए इस मुद्दे को छोड़ते है क्योंकि इस लेख का मकसद इस पक्ष पर चर्चा नहीं है बल्कि चिंता तो यह है कि अगर आज़ादी के इस अमृत महोत्सव पर सरकार के हर घर पर तिरंगा फहराने के अभियान का हिस्सा कोई बेघर बनना चाहे भी तो कैसे बने क्योंकि उसके पास तो अपनी छत ही नहीं है जिस पर वह तिरंगा झण्डा लगा सके।

देश का बड़ा हिस्सा है जो आज़ादी की परिधि से बाहर छूट गया है अपनी स्तिथियों का गुलाम है। बेशक 14.5 करोड़ से ज्यादा खेत मज़दूरों की भी यही हालत है। खेत मज़दूर आज़ाद देश में भी अपनी परिस्थितियों के गुलाम है। हाँ वह आज़ाद है- उनपर कानूनी तौर पर कोई बंदिश नहीं परन्तु उनकी आर्थिक और सामाजिक हालात उनकी बेड़िया है।

खेत मज़दूरों के लिए काम नहीं

पिछले 75 वर्षों में ग्रामीण भारत के इस उत्पादक वर्ग के लिए कृषि में काम कम होता गया है। एक तरफ कृषि संकट के चलते किसान मज़बूरी में अपनी ज़मीन बेच रहे है और खेत मज़दूरों की फ़ौज में इज़ाफ़ा कर रहें है दूसरी तरफ श्रम विस्थापन प्रौद्योगिकी के प्रयोग से कृषि में खेत मज़दूरों के लिए काम के दिन कम होते जा रहे है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2001 से 2011 के बीच काश्तकारों की संख्या में 90 लाख की कमी हुई है जबकि खेत मज़दूरों की संख्या में 3 करोड़ की वृद्धि हुई है। लेकिन खेत में मिलने वाले काम के दिनों में कमी आई है। वर्ष 1990 में कृषि में एक वर्ष में 100 दिनों का काम मज़दूरों को मिलता था लेकिन अब यह घटकर 38 से 52 दिन ही रह गया है।

यहाँ शिकायत यह नहीं है कि कृषि में मशीनों का प्रयोग क्यों हो रहा है लकिन प्रश्न यह है कि जो करोड़ो खेत मजदूर बेरोजगार हो रहें हैं, जिन्हें वर्ष में केवल कुछ दिन ही खेतों में काम मिल रहा है वह अपना और परिवार का पेट कैसे भरेंगे। ग्रामीण भारत से इन्ही खेत मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा शहरों और देश के दूसरे ग्रामीण हिस्सों में काम की तलाश में पलायन करने के लिए मजबूर होता है। ऐसे प्रवासी मज़दूरों की संख्या करोड़ों में है परन्तु सरकार की फाइलों में कोई पक्का आंकड़ा नहीं है। शहरों में मज़दूरों के रूप में तो सबको इनकी ज़रूरत है लेकिन नागरिको के रूप में यह गैरजरूरी लोग है। कोविड महामारी के समय हम इनकी हालत देख चुके हैं।

यह आज़ादी की ही देन थी कि खेत मज़दूरों की बेरोजगारी और ग्रामीण भारत से लोगों के पलायन को देखते हुए काम का अधिकार देने के लिए मनरेगा को लाना पड़ा। यह एक बड़ा कदम था जिसमें मज़दूरों और किसानो की राजनीतिक ताकत का संसद में मज़बूती ही मुख्य कारण था। तमाम कमजोरियों के बावजूद यह मांग पर आधारित एक कानून है जिसमे सैद्धांतिक तौर पर ही सही मजदूरों द्वारा काम की मांग ही इसका आधार है। यही बात इसे सामान्य कल्याणकारी योजनाओं से अलग करती है। इसके बावजूद इसे सही से लागू करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति देश की सरकारों ने कभी नहीं दिखाई। लेकिन हाल के वर्षों में तो भाजपा सरकार ने इसे किसी आम योजना में ही तब्दील कर दिया है। है तो मनरेगा डिमांड ड्रिवेन परन्तु इसके लिए फण्ड की कमी हमेशा बनी रहती है। जब यह देश में लागू किया गया था तो इस पर कुल केंद्रीय बजट का दो प्रतिशत से ऊपर का आंबटन किया जाता था जो 2022 तक पहुंचते पहुंचते 1.85 प्रतिशत रह गया।

गौरतलब है कि काम की मांग और काम मांगने वालो की संख्या बड़ी है परन्तु बजट नहीं बढ़ा। इसका मतलब है की मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा आवेदन करने पर भी काम से महरूम रह जाता है।

कम मज़दूरी पर काम करने को मजबूर

यह सामान्य बात है कि जब बेरोजगारी की दर ऊँची होती है तो मज़दूरी पर मोलभाव करना मज़दूरों के लिए संभव नहीं होता है। अभी तो हालत यह है कि खेत मज़दूरों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मज़दूरी से भी कम पर दिहाड़ी करनी पड़ती है। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि खेत मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी बहुत ही कम है। मज़दूरों और उनके परिवारों को केवल ज़िंदा रखने के लिए भी कम है। अब हालत और भी बदतर होते जा रहे हैं, पिछले दो वर्षो से पंजाब और हरियाणा में चुनी हुई पंचायतें सामंतो की तरह पेश आ रही है और धान की रोपाई के लिए मज़दूरी की मनमानी दरों के लिए फतवे जारी कर रही हैं। केवल फतवे ही ज़ारी नहीं कर रही बल्कि इनको न मानने वाले मज़दूरों और किसानो दोनों के लिए जुर्माने और सामाजिक बहिष्कार का प्रावधान कर रहीं है। जी हाँ यह हमारे आज़ाद देश में हो रहा है जहाँ आशा की गई थी कि मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी का कानून होगा और उसको लागू करवाना सरकार की जिम्मेवारी होगी। कानून तो बनते है परन्तु लागू कौन करवाए। खेत मज़दूरों के लिए तो कानून भी नहीं बनते। खेत मज़दूरों की उपेक्षा और सरकारों की उदासीनता का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है क्योंकि आजादी के 75 साल बाद भी भारत सरकार खेत मज़दूरों के लिए वेतन, काम करने की स्थिति और सामाजिक सुरक्षा लाभों को सुनिश्चित करने के लिए एक अलग व्यापक केंद्रीय कानून लाने में विफल रही है।

आज़ाद देश में आत्महत्या करते खेत मज़दूर

ऐसी हालात में जब खेत मज़दूरों को काम नहीं मिल रहा और उनकी आमदनी घटती जा रही है, जिसके चलते परिवार का खर्च चला पाना मुश्किल होता जा रहा है। परिणामस्वरूप ज्यादातर खेत मज़दूर परिवार संकट में जी रहें है और खेत मज़दूरों में भी आत्महत्या के मामले बढ़ रहें है। हर साल खेत मज़दूरों में आत्महत्या की घटनाएं हो रही है परन्तु यह कभी खबर नहीं बनती। वैसे लोगो को पता ही नहीं है कि खेत मज़दूर भी आत्महत्या के लिए मज़बूर हो रहे है। नीति निर्धारक भी इसके प्रति आंखे मूंदे बैठे है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में आत्महत्या से मरने वाले खेतिहर मजदूरों की संख्या में पिछले वर्ष की तुलना में 18% प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। 2020 में 5,098 खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या से मृत्यु हुई जबकि 2019 में यह आंकड़ा 4,324 था। दुखद तो यह है कि सरकार अपने नागरिको की आत्महत्या से बिलकुल भी विचलित नहीं होती इसलिए न तो इन आत्महत्याओं के कारणों को समझने की कोशिश है और न इसे रोकने के लिए किसी रणनीति पर काम करने का। इसका सरल सा कारण जो दीखता है वह यह है कि शायद खेत मज़दूर राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित नहीं करते हैं।

भूमिहीन और बेघर जीवन

जैसा कि ऊपर भी चर्चा की गई है, जब हमारे देश ने आजादी हासिल की, तो अलग-अलग लोगों के लिए इसका अलग-अलग अर्थ था, लेकिन खेतिहर मजदूरों का एक ही सपना था कि उनके पास अपनी खुद की जमीन का एक टुकड़ा खेती के लिए हो और उनके सिर पर अपनी छत हो। उनका यह सपना एक गरिमामय जीवन से जुड़ा था। लेकिन असंख्य लोग आज भी अपने हिस्से की भूमि की आस लगाए बैठे है। केरल, बंगाल, त्रिपुरा और जम्मू कश्मीर जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर देश में भूमि सुधार का काम आज भी अधूरा है। लेकिन अभी तो भूमि सुधार की बात होना भी बंद हो गई है। उल्टा नवउदारवाद के पिछले 30 वर्षो में इस पहलू पर जो छोटा मोटा काम हुआ था उसे भी पलटा जा रहा है। अगर हम एनएसएसओ के 43वें दौर के सर्वेक्षण (1987-88) के दौरान भूमिहीन परिवारों के प्रतिशत की तुलना 68वें दौर (2011-12) एनएसएसओ सर्वेक्षण से करें तो पाएंगे कि भूमिहीनों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है। इस अवधि के दौरान ग्रामीण इलाकों में भूमिहीन परिवार (0.01 हेक्टेयर से कम भूमि वाले) 35% से बढ़कर 49% हो गए । भूमिहीनता दलितों में अधिक है।

ज़मीन तो छोड़िये देश में एक बड़ा हिस्सा है जिनके पास रहने के लिए अपना घर नहीं है, जिसे विभिन्न अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा मानवाधिकार के रूप में मान्यता दी गई है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत के बेघरों का अंतिम आधिकारिक अनुमान 1.77 मिलियन था। यह संख्या निस्संदेह पिछले दशक में बढ़ी है क्योंकि अनगिनत लोग कई कारणों से विस्थापित हुए हैं। इस विस्थापन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार कॉर्पोरेट या सरकार द्वारा उनकी ओर से भूमि हड़पना ही है। बोलने के लिए तो सरकार घर बनाने के लिए कई योजनाए चलाती है परन्तु उनका क्या जिनके पास घर बनाने के लिए अपने नाम पर ज़मीन ही नहीं है। ऐसे लाखो परिवार गांव में मिल जाएंगे जो सहमे रहते है कि पता नहीं कब उनको घर से निकाल दिया जायेगा क्योंकि जिस चारदीवारी में वह रहते है वहां की ज़मीन का टुकड़ा उनके नाम नहीं है। आदिवासियों के बड़े तबके को उनके मूल स्थानों से भगाया जा रहा है। यह सब खेत मज़दूर वर्ग से आते हैं। यह भी आज़ाद है और सबसे मज़बूती के साथ तिरंगा उठाने वालों में है बस चिंता है कि स्वतंत्रता दिवस के उत्सव मनाने के बाद रात को अगर बारिश आ गई तो सर कहाँ छुपाएंगे।

यह आज़ादी का आंदोलन ही था जिसके प्रभाव में देश की सरकार ने एक कल्याणकारी राज्य का ढांचा विकसित किया था जिसमे नागरिको की तमाम जरूरते पूरी करने की क्षमता थी। लगातार कम होते काम, कम मज़दूरी, बिना ज़मीन और घर के, कल्याणकारी राज्य का ढांचा ही खेत मज़दूरों और ग्रामीण मज़दूरों के लिए मददगार था। उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ कर जीवन में आगे बढ़ने के सपने पूरे कर सकते थे, बीमारी में सरकारी डॉक्टर और हस्पताल था, सरकारी डिपो में सस्ता राशन मिल रहा था, हालाँकि खेत मज़दूरों के लिए सेवनिवृति और पेंशन जैसी किसी चीज़ की कल्पना भी देश के हुक़्मरानों ने कभी नहीं की, फिर भी बुढ़ापा पेंशन और विधवा पेंशन एक बड़ी मदद थी। लेकिन अब तो आज़ादी का दूसरा दौर शुरू हो गया है जहाँ सर्वोपरि है बाजार की आज़ादी। और बाजार की आज़ादी के इस दौर (जिसे हम नवउदारवाद के दौर से जानते है) में कल्याणकारी राज्य और उसकी संस्थाए गैजरुरी ही नहीं बल्कि देश की तरक्की में एक बड़ी रूकावट के रूप में देखी जाती है। सही भी देश की सरकार के लिए तरक्की का मतलब केवल कॉर्पोरेट और पूँजी की तरक्की है। पूँजी देशी और विदेशी, के लिए तो कल्याणकारी राज्य बड़ी बाधा है। इसलिए सरकारों ने विशेष तौर पर मोदी जी की सरकार ने देश के नागरिको को इस बंधन से आज़ाद ही कर दिया। मतलब सरकारी तंत्र ख़त्म। शिक्षा निजी, स्वास्थ्य निजी और नौकरी भी प्राइवेट। शिक्षा हो या स्वास्थ्य बिना पैसे के कुछ नहीं। मतलब कि अगर मज़दूरों की दिहाड़ी में कुछ बढ़ोतरी की भी तो बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य के खर्चे के जरिये मज़दूरों जेब से सब निकाल लिया। जी हाँ अब मज़दूर आज़ाद है अपने बच्चो को अनपढ़ रखने के लिए। सारभौमिक और अनिवार्य शिक्षा के शब्दार्थ को भी आज के निति निर्धारक नहीं समझते। कुल मिलाकर आज़ाद देश की सरकार भी आज़ाद है अपनी जिम्मेवारियों से और ग्रामीण गरीब और खेत मज़दूर भी आज़ाद है अपनी हालातों में मरने के लिए। आज़ादी नहीं है तो केवल सवाल पूछने की।

बहुस्तरीय शोषण का शिकार महिला खेत मज़दूर

महिला खेत मज़दूरों की हालत तो इससे भी बदतर है। ज़ाहिर है समान काम के लिए समान वेतन के दायरे में महिला खेत मज़दूर नहीं आतीं और उनको तो दिहाड़ी पुरुषों से क़म ही मिलेगी। जब नियमित काम ही नहीं तो मैटरनिटी बेनिफिट का सवाल ही नहीं। यहां तो आफत है गर्भधारण। नतीजतन, महिलाओं को गर्भावस्था के अंतिम चरण तक काम करना पड़ता है और बच्चे को जन्म देने के कुछ दिनों के भीतर काम फिर से शुरू करना पड़ता है। उनके पास क्रेच की कोई सुविधा नहीं है। महिला खेत मज़दूरों के लिए तो माहवारी भी एक अभिशाप बन जाती है क्योंकि उन दिनों उनको काम नहीं मिलता। महाराष्ट्र के बीड जिले में हज़ारो महिला मज़दूर मिल जाएँगी जो गन्ना तोड़ने का काम करती है और उन्होंने अपना गर्भाशय ही निकलवा दिया है ताकि उनको सीजन के समय काम न छोड़ना पड़े। जिन ठेकेदारों के तहत यह मज़दूर काम करती है वह भी माहवारी के दिनों में महिलाओं को किसी भी तरह की रियायत देने को तैयार नहीं है इसलिए गर्भाशय निकलवाने पर जोर देते हैं। महिला खेत मज़दूर श्रम के शोषण के अलावा भी कई अन्य अत्याचारों जैसे यौन शोषण का शिकार होती है जिसकी शिकायत तक कहीं दर्ज नहीं होती। जब एक खेतिहर मजदूर महिला दलित या आदिवासी पृष्ठभूमि से आती है तो शोषण का स्तर बहुस्तरीय हो जाता है। मज़दूर के रूप में उसका शोषण किया जाता है और उसे अपनी निचली जाति के कारण सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है और अंत में महिला होने के कारण उसका शोषण किया जाता है।

आज़ाद देश में मनुवाद की बेड़ियों के जकड़े खेत मज़दूर

खेत मज़दूर अपनी आर्थिक स्तिथियों से तो बंधे ही है जहाँ उनकी चुनी हुई सरकार ने उनका साथ छोड़ दिया परन्तु वह सामाजिक भेदभाव के भी गुलाम है। खेत मज़दूरों की आबादी का बड़ा हिस्सा दलितों, आदिवासियों और अन्य उत्पीड़ित जातियों से आता है। जहां पढ़ा लिखा तबका भी अपने को जाति के बेड़ियों से मुक्त नहीं करवा पाया, नौकरियों और विश्वविद्यालयों में पहुँचाने पर भी दलित और आदिवासी आज़ाद भारत में मनु महाराज के ब्रह्मवाद के सामाजिक ढांचे में कैद है तो ग्रामीण खेतिहर मज़दूरों की तो क्या बिसात। ऐसा कौन सा दिन होगा जब यह अपनी जाति की पहचान से मुक्त होकर एक इंसान का जीवन जिए होंगे। आज़ाद भारत का विधान तो संविधान ही है लेकिन दलितों और आदिवसियों का जीवन तो आज भी जातिवाद के सामाजिक ढांचे से ही बंधा हुआ है। वर्तमान भाजपा सरकार में वैसे भी देश के लिए आज़ादी की सबसे बड़ी उपलब्धि संविधान को ताक में ही सजा कर रख दिया गया है। कभी कभार उसे याद कीजिये लेकिन धरातल में तो मनु जी की संहिता चलेगी। संविधान सभा में उनका विचार हार गया तो क्या अभी तो सरकार उनकी है। वह लोकतंत्र के बंधनो को क्यों माने। उनके लिए यही आज़ादी है कि दलितों पर हमला करने वाले अपराधियों के पक्ष में तिरंगे के साथ रैलिया करें और उनको फूल मालाएं पहनाये। आज़ादी के 75वे वर्ष में कोई दलित खेत मज़दूर जातीय अत्याचार के बाद पुलिस थाने में जाने की नहीं सोचता। सोचे भी कैसे जब पुलिस की उपस्थिति में दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने पर पूरी दलित बस्ती को जलाकर सबक सीखा दिया जाता हो, तो यह इस सबक के खिलाफ कैसे जाएं।

लड़ना होगा देश की आज़ादी को मुक्कमल करने के लिए

आज़ादी के संघर्ष में मात्र 18 साल की उम्र में मुज़फ्फरपुर केस में फांसी का फंदा चूमने वाले खुदीराम बोस और चटगांव में सशस्त्र आंदोलन में मास्टर सूर्यसेन के साथ हथियार उठाने वाले 14 साल के सुबोध रॉय तथा 17 साल की कल्पना दत्त के सपनों का भारत सब नागरिकों का था। जिला कलेक्टर कार्यालय पर झंडा फहराने पर जज के सामने निर्भय होकर अपना नाम लंदन तोड सिंह बताकर सजा मांगने वाले हरकिशन सिंह सुरजीत का सपना आज़ाद भारत में तिरंगा उठाने वाले नागिरको की खुशहाली थी। फांसी की जगह जंग में कैदियों के समान गोली से मरने की इच्छा रखने वाले और 23 साल की ऊपर में अमर हो जाने वाले शहीद भगत सिंह ने अपने प्राण देश के मज़दूरों और किसानो के लिए ही न्यौछावर किये थे। आज देश की सरकार चिंतित है केवल तिरंगे के लिए परन्तु तिरंगा उठाने वाले हाथों के जीवन और उनकी आज़ादी से बेपरवाह है। शहीदों ने कुर्बानियां कॉर्पोरेट के द्वारा देश के संसाधनों और देशवासियों की लूट की आज़ादी के लिए नहीं दी थी। आज़ादी का पर्व मनाइये इस प्रण के साथ कि इस आज़ादी में सब शामिल होंगे। देश का ग्रामीण सर्वहारा अगर आज भी अपनी आर्थिक और सामाजिक स्तिथतियो का गुलाम है तो देश की आज़ादी भी अधूरी है। हमारी जिम्मेवारी है की देश की आज़ादी को मुक्कमल करें और आज़ाद देश में ग्रामीण मेहनतकशों में भी सबसे हाशिये पर खड़े खेतमजदूरों की आज़ादी के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाये।

(लेखक अखिल भारतीय खेतिहर मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले वे छात्र आंदोलन से संबद्ध थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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