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बीजेपी का सूफ़ी संवाद महाभियान: वोटों के लिए एक और शिगूफ़ा

इस अभियान के तहत मोदी की अगुआई वाली सरकार और बीजेपी के संदेश को अल्पसंख्यकों तक पहुंचाना है। इसके लिए बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा से दरगाहों के पते और उनके खादिमों की फेहरिस्त मंगाई गई है।
Sufi Samvad Mahabhiyan
फ़ोटो सोशल मीडिया से साभार

भर दे झोली मेरी ओ मोहम्मद, तेरे दर से न जाउंगा खाली…

लीजिए साहेब, यही सुनने के लिए बेताब थे न भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से। तो बता दें आपको कि अब बीजेपी के नेता दरगाहों पर अकीदत के फूल चढ़ाते मिलेंगे और सिर हिला-हिला कर कव्वालियां दोहराएंगे और तालियां पीटते नज़र आएंगे। सत्ता की माया जो ना कराए।

वजह भी है। 2024 के आम चुनाव, उससे पहले भी कई राज्यों में चुनाव हैं। मुस्लिम विरोधी बीजेपी की छवि अब नफरती पार्टी की होती जा रही है। जिससे उदारवादी हिंदुओं के भी पार्टी से दूर जाने का खतरा मंडरा रहा है। ये सनातनी हिंदू सर्वधर्मसमभाव में भरोसा रखता है। सूफी संतों की मज़ार पर जाता है, शिरड़ी साईं बाबा को अवतारी संत मानता है तो शिव-शक्ति और वैष्णव उपासना पद्धति में विश्वास करता है। मुसलमान तो है ही निशाने पर, जिसे साम-दाम-दंड-भेद से बांटने की कवायद संघ-बीजेपी 2014 से ही कर रही है। लिहाजा अब 2024 के मद्देनज़र सूफी संवाद महाभियान की योजना बनाई गई है।

इस अभियान के तहत नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार और बीजेपी के संदेश को अल्पसंख्यकों तक पहुंचाना है। इसके लिए बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा से दरगाहों के पते और उनके खादिमों की फेहरिस्त मंगाई गई है। नरेंद्र मोदी और बीजेपी की छवि सुधारने की इस मुहिम से करीब डेढ़ सौ मुस्लिम बुदधिजीवियों को जोड़ा गया है।

दिलचस्प बात ये है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कर्मकांड, पाखंड, पंडावाद और जातिवाद को ही हिंदू धर्म बताया। इस विचारधारा ने कबीर-सूर-जायसी, रैदास, रहीम,खुसरो जैसे भक्ति धारा के संत कवियों की उपेक्षा की। संतों के सामाजिक असमानता के खिलाफ संदेश और ईश साधना पर सबके समान अधिकार के उपदेश को भी अनसुना कर दिया। ऐसे में संघ-बीजेपी में सूफी प्रेम एक दिन अचानक नहीं उमड़ा है। ये एक रणनीतिक चाल है।

संघ और बीजेपी की कार्यशैली में कथनी और करनी के फर्क हमेशा रहा है। बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह कर्मकांड और पाखंड को ही धर्म मानना। और जो ना मानें उसे धर्मविरोधी-हिंदू विरोधी यहां तक कि देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी बताना। ऐसे में सूफी संवाद महाभियान बहुसंख्यकवाद की स्थापना के लिए बगुला भगत की तरह वोटों के लिए समाधि लगाने की तैयारी भर है।

सूफी संवाद महाभियान उन राज्यों में चलाया जा रहा है, जहां मुस्लिम आबादी बीस फीसदी से ज्यादा है। इन राज्यों के मुस्लिम बहुल इलाकों में दरगाहों पर सियासी महफिल सजेंगी। लोकसभा की अस्सी सीटों की वजह से उत्तर प्रदेश पर सबसे ज्यादा ज़ोर दिया जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 16 लोकसभा सीटों पर 35 से 40 फीसदी मुसलमान हैं। लिहाजा सहारनपुर, मेरठ, मुज़फ्फरनगर समेत 12 जगहों पर स्नेह सम्मेलन भी आयोजित किए जा रहे हैं। मुसलमानों के प्रति बढ़ते स्नेह का रहस्य दरसल पसमांदा मुसलमान है। मुसलमानों में पसमांदा की तादाद 80 से 85 फीसदी के करीब है। बाकी 15-20 फीसदी में शेख, सैयद और पठान जैसी ऊंची जातियां हैं।

हिंदू वोटों को एकजुट करने के साथ संघ और बीजेपी की राजनीति मुस्लिम वोटों में बंटवारे की है। वहीं बोहरा मुसलमानों को रिझाने की लंबे समय से कोशिशें जारी हैं। जिनकी तादाद मुस्लिम आबादी में हालांकि काफी कम है लेकिन महाराष्ट्र और गुजरात में इनकी तादाद ज्यादा है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दाउदी बोहरा समाज के कार्यक्रमों में शिरकत करते रहे हैं। बीएमसी चुनाव के मद्देनज़र बीजेपी की निगाह बोहरा वोटों पर है। यही नहीं, बिदरी कलाकार शाह रशीद अहमद कादरी को पद्मश्री से सम्मानित करने की वजह कर्नाटक चुनाव मानी जा रही है। शुरू से कांग्रेसी रहे कादरी के पीएम मोदी के लिए कृतज्ञता ज्ञापन से बीजेपी का मुसलमानों के प्रति उदारता का पाखंड मजबूत हुआ है।

मुसलमानों की योगी सरकार से नाराजगी के मद्देनज़र आरएसएस-बीजेपी की इस मुहिम को एकदम से खारिज कर देना सही नहीं होगा। बीजेपी 2014 से ही लगातार ये विमर्श गढ़ने की कोशिश कर रही है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जाति और धर्म से परे हैं। 2019 के बाद से मुसलमानों के हिंदू संप्रभुता की स्वीकारोक्ति का विमर्श भी गढ़ा जा रहा है। कहना ना होगा कि कई मुस्लिम बहुल सीटों से बीजेपी की जीत की बिना पर ये साबित करने का प्रयास जारी है कि मुसलमानों ने हिंदुओं की रहनुमाई स्वीकार कर ली है। ये सूफी संवाद महाभियान भी उसी नैरेटिव पॉलिटिक्स का हिस्सा है।

हालांकि रामनवमी की शोभा यात्राएं और सुनियोजित हिंसक घटनाएं ये सोचने को मजबूर करती हैं कि बीजेपी 2024 में सत्ता पाने के लिए ध्रुवीकरण की राजनीती ज़बर्दस्त तरीके से करेगी। क्योंकि देश में महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार की वजह से बीजेपी के लिए जीत हासिल करना आसान नहीं होगा। लेकिन ऐसा समझना राजनीति का साधारणीकरण ही होगा। पिछले 98 साल में आरएसएस सुनियोजित तरीके से अपने कथित परम वैभव को पाने के लिए येन-केन प्रकारेण बदलाव का खाका तैयार कर रखा है। संघ साधनों की पवित्रता में यकीन नहीं रखता। उसके लिए साध्य पाना ही अंतिम उद्येश्य है। राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने से लेकर जिस तेजी से और जितनी आसानी से धारा 370 हटाई गई, वो चौंकाने वाला था। या फिर सीएए-एनआरसी के जरिए हिंदुत्व के एजेंडे को लागू करने की कोशिश की है, उससे स्पष्ट है कि आरएसएस के सौ वर्ष पूरे होने पर संवैधानिक ढांचा बदले बगैर अघोषित हिंदूराष्ट्र बनाने का लक्ष्य पाने की हर संभव कोशिश होगी।

इन दिनों दो तरह के कानून नज़र भी आने लगे हैं। प्रशासन-व्यवस्था भगवा और गैरभगवा के लिए अलग पैमाने तय कर चुकी है। एक को धर लेना तो दूसरे को हर हाल में छोड़ना लक्ष्य हो चुका है। एनआईए से लेकर ईडी, सीबीआई, आईटी, ईओड्ब्ल्यू विंग प्रतिरोध के दमन में जुट गए हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया ज़बर्दस्त तरीके से किराए के मौलानाओं को स्टूडियों में बुला कर हिंदू-मुसलमान कर रहा है। मित्रपूंजीवाद के पैसे से दोनों सांप्रदायिकताएं मजबूत की जा रही हैं। लेकिन दुनिया में वंचितों और अल्पसंख्यक वर्गों के प्रति राज्य व्यवस्था के बर्ताव के आधार पर ही किसी भी राष्ट्र का मूल्यांकन होता है। ऐसे में संघ और बीजेपी कैरेट और स्टिक पॉलिसी का प्रयोग कर रही है।

संघ प्रमुख मोहन भागवत का वक्तव्य इस सोच को उद्घाटित करता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि इस्लाम को कोई खतरा नहीं, लेकिन मुसलमानों को मानना होगा कि हम बड़े हैं। ये बयान छोटी सोच का ना सही तो कम से कम बड़प्पन की निशानी तो नहीं। बल्कि ये उस न्यू इंडिया के रूप-स्वरूप की ओर भी इशारा कर रहा है, जो संघ और बीजेपी मिल कर गढ़ रहे हैं।

भ्रम की राजनीति में बीजेपी-संघ की कोई सानी नहीं है। हालिया दिनों में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों से भी मुलाकात की थी। भागवत ने गौ हत्या और काफिर शब्द पर चिंता जाहिर की तो प्रतिनिधियों ने मुस्लिम आबादी और बहुप्रथा को लेकर कुप्रचार का मुद्दा उठाया था। इस संवाद से काफी उम्मीदें पैदा हो गईं थी। बावजूद इसके छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में पुलिस की मौजूदगी में मुस्लिम विरोधी घृणा से भरे हुए मार्च किए गए। महाराष्ट्र में तो महीने भर से ज्यादा वक्त तक ऐसी रैलियां निकाली गईं। हैदराबाद में तो नाथूराम गोडसे का बड़ा पोस्टर भी शोभायात्रा में नज़र आया। किसी पर अगर कहीं कोई कार्रवाई हुई भी तो नामचार को। तब इन्हीं बुद्धिजीवियों ने अलायंस फ़ॉर इकोनॉमिक एंड एजुकेशनल एम्पावरमेंट ऑफ़ द अंडरप्रिविलेज़्ड (एईईडीयू) के लेटर हेड पर भेजे पत्र में कहा कि घृणा और हिंसा के माहौल को रोकने के लिए पर्याप्त कोशिश नहीं हुई।

पत्र में भागवतजी से दोबारा मिलने की इच्छा जाहिर की गई है, लेकिन अब भागवतजी व्यस्त हो चुके थे। एक मुलाकात से जो संदेश देना था वो दिया जा चुका था। मोहन भागवत इससे पहले अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख उमर अहमद इलियासी के न्यौते पर दिल्ली में कस्तूरबा गांधी मार्ग की मस्जिद पहुंचे थे। और मरहूम मौलाना डॉ. जमील इलियासी की कब्र पर फूल भी चढ़ाए, राष्ट्रपिता और राष्ट्रऋषि का दर्जा पाया था। हिंदू-मुसलमान का डीएनए भी एक बताया था। यहां तक कि सांप्रदायिक विष से खौलता ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा भी भागवत के बयान से ठंडा हो पाया था। भागवत ने कहा था कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग तलाशने की क्या ज़रूरत है। सांप्रदायिकता उबाल और रोकथाम में संघ-बीजेपी की भूमिका को लेकर किसी को संदेह नहीं है।

ध्यान से देखा जाए तो पीएम मोदी और संघ की मुस्लिम राजनीति में अद्भुत समानता देखने को मिलती है। नरेंद्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया था। लेकिन मोदी ने मुस्लिमों के प्रति अपनी सहज घृणा को बहुत दिनों तक छिपा नहीं पाए। यूपी चुनाव से पहले श्मशान-कब्रिस्तान पर उतर आए। इसके बाद तो वे कपड़ों से पहचानने लगे।

लेकिन ये नहीं भूलना होगा कि मुसलमानों ने हिंदुस्तान को अपना मुल्क माना। मुसलमानों की कोई भी राष्ट्रीय पार्टी तक नहीं बनने दी। जो बनी भी वो प्रदेश से बाहर निकल नहीं पाई। लेकिन अब उन्हें हाशिए पर जानबूझ कर धकेला जा रहा है, ताकि देश में दो ही तरह की सियासत चल सके। हिंदू बहुसंख्यकवाद की ताकत के साथ संघ और बीजेपी देश में हमेशा के लिए राज कर सके। बीजेपी ने संसदीय राजनीति से मुसलमानों को बेदखल कर दिया है। चुन कर आए नेताओं की सदस्यता छीन ली गई। नफरत की सियासत की मुखालिफत करने की सज़ा राहुल गांधी को भी मिली। उन्हें संसद से डिस्क्वालीफाई कर दिया गया। मुस्लिम युवाओं और बुद्धिजीवियों पर आलोचना और विरोध करने पर संगीन से संगीन धाराएं लाद दी हैं। यहां तक कि अभियोजन पक्ष के विरोध के कारण दो-दो बरस से जमानत तक नहीं मिल पा रही है। अदालतें उन्हें अपनी पहलकदमी पर छोड़ रही हैं। तो गुजरात में सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई बिलकीस बानों के दोषियों को आजादी के दिन आजाद कर दिया गया।

देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी पर झूल जाने वाले आजादी के परवानों को बीजेपी ने अपने इस अनोखे तरीके से श्रद्धांजलि दी। ऐसे में सूफी संवाद की राजनीति एक विद्रूप हास्य भर है। अदालत से पहले बुलडोजर मुस्लिमों के साथ कैसा इंसाफ कर रहा है, ये किसी से छिपा नहीं है। सत्ता पाने के लिए मुसलमान को सताओ और हिंदुओं के एकमुश्त वोट पाओ। 'मुल्लों को टाइट' करने के नाम पर सत्ता पा जाना सचमुच देश के लिए चिंताजनक है। पश्चिमी यूपी में तो मुसलमानों को पहचान कर वोट देने से रोकने के भी आरोप सुरक्षा बलों पर लगे हैं। वोटर लिस्ट से विरोधियों के नाम कटने की शिकायतें ज्यादातर अनसुनी रह जाती हैं। अशिक्षा और पिछड़ेपन की वजह से पूरा देश महंगाई और बेरोजगारी का दर्द झेल कर सांप्रदायिक राजनीति की कीमत चुका रहा है। ऐसे में सूफी संवाद महाभियान एक शिगूफे से ज्यादा कुछ नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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