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उत्तराखंड चुनाव: भाजपा एक बार फिर मोदी लहर पर सवार, कांग्रेस को सत्ता विरोधी लहर से उम्मीद

उत्तराखंड में चुनावी शोर अब ख़त्म हो गया है। न्यूज़क्लिक ने इस पूरे चुनाव के दौरान, जनता के बीच जाकर उनके मुद्दे और राजनीतिक दलों के चुनावी अभियान में जनता से जुड़े मुद्दे कहाँ हैं, समझने का प्रयास किया। इसके साथ ही हमने राजनीतिक दलों के चुनावी आधार क्या हैं इसे भी परखने का प्रयास किया है।
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उत्तराखंड में चुनावी शोर अब ख़त्म हो गया है। हर दल ने अपने-अपने वादें और घोषणाओं को जनता के सामने रखा है। अब उन सभी वादों और घोषणाओं पर जनता के फैसले का समय है। न्यूज़क्लिक ने इस पूरे चुनाव के दौरान जनता के बीच जाकर उनके मुद्दे और राजनैतिक दलों के चुनावी अभियान में जनता से जुड़े मुद्दे कहाँ हैं इसको समझने का प्रयास किया। इसके साथ ही राजनैतिक दलों के चुनावी आधार क्या हैं इसे भी परखने का प्रयास किया है। इन सब चीज़ों के बीच वो कुछ ज़रूरी सवाल जिसे राजनैतिक दलों ने तो छोड़ा ही लेकिन चुनावी शोर में जनता भी उन्हें भूलती दिखी है। इन सभी को विस्तार से समझने का प्रयास करत हैं।

चुनाव में आम जनमानस के सवाल

पूरे प्रदेश में लोगों के बीच पलायन एक बड़ा सवाल बना हुआ है। क्योंकि कोरोना काल में बड़ी तादाद में लोग वापस अपने प्रदेश में लौटे, लेकिन उन्हें यहाँ कोई रोज़गार नहीं मिला, जिसके बाद फिर उन्हें वापस परदेस लौटना पड़ा। इसके साथ ही कई जगहों पर ऐसे लोग जो वापस आए, लेकिन किसी कारण जा नहीं पाए, वो ही दिखें। ऐसे ही एक व्यकि हैं अवतार सिंह जिनकी उम्र लगभग 43 वर्ष है। वो चमोली ज़िले के थराली के रहने वाले हैं। वो कोरोना काल से पहले चाइना में शेफ थे, परन्तु महामारी के कारण वो यहां वापस लौटे, लेकिन उन्हें यहाँ कोई काम नहीं मिला। इसके बाद उन्होंने अपने ही गांव के कस्बे में चाय-समौसे की दुकान खोल ली है। 

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए उन्होंने कहा कि दुकान तो खोल ली, लेकिन इससे घर का गुज़ारा चलाना बहुत मुश्किल है। हमने उनसे पूछा कि आप शेफ हैं तो किसी होटल में काम क्यों नहीं करते? इस पर अवतार सिंह ने जवाब दिया कि उत्तराखंड में होटल पर्यटकों से ही चलता है, लेकिन वो पिछले कई सालों से बंद है या बहुत कम है। ऐसे में जो पहले से होटल में काम कर रहे हैं, मालिक उन्हें भी हटा रहे हैं, तो हमें कौन रखेगा?

इसी तरह अल्मोड़ा शहर के निवासी कुंदन हैं, जिन्होंने कोरोना काल से पहले टैक्सी खरीदी पर बाद में फिर कोरोना में काम ठप्प हो गया, लेकिन टैक्सी की किश्त भरने के लिए उन्हें फिर से क़र्ज़ भी लेना पड़ा, जिसका भुगतान अभी तक नहीं कर पाए हैं।

पलायन इस प्रदेश की सबसे विकट समस्या बन गई है जिस पर बात सभी दल कर रहे हैं। वर्तमान सरकार ने इससे निबटने के लिए पलायन आयोग तक बनाया, लेकिन लोगों का कहना है कि पलायन आयोग से राज्य का पलायन तो रुका नहीं, उल्टा पलायन आयोग खुद पहाड़ (पौड़ी) से मैदानी (देहरादून) इलाके में पलायन कर गया।

राज्य में शिक्षा की स्तिथि

शिक्षा की बात करें तो पूरा प्रदेश बदहाल है। पहले उत्तराखंड शिक्षित प्रदेशों में आता था। परन्तु पिछले कुछ सालों में शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त होती दिखी है। वर्तमान सरकार ने तो कई सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया जबकि एक बड़ी संख्या में डिग्री कॉलेज और स्कूल बंद होने की कगार पर हैं। जबकि इस दौरान निजी शिक्षण संस्थानों की बाढ़ सी आ गई है।

इस दौरान यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (UDISE+) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2012-13 में उत्तराखंड में कुल 12,499 राजकीय प्राथमिक विद्यालय और 2,805 राजकीय माध्यमिक विद्यालय थे, जिनकी संख्या वर्ष 2019-20 तक घटकर क्रमशः 11,653 और 2,608 हो गयी। इसके विपरीत, मैदानी और पर्वतीय सभी जिलों में पिछले 10 सालों में निजी स्कूलों में बढ़ोतरी हुई है।

स्वाथ्य का हाल

इसके आलावा स्वास्थ्य के हालात भी राज्य में गंभीर बने हुए हैं। उत्तराखंड, पर्वतीय राज्यों में सबसे कम खर्च करने वाला प्रदेश है। राज्य के अधिकतर प्राथमिक और सामुदायिक केंद्रों की हालत नाज़ुक बनी हुई है, जो लोगों का इलाज करने की हालत में तो नहीं है, क्योंकि उन्हें खुद अभी इलाज की ज़रूरत है।

भारतीय रिज़र्व बैंक की स्टेट फाइनेंस एंड स्टडी ऑफ़ बजट 2020-21 रिपोर्ट के मुताबिक, हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सरकार के द्वारा जन स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च किया गया है। रिपोर्ट में दिए गए आकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड ने जन स्वास्थ्य पर जीएसडीपी का सबसे कम 1.1% खर्च किया है, जबकि जम्मू-कश्मीर ने 2.9%, हिमाचल प्रदेश ने 1.8% और पूर्वोत्तर राज्यों ने 2.9% हिस्सा खर्च किया है।

सड़क और पानी गंभीर समस्या

प्रदेश में वर्तमान सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है और वो सड़कों के जाल की बात कर रही है, परन्तु पहाड़ के कई गांव ऐसे हैं जो आज भी सड़कों के लिए तरस रहे हैं। अल्मोड़ा शहर के कसार देवी से लेकर कर्णप्रयाग विधानसभा से होते हुए नेपाल बॉर्डर पर बसे थपडियालखेड़ा गांव के लोग सड़कों के अभाव में जीवन जी रहे हैं। कई जगह तो लोगों ने "सड़क नहीं तो वोट नहीं" का नारा भी दिया है।

इसके साथ पीने के पानी की गंभीर समस्या बनी हुई है। ये प्रदेश, देश के कई राज्यों को पीने के लिए पानी देता है, परन्तु इस प्रदेश के गाँव स्वच्छ पेयजल के लिए तरस रहे हैं। हालाँकि सरकार कहती है कि उसने घर-घर नल से जल पहुंचा दिया है परन्तु ये बातें कई गाँवो के लिए आज भी बेमानी सी लगती है।

जंगली जानवर से किसान परेशान

पूरे प्रदेश के किसान जंगली जानवरों से परेशान हैं। किसानों का कहना है कि जंगली जानवरों के आतंक की वजह से लोग कृषि छोड़ रहे हैं, क्योंकि जब फसल तैयार होती है तो ये जानवर उसे ख़राब कर देते हैं। प्रदेश में किसान खेती से बाहर जा रहे हैं और वे शहरो में पलायन कर के दिहाड़ी मज़दूर बनने को मजबूर हो रहे हैं। राज्य गठन के बाद के 22 वर्षों में कृषि भूमि का क्षेत्रफल करीब 15 फीसदी घटा है। राज्य गठन के वक्त उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था, जो अब 6.98 लाख हेक्टेयर रह गया है। यानी पिछले 18 सालों में 72 हज़ार हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो गई है। यही सारी कारण किसानों को खेती से दूर कर रहे हैं।

ये सभी वो सवाल थे जो इस चुनाव में लोगों के बीच मौटे तौर पर चर्चा का विषय थे। परन्तु इस बीच कई ऐसे सवाल भी थे जो इस चर्चा में अपनी जगह बना ही नहीं पाए, जबकि वो एक बड़ी आबादी को प्रभावित करते हैं।

पर्यावरण

अगर हम इस देखें तो पर्यावरण इस चर्चा के लिए सबसे महत्पूर्ण विषय होना चाहिए क्योंकि पिछले कुछ दशकों में उत्तराखंड ने प्राकृतिक आपदा और त्रासदी झेली है। परन्तु इस पूरे चुनाव में ये विषय जनता की चर्चा में नहीं दिखा। हालांकि विपक्षी कांग्रेस ने अपने मैनिफेस्टो में इस मुद्दे को जगह ज़रूर दिया है। इसके साथ ही स्थानीय और वाम दल भी इस प्रश्न को जनता के बीच उठा रहे हैं लेकिन ये मुद्दा इस चुनाव का केंद्र बनता नहीं दिखा है।

भू वैज्ञानिक एसपी सती ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि उत्तराखंड में बाढ़, भूकंप, भूस्खलन जैसी बार-बार होने वाली घटनाओं के बावजूद भी हमने कोई सीख नहीं ली है। अभी भी बड़े-बड़े निर्माण, वनों का विनाश, बांधों का निर्माण, मलबों के ढेरों का निस्तारण जान-बूझकर ऐसे स्थानों पर हो रहा है, जो संवेदनशील क्षेत्र हैं।

राज्य में लगातार पर्यावरण को ताक पर रखकर डैम, रेलवे और रोड प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया जा रहा है जो भविष्य में एक बड़ी आपदा का न्यौता हो सकता है।

विकास और पर्यावरण संरक्षण के बारे में राजनीतिक दलों के विचार एक जैसे ही हैं। किसी ने पर्यावरण और विकास के बीच सृजनात्मक संबंध बनाने की बात नहीं कही है।

स्कीम वर्कर

राज्यभर में हज़ारों की तादाद में आंगनबाड़ी, आशा और मिड-डे मील वर्कर्स (भोजन माता) हैं। जिनकी समस्या बहुत गंभीर है परन्तु ये चुनावी चर्चा का केंद्र नहीं बन पाया है। जबकि कोरोना काल में आंगनबाड़ी और आशा वर्कर्स ने इस टूटी हुई स्वास्थ्य व्यवस्था में लोगों की जान बचाई लेकिन उनके मुद्दे को एड्रेस करने की किसी भी मुख्यधारा के दल ने ज़हमत नहीं उठाई है।

हमने आंगनबाड़ी और आशा वर्कर्स से बात की थी जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें कई-कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। क्योंकि उनके घरों से गाँव बहुत दूर हैं। इसी तरह भोजन माता है जिन्हें सरकार बहुत ही मामूली मानदेय देती है। उनसे खाना बनाने के अलावा भी बाकी काम लिए जाते हैं। सरकार कहती है कि ये कर्मचारी ही नहीं हैं, इसलिए इन्हें वेतन नहीं मानदेय दिया जाता है। इन्हें 1500 से लेकर 9000 रुपये तक का मानदेय दिया जाता है।

ये स्कीम वर्कर्स चुनाव से लेकर कोरोना जैसी महामारी में सबसे अधिक और आगे बढ़कर काम करते हैं परन्तु इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।

दलित समाज के मुद्दे

पहाड़ भी बाकी देश की तरह ही जाति व्यवस्था के कुचक्र से घिरा हुआ है। वहां भी छुआछूत और दलित का शोषण जारी है, परन्तु उनके सवाल भी चुनावी शोर में गुम दिखाई दिए। दलित समाज के पास खेती भी नहीं है, वो सावर्णों के यहां मज़दूरी या औज़ार बनाकर अपना जीवनयापन करता है। प्रदेश संसाधनों पर इनकी पकड़ बहुत कम है। न्यूज़क्लिक में प्रकाशित एक लेख में लेखक और वरिष्ठ पत्रकार प्रेम पुनेठा कहते हैं कि सवर्ण बहुल इलाका होने के कारण दलितों का सवाल तो कभी सामने आया ही नहीं। आज़ादी से पहले भी यहां किसी भी आंदोलन में दलितों से संबंधित प्रश्न सामने नहीं आए और आज भी नहीं आ रहे हैं।

राजनीतिक हवा किस ओर

अगर पूरे प्रदेश को देखें तो मुख्य लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में ही है। इसके अलावा क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल और आम आदमी पार्टी चुनावी मैदान है। इसके साथ ही वाम दल भी दस सीटों पर चुनाव लड़ रहा है। इसके अलावा समाजवादी पार्टी और बसपा भी अपना भाग्य आज़मा रहीं हैं।

भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर इस चुनाव में अपना ब्रह्मास्त्र साम्प्रदायिकता को अपना हथियार बनाया है। बीजेपी ने  मजबूत भू-कानून की मांग उठाई है।  उसके नेता लगातर मुस्लिम समाज को टारगेट करते हुए कह रहे हैं कि उनकी जनसंख्या बढ़ रही है। वो लगातार धार्मिक स्थलों के आस-पास ज़मीन ले रहे हैं, जिसका नाम उन्होंने लैन्ड जिहाद दिया है। जबकि वर्ष 2018 में  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में आयोजित निवेशक सम्मेलन में तत्कालीन त्रिवेन्द्र सिंह सरकार ने पूंजीपतियों को राहत देने के लिए व उद्योगों को लगाने के नाम पर पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश से विरासत में मिले एतिहासिक जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 को ही दांव पर लगा दिया।

त्रिवेन्द्र सरकार ने 2018 में उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश, 2001) में संशोधन कर उस कानून में धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी। इसके साथ ही 143 (क) जोड़कर कृषकों की जमीनों को अकृषक बाहरी लोगों द्वारा उद्योगों के नाम पर खरीद कर उसका भू-उपयोग परिवर्तन आसान कर दिया।

प्रदेश में भू-कानून को बीजेपी की सरकार ने ही कमज़ोर किया है। इससे जब जनता में असंतोष बढ़ता दिखा तो उसने खुद ही इसे मुद्दा भी बना दिया। इसके सहारे वो राज्य में साम्प्रदायिकता का मौहौल बना रही है। जबकि ये धर्म का नहीं नीति का सवाल है। उसके एक नेता चुनवी भाषणों में उत्तरखंड का कश्मीर जैसा हाल होने का डर दिखा रहे हैं।  

घोषणापत्र में कहा गया है, “यह सुनिश्चित करने के लिए कि उत्तराखण्ड जैसे सीमावर्ती राज्य में राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई समझौता न हो, इसके लिए हम लैंड-जिहाद से सबंधित विवादों की सुनवाई के लिए एक मध्यस्थता आयोग का गठन करेंगे।" इसके साथ ही उन्होंने लव जिहाद को सुरक्षा से जोड़ते हुए सवाल उठाया है। हालांकि वो अपने बीते पांच साल के काम का जिक्र करने से बच रही है और उसे एक बार फिर मोदी लहर से आस है। वर्तमान मुख्यमंत्री भी जनता के सवाल से हटकर हर बात को मोदी के नेतृत्व पर टाल देते हैं। इसके साथ ही वो उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार से भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वहां की राजनीतिक हालात का फायदा भी उन्हें मिलेगा, इसलिए वो यहाँ भी वो राम मंदिर और काशी कॉरिडोर के नाम पर ही वोट मांग रहे हैं।

कांग्रेस की बात करें तो उसे मौटे तौर पर सरकार विरोधी लहर से उम्मीद है। जनता सरकार से नाराज़ है, जिसका सीधा फायदा उसे ही मिलेगा। इसके आलावा उसने अपने घोषणापत्र में समाज के हर वर्ग के लिए कई तरह की घोषणाएं की हैं। हालांकि शुरुआत में काफी कन्फ्यूज़न रही, लेकिन अंततः उन्होंने हरीश रावत के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा है। परन्तु पूरे प्रदेश में जनता में जितनी नाराज़गी है उसे कांग्रेस चैनलाइज़ करती नहीं दिख रही है। उसमें आक्रामकता की कमी दिख रही है। कांग्रेस का कोई बड़ा राष्ट्रीय नेता उस तरह से चुनावी मैदान में नहीं उतरा है। जबकि बीजेपी ने अंतिम समय में प्रधानमंत्री मोदी सहित अपने साम्प्रदायिक और कट्टर हिन्दू छवि वाले योगी आदित्यनाथ को चुनाव में उतार दिया है। हरीश रावत अकेले इस चुनाव में कांग्रेस के तारणहार दिख रहे हैं, हालांकि उन्हें बीजेपी से आए नेताओं से उम्मीद है कि वो बेहतर करेंगे।

आम आदमी पार्टी पोस्टर और बैनर में तो खूब दिख रही है, लेकिन ज़मीन पर उसकी पकड़ नहीं दिखती है। कई जानकार कहते हैं कि बड़ी संख्या में उनके उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होगी। पूरे प्रदेश में वो केजरीवाल और कर्नल कोठियाल के नाम पर ही चुनाव लड़ रहे हैं। बीजेपी के बाद अगर किसी पार्टी के सबसे अधिक पोस्टर लगे हैं, तो वो आम आदमी पार्टी ही है।

इसके अलावा उत्तराखंड क्रांति दल चुनाव में है, तो लेकिन उसकी बड़े स्तर पर चुनाव को प्रभावित करने की संभावना नहीं दिखती है। इसके अलावा वाम दल संयुक्त रूप से दस सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। वो खुद को विपक्ष में लाने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। वाम दल के नेता कहते हैं कि वो वाम के नेतृत्व में सदन में एक मज़बूत विपक्ष चाहते हैं जो बीजेपी और कांग्रेस पर लगाम लगाने का काम करेंगें। वामदल इस चुनाव में अपने ज़मीनी संघर्ष और जनहित के सवालों के आधार पर जनता के बीच जा रहे हैं।  

राज्य में तीन वाम दल सीपीआई, सीपीआई-एम और सीपीआई-एमएल का संयुक्त वाम मोर्चा राज्य की 10 विधानसभा सीटों पर मैदान में  है। उत्तरकाशी से सीपीआई के महावीर भट्ट चुनाव मैदान में हैं।  लालकुआं से सीपीआई-एमएल के बहादुर सिंह जंगी चुनाव लड़ रहे हैं। कर्णप्रयाग से सीपीआई-एमएल के इंद्रेश मैखुरी हैं। नरेंद्रनगर से सीपीआई के जगदीश कुलियाल, सहसपुर से सीपीएम के कमरुद्दीन। केदारनाथ से सीपीएम के राजाराम सेमवाल, रानीपुर (भेल) से सीपीएम के आरसी धीमान, थराली से सीपीएम के कुंवर राम, बदरीनाथ से सीपीआई के विनोद जोशी और रुद्रप्रयाग से सीपीआई के सुधीर रौथाण चुनाव मैदान में हैं।

ये सभी उम्मीदवार जमीनी संघर्ष से जुड़े नेता हैं। सीपीआई-एम के चारो उम्मीदवार किसान आंदोलन से जुड़े रहे हैं।  राज्य और क्षेत्र में उनकी एक किसान नेता की छवि है। वहीं माले के प्रत्याशी इंद्रेश मैखुरी उत्तराखंड में जान आंदोलनों का एक प्रमुख चेहरा रहे हैं।  

सीपीआई-एम के राज्य सचिव राजेंद्र सिंह नेगी न्यूज़क्लीक से बात करते हुए कहते हैं कि राज्य में कांग्रेस और बीजेपी ने बारी-बरी से राज किया है परन्तु किसी ने भी जनता के सवाल नहीं उठाए है।  दोनों दलों के उम्मीदवार दल बदल कर एक दूसरे के सिंबल पर लड़ते हैं।

नेगी आगे कहते हैं, “भाजपा या कांग्रेस चुनाव में जनता के मुद्दों की बात नहीं कर रही है। नामांकन से ठीक पहले बड़े पैमाने पर दल-बदल हुआ। वामदलों का यहां नारा है कि हम जनमुद्दों को  उठाने के लिए मज़बूत विपक्ष बनाना चाहते हैं। हम उन्हीं 10 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं, जहां हमारा आधार मज़बूत है। हम चाहते हैं कि यहां अपना वोट प्रतिशत बढ़ा सकें।” 

मोटे तौर पर देखें तो राज्य निर्माण से लेकर सत्ता का बँटवारा कॉंग्रेस और बीजेपी के बीच ही रहा है। इस बार भी ऐसा ही लग रहा है। उत्तराखंड की बात करें तो वो डॉ राम मनोहर लोहिया के उस कथन को आज़मा रही है। उन्होंने कहा था, "रोटी उलटते-पलटते रहो, ताकि वह ठीक से पके। एकतरफा सिक रही रोटी जल जाती है, पकती नहीं। वैसे ही सत्ता को भी उलटते रहो, ताकि जनता का भला हो सके।"

अभी तक तो राज्य में ऐसा ही होता आया है। राज्य की जनता ने हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन किया है। अगर इस बार भी होता है तो कांग्रेस के लिए सत्ता का रास्ता आसान हो जाएगा। लेकिन दूसरी तरफ, बीजेपी इस रिवायत को तोड़ना चाहती है। इन सभी राजनीतिक हालात में चुनाव में सीधी लड़ाई बीजेपी और कांग्रेस के बीच है। हालाँकि कुछ सीटों पर निर्दलीय खेल खराब कर सकते हैं, जो कांग्रेस और बीजेपी छोड़ मैदान उतरे हैं।

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