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भारतीय संदर्भ में कम्युनिस्ट राजनीति के पैरोकार थे बाबू जगदेव प्रसाद

बाबू जगदेव का सीधा संबंध किसी कम्युनिस्ट आंदोलन या राजनीतिक दल से नहीं रहा लेकिन वे भारत के सामाजिक संरचना के संदर्भ में कम्युनिस्ट राजनीति के पैरोकार थे।
Babu Jagdev Prasad Kushwaha
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

मौजूदा दौर में जब देश की सत्ता पर दक्षिणपंथियों का क़ब्ज़ा है (जगदेव बाबू इसे द्विजों का शासन कहते हैं।) और वह अपने विरोधियों को विशेषतौर पर कम्युनिस्टों को देश-विरोधी के रूप में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं और इसमें बहुजन नेता भी पीछे नहीं हैं, तो ऐसे में हमें उन बहुजन नायकों को याद करना ज़रुरी हो जाता है जिन्होंने अपने समय के कम्युनिस्ट नेताओं की आलोचना करते हुए भी मार्क्स-लेनिन के सिद्धांत को अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक सिद्धांत में शामिल किया। इन नायकों में सबसे महत्वपूर्ण हैं बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा।    

बिहार के कुर्था (अरवल) में 2 फरवरी 1922 को जन्मे बाबू जगदेव प्रसाद को बिहार का लेनिन कहा जाता है। ऐसा क्यों, जबकि उनका सीधा संबंध किसी कम्युनिस्ट आंदोलन या राजनीतिक दल से नहीं रहा। हालांकि वे भारत के सामाजिक संरचना के संदर्भ में कम्युनिस्ट राजनीति के पैरोकार थे। इस बात का प्रमाण उनके इस तथ्य से मिलता है, जो उन्होंने 25 अगस्त 1967 को शोषित दल की स्थापना के अवसर पर लिखा था: 'समाजवाद या कम्युनिज्म की लड़ाई, शोषक बनाम शोषित की लड़ाई।'

उन्होंने लिखा, आज का हिंदुस्तानी समाज साफ़ तौर से दो भागों में बंटा हुआ है जिसमें दस प्रतिशत शोषक और नब्बे प्रतिशत शोषित हैं। दस प्रतिशत शोषक बनाम नब्बे प्रतिशत शोषित की इज़्ज़त और रोटी की लड़ाई हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्युनिज्म की असली लड़ाई है। हिंदुस्तान जैसे द्विज शोषित देश में असली वर्ग-संघर्ष यही है। इस नग्न सत्य को जो नहीं मानता वह द्विजवादी समाज का पोषक, शोषित-विरोधी और अव्वल दर्जे का फरेबी है। साथ ही वे लिखते हैं, यदि मार्क्स-लेनिन हिन्दुस्तान में पैदा होते तो दस प्रतिशत ऊंची जात (शोषक) बनाम नब्बे प्रतिशत शोषित (सर्वहारा) की मुक्ति को वर्ग संघर्ष की संज्ञा देते।

बाबू जगदेव प्रसाद मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धांत को अपनी राजनीतिक दल-शोषित दल- के नीतियों में शामिल करते हुए कहते हैं, शोषित दल का सिद्धांत है नब्बे प्रतिशत शोषितों का राज, सत्ता पर क़ब्ज़ा और इस्तेमाल, सामाजिक-आर्थिक क्रांति द्वारा बराबरी का राज क़ायम करना। इसलिए शोषित दल की नीतियां वर्ग-संघर्ष में विश्वास करने वाले कट्टर वामपंथी दल की नीतियां होंगी।  

सामाजिक क्रांति के बिना आर्थिक क्रांति संभव नहीं

14 जून 1969 को राष्ट्रीय शोषित संघ के सालाना जलसे का उद्धाटन करते हुए जगदेव बाबू ने आर्थिक क्रांति से पहले सामाजिक क्रांति की आवश्यकता पर ज़ोर देने की बात की थी। इस जलसे में उन्होंने मार्क्स और लेनिन के सामाजिक विचार को चिन्हित करते हुए कहा है कि लेनिन ने रूस के समाज का विश्लेष्ण किया। वहां की आर्थिक और सामाजिक नब्ज़ पर उन्होंने अपना हाथ रखा। जिसको हम शोषित कहते हैं, उसको वहां सर्वहारा कहा गया। मार्क्स ने एक को उच्च वर्ग या बुर्जुआ वर्ग और दूसरे को सर्वहारा कहा। उन्होंने सर्वहारा का साथ दिया जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ, सामाजिक दृष्टि से सताया हुआ, सांस्कृतिक दृष्टि से ग़ुलाम और मानसिक दृष्टि से दबाया हुआ था। लेनिन ने आर्थिक ग़ैर-बराबरी से मुक्ति दिलाने का रास्ता बताया।

बाबू जगदेव प्रसाद पाश्चात्य और भारतीय समाज के बीच अंतर को बख़ूबी पहचानते थे। उनके अनुसार, यूरोप में जाति प्रथा नहीं है, ऊंच-नीच की भावना नहीं है। यूरोप में ब्राह्मण और ग़ैर-ब्राह्मण की लड़ाई नहीं है। उन लोगों ने सिर्फ़ आर्थिक क्रांति की और आर्थिक ग़ैर-बराबरी को दूर किया। लेकिन हिंदुस्तान एक विशेष स्थिति में है। इसलिए जो यूरोप में था ठीक वही हिंदुस्तान में नहीं है। हिंदुस्तान में आर्थिक ग़ैर-बराबरी के साथ सामाजिक ग़ैर-बराबरी भी है। सामाजिक ग़ैर-बराबरी इज़्ज़त की लड़ाई है। हमें विश्वास है जब तक सामाजिक क्रांति नहीं होगी, तब तक आर्थिक क्रांति नहीं हो सकती। जब तक शोषित समाज के हाथ में हुकूमत की बागडोर नहीं आएगी, तब तक आर्थिक ग़ैर-बराबरी नहीं मिटेगी।

भारत में शोषित कौन-कौन हैं, इसकी पहचान करते हुए जगदेव बाबू कहते हैं कि हिंदुस्तान का शोषित हिंदुस्तान का सर्वहारा, तमाम हरिजन, आदिवासी, पिछड़ी जाति और कथित नीची जाति के लोग हैं। इनकी आबादी नब्बे प्रतिशत है। दस प्रतिशत शोषक पूंजीपति, ज़मींदार, ब्राह्मण, ऊंची जाति के हैं। उन्हें ग़ुलाम बनाकर रखा है। इस नब्बे प्रतिशत शोषित और दस प्रतिशत शोषक की लड़ाई ही वैज्ञानिक समाजवाद की लड़ाई है। मार्क्स अगर हिंदुस्तान में पैदा हुए होते तो उत्तर प्रदेश के राष्ट्रीय शोषित संघ और बिहार के शोषित दल के साथ होते। इससे जुड़े तमाम लोगों ने उन्हें अपना गुरु माना है।

जगदेव बाबू बिहार के नक्सलबाड़ी आंदोलन, जिसे भोजपुर आंदोलन भी कहा जाता है, के समर्थक थे। उन्होंने नक्सलबाड़ी आंदोलन के केंद्र ‘सहार’ को आदर्श मानते हुए कहा था कि पूरे बिहार को ‘सहार’ बना दो। डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह अपने लेख ‘वे जो जनता की याद्दाश्त में जीवित हैं’ में लिखते हैं, बिहार के भोजपुर इलाक़े में अमीरगा जोतदार दलित-पिछड़ी लड़कियों के साथ शोषण और उत्पीड़न किया करते थे।

सत्तर के दशक में एकवारी के मास्टर साहब (जगदीश महतो) ने इसका विरोध किया था। वे बिहार में नक्सल आंदोलन के संस्थापक थे। यह इतिहास की विडंबना कहिए कि मास्टर जगदीश प्रसाद की मृत्यु जगदेव प्रसाद की शहादत से दो साल पहले हो चुकी थी वरना जगदेव प्रसाद का वह सपना पूरा हो गया होता जो 28 जुलाई, 1974 को सहार प्रखंड मुख्यालय पर उन्होंने घोषित किया था कि सारे बिहार को ‘सहार’ बना दो। मास्टर जगदीश प्रसाद इसी सहार क्षेत्र के थे। बिहार का वह सहार क्षेत्र उस वक्त अत्याचारी सामंतों के ख़िलाफ़ प्रतिरोधी गोलियों की तड़तड़ाहट के कारण ख्यात था।  

ज़ाहिर है वे ख़ुद को कम्युनिस्ट विचार के क़रीब खड़ा करते थे। अपनी राजनीतिक दल ‘शोषित दल’ की नीतियों को कट्टर कम्युनिस्ट की नीतियों के समान माना। इसके बावजूद भी उन्होंने अपने समय के भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों और उसके नेतृत्व की ख़ासी आलोचना की। 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।) 

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