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ख़बरों के आगे-पीछे: बिहार में विश्‍वास मत पर टकराव के आसार तथा अन्‍य ख़बरे

नीतीश की पार्टी के कुछ विधायक विश्वास मत के खिलाफ वोट देते हैं तो स्पीकर उनको अलग गुट की मान्यता दे देंगे और उसके बाद अयोग्यता का मामला लंबे समय तक चलता रहेगा। 
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Photo: PTI

मतदाताओं की भी निगरानी का इरादा था 

केंद्र सरकार के नेतृत्व की ओर से प्रमुख विपक्षी नेताओं, अपने ही कुछ मंत्रियों, सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों और कुछ पत्रकारों की जासूसी कराने की खबर तो जगजाहिर है, लेकिन हैरान करने वाली यह खबर दरबारी मीडिया में नहीं आई कि केंद्र सरकार मतदाताओं की भी निगरानी कराना चाहती थी। इसके लिए उपकरण खरीदे जाने थे और टेंडर भी जारी हो गया था लेकिन कुछ गैर सरकारी संगठनों की ओर से सवाल उठाने पर चुनाव आयोग को मजबूर होकर इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए टेंडर रद्द कराना पड़ा। दरअसल केंद्र सरकार के सूचना व प्रौदयोगिकी यानी आईटी मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर सर्विसेज इंक यानी एनआईसीएसआई ने ऐसे उपकरणों के लिए टेंडर जारी किया था, जिनसे मतदान के समय मतदाताओं की निगरानी और उनकी पहचान की जा सके। इतना ही नहीं, ड्रोन्स के लिए टेंडर जारी किए गए थे ताकि मतदान के दिन मतदाताओं की आवाजाही पर नजर रखी जा सके। सवाल है कि केंद्र सरकार को ऐसा कराने की क्या जरुरत है? बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग की मंजूरी के बगैर इसका टेंडर जारी किया था। सवाल उठने के बाद चुनाव आयोग के प्रवक्ता ने खुद इस बात की पुष्टि की है कि टेंडर रद्द हो गया है। हालांकि इससे ज्यादा उन्होंने कुछ नहीं बताया। सवाल है कि क्या सरकार का मकसद मतदाताओं की प्रोफाइलिंग करना था? क्या सरकार देखना चाह रही थी कि किस पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता किस मतदाता से मिल रहे हैं? यह बहुत खतरनाक और चिंताजनक बात है। 

चुनावी साल में सरकार ने कुछ नहीं बेचा 

राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी नेता चाहें तो इस बात का श्रेय ले सकते हैं कि उनके दबाव में केंद्र सरकार ने सरकारी संपत्तियों को बेचने का काम स्थगित कर दिया है। लेकिन हकीकत यह है कि चुनावी साल की वजह से केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2023-24 में सरकारी संपत्तियों को बेचने का काम स्थगित रखा। सरकार ने पिछले साल बजट पेश करते हुए इस वित्त वर्ष में 51 हजार करोड़ रुपए विनिवेश से यानी सरकारी संपत्तियों की बिक्री से हासिल करने का लक्ष्य तय किया था। लेकिन एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से सरकार को सिर्फ 15 हजार करोड़ रुपए ही मिले हैं। जाहिर है कि सरकार अपने लक्ष्य का 33 फीसदी भी हासिल नहीं कर पाई है। हालांकि पहले भी विनिवेश का लक्ष्य सौ फीसदी पूरा नहीं होता था लेकिन इस बार सरकार लक्ष्य से बहुत पीछे है। अब नए साल का अंतरिम बजट आना है। संसद के बजट सत्र की घोषणा हो गई है और जल्दी ही लोकसभा चुनाव की भी घोषणा होनी है। इसलिए माना जा रहा है कि अब शायद ही विनिवेश से जुड़ा कोई फैसला होगा। भारत सरकार एलआईसी के स्वामित्व वाले आईडीबीआई बैंक को बेचना चाहती है लेकिन यह काम चुनाव से पहले नहीं हो पाएगा। बहरहाल, यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार अगले वित्त वर्ष के लिए क्या लक्ष्य तय करती है।

बिहार में विश्वास मत पर टकराव के आसार

बिहार में नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा के समर्थन के बूते नए सिरे से मुख्यमंत्री बन गए हैं लेकिन इस बार विधानसभा में बहुमत साबित करने को लेकर टकराव हो सकता है। इसका कारण यह है कि विधानसभा स्पीकर अवध बिहारी चौधरी राष्ट्रीय जनता दल के नेता हैं। इसीलिए कहा जा रहा है कि अगर नीतीश की पार्टी के कुछ विधायक विश्वास मत के खिलाफ वोट देते हैं तो स्पीकर उनको अलग गुट की मान्यता दे देंगे और उसके बाद अयोग्यता का मामला लंबे समय तक चलता रहेगा। गौरतलब है कि बिहार में जनता दल यू और भाजपा की सरकार नई सरकार के पास साधारण बहुमत होगा। बिहार की 243 सदस्यों की विधानसभा में भाजपा के 78, जनता दल यू के 45 और हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के चार विधायक हैं। सरकार को एक निर्दलीय विधायक का समर्थन होगा इस तरह कुल संख्या 128 की बनती है, जो बहुमत से छह ज्यादा है। दूसरी ओर राजद 79 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है और उसके साथ कांग्रेस के 19 और वामपंथी पार्टियों के 16 विधायक हैं। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के एक विधायक का समर्थन जोड़े तो उनकी संख्या 115 होती है। सो, अगर नीतीश की पार्टी के सात-आठ विधायक विश्वास मत के खिलाफ वोट देते हैं तो सरकार गिर सकती है। इस बीच यह भी खबर है कि लालू प्रसाद ने हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन को उप मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव देकर उनको तोड़ने का दांव भी चला है। लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। 

बंगाल में राहुल के साथ असम जैसा बरताव

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की यात्रा पश्चिम बंगाल में पहुंच गई है लेकिन वहां भी उनके साथ वैसा ही बरताव हो रहा है, जैसा असम में हुआ। असम में मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा पूरी तरह से उनके खिलाफ थे और उन्होंने उनकी यात्रा में हर जगह अड़ंगेबाजी की। कई जगह भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा पोस्टर, बैनर फाड़े जाने की खबर आई तो कुछ जगहों पर यात्रा पर हमला होने की भी खबर आई। राहुल गांधी को 22 जनवरी को यानी अयोध्या वाले कार्यक्रम के दिन वहां के एक मंदिर में जाने से रोक दिया गया। फिर उनकी यात्रा गुवाहाटी पहुंची तो शहर में यात्रा को रोका गया, जिसके बाद कांग्रेस नेताओं ने बैरिकेडिंग वगैरह तोड़ी और राज्य सरकार ने उनके ऊपर मुकदमा दर्ज कराया। लगभग इसी तरह का बरताव पश्चिम बंगाल में भी हो रहा है, जबकि अकेले लड़ने का ऐलान कर चुकी ममता बनर्जी अब भी ‘इंडिया’ का हिस्सा हैं और गांधी परिवार के साथ उनके बहुत अच्छे व निजी संबंध रहे हैं। फिर भी राहुल की यात्रा को लेकर कई जगह बाधाएं डाली गईं। जब राहुल की यात्रा असम से निकल कर कूच बिहार के रास्ते बंगाल में पहुंची तो तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने यात्रा का विरोध किया और बैनर दिखाया कि बिहार में दीदी अकेले काफी हैं। इसके बाद खबर आई कि तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने राहुल की रैली की अनुमति नहीं दी है। कोलकाता में राहुल का रोड शो करने की अनुमति के लिए भी कांग्रेस नेता मशक्कत कर रहे हैं।

विपक्ष एक साथ चुनाव के पक्ष में नहीं 

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति को 'एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के मुद्दे पर 20 हजार से ज्यादा लोगों की राय मिली है। इनमें से करीब 80 फीसदी ने इस विचार से सहमति जताई है और कहा है कि पूरे देश में सारे चुनाव एक साथ होने चाहिए। लेकिन दूसरी ओर सभी विपक्षी पार्टियों ने इस विचार का विरोध किया है। कोविंद कमेटी ने जिन पार्टियों को चिट्ठी लिख कर उनकी राय मांगी थी, उनमें से कांग्रेस सहित 17 पार्टियो ने अपनी राय भेजी है और सभी ने कहा है कि यह विचार देश की संवैधानिक व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए खतरा है। एक तरफ 80 फीसदी लोगों की राय है तो दूसरी ओर देश की तमाम विपक्षी पार्टियों की राय है। अब सवाल है कि रामनाथ कोविंद कमेटी किस आधार पर फैसला करेगी? क्या वह इस आधार पर एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश कर सकती है कि देश के 80 फीसदी लोग चाहते हैं कि चुनाव साथ होने चाहिए? इस बात की संभावना कम है क्योंकि राय देने वालों की संख्या 20 हजार है और उसमें भी सभी विपक्षी पार्टियां इसके खिलाफ है। सो, बिना विपक्षी पार्टियों को भरोसे में लिए कैसे एक साथ चुनाव की सिफारिश की जा सकती है? इस मामले में सरकार को भी सोच समझ कर आगे बढ़ना होगा। एक तरफ तमाम विपक्षी पार्टियां ईवीएम से चुनाव का विरोध कर रही है। लेकिन सरकार ईवीएम छोड़ने को तैयार नहीं है। दूसरी ओर अगर विपक्ष की राय को दरकिनार करके एक साथ चुनाव का फैसला होता है तो विपक्षी पार्टियां सड़क पर उतर सकती हैं। 

आंध्र प्रदेश में बदल रही है राजनीति

लोकसभा चुनाव से पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की मुश्किले बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ उनकी बहन वाईएस शर्मिला को कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया है, जिससे कांग्रेस में जान लौटी है तो दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को गिरफ्तार करके खुद जगन ने तेलुगू देशम का माहौल बनाया है। इस बीच उनकी अपनी पार्टी में भगदड़ मची है और सांसदों के पार्टी छोड़ने का सिलसिला चल रहा है। उनके एक और सांसद ने बीते मंगलवार को पार्टी छोड़ दी। पिछले एक महीने में तीन सांसद उनकी पार्टी से अलग हो चुके हैं। गौरतलब है कि जगन की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने पिछले चुनाव में लोकसभा की 25 में से 22 और विधानसभा की 175 में से 157 सीटें जीती थीं। अगले दो-तीन महीने मे वां लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव होने वाले है। बताया जा रहा है कि जगन मोहन रेड्डी अपने कुछ सांसदों के टिकट काटने वाले हैं और कुछ सांसदों की सीटें बदलने की योजना है। ऐसे ही सांसद उनकी पार्टी छोड़ रहे हैं। मंगलवार को पार्टी छोड़ने वाले 40 साल के श्रीकृष्णा देवरायलु नरसारावपेट सीट से सांसद है। उन्हें दूसरी सीट दी जा रही थी लेकिन उन्होने पार्टी छोड़ दी। उनसे पहले कुरनूल के सांसद डॉक्टर संजीव कुमार और मछलीपट्टनम के सांसद वल्लाभानेनी बालाशौरी ने पार्टी छोड़ी थी। इस बीच उनकी बहन और कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष वाईएस शर्मिला ने आंध्र प्रदेश में दौरे शुरू कर दिए हैं। उन्होंने राज्य सरकार पर हमला करते हुए दावा किया है कि राज्य में विकास का कोई काम नहीं हुआ है और यहां तक कि राज्य की राजधानी तक नहीं बन पाई है।

कांग्रेस सरकार का फिर अडानी के साथ समझौता

राहुल गांधी फिर भारत जोड़ो यात्रा पर हैं और फिर उनकी पार्टी की एक राज्य सरकार ने अडानी समूह के साथ समझौता किया है। इस बार तेलंगाना की नई बनी सरकार ने समझौता किया है। पिछली बार जब राहुल यात्रा पर निकले थे तब राजस्थान की सरकार ने समझौता किया था। राहुल गांधी की वह यात्रा सात सितंबर को कन्याकुमारी से शुरू हुई थी। पांच महीने तक चली उस यात्रा का जिस दिन एक महीना पूरा हुआ था, तब यात्रा दक्षिण भारत के ऐसे इलाके में थी, जहां से कांग्रेस को बड़ी उम्मीदें हैं। उसी दिन यानी सात अक्टूबर को राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अडानी समूह के साथ 50 हजार करोड़ रुपए के निवेश का समझौता किया। गहलोत सरकार के समझौता करने का नतीजा यह हुआ कि राहुल गांधी पूरी यात्रा में रक्षात्मक रहते हुए अडानी समूह को निशाना बनाने में हिचकते रहे। इस बार यात्रा शुरू होने के पांच दिन के भीतर ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने अडानी समूह के साथ साढ़े 12 हजार करोड़ रुपए के निवेश का समझौता किया है। पहले गौतम अडानी के बेटे से हैदराबाद में मुख्यमंत्री की मुलाकात हुई और उसके बाद दावोस के विश्व आर्थिक मंच की बैठक में गौतम अडानी के साथ समझौता हुआ। इस बीच राहुल ने अब उद्योगपतियों खास कर अडानी का नाम लेना बंद कर दिया है। उन्होंने अरुणाचल प्रदेश में कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार देश के कुछ खास उद्योगपतियों के लिए काम करती है।

उद्धव ठाकरे को स्पीड पोस्ट से मिला न्योता

अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए हुआ आंदोलन पर वैसे तो पूरी तरह आरएसएस ने कब्जा कर लिया था, लेकिन उसमें शिव सेना ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी। शिव सेना के संस्थापक बाल ठाकरे संभवत: इकलौते नेता थे, जिन्होंने छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की खुल कर जिम्मेदारी ली थी और कहा था कि मस्जिद को शिव सैनिकों ने ढहाया है। इस मामले में अभियुक्त बनाए गए लालकृष्ण आडवाणी सहित भाजपा, आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के तमाम नेताओं ने तो अदालत में भी अपने को बेगुनाह बताया और अदालत ने उनकी सफाई पर भरोसा करते हुए उन्हें बरी भी कर दिया। लेकिन बाल ठाकरे ने खुल कर जिम्मेदारी ली थी और मुकदमे का सामना करते हुए ही उनका निधन हो गया था। बाद में बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे और परिवार के अन्य लोग अयोध्या जाते रहे और उन्होंने भी कभी इस बात से इनकार नहीं किया कि शिव सेना ने अयोध्या में मस्जिद का ढांचा गिराया था। अब अयोध्या में आधे-अधूरे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम हुआ तो आरएसएस के नियंत्रण वाले राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के कर्ताधर्ताओं ने घूम-घूम कर कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों के नेताओं को निमंत्रण पत्र बांटे लेकिन उद्धव ठाकरे को स्पीड पोस्ट के जरिए भेजा जो आयोजन से दो दिन पहले उन्हें मिला। सबसे दिलचस्प यह है कि हिंदी फिल्मों के हीरो-हीरोइन आदि को भी आयोजकों ने घूम-घूम कर न्योता दिया है। बीफ खाने के नाम पर एक समय दक्षिणपंथी ट्रोल सेना के निशाने पर रहे रणबीर कपूर को तो न्योता देने आरएसएस के शीर्ष पदाधिकारियों में से एक सुनील आंबेकर खुद गए थे। जाहिर है कि अयोध्या का कार्यक्रम पूरी तरह राजनीतिक था, जो लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर आयोजित किया गया था। 

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