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बलिया: ''सबके वोटे के चिंता बा, चुनाव बाद रसड़ा चीनी मिल के बात केहू ना करे ला''

देसी चीनी और गुड़ के लिए मशहूर रसड़ा, कभी ''रसदा'' के नाम से जाना जाता था। रसड़ा इलाके में कई घंटे गुजारने के बाद हमें इस बात का एहसास हो चला था कि रसड़ा में हर आदमी की जुबां पर सिर्फ़ एक ही सवाल है, ''आख़िर कब चालू होगी किसानों की अपनी चीनी मिल?” 
Ballia

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में एक है ''छोटी काशी'', जिसका असल नाम है रसड़ा। इसे बाबा विश्वनाथ नहीं, ''नाथ नगरी'' के नाम से भी जाना जाता है। बलिया जिले के रसड़ा में इन दिनों हर गली, हर नुक्कड़ पर चर्चा-ए-आम है विधानसभा चुनाव। सबकी जुबां पर सिर्फ एक ही टीस है, ''सबके वोटे के चिंता बा, चुनाव बाद रसड़ा चीनी मिल के बात केहू ना करे ला।''

देसी चीनी और गुड़ के लिए मशहूर रसड़ा, कभी ''रसदा'' के नाम से जाना जाता था। अंग्रेजी हुकूमत में इस इलाके का गुड़ रंगून तक जाया करता था। इकलौती चीनी मिल के बंद होने के बाद रसड़ा इलाके के किसानों की मायूसी उनका पीछा ही नहीं छोड़ रही है। योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव के शासन में किसने रसड़ा के लिए क्या किया है और क्या कर सकते थे, इस बात का अंदाजा इलाके के किसानों से बात करने के बाद लगने लगता है। 

रसड़ा इलाके में कई घंटे गुजारने के बाद हमें इस बात का एहसास हो चला था कि रसड़ा में हर आदमी की जुबां पर सिर्फ एक ही सवाल है, ''आखिर कब चालू होगी किसानों की अपनी चीनी मिल? रसड़ा कस्बे के समीपवर्ती माधवपुर गांव में स्थित यह चीनी मिल, इसका गेस्ट हाउस और प्रशासनिक दफ्तर बदहाल है। इस मिल की नींव कांग्रेस शासन में साल 1974 में रखी गई थी, जो सैकड़ों कर्मचारियों और उनके परिवार के हजारों लोगों की आजीविका का सबसे बड़ा जरिया थी। सरकार की उपेक्षा और लचर प्रबंधन ने 16 फरवरी 2013 को इस मिल की धड़कन बंद होने पर मजबूर कर दिया। सड़क से लेकर सदन तक हर जगह आवाज गूंजी, लेकिन वो नक्कारखाने में तूती साबित हुई। सैकड़ों कर्मचारी बेकार हो गए और इस झटके से रसड़ा का औद्योगिक विकास पटरी से जो उतरा तो फिर कभी आगे नहीं बढ़ पाया।

रसड़ा के सिर्फ दो किसान चीनी मिल लिमिटेड की मशीनों में ही जंग नहीं लगी है, बल्कि उन तमाम कर्मचरियों और किसानों की किस्मत पर भी जंग लग गई है जो गाहे-बगाहे यहां आते हैं और हसरत भरी निगाहों से इसके टूटे-फूटे गेट को निहारकर लौट जाते हैं। यह वही मिल है जिससे रसड़ा इलाके में काफी चहल-पहल हुआ करती थी। अब चीनी मिल के उदास परिसर में सिर्फ सुरक्षा गार्ड ही दिखते हैं या फिर जहरीले सांप-बिच्छू और खतरनाक जंगली सुअर, नीलगाय व सियार। 

किसान-कर्मचारी दोनों बेहाल

करीब 81 एकड़ में फैले चीनी मिल परिसर में सिर्फ तीन कर्मचारियों और पीआरडी के नौ जवान तैनात हैं, जो अपनी जिंदगी जोखिम में डालकर मिल परिसर की हिफाजत करते हैं। सुरक्षा अधिकारी शमशेर बहाहुर मौर्य के मुताबिक चीनी मिल की देख-रेख करने के लिए यहां कुल चार स्थायी कर्मचारी और संविदा पर नियुक्त एक एकाउंटेंट हैं। ये कर्मचारी पिछले चार सालों से वेतन का इंतजार कर रहे हैं। साल में एकाध बार पगार के रूप में टोकन एमाउंट मिल जाता है। इन्हें वेतन देने के लिए महकमे के पास बजट ही नहीं है। 

शमशेर बहादुर कहते हैं, ''हम स्थायी कर्मचारी हैं। नौकरी छोड़ें भी तो कैसे? अपने वेतन के लिए मुख्यमंत्री के पोर्टल पर कई बार अर्जी लगाई। हर बार एक जवाब आता है, ''पैसे के लिए सरकार से मांग की गई है, धन आते ही भुगतान कर दिया जाएगा।'' चीनी मिल में तैनात कर्मचारियों का करीब 60 लाख रुपये बकाया हो चुका है। नौकरी चलती रहे, इस उम्मीद में हम लाखों के कर्जदार हो गए। इस मिल में हजारों किसानों का शेयर है। उनसे बातचीत नहीं की गई। अचानक मिल पर ताला जड़ दिया गया। सरकार और अफसरों ने मिलकर करीब 150 स्थायी और 250 अस्थायी कर्मचारियों को भगवान भरोसे छोड़ दिया। समूचे पूर्वांचल में चुनाव की गर्मी है और हमारे घरों के चूल्हे ठंडे हैं। हर बार चुनाव आता है तो वोट मांगने वाले दुहाई देते हैं कि वो हर हाल में मिल चालू करा देंगे। मतदान खत्म होता है उसी के साथ चीनी मिल का मुद्दा दफन हो जाता है। कर्मचारियों की कौन कहे, बलिया जिले के हजारों गन्ना किसानों की आवाज उठाने वाला अब कोई नहीं है।''

सुरक्षा अधिकारी शमशेर बहादुर मौर्य यह भी कहते हैं, ''साहब, अजीब दास्तां है रसड़ा चीनी मिल की। मौके पर मिल बंद है। कल-पुर्जों और मशीनों में जंग लग चुकी है। सारी मशीनरी बर्बाद हो चुकी हैं, फिर भी मिल कागज पर मिल चालू है। मऊ जिले की घोसी चीनी मिल की मशीनों के पार्ट खराब होते हैं तो वहां के कर्मचारी आते हैं और इस मशीन के कल-पुर्जे निकालकर ले जाते हैं। मिल परिसर में पूरब और दक्षिण की बाउंड्री टूट चुकी है, जिसे ठीक कराने के लिए किसी को चिंता नहीं है। हम सभी दिन में भी टार्च लेकर निकलते हैं। मिल परिसर में आते-जाते कभी जहरीले सांप फन निकालकर खड़े मिलते हैं तो कभी जंगली सुअर और सियार। बस इतनी सी कहानी है हमारी और चीनी मिल की।''

किसी देवदूत का इंतजार 

करीब एक अरब से अधिक के घाटे में चल रही रसड़ा चीनी मिल के कर्मचारी ही नहीं, इलाके के लाखों किसान निराश हैं। सभी की उम्मीदों की लौ बुझती नजर आ रही है। सरकार इस मिल को न तो बंद कर रही है और न ही किसानों के शेयर का पैसा लौटा रही है। इसे चालू करने के बारे में भी कोई पुख्ता निर्णय नहीं लिया जा रहा है। किसानों को बेबसी से उबरने के लिए हर किसी को नए देवदूत का इंतजार है। ऐसा देवदूत जो पिछले एक दशक से बंद पड़ी मिल के सैकड़ों मजदूरों की जिंदगी में उम्मीद की नई किरण जगमगा सके।

रसड़ा इलाके के जाने-माने आंचलिक पत्रकार आलोक पांडेय कहते हैं, ''चीनी मिल के बंद होने से सैकड़ों मजदूर भुखमरी की कगार पर हैं। हाल ऐसा है कि अब तो लाखों गन्ना किसानों ने इसकी खेती से मुँह मोड़ लिया है। मिल की व्यवस्था बेपटरी हो चुकी है। जो भी सत्ता में आता है चीनी मिल के शुरू करने बात करता है और जैसे ही चुनाव की खुमारी उतरती है, यह मुद्दा गुम हो जाता है। प्रायः हर साल मिल को चालू करने का शोर उठता है, कुछ ही दिनों में थम जाता और किसान निराश हो जाते हैं। यह दस्तूर सालों से चला आ रहा है। भारी घाटे में चल रही चीनी मिल को नुकसान से बचाने के बजाए धन का बंदरबांट कर अधिकारियों ने इसका बेड़ा गरक किया है। डबल इंजन की सरकार अक्सर यूपी की चीनी मिलों के चलाने और किसानों को गन्ने का उचित दाम देने की बात करती है, लेकिन रसड़ा चीनी मिल के मामले में उनकी कथनी-करनी का फर्क साफ-साफ दिख जाता है। अब तो इस मिल को फिर से शुरू करने के बजाए उसे बेचने की बातें सुनाई देने लगी हैं।''

रसड़ा कताई मिल का बदहाल परिसर और गांधी प्रतिमा पर जमी धूल की पर्त

आलोक बताते हैं, ''छोटी काशी के नाम से मशहूर रसड़ा में पुराने जमाने में सड़े हुए गन्ने से चीनी बनाई जाती थी, जिसके चलते इस कस्बे का नाम 'रसदा' रखा गया। बाद में वो रसड़ा हो गया। लौंगलता, रसड़ा की प्रसिद्ध मिठाई है। गांधी पार्क, नाथ बाबा मंदिर, नाथ बाबा का पोखरा, काली मंदिर, पुरानी मस्जिद, ईदगाह मस्जिद, सीताराम का पोखरा, रोशन बाबा मजार आदि यहां खूबसूरत पौराणिक स्थान हैं। इन स्थानों की खूबसूरती भी अब चीनी मिल के खंडहर में बदल जाने की वजह से धूमिल होती जा रही है।

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रसड़ा इलाका पूर्वांचल के बलिया जिले का एक ''भदेस'' जिला है, जिसे लोग अक्सर बागी बलिया कहकर पुकारते हैं। भारत को आजादी साल 1947 में मिली थी, लेकिन बलिया के लोगों ने खुद को ब्रिटिश हुकूमत से पांच साल पहले ही आजाद करा लिया था। फिरंगियों की कार्रवाई में दुखी कोइरी समेत कई जांबाजों को शहादत देनी पड़ी, जिसके बाद 20 अगस्त 1942 को ब्रिटिश हुकूमत के कलेक्टर जेसी निगम ने बाकायदा चित्तू पांडेय को प्रशासन का हस्तांतरण किया और खुद चलते बने। बागी बलिया के लोगों ने भले ही अंग्रेजों को झुका दिया, लेकिन जिस रसड़ा चीनी मिल से लाखों किसानों के घरों में खुशहाली पहुंचती रही, उसे चलावाने वाले हुक्मरानों को नहीं झुका सके। 

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रसड़ा चीनी मिल को दोबारा शुरू करने के लिए साल 2018-19 के बजट में 350 करोड़ की धनराशि का प्रावधान किया था। टेंडर भी निकला, लेकिन इस मिल को संचालित करने के लिए कोई देवदूत आगे नहीं आया। योगी सरकार ने चीनी मिल के साथ 150 मेगावाट का इलेक्ट्रिक जनरेशन सिस्टम और 30 किलोलीटर क्षमता वाला एक एथेनॉल प्लांट लगाने की योजना तैयार की थी। दावा किया गया था कि इससे 24,500 किसानों को सीधे तौर पर लाभ मिलेगा। योगी की घोषणा के बाद रसड़ा समेत समूचे बलिया के किसानों और मजदूरों के घरों में दिवाली मनाई गई थी। 

रसड़ा चीनी मिल जिस माधवपुर गांव में है। यहां हमारी मुलाकात हुई पूर्व प्रधान अरुण कुमार सिंह मुन्ना से। वह बनारस में फौजदारी के जाने-माने अधिवक्ता हैं। पिछले चार दशक से इनके परिवार के लोग ही ग्राम प्रधान चुने जाते रहे हैं। मुन्ना खुद भी ग्राम प्रधान रह चुके हैं। वह कहते हैं, ''जब चीनी मिल चालू थी तब किसान से लेकर ठेला-खोमचा लगाने वाले तक खुशहाल थे। चीनी मिल पर ताला लगाते समय उसके शेयर होल्डर्स किसानों से पूछा तक नहीं गया। मिल की बदहाली और लूट-खसोट के लिए साफतौर पर सरकार और प्रबंधन जिम्मेदार है।''

अरुण कुमार सिंह मुन्ना पूर्व ग्राम प्रधान माधवपुर (रसड़ा)

मुन्ना कहते हैं, ''करीब 10 लाख कुंतल गन्ने की पेराई की क्षमता वाली रसड़ा चीनी मिल को चलाने से पहले हर साल मरम्मत होती थी। उपकरण भी बदले जाते थे, लेकिन कागजों पर। अफसर मिलकर पैसे का बंदरबांट कर लेते थे। आखिरी समय तक चीनी मिल का रोला और बायलर ठीक थे। सिर्फ पैन और क्वाड की गड़बड़ी के चलते गन्ने का रस नहीं पक पा रहा था, जिसकी मरम्मत नहीं कराई जा सकी। नौकरशाहों ने सरकार के पास रिपोर्ट भेज दी कि अब इस मिल को किसी सूरत में नहीं चलाया जा सकेगा। अफसर और नेता मिलकर इस मिल को ही चाट गए। कुछ स्थायी कर्मचारियों को घोसी, तो कुछ को आजमगढ़ की सठियांव चीनी मिल में तबादला कर दिया गया।''

बदहाल रसड़ा चीनी मिल की ओर इशारा करते हुए अरुण कुमार सिंह बताते हैं, 'यही मिल पहले किसानों की बेटियों के हाथ पीले किया करती थी जो अब मुसीबत का सबब बन गई है। हर बार की तरह इस चुनाव में भी यही चीनी मिल चुनावी मुद्दा है। सभी दलों के उम्मीदवार वोटरों की देहरी पर माथा टेक रहे हैं। कोई मिल को चालू कराना का दावा कर रहा है तो कोई इस मुद्दे को सदन में उठाने का। रसड़ा इलाके में अब गन्ने की नहीं, सिर्फ आश्वासनों के सब्जबाग लगाए जा रहे हैं। योगी सरकार में दो मंत्री बलिया के थे और इतने ही अखिलेश के शासन में भी। बलिया के आनंद स्वरूप शुक्ला, उपेंद्र तिवारी से लगायत नारद राय और रामगोविंद चौधरी मंत्री बने। ये सभी गन्ना किसानों की खुशहाली के लिए वादे करते रहे, लेकिन बीमार चीनी मिल को जिंदा नहीं करा पाए। लाचारी में किसानों को गेहूं और सरसों की खेती करनी पड़ रही है जिससे उनका न भविष्य संवर पा रहा है और न ही आसानी से बेटियों की शादियां हो पा रही हैं।''   

कताई मिल के लिए 23 साल से आंदोलन

रसड़ा में जो हाल चीनी मिल का है, उससे भी बदतर स्थिति है कताई मिल की। पिछले 23 साल से बंद पड़ी मिल को चालू कराने को लेकर आंदोलित सैकड़ों श्रमिक आज भी उम्मीद लगाए हुए हैं। इसे लेकर कई बार प्रदर्शन हुए, पर शासन ने कोई कदम नहीं उठाया। मिल परिसर में लगी महात्मा गांधी की मूर्ति पर धूल जमी है। रसड़ा के नागपुर गांव के समीप 90 एकड़ जमीन पर 23 करोड़ से 10 अगस्त 1986 को मिल की स्थापना हुई थी। उन दिनों 1500 श्रमिक कार्य करते थे। हजारों लोगों की रोटी-रोटी चलती थी। मिल को बीमार व घाटे का उपकरण दिखाकर मार्च 1999 में बंद कर दिया, तब से सभी कामगार बेकार हैं और दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।

मिल प्रबंधन ने 1500 मजदूरों में से सिर्फ 300 को मामूली मुआवजा देकर सेवामुक्त कर दिया है। इनका बोनस, ग्रेच्युटी और फंड वगैर घपले-घोटाले की भेंट चढ़ चुका है। घोटाले की जांच कराने के लिए सालों से कर्मचारी आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। कताई मिल श्रमिक संघ के अध्यक्ष जेपी वर्मा कहते हैं, ''रसड़ा कताई मिल को चालू कराने और श्रमिकों के देनदारियों को लेकर हम आखिरी सांस तक संघर्ष जारी रखेंगे। कतई मिल के श्रमिकों का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। अभी फैसला आना बाकी है।''  

चुनाव आता है, तभी आते हैं नेता

बलिया की रसड़ा सीट से बसपा विधायक उमाशंकर सिंह साल 2012 से विधानसभा में प्रतिनिधित्व करते आ रहे हैं। छात्रशक्ति के नाम से इनकी कंस्ट्रक्शन कंपनी है, जो देश भर में सड़क-पुल वहैरह बनाने का ठेका लेती है। इन्होंने चीनी मिल को चालू करने के लिए सदन में आवाज उठाई, लेकिन वो बेनतीजा रही। यूं तो रसड़ा ऐसी सीट है जो बसपा को जीत की गारंटी देती रही है, लेकिन अबकी हालात कुछ बदले हुए हैं। चीनी मिल पर तालाबंदी सिर्फ रसड़ा ही नहीं, समूचे बलिया का सबसे बड़ा मुद्दा है। रसड़ा इलाके को जिला बनाने की मांग भी लंबे समय से उठाई जा रही है।

ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष सौरभ कुमार श्रीवास्तव बलिया की सियासत में गहरी दखल रखते हैं। वह कहते हैं, ''रसड़ा सीट कई मायने में बेहद खास है। साल 2002 के बाद इस सीट पर बसपा प्रत्याशियों को हराने में कोई दल सफल नहीं हो सका। श्रीनाथ बाबा के ऐतिहासिक लठ और रोट की पूजा करने वाले इस इलाके में सर्वाधिक आबादी दलितों की है। राजभर, राजपूत, चौहान, मुस्लिम, यादव के अलावा मौर्य-कुशवाहा, नोनिया, गड़ेरिया भी प्रत्याशिय़ों के हार-जीत का फैसला करते हैं। साल 2012 से अब तक उमाशंकर सिंह और इससे पहले दो मर्तबा घूराराम विधायक रहे। साल 1996 में भाजपा से अनिल कुमार और इससे पहले साल 1993 में बसपा से घूरा राम चुनाव जीते। उम्मीद है कि इस बार बसपा, सपा और भाजपा में तिकोनी लड़ाई होने के आसार हैं।''

ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष सौरभ कुमार श्रीवास्तव

बसपा के उमाशंकर सिंह के मुकाबले सपा-सुभासपा के साझा प्रत्यासी महेंद्र चौहान और भाजपा के बब्बन राजभर मैदान में हैं। ये दोनों भले ही प्रत्याशी बाहरी हैं, लेकिन इनसे अबकी बसपा के उमाशंकर सिंह को कड़ी टक्कर मिल रही है। भाजपा शासन में दर्जाप्राप्त राज्यमंत्री रहे अरिजीत सिंह दावा करते हैं, ''भाजपा जीतेगी तभी यह चीनी मिल चालू हो पाएगी। निवर्तमन विधायक उमाशंकर सिंह ठेका माफिया हैं। इनके कार्यकाल में विकास कार्यों के नाम पर जमकर लूट-खसोट हुई है। सीएम योगी ने कई बार चीनी और कताई मिलों को चालू कराने का प्रयास किया, लेकिन इलाकाई विधायक की चिंता ठेके हथियाने में लगी रही।''

आरोप-प्रत्यारोपों के बीच रसड़ा में सबसे बड़ा सवाल अभी तक अनुत्तरित है। यह सवाल गन्ना किसानों के भविष्य का है। रसड़ा इलाके के किसानों का रंज आज भी वही है, जो एक दशक पहले था। प्रगतिशील किसान चंद्रभान सिंह, सुरेश सिंह मुन्ना, इंद्रजीत सिंह, विक्रमादित्य सिंह, हरेंद्र तिवारी, रविंद्र यादव, मुन्ना यादव, नथुनी सिंह, मैनेजर सिंह, अवधेश सिंह जैसे हजारों लोगों को शिकायत है कि चुनाव के दिनों में भी अब कोई हाल-चाल ठीक से नहीं लेता। सियासी दलों के लीडर तभी जागते हैं जब चुनावी सीजन आता है। सुभासपा-सपा के साझा प्रत्याशी महेंद्र चौहान और बसपा के उमाशंकर सिंह चुनावी समीकरण अपने पक्ष में बताते हैं तो भाजपा के बब्बन राजभर भी। रसड़ा में इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका फैसला सात मार्च को गन्ने का रस बरसाने वाले रसड़ा इलाके के लोगों के सामने ही होगा।

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