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बनारस : छत्तीसगढ़ में काटे जा रहे हसदेव अरण्य जंगल को बचाने के लिए आंदोलन-प्रदर्शन

सरकारी अमला पेड़ों को काटने के लिए आदिवासियों के साथ आंखमिचौली खेल रहा है। कोयले के खनन की वजह से हसदेव अरण्य के आठ लाख पेड़ों को काटा जाना है। साल 2011 में इस परियोजना को हरी झंडी दी गयी थी, उस समय से ही स्थानीय लोग भी इसका विरोध कर रहे हैं।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में कोयले के लिए छत्तीसगढ़ में काटे जा रहे हसदेव अरण्य जंगल को बचाने के लिए आंदोलन और प्रदर्शन शुरू हो गया है। साझा संस्कृति मंच ने बनारस में जुलूस निकाला और सरकार की दोषपूर्ण नीतियों की कड़ी आलोचना  की। प्रदर्शनकारी अपने हाथ में पशु-पक्षियों और आदिवासियों का घर न उजाड़े जाने का स्लोगन लिखा पोस्टर लिए हुए थे।

कैंट क्षेत्र स्थित नेपाली कोठी से शहर के समाजसेवियों और प्रबुद्ध नागरिकों ने छत्तीसगढ़ में कोयले के लिए काटे जा रहे हसदेव अरण्य जंगल को बचाने के लिए जुलूस निकाला और प्रदर्शन किया। हसदेव उजाड़ना बंद करो, हरियाली बचाओ के नारे लगाते लोग कचहरी स्थित अंबेडकर पार्क में पहुंचे और जुलूस सभा में तब्दील हो गया। वक्ताओं ने कहा, "छत्तीसगढ़ के आदिवासी हसदेव अरण्य पेड़ों के नीचे सहारा ढूंढ रहे हैं। जंगलों को मरघट में तब्दील किया जा रहा है। उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य का इलाक़ा है जो एक लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला हुआ है। कोयला निकालने के लिए रह-रह कर तीन विस्फोटों से इलाक़ा दहलने लगा है। विस्फोटों की वजह से उड़ी धूल और बारूद की गंध को तेज़ हवाएं पूरे फ़िज़ा में फैला रही है। लोग अपने सिर और नाक को ढंक रहे हैं और कुछ छांव की तलाश कर रहे हैं, मगर पेड़ों को काटना ज़रूरी बताया जा रहा है, क्योंकि इनके नीचे कोयले के प्रचुर भंडार मौजूद है।"

जाने-माने एक्टिविस्ट नंदलाल मास्टर ने कहा, "आदिवासी और स्थानीय लोगों के भारी विरोध के बावजूद सुरक्षाबलों और सरकारी अमले की भारी तैनाती के बीच ये काम शुरू हो चुका है। मगर अब स्थानीय आदिवासी और ग्रामीण जंगलों में डेरा डाले हुए हैं। वो पेड़ों को काटने का विरोध कर रहे हैं। सरकारी अमला पेड़ों को काटने के लिए आदिवासियों के साथ आंखमिचौली खेल रहा है। कोयले के खनन की वजह से हसदेव अरण्य के आठ लाख पेड़ों को काटा जाना है। साल 2011 में इस परियोजना को हरी झंडी दी गयी थी, उस समय से ही स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे हैं। उससे पहले साल 2010 तक इस इलाक़े में खनन प्रतिबंधित था। स्थानीय लोग पिछले एक दशक से हसदेव के जंगलों को खनन के लिए दिए जाने का विरोध कर रहे हैं।"

साझा संस्कृति मंच के वल्लभाचार्य पांडेय ने कहा, "छत्तीसगढ़ के आदिवासी सरकार द्वारा खनन की अनुमति की वैधता को इस तर्क के सात चुनौती दे रहे हैं कि ये इलाक़ा संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है जहां पंचायत राज (अनुसूचित इलाक़ों में विस्तार) क़ानून यानी 1996 के पेसा क़ानून के तहत भी आता है। साथ ही 2006 के वन अधिकार क़ानून के तहत आदिवासियों को हसदेव के जंगलों में सामुदायिक अधिकार भी प्राप्त हैं। बिना ग्राम सभा की अनुमति के इस संरक्षित इलाक़े में किसी तरह की परियोजना नहीं शुरू की जा सकती है। छत्तीसगढ़ के अंदर 55 हज़ार मिलियन टन कोयला है और हसदेव अरण्य के जंगलों के नीचे सिर्फ़ 10 प्रतिशत ही कोयला मौजूद है। खनन का मतलब है प्राकृतिक संपदा का व्यापक विनाश। इसीलिए लोग अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए भी लड़ रहे हैं। क्या ऐसे इलाकों से भी कोयला निकालना ज़रूरी है, जब दूसरे विकल्प मौजूद हैं। हसदेव अरण्य का इलाक़ा मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान और पलामू के जंगलों को जोड़ता है जहां शेर और हाथियों के संरक्षण की योजनाएं चल रही हैं?"

क्लाइमेंट एजेंडा की एक्टिविस्ट एकता शेखर ने कहा, "पेड़ हम सभी का जीवन जंगल बैंक है। इस क्षेत्र में जो आदिवासी और अन्य परंपरागत निवासी बसे हुए हैं,  वह सभी बैंक का काम करते हैं। इस जंगल का विनाश पूरे देश का विनास है। प्राकृतिक संपदा ख़त्म होने से न सिर्फ लोगों की आजीविका पर असर पड़ेगा, बल्कि उनकी 'संस्कृति, परम्परा और देवी-देवता भी ख़त्म' हो जाएंगे। जंगल बचाने के लिए आंदोलन चला रहे आदिवासी समाज को अब विकास शब्द से ही डर लगने लगा है। इन्हें लगता है कि अगर जंगल बचा रहेगा तो ही उनकी आने वाली पीढ़ी भी बची रहेगी। हसदेव के जंगल, मध्य भारत में फेफड़ों जैसा काम करते हैं जिनकी मौजूदगी से न सिर्फ़ मानसून नियंत्रित रहता है, बल्कि भूमिगत जल भी। पर्यवारंविदों को चिंता है कि इन जंगलों के कटने से पर्यावरण पर तो असर पड़ेगा ही साथ ही बड़े पैमाने पर खनन की वजह से कई नदियों के अस्तित्व पर संकट भी पैदा हो जाएगा।"

जंगलों के चीरहरण का मुद्दा उठाते हुए रवि शेखर ने कहा, "कटान क्षेत्र में किसी को आने-जाने पर पाबंदी लगाकर डर का माहौल बनाया जा रहा है जो अलोकतांत्रिक और अन्यायपूर्ण है। साझा संस्कृति मंच इसका प्रतिकार करता रहेगा। सरगुजा, कोरबा और सूरजपुर जिले के बीच करीब एक लाख 70 हजार हेक्टेयर में हसदेव का जंगल फैला है जो अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है। हसदेव अरण्य, मध्य भारत के आखिरी समृद्ध जंगलों में से एक है। मूल निवासी कहे जाने वाले गोंड आदिवासियों की बड़ी संख्या यहां रहती है। जंगल के बीच से हसदेव नाम की नदी भी बहती है। सदियों जंगली से हाथियों का कॉरिडोर है यह क्षेत्र। जंगलों को इसलिए उजडा जा रहा है क्योंकि कोयला निकालने की योजना भारतीय पूंजीपति अडानी को मिली हुई है।

"जुलूस में शामिल पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने बेहद गंभीर सवाल उठाते हुए कहा कि देश में बिजली की डिमांड बढ़ती जा रही है। एक्टिविस्ट रंजू, डॉ इन्दु पांडे, नीति, जागृति राही, रामजन्म भाई, डॉ अनूप श्रमिक, पूनम, सुरेंद्र सिंह, राजेश, मुकेश झंझरवाला, सच्चिदानंद ब्रह्मचारी, प्रवीण, सोनी , आशा, नीलम पटेल, दीपक पुजारी, सतीश सिंह, मैत्री, धनञ्जय ने कहा, "बिजली आधारित सुख सुविधा के सामान एयरकंडीशनिंग आदि का उपयोग बढ़ता जा रहा है। हर साल गर्मियों में देश के समाचार पत्रों में कोयले की कमी से परेशान कोयला बिजलीघरों की खबरें आ रही हैं।  इस कमी को पूरा करने के लिए हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुन दोहन करने पर आमादा हैं। हसदेव में भी आदिवासियों को उजाड़कर, पेड़ पौधों पशुओ को तबाह करके, जंगल को नष्ट करके हम कोयला निकालेंगे और शहरी मध्यमवर्ग को एसी की ठंडक देंगे। वक्त आ गया है कि हमें यह सोचना होगा कि हमें एसी की ठंडक चाहिए या सांस लेने के लिए ऑक्सीजन?

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