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मुद्दा: ज्ञानवापी मस्जिद का शिवलिंग असली है तो विश्वनाथ मंदिर में 250 सालों से जिसकी पूजा हो रही वह क्या है?

ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े सवालों का जवाब ढूंढने के लिए ‘न्यूज़क्लिक’ के लिए बनारस में ऐसे लोगों से सीधी बात की, जिन्होंने अपना बचपन इसी धार्मिक स्थल पर गुज़ारा।
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उत्तर प्रदेश के ज्ञानवापी मस्जिद में मिले कथित शिवलिंग के मामले को जिस तरह से तूल दिया जा रहा है उससे बनारस ही नहीं, समूचे देश में खतरनाक वितंडा खड़ा हो गया है। बड़ा सवाल यह खड़ा हुआ है कि ज्ञानवापी मस्जिद में मिला कथित शिवलिंग अगर असली है तो पिछले ढाई सौ साल से जिस शिवलिंग की पूजा की जा रही है आखिर वह क्या है?

बड़े जोर-शोर से दावा किया जा रहा है कि मुगल शासक औरंगज़ेब आतातायी था। उसने ही काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर उसके ऊपर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया। अगर यह तथ्य सही है तो बनारस के ऐतिहासिक कला भवन की गैलरी में बनारस के मंदिरों और पुजारियों के संरक्षण के बाबत औरंगज़ेब के फरमान का जो दस्तावेज मौजूद है वह जाली है, फर्जी है?

ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े सवालों का जवाब ढूंढने के लिए ‘न्यूज़क्लिक’ के लिए बनारस में ऐसे लोगों से सीधी बात की, जिन्होंने अपना बचपन इसी धार्मिक स्थल पर गुजारा। कभी पतंग उड़ाते तो कभी गुल्ली डंडा खेलते। इन्हीं में एक हैं पौराणिक महत्व वाले काशी करवत मंदिर के महंत गणेश शंकर उपाध्याय। काशी करवत मंदिर ज्ञानवापी मस्जिद से चंद कदम ही दूर है। मस्जिद के पश्चिमी दिशा में महंत का आवास है। 50 वर्षीय गणेश शंकर का बचपन इसी ज्ञानवापी मस्जिद में खेलते-कूदते गुजरा है।

काशी करवत मंदिर के महंत पं.गणेश शंकर उपाध्याय

वह कहते हैं, "मस्जिद में आने वाले मुसलमानों के वजू करने के लिए जिस छोटे तालाब में भगवान विश्वेश्वर का कथित शिवलिंग बताया जा रहा है वह बात सरासर झूठी है। श्रृंगार गौरी के पूजा-प्रार्थना के बहाने इसे योजनाबद्ध ढंग से मंदिर-मस्जिद का मुद्दा बनाया जा रहा है और इस मुद्दे को बेवजह तूल दिया जा रहा है। हम बचपन से देखते आ रहे हैं कि यहां कभी कोई शिवलिंग नहीं था। वैसे भी वजू के स्थान पर शिवलिंग होने का कोई औचित्य नहीं है।

हालांकि महंत गणेश शंकर का मानना है कि मस्जिद के स्थापत्य को देखकर कोई भी कह सकता है कि ज्ञानवापी पहले मंदिर रहा होगा। मस्जिद में मंदिर शैली के खंभे लगे हैं, जिससे यह माना जा सकता है कि कालांतर में यह भगवान विश्वेश्वर का मंदिर रहा होगा। लेकिन हमें यहां न कभी कोई शिवलिंग दिखा और न ही तहखाना। मस्जिद के आगे के हिस्से के पहली मंजिल पर किसी देवी-देवता का विग्रह होना अविश्वनीय है।"

शिवलिंग बनाम फव्वारा!

बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब का हवाला देते हुए महंत पंडित गणेश शंकर उपाध्याय बताते हैं, "आजाद भारत में साल 1992 के पहले यहां मंदिर-मस्जिद का कोई विवाद नहीं था। मुझे आज भी याद है कि हम लोग बड़े आराम से ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में खेलने के लिए जाया करते थे। हमारे दादा गुरुजी के यहां अक्सर ज्ञानवापी मस्जिद के मौलवी भी आते रहे हैं। हमारे आवास का हिस्सा भी मस्जिद के चंद फासले पर है। ज्ञानवापी का मुद्दा तब उठा जब आयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई। हमें अपना बचपन आज भी याद आता है। हमारे पूर्वज बताते थे कि ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर विवाद और मुकदमें के बावजूद दोनों संप्रदायों के बीच बहुत गहरा सामंजस्य था। मस्जिद के कुछ ऐसे हिस्से थे, जिसे मुसलमानों ने हिन्दू पुजारियों को रहने के लिए दिया था।"

"अनगिनत मर्तबा हम ज्ञानवापी मस्जिद में गए हैं। हमने तालाब में मछलियों को चारा भी खिलाया है।  जिस जगह भगवान विश्वेश्वर का शिवलिंग होने का दावा किया जा रहा है, वह तालाब के बीचो-बीच बना एक मामूली, मगर पुराना फव्वारा है। इस फव्वारे को हम ऐतिहासिक कह सकते हैं, लेकिन शिवलिंग नहीं। फव्वारे को जो लोग शिवलिंग बताकर वितंडा खड़ा कर रहे हैं वह बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब के हिमायती नहीं, सिर्फ स्वार्थी हैं। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां कभी ऐसा विवाद खड़ा होगा। पहले कितना भाईचारा और अच्छा माहौल था, जो अब सपना हो गया है।"

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महंत कहते हैं कि बात शिवलिंग की उठी है तो भगवान विश्वेश्वर के मूल ज्योर्तिलिंग का आज भी कहीं अता-पता नहीं है। काशी विद्वत परिषद के कुछ पदाधिकारी और अन्य लोग ज्ञानवापी के वजूखाने को विश्वेश्वर भगवान का गर्भगृह बता रहे हैं। ज्ञानवापी इलाका विश्वेश्वर का स्थान जरूर था, लेकिन इसका प्रामाणिक दस्तावेज मौजूद नहीं है। जिसे शिवलिंग बताया जा रहा है वह फव्वारा है और उसके किनारे गोल आकार की फव्वारे की हौदी है।

"जिन महिलाओं ने श्रृंगार गौरी के पूजा-प्रार्थना के लिए कोर्ट में अर्जी डाली है शायद उन्हें यह पता ही नहीं है कि यहां इनकी पूजा कभी नहीं रोकी गई। हम नहीं जानते कि कोर्ट में याचिका दायर करने वालों का असली मकसद क्या है?  हमें लगता है कि इस मामले का हल सिर्फ बातचीत से नहीं निकल सकेगा। शीर्ष अदालत को ही सच की पड़ताल करनी होगी और बगैर किसी दबाव के न्यायसंगत फैसला देना होगा। सुनने में आ रहा है कि कुछ लोग नया नेरेटिव गढ़ रहे हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद में मिलने वाला कथित शिवलिंग पन्ना धातु का है। किसी भी धर्मिक ग्रंथ में इस बात का उल्लेख नहीं है कि भगवान विश्वेश्वर का शिवलिंग पन्ने का था। वैसे भी फव्वारा और उसकी हौदी को देखकर कोई भी कह सकता है कि यह शिवलिंग बिल्कुल नहीं है। हद तो यह है कि प्रोपगंडा के जरिए इस मुद्दे पर सिर्फ झूठ और फरेब का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है।"

मस्जिद के हर हिस्से में जाते थे हिंदू

काशी करवत मंदिर के महंत पंडित गणेश शंकर उपाध्याय यह भी बताते हैं, "पहले ज्ञानवापी मस्जिद में किसी तरह की रोक-टोक नहीं थी। सीढ़ियों से उतरकर ग्राउंड फ्लोर में एक बड़ा हॉल था और उसमें कई खंभे थे। सीढ़ी के बगल वाले कमरे में भोला यादव की कोयले की दुकान हुआ करती थी। उसके ठीक बगल में चूड़ी की दुकान थी और चूड़ीहारिन पूरे मोहल्ले की महिलाओं को हर तीज-त्योहार पर चूड़ी पहनाने जाया करती थी। इसके बाद नंदी के मुंह के ठीक सामने व्यास जी का कमरा था, जहां वह अपना व्यासपीठ का सामान रखा करते थे। केदारनाथ व्यास के छोटे भाई चंदर, व्यास चबूतरे के ऊपर चढ़कर जाया करते थे। पीछे जो दरवाजा है वह ऊपर जाता है और वह खुलता भी था। मस्जिद के हर हिस्से में हिंदू जाते थे और वहां किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं था। यदा-कदा हमारी पतंगें कटकर मस्जिद में चली जाती थीं तो हम उसे लेने जाते थे। जिस स्थान पर खेलते-कूदते समूचा बचपन गुजर गया,  वहां कुछ लोग अचानक पहुंचे तो फव्वारे की टोटी खोजने में जुट गए। रही बात ज्ञानवापी परिसर की पौराणिकता की तो वहां पहले ज्ञानोदक तीर्थ था।"

महंत परिवार के महेश उपाध्याय कहते हैं, "मुझे वह  वाकया आज भी याद है जब ज्ञानी जैल सिंह बतौर गृहमंत्री बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने आए थे। उन्होंने छत्ताद्वार से प्रवेश किया तो वह मस्जिद को ही मंदिर समझकर अंदर चले गए। उनके साथ चौक के कोतवाल पीछे-पीछे थे। मैंने उनको पहचान लिया और स्थिति स्पष्ट की। इसी दौरान मस्जिद के मौलवी ने ज्ञानी जैल सिंह बताया कि यह मस्जिद है और मंदिर अभी आगे है। इसके बाद वह मस्जिद से निकलकर मंदिर में गए।"

औरंगज़ेब पर कितने सवाल?

सिर्फ बनारस ही नहीं, देश भर की मीडिया साल 1965 में प्रकाशित वाराणसी के गजेटियर के हवाले से दावा कर रही है कि इसके पेज संख्या 57 पर साफ-साफ कहा गया है कि 09 अप्रैल 1669 को औरंगज़ेब ने अपने प्रादेशिक गवर्नर को फरमान जारी किया था कि काशी के मंदिरों और संस्कृत स्कूलों को नष्ट कर दें। उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से प्रकाशित गजेटियर में भी श्री काशी विश्वनाथ मंदिर और बेनी माधव मंदिर के ध्वस्तीकरण का जिक्र किया गया है। 1965 में प्रकाशित गजेटियर में यह भी उल्लेख है कि साल 1669 में औरंगज़ेब के आदेश पर दोनों मंदिरों को गिराया गया था। गजेटियर के 10वें पृष्ठ पर जिले का प्रशासनिक नाम वाराणसी किए जाने की तिथि 24 मई 1956 अंकित है। उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गजेटियर वाराणसी का प्रकाशन यूपी सरकार ने किया था और सरकारी प्रेस इलाहाबाद में छपा था। पेज संख्या 25 से 77 तक इस गजेटियर में वाराणसी का इतिहास दर्ज है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी की मान्यता है कि "साल 1669 में औरंगज़ेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर का एक हिस्सा तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई थी। इसके पहले 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की सुल्तान ने मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद का निर्माण कराया था। इसके बाद मुगल बादशाह अकबर ने 1585 में विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया। शिवलिंग को बचाने के लिए महंत परिवार के मुखिया शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी कूप में कूद गए थे। फिर अहिल्याबाई होल्कर ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। साल 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोना दान किया, जिससे मंदिर के शिखर को स्वर्णमंडित कराया गया।"

औरंगज़ेब का फ़रमान!

हिन्दूवादी नेता और तमाम इतिहासकार इन दिनों यह दावा करते घूम रहे हैं कि मुगल शासक औरंगज़ेब आततायी था। अगर यह सच है तो इतिहास के पन्नों से उन भ्रांतियों को भी दूर किया जाना जरूरी है जो बनारस के काशी हिन्दू विश्व विद्यालय परिसर के कला भवन की गैलरी में सनद के तौर पर मौजूद है। औरंगज़ेब का एक दुर्लभ फरमान बीएचयू भारत कला भवन के पास आज भी मौजूद है। इस आर्ट गैलरी की निदेशक डा. जसविंदर कौर के  मुताबिक, "औरंगज़ेब द्वारा जारी फ़ारसी भाषा का फरमान इस बात का संकेत करता है कि औरंगज़ेब को ब्राह्मणों के प्रति काफी लगाव था। उस समय बनारस का दीवान अबुल हसन था, जिसको औरंगज़ेब ने मंदिर और पुजारियों की हिफाजत के बाबत फरमान जारी किया था, जिस पर मुगल शासन की शाही मुहर भी लगी हुई है। कला भवन में इसका हिन्दी रुपांतरण भी मौजूद है।"

औरंगज़ेब ने वाराणसी में तैनात अपने सिपहसलार को संबोधित करते हुए फारसी भाषा में जो फरमान जारी किया था इस प्रकार है, "अब्दुल हसन को यह जानकारी हो...हमारे धार्मिक कानून द्वारा यह निर्णय किया गया है कि पुराने मंदिर न तोड़े जाएं एवं नए मंदिर भी न बनाए जाएं। इन दिनों हमारे आदर्श और पवित्र दरबार में यह खबर पहुंची है कि कुछ लोग द्वेष एवं वैमनस्यता के कारण बनारस और उसके आसपास के क्षेत्रों में कुछ ब्राह्मणों को परेशान कर रहे हैं। साथ ही मंदिर की देखभाल करने वाले ब्राह्मणों को उनके पदों से हटाना चाहते हैं, जिससे उस संप्रदाय में असंतोष पैदा हो सकता है। इसलिए हमारा शाही आदेश है कि फरमान के पहुंचते ही तुम्हें यह चेतावनी दी जाती है कि भविष्य में ब्राह्मणों और अन्य हिन्दुओं को किसी तरह के अन्याय का सामना न करना पड़े। इस प्रकार से सभी शांतिपूर्वक अपने व्यवसायों में लगे रहें एवं हमारे अल्लाह द्वारा दिए गए साम्राज्य (जो हमेशा बरकरार रहेगा) में पूजा-पाठ करते रहें। इस पर शीघ्रातिशीघ्र विचार होना चाहिए।"

औरंगजेब की हुकूमत के दस्तावेजों के मुताबिक बनारस के मंदिरों और पुजारियों को लेकर मुगल शासक औरंगज़ेब का शाही फरमान 15 जुम्द-स-सनिया हिजरी 1069 (1658-59 ई.) में जारी किया गया था। भारत कला भवन में सिर्फ औरंगज़ेब का ऐतिहासिक दस्तावेज ही नहीं, जेम्स प्रिन्सेप द्वारा 1822 ईस्वी में बनाया गया दुर्लभ नक्शा भी मौजूद है, जो उस समय के बनारस के स्थिति को दर्शाता है। यहां बनारस की कंपनी शैली में बनी तमाम ऐसी पेंटिंग्स भी मौजूद हैं जो दुनिया भर में मशहूर हैं। मुगल शासन में भारतीय कलाकार राजाओं को पेंटिंग बनाने का हुनर भी सिखाया करते थे। मुग़ल स्कूल घराने के चित्रकार मूलचंद की दुर्लभ पेंटिंग भारत कला भवन में ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में मौजूद है।"

बनारस के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के इतिहास, विभाग के अध्यक्ष रहे प्रोफेसर परमानंद सिंह ने 17 सितंबर 2005 को ‘दैनिक जागरण’ के वाराणसी संस्करण में औरंगज़ेब के फरमान पर एक आलेख में कहते हैं, "औरंगज़ेब ईमानदार शासक था, लेकिन उसके बारे में अनेक गलतफहमियां हैं, क्योंकि वह जिद्दी स्वभाव का था। वह शाही खजाने से अपने व्यक्तिगत खर्च और भोजन के लिए धन नहीं लेता था। औरंगज़ेब एक अच्छा कलाकार भी था। वह टोपी बनाता था और उसे बेचने पर जो आमदनी होती थी उसी से अपना खर्च चलाता था।"

बनारस के कई इतिहासविद तो यह भी बताते हैं कि औरंगज़ेब कुरान की आयतों को कागज पर लिखता था और उससे होने वाली आय से भी वह अपनी निजी जरूरतों को पूरा करता था। वह मंदिरों के रख-रखाव के साथ उनके पुजारियों के लिए अपने पास से वेतन भी देता था।

साक्ष्य पर क्यों नहीं यक़ीन?

ऐतिहासिक साक्ष्यों पर भरोसा करने के बजाए इन दिनों इधर-उधर की उड़ी-उड़ाई बातों पर यकीन ज्यादा किया जा रहा है।

युवा पत्रकार पवन मौर्य कहते हैं, "औरंगज़ेब ने अपने शासन में अपनी जरूरत के मुताबिक कई मंदिर तोड़े तो कई बनवाए भी। ठीक वैसे ही, जैसे मोदी-योगी ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बनवाने के लिए कई पुरातन मंदिरों और विग्रहों को तोड़वा दिया। संभव है कि औरंगजेब समय भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियां रही होंगी कि कुछ मंदिरों को तोड़ दिया जाए। काशी विश्वनाथ की भोगशाला और उनकी कचहरी को तोड़ा जाना आज की जरूरत थी सो मौजूदा सरकार ने उसे तोड़ दिया। ऐसा नहीं है कि औरंगज़ेब ने मंदिरों को सिर्फ तोड़ा ही, बनवाया नहीं। चित्रकूट के मंदाकिनी तट पर 328 साल पहले साल 1683 में ‘बाला जी मंदिर'  का बनवाकर औरंगज़ेब ने धार्मिक सौहार्द्र की बड़ी मिसाल भी कायम की थी। इतना ही नहीं, इस मंदिर में पूजा-अर्चना में कोई बाधा न आए, इसके लिए आठ गांवों की 330 बीघा कृषि भूमि दान कर लगान माफ कर दिया था, जिसके अभिलेखीय साक्ष्य अब भी मौजूद हैं। हालांकि यह मंदिर जर्जर हो गया है और ढहने की कगार पर पहुंच गया है। हमें एक बार अपनी आंखों से पूर्वाग्रह और व्यर्थ की नफरत का परदा हटाकर देखने की जरूरत है।"

उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल और इतिहासकार प्रो. बीएन पांडेय ने अपनी किताब ‘भारतीय संस्कृति और मुग़ल साम्राज्य’ में औरंगज़ेब की खराब इमेज को धर्म से नहीं, बल्कि राजनीति से प्रेरित माना है। वह कभी हिन्दुओं पर सख्त दिखा तो कभी बेहद नर्म। उसने भांग की खेती के अलावा सार्वजनिक तौर पर शराब पीने और जुआ खेलने पर भी रोक लगा रखी थी। वह लिखते हैं, "औरंगज़ेब ने अपना सारा जीवन राष्ट्रीय एकता के लिए प्रयासरत होकर गुज़ारा। इस मुगल शासक को तमाम ऐतिहासिक शोध के लिए भी जाना जाता है। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर, चित्रकूट के बालाजी मंदिर, गुवाहाटी के उमानंद मंदिर, शत्रुंजाई के जैन मंदिर और उत्तर भारत में फैले हुए अन्य प्रमुख मंदिरों और गुरुद्वारों से संबंधित जागीरों के लिए औरंगज़ेब के फरमानों की कई नकलें अब भी मौजूद हैं। ये फरमान साल 1659 से 1685 इसवीं के बीच जारी किए गए थे। औरंगज़ेब पर अंग्रेजों ने हिन्दुओं के दुश्मन के तौर पर झूठे आरोप गढ़े थे। वैसे भी इस्लाम के नियम के अनुसार मस्जिद को इबादत करने के लिए न बनाकर किसी अन्य गलत कार्य को करने के उद्देश्य से बनाने, जिस मस्जिद को बनाने में अल्लाह को खुश करने की नीयत न हो या अपवित्र धन से मस्जिद बने, इस पर सख्त मनाही है।" 

बीबीसी संवाददाता रेहान फ़ज़ल दुनिया के प्राख्यात इतिहासकारों के हवाले से कहते हैं, "मुग़ल बादशाहों में सिर्फ़ एक शख़्स भारतीय जनमानस के बीच जगह बनाने में नाकामयाब रहा वो था औरंगज़ेब। आम लोगों के बीच उसकी छवि हिंदुओं से नफ़रत करने वाले धार्मिक उन्माद से भरे कट्टरपंथी बादशाह की है जिसने अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अपने बड़े भाई दारा शिकोह को भी नहीं बख्शा। और तो और उसने अपने वृद्ध पिता तक को उनके जीवन के आखिरी साढ़े सात सालों तक आगरा के किले में कैदी बना कर रखा। एक पाकिस्तानी नाटककार शाहिद नदीम ने लिखा है कि भारत में विभाजन के बीज उसी समय बो दिए गए थे जब औरंगज़ेब ने अपने भाई दारा शिकोह को हराया था। जवाहरलाल नेहरू ने भी 1946 में प्रकाशित अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में औरंगज़ेब को एक धर्मांध और पुरातनपंथी शख़्स के रूप में पेश किया है।"

औरंगज़ेब का जन्म 03 नवंबर, 1618 को दोहाद में अपने दादा जहांगीर के शासनकाल में हुआ था। उसने 15 करोड़ लोगों पर करीब 49 साल तक राज किया। उसके शासन के दौरान मुग़ल साम्राज्य इतना फैला कि पहली बार उसने करीब पूरे उपमहाद्वीप को अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया। यह  ग़लतफ़हमी है कि औरंगज़ेब ने हज़ारों हिंदू मंदिरों को तोड़ा। ज्यादा से ज़्यादा कुछ दर्जन मंदिर ही उनके सीधे आदेश से तोड़े गए। उसके शासनकाल में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे हिंदुओं का नरसंहार कहा जा सके। वास्तव में औरंगज़ेब ने अपनी सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर हिंदुओं को आसीन किया। औरंगज़ेब का भाई दारा शिकोह मुग़ल साम्राज्य को चलाने अथवा जीतने की क्षमता नहीं रखता था। भारत के ताज के लिए चारों भाइयों में संघर्ष के दौरान बीमार सम्राट के समर्थन के बावजूद दारा शिकोह अपने भाई औरंगज़ेब की राजनीतिक समझ और तेज़तर्रारी का मुकाबला नहीं कर पाया।"

पत्रकार राजकुमार सोनकर कुंवर कहते हैं, "अगर सभी मुस्लिम शासक आततायी होते तो 800 बरस में सिर्फ मस्जिदें ही रह जातीं। फिर तो कोई मंदिर बचता ही नहीं। अगर मुगल गलत मानसिकता के होते और गलत तरीके शासन किए होते तो अपना सेनापति हमेशा हिन्दू ही क्यों रखते? राजनीति के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों को हमेशा लड़ाया जाता रहा, क्योंकि नफरत की आड़ में कोई भी आसानी से आस्था और ईमान की चादर ओढ़ सकता है। नीयत साफ होती और मामला सिर्फ श्रृंगार गौरी के दर्शन-पूजन तक सीमित होता तो इस मामले को सुनियोजित तरीके से ज्ञानवापी मस्जिद-मंदिर के विवाद में नहीं बदला गया होता। सच तो यही है कि आरएसएस, भाजपा और उसके अनुसांगिक संगठनों ने मीडिया के साथ मिलकर इस मामले को सनसनीखेज बना दिया है। जिस तरह के उपासना कानून का माखौल उड़ाया जा रहा है उससे कुछ न्यायविदों की भूमिका भी सवालों के घेरे में आ गई है। आज जरूरत इस बात की है हम मोहब्बत पैदा करें और अच्छा इनसान बनने कोशिश करें।"

नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित चिंतक एवं जाने-माने लेखक राम पुनियानी के मुताबिक, "इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि राजाओं का लक्ष्य सत्ता और संपत्ति था। अंग्रेजों ने सांप्रदायिक इतिहास लेखन के जरिए राजाओं को उनके धर्म से जोड़ा। इस कुटिल चाल के जरिए मुस्लिम शासकों की हरकतों के लिए आज के मुसलमानों को दोषी ठहराया  जा रहा है। ब्रिटिश काल से जारी अनवरत प्रचार का ही यह नतीजा है कि आम लोगों की निगाह में मुस्लिम राजा मंदिरों के ध्वंस और इस्लाम में धर्म परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं। यह दावा कि मुस्लिम शासकों ने देश में अनेक मंदिर ढहाए थे। इस बात को इतनी मर्तबा दुहराया गया कि लोग उसे ध्रुव सत्य मानने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुस्लिम राजाओं ने मंदिर गिराए, लेकिन हिन्दू राजा भी मंदिर गिराने में पीछे नहीं थे। सोमनाथ मंदिर के ध्वंस को महमूद गजनी से जोड़ा जाता है, लेकिन उसने धार्मिक कारणों से सोमनाथ पर हमला नहीं किया था। उसका उद्देश्य मंदिर की अथाह संपत्ति लूटना था।"

पुनियानी के मुताबिक, "मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण और उनके प्रति नफरत ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा का आधार है। यही नफरत और ध्रुवीकरण अब संघ परिवार का प्रमुख हथियार हैं। आज स्थिति यह बन गई है कि शाखाओं, स्कूलों और मीडिया संस्थानों के अपने जाल के जरिए सांप्रदायिक संगठनों ने मुस्लिम राजाओं पर मंदिरों के विध्वंसक होने का ठप्पा लगा दिया है। हालात यह हो गई है कि तर्क और तथ्यों की बात करने वालों को अजीब निगाहों से देखा जाने लगा है।"

‘स्क्रिप्टेड प्लान’ है ज्ञानवापी मुद्दा!

ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि व शाही ईदगाह का एक-दूसरे के अगल-बगल में होना हमारी वास्तविक संस्कृति को दर्शाता है। भारत में हिन्दू और मुसलमान सदियों से मिल-जुलकर रहते आए हैं और एक-दूसरे के त्योहारों पर खुशियां मनाना उनके जीवन का अंग रहा है। बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "ज्ञानवापी का मुद्दा अयोध्या की तरह ही ‘स्क्रिप्टिड प्लान’ है। जिस तरह से अयोध्या में रामलला मिल गए थे, उसी तरह फव्वारे के रूप में इन्हें भगवान विश्वेश्वर भी मिल गए। कोर्ट के आदेश पर विवादित हिस्से को सील कर दिया गया है और मौके पर फोर्स तैनात कर दी गई है। अब मुकदमा चलता रहेगा और सियासत अपना सफर तय करती रहेगी। अगर किसी को नुकसान होगा तो उन गरीबों और मजलूमों का होगा जो रोज कमाते हैं, तभी उनके घरों का चूल्हा जलता है।

ज्ञानवापी विवाद का जलजला उठेगा तो नुकसान बनारस के पर्यटन उद्योग और अम्नो-अमान का होगा। कोरोनाकाल के बाद बनारस के पर्यटन ने अभी सांस लेना शुरू किया था। स्थितियां ऐसी बनती जा रही हैं कि पर्यटन और बनारसी साड़ी उद्योग का दम ही घुट जाएगा। अयोध्या कांड ने देश को जिस जलजले में डाल दिया था, लगता है कि उसे फिर दोहराने के लिए जाहिलाना कवायद शुरू हो गई है।"

प्रदीप कहते हैं, "ज्ञानवापी मस्जिद के फव्वारे पर शिवलिंग होने का मुल्ल्मा चढ़ाने वालों को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ेगा कि अगर ज्ञानवापी के वजूखाने में फव्वारा और उसकी हौदी ही असली विश्वेश्वर भगवान का शिवलिंग है तो जिस शिवलिंग की पूजा सालों से हो रही है वह क्या नकली है? आखिर यह कैसा दौर चल रहा है कि जो जितना जोर से बोलेगा वही सच माना जाएगा, बाकी सब मिथ्या। आखिर यह जानने कि किसे फुर्सत है कि असली शिवलिंग कहां है? हमें लगता है कि बनारस की हर गली में ऐसे फर्जी वैज्ञानिकों की भरमार हो गई है जो चिल्ला-चिल्लाकर मिल गया-मिल गया... का शोर मचा रहे हैं। हैरत की बात यह है कि नव इतिहासकार, मीडिया और अदालतें भी जाने-अनजाने इसी शोर का हिस्सा बनती जा रही हैं। देश महंगाई और बेरोजगारी के भीषण संकट से जूझ रहा है, जिसका निदान ढूंढने की कोशिश नहीं की जा रही है। ढूंढा जा रहा है तो शिवलिंग, जिसके चक्रव्यूह में उलझकर देश खतरे की कगार पर खड़ा होता जा रहा है।"

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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