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बंद घड़ियां: महिला जेल के बहाने समय की सलवटें खोलने की कहानी

“शोभा सिंह की कहानी, एक कहानी भी है, रिपोतार्ज भी है, एक संस्मरण भी। इसमें उनके ऑब्ज़र्वेशन भी हैं।”
Band ghadiyan

“क्रमशः इस घर की सभी घड़ियां बंद हो गईं। उसे झुंझलाहट के साथ हैरानी भी हुई। एक साथ यानी कि हद है! समय में सलवटें कहां, वह तो अपनी गति में ही रहता है। बेहद अनुशासित। यहां हमारे लिए समय ठहरा हुआ है। जैसे भ्रम के चंदोवे-तले हम चलते जा रहे हों। सूरज के उगने और डूब जाने तक समय की आंख मिचौली के अदना से खिलाड़ी बन हम अपना-अपना किरदार निभा रहे हों। ठीक वैसे ही स्मृति में सीखचों के पीछे के कैदी की छवि उतरती है जिसकी दिन की शुरुआत रोशनी की दस्तक के बाद बैरक खुलने के इंतज़ार में होती है।”

रोशनी की दस्तक के साथ बैरक तो खुलती है, लेकिन पता चलता है कि जेल की दुनिया में तो अंधेरा कुंडली मारकर बैठा है। ऐसा लगता है कि जैसे इस रात का सुबह नहीं। लेकिन ऐसा भी नहीं है...सुबह तो होनी ही है, और होती भी है। लेकिन इस बीच उजाले से अंधेरे और अंधेरे से उजाले का लंबा सफ़र है और इसी सफ़र, इसी जद्दोजहद, इसी संघर्ष की ही कहानी है बंद घड़ियां।

कहानीकार कहता तो है कि— समय में सलवटें कहां...लेकिन महिला जेल और स्त्री जीवन के समय में बहुत सलवटें हैं...तभी तो वह कहती हैं— यहां हमारे लिए समय ठहरा हुआ है। इसी ठहरे हुए समय की कहानी कहती हैं— बंद घड़ियां।

शोभा सिंह जो एक समर्थ कवि हैं अब कहानीकार की भूमिका में आईं हैं। जो कहानियां उन्होंने अपनी कविताओं में समेटी अब उन्हीं कविताओं को बिखेर कर वे कहानी कह रही हैं। शोभा सिंह के अब तक दो कविता संग्रह— “अर्द्ध विधवा” और “यह मिट्टी दस्तावेज़ हमारा” आ चुके हैं। अपनी कविताएं भी उन्होंने बहुत सहज ढंग से रची हैं तो अब कहानियां भी उसी सहज ढंग से बुन रही हैं। उनकी कविताओं में भी स्त्री पात्र अपने पूरी ताक़त से सामने आते हैं और ऐसा ही उनकी कहानियों में भी हैं। उनकी कविताएं घरेलू औरत, सुईं-धागा, अर्द्ध विधवा, शाहीन बाग़, रुक़ैया बानो, औरत बीड़ी मज़दूर, भुट्टेवाली और ऐसी कई कविताओं में स्त्री पात्र जितने सशक्त ढंग से आते हैं उनकी कहानी में भी ऐसे ही आते हैं।

कवि-कहानीकार शोभा सिंह

“जन-अदालत में औरत” इस पूरी कविता की अनुगूंज उनकी कहानी “बंद घड़ियां” में मिलती है।

“आवाज़ें अंदर पैठती हैं

गूंज विचलित करती है

वे तमाम औरतें

अपनी प्यास को बांधे

अपनी बात कहने को आतुर

बहिन हमार सुन लेव”

“जन-अदालत” की यही आवाज़ें “बंद घड़ियां” में भी अपनी कहानी कहने को आतुर हैं.... बस थोड़ा भरोसा जगने के बाद। और कहानीकार शोभा सिंह इसी भरोसे और बहनापे के साथ उनकी कहानी सुनती और कहती हैं।

“जीवन संघर्ष करते कई चेहरों की छवियां अपनी पूरी धज के साथ सामने आ खड़ी होती हैं (नमुदार होती हैं, सरल शब्दों में) । स्मृति के गलियारे रोशन हो उठते। जेल का वह बड़ा-सा लंबाई लिए हुए कमरा, आदमी के सोने के लिए बीच में थोड़ी जगह छोड़-छोड़ कर मिट्टी के चबूतरे। मूर्त रूप लगने लगता। क्यों वह कमसिन सी लड़की जेल में है। क्या अपराध किया होगा उसने।”

और इस और ऐसे ही कई “अपराध” जानने और बताने की कहानी कही है शोभा सिंह ने। यह एक भारतीय महिला जेल की कहानी है। यह किसी भी राज्य या ज़िला-शहर की जेल की कहानी हो सकती है। यह जेल के बहाने हमारी पुलिस, हमारी पूरी क़ानून व्यवस्था, न्यायिक प्रणाली की भी कहानी है और हमारी समाज व्यवस्था की भी कहानी है, जो पितृसत्ता से संचालित होता है। कुल मिलाकर यह भारतीय महिला जेल के बहाने भारतीय महिला की कहानी है। जो निरपराध होकर भी अपराधी है। जो एक तरफ़ परिवार में पिट रही है, पिस रही है दूसरी तरफ़ समाज और व्यवस्था का हंटर भी उसके ऊपर बरस रहा है, लेकिन साथ ही वो पूरी ताक़त से प्रतिकार भी कर रही है। वह निरीह, बेबस नहीं बल्कि प्रतिरोध करना जानती है, पूरी ताक़त से लड़ना जानती है। इस परिप्रेक्ष्य में यह महिला क़ैदियों की बेबसी नहीं बल्कि उनके संघर्ष की कहानी है। जिसे एक राजनीतिक कैदी के तौर पर कहानीकार शोभा ख़ुद दर्ज करती हैं।

यह देवंती की कहानी है, जो अपने पति की हत्या के आरोप में अपनी बहन और बेटी के साथ जेल में है। वह पति जो हर समय न सिर्फ़ शराब पीता है बल्कि देवंती को मारता-पीटता भी है और हद तो यह कि वह शराब और जुए की लत में अपनी बेटी तक को दांव पर लगा आता है।

देवंती अपनी कहानी तो कहती है लेकिन साथ ही लेखिका से पूछती हैं- ‘‘दीदी, आप तो पढ़ी-लिखी हैं जेल में कैसे आ गईं? मैंने उसे अपने बारे में बताया, अपने साथ की औरतों और आंदोलन के बारे में बताया। उसे हैरानी हुई, अच्छा सरकार नारा लगाने वालों से भी डरती है!”

जी हां, सरकार नारा लगाने वालों से भी डरती है, जेल में डालती है। इस कहानी का यह एक वाक्य बहुत महत्वपूर्ण है जो इस कहानी को और बड़ा आयाम देता है। और एक आम कहानी से आगे जाकर राजनीतिक कहानी बनाता है।

इस कहानी में और भी कई बेगुनाह औरतों की उपस्थिति है, हालांकि लेखिका उनके विस्तार में नहीं गईं, लेकिन उनके केस के इशारे भर से बहुत कुछ बातें साफ़ हो गईं। जैसे – “एक केस तो ग़ज़ब का था अपने भूखे बच्चे लिए ब्रेड चुराती औरत पकड़ी गई। दुकानदार ने चोरी की गई चीजों की लंबी लिस्ट पुलिस को लिखवा दी। हरजाना भरा नहीं वह जेल में है।... कुछ आदिवासी महिलाएं माओवादी होने के आरोप में जेल में बंद हैं। कानून की कौनसी दफा में वे बंद हैं, उन्हें मालूम नहीं।... एक बैरक में मुस्लिम महिलाएं हैं। इनमें से ज्यादातर वे हैं जिनके वीजा की अवधि खत्म हो गई थी। अपनों के बीच आकर वे तेजी से गुजरने वाले दिनों को गिनना भूल गईं। वापसी का रेल टिकट समय पर नहीं हुआ। रेल रिजर्वेशन नहीं मिला। यूं विलंब का कोई भी कारण हो बस उन्हें धर लिया गया। पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों ओर यह समस्या है।

इन महिलाओं का होना भर इस कहानी को बहुत व्यापक आयाम देता है।

इसी कहानी का पाठ, 7 जून, 2023 को गुलमोहर किताब के बैनर तले दिल्ली के पटेल नगर में आयोजित हुआ। जिसमें कवि-लेखक और अन्य प्रबुद्ध जन मौजूद थे। सबसे पहले शोभा सिंह ने अपनी कहानी बंद घड़ियां का पाठ किया उसके बाद उपस्थित लोगों ने अपने विचार रखे, प्रतिक्रिया जाहिर की।

लेखक-नाटककार राजेश कुमार कहते हैं कि शोभा सिंह की कहानी ने जिस महिला जेल की कहानी लिखी वास्तव में यह पूरे देश की जेलों ख़ासकर महिला जेलों की कहानी है। कहानीकार ने केवल एक महिला पात्र के जरिये ही अपनी कहानी नहीं कही बल्कि कई पात्रों को शामिल किया है, और सबसे ख़ास बात कि उन्होंने इन महिला क़ैदियों या पात्रों की केवल बेबसी, लाचारगी ही नहीं दिखाई, जिस तरह के आजकल के कलावादी लेखक करते हैं, बल्कि उनके लड़ने की ताक़त को भी दिखाया। इसलिए मैं इसे एक अच्छी कहानी कहूंगा।

पत्रकार देवाशीष मुखर्जी ने कहा कि यह एक अच्छी कहानी है, हालांकि इसे लंबी कहानी कहा गया लेकिन सुनने में यह बिल्कुल लंबी नहीं लगती।

शायर ओमप्रकाश नदीम ने कहा कि उन्हें लगता है कि चाहे जो भी रचना हो कविता हो या कहानी, जिसमें रचनाकार शरीक होता है वो निश्चित रूप से प्रभावित करती है।

संस्कृतिकर्मी और शिक्षक अखिलेश ने कहा कि उन्हें कहानी की अपेक्षा यह एक रिपोतार्ज ज़्यादा लगा। यह कहानी एक रिपोर्ट की तरह कही गई, इसमें थोड़ी कल्पनाशक्ति का प्रयोग और किया जाता, थोड़ा और कसाव होता तो यह और बेहतर बन सकती थी।

कवि-पत्रकार मुकुल सरल ने कहा कि शोभा सिंह अब अपनी कविताओं को ही कहानी के रूप में विस्तार दे रही हैं। उनकी भाषा-शैली, उनका कहन सबकुछ कविता के अंदाज़ में ही कहानी में आता है जो कहानी को और रोचक और पठनीय बनाता है।

लेखक स्वदेश सिन्हा ने महिला जेलों पर लिखी गईं कुछ किताबों का ज़िक्र करते हुए कहा कि कहानी तो अच्छी है, लेकिन रिपोर्टिंग लगती है। अगर फोकस किसी एक पात्र पर किया जाता तो बेहतर होता।

एक्टिविस्ट सुलेखा सिंह ने कहा कि जिस तरह हमारे पितृसत्तात्मक समाज में औरतों को देखने का नज़रिया है उसे अपनी कहानी के ज़रिये शोभा जी ने पूरी तरह उघाड़ कर रख दिया। बिम्बों का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया गया है।

डॉ. ज़रीना हलीम ने कहा कि यह कहानी तो एक वास्तविक चलचित्र की तरह उनके सामने आ गई। सारे पात्र एकदम आंखों के सामने जीवित हो गए। हालांकि मुझे जेल की दुनिया या जीवन का अनुभव नहीं है, लेकिन इस कहानी को पढ़कर जेल की दुनिया ख़ासकर निर्दोष लोगों की कहानियां जानने की इच्छा और तेज़ हो गई है।

लिटिल इप्टा, लखनऊ की संयोजक सुमन श्रीवास्तव ने कहा कि उन्हें भी एक आंदोलनकारी की भूमिका में जेल देखने का मौका मिला और जैसा उन्होंने सागर और बाराबंकी की जेलों में देखा, वैसा ही आंखों देखा हाल इस कहानी में सुनने को मिला।

सफाई कर्मचारी आंदोलन के संयोजक बैजवाड़ा विल्सन ने कहा कि महिला दृष्टिकोण से यह पूरी कहानी कही गई है जो बहुत पावरफुल है। कहानी में अपराध के क़ानूनी पक्ष आदि को छोड़कर उसका मानवीय और महिला पक्ष रखा गया है और ख़ासकर यह बताया गया कि— तुम अगर मुझे मारोगे तो मैं तुम्हें नहीं छोड़ूगीं। और कहानी का अंत भी बहुत सुखद आश्चर्य पैदा करता है।

पत्रकार और यायावर उपेंद्र स्वामी ने कहा कि इस दौर का पूरा रिफ्लेक्शन इस कहानी में है। कहीं नक्सलवादी से लड़ाई के नाम पर आदिवासी महिलाओं के साथ जो हो रहा है, वो भी कहानी में है, हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच के रिश्ते का जो एक पहलू है, वो भी रिफ्लेक्ट हो रहा है और जेंडर के नज़रिये से बाक़ी सारी चीज़ें आ जाती हैं। इस दौर की राजनीति के सारे पहलुओं को वो एक तरह से इस कहानी में समेट रही हैं। अगर जेल जीवन की जटिलताएं कुछ और इस कहानी में नज़र आती तो शायद उसका एक पहलू और मज़बूत होता।

कवि-पत्रकार भाषा सिंह ने कहा कि जेलों पर रिपोर्ट, जेल जाने के बाद अपने अनुभव लिखना, जेल डायरी लिखना, रिपोतार्ज लिखना एक लंबा सिलसिला है। लेकिन यह कहानियों या उपन्यास के रूप में नहीं आईं। इसलिए हिंदी साहित्य में उस अनुभव को कहानी के रूप में महसूस करना और कहना एक महत्वपूर्ण बात है। इस कहानी में भी जेल के भीतर के जितने आयाम हो सकते हैं, खाने से लेकर यौन शोषण तक, पितृसत्ता से लेकर जेलर के रिश्ते तक सभी को छुआ। कहानी में हर चीज़ को बहुत विस्तार से कहना ज़रूरी नहीं है, कुछ इशारे भी महत्वपूर्ण होते हैं और शोभा सिंह ने यह काम बखूबी किया है। इस कहानी में जितने किरदार हैं, ख़ुद लेखिका के साथ तमाम विपरीत परिस्थितियों में लड़ने की जो कला है वो अनूठी है। क्योंकि सबकी लड़ाइयों का एक ही धरातल नहीं है, सबकी अलग-अलग लड़ाइयां हैं। और साथ ही जेल में एक अलग ज़िंदा रहने की भी लड़ाई है। इसे बहुत ख़ामोशी से सहज ढंग से सामने लाया गया है। यह कहानियां कई पहलुओं को छूती हुई ख़ामोशी से अपनी बात कह जाती है।

कवि-लेखक अजय सिंह ने अंत में अपनी बात रखते हुए कहा कि शोभा की कहानी दरअसल एक कहानी भी है, रिपोतार्ज भी है, एक संस्मरण भी है। इसमें उनके ऑब्जर्वेशन भी हैं। जो कहानियां अब लिखी जा रही हैं, अब एक ही विधा तक वे नहीं हैं। उसमें कई चीज़ें शामिल हो रही हैं। यह एक अच्छी बात भी है। अब क्योंकि लेखिका कई साल पहले ख़ुद आंदोलन के सिलसिले में लखनऊ और फ़ैज़ाबाद की जेलों में रह चुकी हैं तो इसमें उनका बहुत सारा ऑब्जर्वेशन भी है।

यह कहानी जिस तरह से कही गई है, बताई गई है उसके हिसाब से यह कहानी प्रतिरोध की भी कहानी है, ऑब्जर्वेशन भी कहानी है, उसके साथ-साथ जो पूरा माहौल है उस पर टिप्पणी करती हुई भी कहानी है। अगर आप पारंपरिक ढंग से देखे तो इसमें आपको कहानीपन कम दिखाई देगा, लेकिन अगर आप फिर मुक्तिबोध की कहानियां पढ़ें तो आपको लगेगा कि इनको कहानी कहना ही मुश्किल है। लेकिन मेरा कहना है कि कहानी कई तरह से लिखी जा सकती है और जब लेखक इसे कहानी के तौर पर कह रहा है तो हमें इसे कहानी मानना चाहिए।

इसके अलावा जिस तरह जेल का विवरण दिया गया है, वह काफी कुछ बताता है। क्योंकि जेल हमारे समाज का ही आईना है, जिस तरह जेल में वर्गीय, जातीय, वर्ण व्यवस्था, स्त्री का उत्पीड़न, उसके साथ भेदभाव उसी तरीके से हैं जैसे बाहर भारतीय समाज में हैं। इसको उन्होंने काफी संवेदनशीलता के साथ पकड़ा है। इस नाते मुझे यह कहानी अच्छी लगती है। इस कहानी को जहां वे ले गई हैं कि कुछ साल के बाद देवंती जीत जाती है, वो लगता है कि एक उम्मीद अभी भी बची हुई है। क्योंकि लड़ने के अलावा आपके पास कोई और उपाय नहीं है और जो जीत है वो लड़ने से ही मिलेगी। ज़रूरी नहीं कि हर बार जीत मिले ही, लेकिन अगर मिलेगी तो लड़ने से ही मिलेगी। यह कहानी उस तरफ़ एक संकेत भी करती है। शोभा की कहानी में आशा का एक टोन, उम्मीद का एक टोन रहता है, जो कई बार लोगों को लग सकता है कि यह एक क्लीशे है, घिसापिटा है, लेकिन यह चीज़ भी ज़रूरी है, ख़ासतौर पर हम जो साहित्य के माध्यम से कुछ हस्तक्षेप करना चाह रहे हैं तो उस हस्तक्षेपकारी भूमिका में अगर हम उम्मीद को नहीं लाएंगे, तमाम निराशाओं के बीच में तो हमारे लिखने का मकसद ही क्या है। उस नाते यह कहानी एक ज़रूरी हस्तक्षेप करती है।

कार्यक्रम में पुष्पा वर्मा, आशीष वर्मा, स्वप्ना, रेनू छच्छर, लालसा मौर्य, नीतीश, वरुण पाल, धम्म दर्शन आदि मौजूद थे।

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