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भारत
राजनीति
बंगाल का सामूहिक विवेक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और भाजपा के मंसूबे
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती के मौके पर वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन बंगाल और बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की चुनावी राजनीति का विश्लेषण कर रहे हैं।  
अनिल जैन
23 Jan 2021
नेताजी सुभाष चंद्र बोस

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का दावा रहा है कि वह ‘पार्टी विद डिफरेंस’ यानी दूसरे दलों से अलग है। उसका यह दावा सही भी है, लेकिन सिर्फ नकारात्मक अर्थों में ही। सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में भाजपा ही एकमात्र ऐसी राजनीतिक पार्टी है, जिसके पास अपना कोई ऐसा नायक या ऑइकन नहीं है, जिसकी उसके संगठन के बाहर कोई स्वीकार्यता हो। उसके अपने जो भी और जैसे भी 'नायक’ हैं, उनका भी वह एक सीमा से ज्यादा इस्तेमाल नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करने पर स्वाधीनता संग्राम के दौरान किए गए उनके ‘पापों’ का पिटारा खुलने लगता है। इसलिए उसने पिछले कुछ दशकों से भारत के कुछ इतिहास-पुरुषों और राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों का 'अपहरण’ कर उन्हें अपनी नफरत में डूबी हिंदुत्ववादी विचार परम्परा का पुरखा बताने का फूहड़ अभियान चला रखा है।

इस सिलसिले में शिवाजी, महाराणा प्रताप, स्वामी विवेकानंद, अरबिंदो घोष आदि के अलावा महात्मा गांधी, शहीद भगत सिंह, रबीन्द्रनाथ (ठाकुर) टैगोर, डॉ. भीमराव आंबेडकर, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि कई नाम हैं, जिनका भाजपा समय-समय पर अपनी जरुरत के मुताबिक इस्तेमाल करती रहती है। ये सब हमारे ऐसे महानायक हैं जिनके विचार और कर्म से भाजपा का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नाम भी ऐसे ही महानायकों में शुमार है, जिन्हें इस समय पश्चिम बंगाल में भाजपा अपनी विभाजनकारी विचारधारा के पुरोधा के तौर पर पेश करने की निर्लज्ज कोशिश कर रही है।

पश्चिम बंगाल में कुछ दिनों बाद विधानसभा का चुनाव होना है। भाजपा ने वहां 200 सीटें जीत कर सरकार बनाने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए उसने पिछले एक साल से अपनी पूरी ताकत वहां झोंक रखी है। इसी सिलसिले में वह बंगाल की माटी में जन्मे जिन महापुरुषों से अपना वैचारिक नाता जोड़ रही है, उनमें सुभाषचंद्र बोस का नाम प्रमुख है। इस सिलसिले में उसने नेताजी के जन्मदिन 23 जनवरी को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया है। गौरतलब है कि इसी साल सुभाष बाबू की 125वीं जयंती है।

केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने इसी सप्ताह 19 जनवरी को एक अधिसूचना जारी कर ऐलान किया है, जिसमें कहा गया है, ''भारत सरकार ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के 125वें जयंती वर्ष को 23 जनवरी, 2021 से आरंभ करने का निर्णय लिया है, ताकि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनका सत्कार किया जा सके। तदनुसार नेताजी की अदम्य भावना और राष्ट्र के प्रति उनकी निस्वार्थ सेवा के सम्मान में और उनको याद रखने के लिए भारत सरकार ने हर साल 23 जनवरी पर उनके जन्मदिन को 'पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया है। इससे देश के लोगों, विशेषकर युवाओं को विपत्ति का सामना करने के लिए नेताजी के जीवन से प्रेरणा मिलेगी और देशभक्ति और साहस की भावना समाहित होगी।’’

केंद्र सरकार इसके पहले ही कह चुकी है कि पूरे साल चलने वाला विशेष कार्यक्रम 23 जनवरी को शुरू किया जाएगा, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोलकाता में करेंगे। इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की जा चुकी है।

जाहिर है कि नेताजी की जयंती को 'पराक्रम दिवस’ के तौर पर मनाने का भाजपा का ऐलान बंगाली अस्मिता के प्रतीक को हथियाने की एक और कोशिश की है। नेताजी की 125वी जयंती पर साल भर चलने वाले विशेष कार्यक्रम का ऐलान भी इसी मुहिम का एक हिस्सा है। राज्य विधानसभा चुनाव के कुछ महीने पहले 'बंगाल के गौरव’ पर कब्जा करने की भाजपा की यह कोशिश कई सवाल खड़े करती है।

सबसे अहम सवाल यह है कि देश के बारे में नेताजी के विचारों का क्या नफरत पर आधारित भाजपा के उग्र हिन्दुत्व से कोई मेल है? क्या हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए काम कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दर्शन में सुभाष बाबू कहीं फिट बैठते है? अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी जान तक कुर्बान करने वाले नेताजी के संघर्ष और उसी समय भारत में ब्रिटिश हुकूमत की मजबूती के लिए सेना में भारतीय युवकों की भर्ती कराने का अभियान चलाने वाले विनायक दामोदर सावरकर में क्या समानता है? स्वाधीनता संग्राम से अलग रह कर बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सरकार सरकार बनाने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सुभाष बाबू में क्या साम्य है?

सवाल यह भी है कि क्या भाजपा को अपनी विचारधारा के ऑइकन विनायक दामोदर सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के स्वाधीनता संग्राम विरोधी कृत्यों के लिए कोई खेद है और क्या वह इसके लिए बंगाल और देश से माफी मांगेगी? दरअसल सावरकर, गोलवलकर और मुखर्जी की वैचारिक विरासत पर गर्व करने वाली भाजपा को यह अच्छी तरह मालूम है कि देश और बंगाल की जनता इन लोगों को कतई स्वीकार नहीं कर सकती। इसीलिए दूसरी विचाराधारा के प्रतीक-पुरुषों को हड़पना और उन्हें फूहड़ तरीके से जबरन अपने विचारों से जोड़ना भाजपा की राजनीतिक मजबूरी है।

अपनी इसी मजबूरी के चलते भाजपा का नेतृत्व महात्मा गांधी का नाम भी जपता है लेकिन उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को अपना आदर्श मानने वालों को चुनाव में टिकट भी देता है और सत्ता के ऊंचे पदों पर भी बैठाता है। भाजपा और आरएसएस के लोग उन सरदार पटेल का भी अपना आदर्श बताते हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था। वह उन आंबेडकर का भी गुणगान करते हैं, जिनकी किताबों को एक समय आरएसएस और जनसंघ के लोगों ने जलाया था।

अब इसी क्रम में भाजपा नेताजी सुभाषचंद्र बोस की विरासत से अपने को जोडने की कवायद कर रही है। इसी कवायद के तहत पांच साल पहले 23 जनवरी 2016 नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेजों को बड़े ही जोर-शोर से जारी किया गया था। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समारोहपूर्वक उन दस्तावेजों को सार्वजनिक किया था। सभी क्लासीफ़ाइड फ़ाइलों को 'नेताजी पेपर्स’ के नाम से वेबसाइट बना कर उस पर डाला गया था। ऐसा करने के पीछे मकसद यह था कि जवाहरलाल नेहरू से जुडे कुछ ऐसे कागजात भी हाथ लग जाएंगे, जिनसे यह साबित किया जा सकेगा कि वे नेताजी के खिलाफ थे, सुभाष बाबू की गुमशुदगी पर से रहस्य का पर्दा हटाने के लिए नेहरू ने कुछ नहीं किया, उन्होंने नेताजी को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह हकदार थे और यह भी कि नेहरू ने नेताजी की पत्नी और बेटी ध्यान नहीं रखा। लेकिन सारे दस्तावेज खंगालने के बाद ऐसा कुछ नहीं मिलने से भाजपा का उत्साह ठंडा पड गया।

लंबी चुप्पी के बाद भाजपा को अब नेताजी की याद इसलिए आई है, क्योंकि पश्चिम बंगाल में विधानसभा का चुनाव होने वाला है। लेकिन सवाल है सुभाष बाबू की विरासत जोडने की कवायद करते हुए क्या भाजपा इस बात से इंकार कर सकती है कि जिस समय सुभाषचंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए ब्रिटिश हुकूमत को भारत से उखाड फेंकने रणनीति बुन रहे थे, ठीक उसी समय सावरकर ब्रिटेन को युद्ध में हर तरह की मदद दिए जाने के पक्ष में थे।

1941 में बिहार के भागलपुर में हिन्दू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने ब्रिटिश शासकों के साथ सहयोग करने की नीति का ऐलान किया था। उन्होंने कहा था, ''देश भर के हिंदू संगठनवादियों (हिन्दू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिन्दुओं को हथियारबंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौका भी।’’ इसके आगे सावरकर ने कहा था, ''सैन्यीकरण आंदोलन को तेज किया जाए और हर गांव-शहर में हिन्दू महासभा की शाखाएं हिन्दुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़े।’’

इससे पहले 1940 के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने अधिवेशन में अपने भाषण में बताया था कि पिछले एक साल में हिन्दू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिन्दुओं को अंग्रेजो की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफल हुए हैं। जब आज़ाद हिन्द फ़ौज जापान की मदद से अंग्रेजी फ़ौज को हराते हुए पूर्वोत्तर में दाखिल हुई तो उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने अपनी उसी सैन्य टुकडी को आगे किया था, जिसके गठन में सावरकर ने अहम भूमिका निभाई थी।

लगभग उसी दौरान यानी 1941-42 में सुभाष बाबू के बंगाल में सावरकर की हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर सरकार बनाई थी। हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस साझा सरकार में वित्त मंत्री थे। उस सरकार के प्रधानमंत्री मुस्लिम लीग के नेता एके फजलुल हक थे। अहम बात यह है कि फजलुल हक ने ही भारत का बंटवारा कर अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में पेश किया था।

हिन्दू महासभा ने सिर्फ 'भारत छोडो’ आंदोलन से ही अपने आपको अलग नहीं रखा था, बल्कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक पत्र लिख कर अंग्रेजों से कहा था कि कांग्रेस की अगुआई में चलने वाले इस आन्दोलन को सख्ती से कुचला जाना चाहिए। मुखर्जी ने 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखे पत्र में कहा था, ''कांग्रेस द्वारा बड़े पैमाने पर छेड़े गए आन्दोलन के फलस्वरूप प्रांत में जो स्थिति उत्पन्न हो सकती है, उसकी ओर मैं आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं।’’ मुखर्जी ने उस पत्र में 'भारत छोड़ो’ आंदोलन को सख़्ती से कुचलने की बात कहते हुए इसके लिए कुछ जरुरी सुझाव भी दिए थे। उन्होंने लिखा था, ''सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोडो आन्दोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन प्रांत मे अपनी जड़े न जमा सके। इसलिए सभी मंत्री लोगों को यह बताएं कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आंदोलन शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।’’

सवाल है कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कलुषित भूमिका और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की चमकदार भूमिका में भाजपा कैसे मेल बैठा सकती है? क्या भाजपा श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम लेकर बंगाल के चुनाव में वोट मांगने की हिम्मत दिखा सकती है? सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि क्या बंगाल का सामूहिक विवेक नेताजी की गौरवशाली विरासत को हथियाने के भाजपा के मंसूबों को कामयाब होने देगा?

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़ें : पश्चिम बंगाल: ‘नेताजी की राजनीति’ से किसको चुनावी फ़ायदा मिलेगा?

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