भगत सिंह के लिए आज़ादी के दो प्रमुख ध्येय थे— समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता

" हवा में रहेगी मेरे ख़याल की बिजली
ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी, रहे, रहे न रहे। "
27/28 सितंबर को शहीदे-आज़म भगत सिंह का जन्मदिन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में जोश-खरोश के साथ मनाया जाता है। वे देशभक्त जनगण और क्रांतिकारी युवाओं के लिए सर्वकालिक हीरो हैं।
वैश्विक वित्तीय पूँजी के dictates के आगे नग्न समर्पण करके तथा पूरी तरह साम्राज्यवादी देशों के हितों के साथ खड़े होकर, मोदी सरकार उनकी साम्राज्यवाद-विरोधी विरासत को पहले ही तिलांजलि दे चुकी है।
आइये, इस अवसर पर देखें उनकी वैचारिक-राजनीतिक विरासत के दो जो सबसे प्रमुख तत्व हैं-समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता, उन्हें वास्तविक व्यवहार में पलटने के बाद अब औपचारिक रूप से भी मिटा देने में संघ-भाजपा कैसे लगे हुए हैं।
इतिहास में दर्ज है, फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में हुई देशभक्त क्रांतिकारियों की बैठक में, जिसमें प्रधान सेनापति चंद्रशेखर आज़ाद भी मौजूद थे, हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी ( HRA ) के संविधान में सोशलिस्ट शब्द जुड़वा कर भगत सिंह ने मेहनतकशों के समाजवादी राज्य की स्थापना को क्रांतिकारियों का लक्ष्य घोषित किया था। HRA का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ( HSRA ) किया गया था।
परवर्ती काल में, भले ही क्लासिकल अर्थों में समाजवाद न सही, पर एक समतामूलक समाज की स्थापना का लक्ष्य हमारे स्वतंत्रता-आंदोलन के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल हुआ। इन्हीं मूल्यों और आकांक्षाओं का दबाव था कि आज़ादी मिलने के बाद नई सरकार ने socialistic pattern of society की बात की और कालांतर में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से यह संविधान के प्रस्तावना का हिस्सा बना।
सरकारों ने इस लक्ष्य से भले ही विश्वासघात किया, पर हमारी आज़ादी की लड़ाई के शहीदों का यह अधूरा स्वप्न हमारी मेहनतकश जनता को समतामूलक समाज की स्थापना के लिए अविचल संघर्ष हेतु सदैव प्रेरित करता रहा है और उनकी लड़ाइयों को वैधता तथा सम्बल प्रदान करता रहा है।
ठीक इसी तरह भगत सिंह ने अपने जीवन काल में साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ भी समझौताविहीन लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने संगठन में किसी भी साम्प्रदयिक संगठन से जुड़े व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी थी।
वे इस सवाल पर कितने दृढ़ थे इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जिस लाजपत राय के लिए पंजाब के राष्ट्रीय हीरो के बतौर उनके मन में गहरा सम्मान था और जिनके ऊपर जानलेवा हमले का बदला लेने के लिए ही अंग्रेज अधिकारी की हत्या के आरोप में अंततः उन्हें फांसी की सजा हुई, उन लाजपत राय के अंदर एक समय जब साम्प्रदायिक रुझान दिखे, तब भगत सिंह ने उनकी कटु आलोचना में उतरने में लेशमात्र भी संकोच नहीं किया और उन्हें वर्ड्सवर्थ के लिए रॉबर्ट ब्राउनिंग द्वारा प्रयुक्त " The Lost Leader " की संज्ञा से विभूषित किया।
उनकी समझ बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने लिखा, " लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके बहकावे में आकर कुछ नहीं करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इससे एक दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और आर्थिक आज़ादी हासिल होगी। "
उन्होंने एक सच्ची धर्मनिरपेक्षता की वकालत की " 1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको एक साथ मिलकर काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। धर्म को राजनीति से अलग करना झगड़ा मिटाने का एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठा हो सकते हैं, धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।"
भगत सिंह के लिए आज़ादी के ये जो दोनों प्रमुख ध्येय थे- समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता, मोदी राज में इन दोनों को संविधान के प्रस्तावना ( Preamble ) से हटाने के लिए संघ-भाजपा एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं। इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि संघ की स्थापना का तो मूल उद्देश्य ही कारपोरेट फासीवादी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है-जिसकी बुनियाद समता-समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के निषेध पर ही टिकी है।
हाल ही में संसद के विशेष सत्र के दौरान मोदी जी द्वारा बनाये गए नए संसद भवन में प्रवेश करते समय सभी सांसदों को संविधान की जो प्रति दी गयी, उसके प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द गायब थे।
बाद में जब इस पर हंगामा हुआ तो सरकार की ओर से सफाई दी गयी कि सांसदों को मूल संविधान की प्रति दी गयी थी जिसके Preamble में ये दोनों शब्द नहीं थे।
आखिर ऐसा क्यों किया गया? आज संविधान जिस स्वरूप में है उसकी प्रतियां क्यों नहीं दी गईं? अव्वलन तो तमाम संशोधनों से विकसित होता हुआ संविधान का मौजूदा स्वरूप ही आज भारत का संविधान है। अगर ऐतिहासिक संदर्भ के लिए मूल प्रति देना भी था तो भी उसके साथ वर्तमान संविधान को भी क्यों नहीं दिया गया।
संसद के विशेष सत्र के पहले दिन 18 सितंबर को लोकसभा सचिवालय द्वारा जारी बुलेटिन में यही कहा भी गया था कि सदस्यों को संविधान की एक प्रति और भारत के मूल संविधान की एक प्रति दी जाएगी.
बताया जा रहा है कि बुलेटिन में कहा गया था, " भारत के संसद भवन (संसद की नई इमारत) में ऐतिहासिक पहली बैठक के महत्व को रेखांकित करने के लिए भारत के संविधान की एक प्रति, भारत के मूल संविधान की सुलेखित प्रति, न्यूजलेटर ‘गौरव’ और स्मारक टिकट एवं सिक्का संसद के नए भवन के उद्घाटन के अवसर पर जारी किए जाएंगे, जो माननीय सदस्यों को दिए जाएंगे।"
सरकार की ओर से इस पर कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है कि बुलेटिन में उल्लेख के बावजूद आज के संविधान की प्रति क्यों नहीं दी गयी जिसके प्रस्तावना में सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द उल्लिखित हैं।
बहरहाल, सरकार की ओर से किसी convincing स्पष्टीकरण के अभाव में, इन दोनों धारणाओं के प्रति संघ -भाजपा का जो वैर भाव रहा है, उसके चलते इस आरोप को बल मिला है कि यह कोई चूक नहीं वरन सोची समझी रणनीति का हिस्सा है।
सरकार ने नई संसद प्रवेश के ऐतिहासिक मौके पर जान-बूझकर सन्देश देने के लिए ऐसा किया है।
सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से निकलते तमाम संकेतों से बिल्कुल साफ है कि संघ-भाजपा मौजूदा संविधान के मूल ढांचे को-धर्मनिरपेक्षता और समता- जिसकी आत्मा हैं, बुनियादी तौर पर बदल देने की तैयारी में है। बस उसके लिए अनुकूल राजनीतिक परिस्थिति का इंतज़ार है।
यहां यह भी गौरतलब है कि भले ये शब्द बाद में जोड़े गए, लेकिन मूल संविधान की भावना में ये व्याप्त थे और जब बाद में औपचारिक तौर पर इन्हें जोड़ लिया गया, तब बाद में सरकार बदलने के बाद भी अन्य संशोधन तो पलटे गए थे, लेकिन इन दो शब्दों को नहीं हटाया गया, अर्थात इन पर एक तरह की सर्वानुमति थी।
आज सभी देशभक्त नागरिकों को हमारी आज़ादी की लड़ाई से निकले इन महान मूल्यों को, उनके मूर्तिमान स्वरूप हमारे संविधान के मूल ढांचे को बदलने की हर कोशिश को पीछे धकेलना होगा। और उसके लिए 2024 में मोदी-शाह की पुनर्वापसी को रोकना होगा।
यही शहीदे आज़म भगत सिंह और स्वतंत्रता आंदोलन के सभी अमर शहीदों, वीर योद्धाओं को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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