Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

भीमा कोरेगांव मामला : धारा 207 सीआरपीसी क्या है?

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 207 में कौन सा क़ानून अंतर्निहित है और इसे एल्गार परिषद-भीमा कोरेगांव मामले में क्यों लागू किया जा रहा है?
bhima

एल्गार परिषद-भीमा कोरेगांव मामले के कई आरोपियों ने दावा किया है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने उन्हें उनके केस में महत्वपूर्ण सबूतों की प्रतियों को हासिल करने में बहुत देर की है।

सबूत कथित तौर पर आरोपियों के पास से बरामद इलेक्ट्रॉनिक सामग्री की क्लोन प्रतियों के रूप में मौजूद हैं।

आरोपी व्यक्तियों ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 207 को लागू करने की मांग करते हुए, एनआईए के समक्ष आवेदन दायर किया था। 

आवेदन किए चार वर्ष से अधिक समय हो चुका है लेकिन एनआईए ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया है। आवेदन वर्तमान में विशेष न्यायाधीश राजेश कटारिया की एनआईए अदालत के सामने लंबित पड़े हैं।

पिछले साल जनवरी में, अतीक उर रहमान, मसूद अहमद और मोहम्मद आलम ने सीआरपीसी की धारा 207 के तहत आरोप पत्र और अन्य सहायक दस्तावेजों की प्रतियां मांगने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का रुख किया था।

इन तीनों को हाथरस साजिश मामले में केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन के साथ पकड़ा गया था। आरोप पत्र अप्रैल 2021 में दायर किया गया था।

सीआरपीसी की धारा 207 क्या सुविधा देती है?

एफआईआर दर्ज होने के बाद, यह धारा आपराधिक न्याय प्रणाली को गति देती है।

किसी मामले की जांच के बाद, पुलिस रिपोर्ट या आरोप पत्र संबंधित पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है।

पुलिस रिपोर्ट और अन्य सहायक दस्तावेज हासिल होने पर, संबंधित मजिस्ट्रेट आरोपी को  उपस्थिति होने के लिए समन जारी करता है।

पेश होने पर, सीआरपीसी की धारा 207 के तहत यह प्रावधान है कि अभियुक्त को अभियोजन पक्ष द्वारा हासिल किए गए कुछ दस्तावेजों की एक प्रति बिना किसी देरी और मुफ्त में उपलब्ध कराई जाएगी। 

यह प्रावधान निम्नलिखित दस्तावेजों की आपूर्ति को अनिवार्य बनाता है, अर्थात्:

(i) पुलिस रिपोर्ट; 

(ii) धारा 154 के तहत दर्ज़ की गई एफआईआर की प्रति; 

(iii) उन सभी व्यक्तियों के बयान जिन्हे धारा 161(3) के तहत दर्ज किया गया है, जिन्हें अभियोजन पक्ष अपने गवाहों के रूप में जांचने का प्रस्ताव करता है, किसी भी उस हिस्से को छोड़कर जिसे पुलिस अधिकारीधारा 173(6) के तहत न देने का अनुरोध करता है; 

(iv) धारा 164 के तहत दर्ज किए गए बयान और इकबालिया बयान की प्रति; और

(v) धारा 173(5) के तहत पुलिस रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट को भेजा गया कोई अन्य दस्तावेज या प्रासंगिक उद्धरण।

सीआरपीसी की धारा 161 में जांच करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा गवाहों की जांच का प्रावधान है।

धारा 161 की उपधारा 3 में कहा गया है कि एक पुलिस अधिकारी, किसी मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित किसी भी व्यक्ति की जांच करते समय, उसके द्वारा दिए गए किसी भी बयान को कम लिख लिख सकता है और ऐसे प्रत्येक बयान का एक अलग रिकॉर्ड भी रख सकता है।

सीआरपीसी की धारा 164 के तहत जांच के दौरान मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट या न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा बयान और इकबालिया बयान दर्ज करने का प्रावधान है।

सीआरपीसी की धारा 173(5) के तहत, पुलिस रिपोर्ट के अलावा, संबंधित पुलिस अधिकारी धारा 161 के तहत दर्ज किए गए अन्य दस्तावेजों और गवाहों के बयानों को मजिस्ट्रेट के पास भेज सकता है, जिस पर अभियोजन भरोसा करना चाहता है।

धारा 173(6) बताती है कि एक पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट से अभियुक्तों को दी जाने वाली प्रतियों से गवाहों के बयानों को अलग रखने करने का अनुरोध कर सकता है यदि ऐसा खुलासा न्याय के हित में आवश्यक नहीं है।

इसके अलावा, प्रावधान में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट, अनुरोध पर पुलिस अधिकारी द्वारा दिए गए कारणों पर विचार करने के बाद, निर्देश दे सकता है कि खंड (iii) के तहत बयान के उस हिस्से की एक प्रति या उसके हिस्से को आरोपी को दिया जाए।

इसके अलावा, यदि मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट है कि खंड (v) में दर्ज़ कोई भी दस्तावेज़ है, तो उसके पास अभियुक्त को व्यक्तिगत रूप से या अदालत में एक वकील के माध्यम से इसकी जांच करने का निर्देश देने का विवेकाधिकार है।

संवैधानिक मेंडेट 

संविधान का अनुच्छेद 21 शिकायतकर्ता और आरोपी दोनों के लिए निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है, और यह भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली की रीढ़ है।

निष्पक्ष और अपक्षपाती सुनवाई के सिद्धांत में साक्ष्य के प्रत्येक हिस्से का पूर्ण खुलासा शामिल है जिसे अभियोजन पक्ष अभियुक्त के अपराध को स्थापित करने के लिए इस्तेमाल  करना चाहता है।

सबूतों के खुलासे से आरोपियों को गवाहों से जिरह करके या भौतिक सबूतों को खारिज करके अपना बचाव करने का उचित मौका मिलता है।

सीआरपीसी धारा 207 सहित कई प्रावधानों के माध्यम से आरोपी के अधिकार को दोहराती है। अदालत के कई निर्णय सीआरपीसी की धारा 207 का अनुपालन अनिवार्य बनाते हैं। 

सीआरपीसी की धारा 207 का सरसरी तौर पर अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रावधान स्पष्ट है। यह क़ानून में अच्छी तरह से स्थापित है कि अदालत को ऐसे प्रावधानों को पढ़ते समय स्पष्ट और प्राकृतिक अर्थ अपनाना चाहिए, भले ही इसके परिणाम कुछ भी हों।

इस पर न्यायपालिका का रुख क्या है?

सिद्धार्थ वशिष्ठ @ मनु शर्मा बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) (2010) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरोपी को सभी दस्तावेज और बयान हासिल करने के साथ-साथ अपने समर्थन में कोई भी रिकॉर्ड या गवाह पेश करने के लिए आवेदन दायर करने का अधिकार है। 

फैसले में कहा गया, "आरोपी को दिए गए ये संवैधानिक मेंडेट और वैधानिक अधिकार निष्पक्ष खुलासा करने के लिए अभियोजन पक्ष पर एक निहित दायित्व डालते हैं।"

अदालत ने यह भी कहा कि "निष्पक्ष खुलासे" में वह दस्तावेज़ प्रस्तुत करना शामिल है जिस पर अभियोजन पक्ष भरोसा करता है, चाहे वह अदालत में दायर किया गया हो या नहीं, इसे "निष्पक्ष जांच और जांच की नींव" कहा गया है।

पी. गोपालकृष्णन @ दिलीप बनाम केरल राज्य (2019) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सभी दस्तावेज, जिनमें इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड भी शामिल हैं, जो पुलिस रिपोर्ट के साथ अदालत के जांच के लिए पेश किए जाने हैं और अभियोजन पक्ष जिन पर भरोसा करता है, उन्हे सीआरपीसी की धारा 207 के तहत आरोपी को प्रदान किया जाना चाहिए।

फैसले में कहा गया है कि, "यह मौलिक है कि ऐसे गंभीर अपराध के लिए मुकदमा चलाने वाले व्यक्ति को पहले से ही सभी सामग्री और सबूत उपलब्ध कराए जाने चाहिए, जिन पर अभियोजन पक्ष मुकदमे के दौरान भरोसा करता है।"

पिछले साल जून में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने चिराग आर. मेहता बनाम कर्नाटक राज्य (2022) के  मामले में कहा था कि आरोपियों को आरोप पत्र में शामिल सभी सामग्री की प्रतियां देने से इनकार करना निष्पक्षता के सिद्धांत के विपरीत है जो जांच को अनुचित बना देगी।  

जुलाई 2021 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि आरोपी को सीआरपीसी की धारा 207 के तहत लगातार आवेदन दाखिल करने से रोका नहीं गया है।

अदालत की यह टिप्पणी दिल्ली दंगों की साजिश मामले में आरोपी देवांगना कलिता की याचिका से संबंधित है, जिसमें उन्होंने मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की एक प्रति की मांग की थी। 

आशुतोष वर्मा बनाम सीबीआई (2014) में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 207 का विश्लेषण किया और माना कि कोई भी आरोपी व्यक्ति तब तक उचित तरीके से अपना बचाव नहेन कर सकता है जब तक कि जांच के दौरान एकत्र किए गए सभी सबूत आरोपी को नहीं दिए जाते हैं।

अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपनी इच्छा और खुशी से उन गवाहों के बयानों को नहीं चुन सकता है जिनके संबंध में प्रतियां उनकी सुविधा के अनुसार अभियुक्त को दी जानी हैं और नहीं दी जानी हैं।

प्रावधान की वर्तमान स्थिति क्या है?

इस 11 अगस्त को लोकसभा में तीन नए विधेयक पेश किए गए। यदि ये पारित हो जाते हैं, तो भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2023 (बीएनएसएस) सीआरपीसी की जगह ले लेगा।

इसकी धारा 230 के तहत, बीएनएसएस सीआरपीसी की धारा 207 के सार को बरकरार रखता है, हालांकि एक प्रावधान के साथ, जो इस प्रकार है: "बशर्ते कि इलेक्ट्रॉनिक रूप में मौजूद दस्तावेजों को विधिवत सबूत माना जाएगा।"

स्पष्ट क़ानून और अदालतों के असंदिग्ध होने के बावजूद सीआरपीसी की धारा 207 का अनुपालन कमजोर रहा है।

यह देखा जाना बाकी है कि क्या बीएनएसएस की धारा 230 (यदि यह पारित हो जाती है) का भी यही हश्र होगा।

सारा थानावाला द लीफ़लेट में स्टाफ़ लेखिका हैं

सौजन्य: द लीफ़लेट 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest