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बिहार : APMC ख़त्म होने के बाद उत्पादन तो बढ़ा पर नहीं हुआ किसानों को फ़ायदा !

"साल 2006 में मंडी क़ानून ख़त्म होने के बाद राज्य में मूल्य और उत्पादन स्तर पर किसानों को गेहूं और धान में क़रीब 90 हज़ार करोड़ रुपये और सभी फ़सलों को मिला दें तो लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का नुक़सान हो रहा है।"
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बिहार के सुपौल जिला के बीना बभनगामा गांव के 54 वर्षीय अजय मिश्रा बताते हैं, "हमने 2022 के दिसंबर महीने में निजी व्यापारी नरेश बंगाली को 1500 रूपये प्रति क्विंटल की रेट से अपना धान बेचा। जबकि सरकार के द्वारा 2022-23 में एमएसपी का निर्धारित मूल्य 2040 रूपये प्रति क्विंटल था। एक बीघा में लगभग 40 मन (16 क्विंटल) धान होता है। वहीं अगर सूखा या बाढ़ का प्रभाव पड़ जाए तो 5 क्विंटल धान भी नहीं हो पाता है। इस बार एक बीघा के अनाज के लिए 24000 रूपये मिले थे जबकि एक बीघा में कम से कम 6-7 हज़ार रूपये की लागत आई जिसका मतलब ये हुआ कि हम को एक बीघा में सिर्फ 15000 रूपये का ही फायदा मिला।

वहीं हमें अप्रैल महीने में अपना गेहूं 1600 रूपये प्रति क्विंटल की रेट से बेचना पड़ा जबकि सरकार के द्वारा 2022-23 में एमएसपी का निर्धारित मूल्य 2125 रूपये प्रति क्विंटल था। पूरे गांव में 700 से ज़्यादा किसान हैं जिनमें सिर्फ 5 फीसदी किसान ही पैक्स को अनाज देते हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि गांव में जिन किसानों ने धान बेचा था उन्हें अभी तक पैसा नहीं मिला है। निजी व्यापारी खुद आकर अनाज को ले जाता है और तुरंत पैसे का भुगतान भी कर देता है जबकि पैक्स में आपको अपने साधन से धान को लेकर जाना पड़ता है। ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने में भी काफी रुपया खर्च होता है।"

इसके अलावा वे कहते हैं कि उन्हीं की तरह लाखों किसानों को बिहार में अपना अनाज पैक्स, बाज़ार या PACS के बजाय बिचौलियों को बेचकर भारी नुकसान उठाना पड़ता है।

अचानक क्यों बिहार में मंडी कानून को लेकर बहस छिड़ी हुई है?

कुछ महीने पहले ही बिहार के तत्कालीन कृषि मंत्री सुधाकर सिंह ने अपनी ही सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ बयानबाज़ी शुरू की जिसके बाद उन्हें कृषि मंत्री के पद से भी हटना पड़ा। इसके बावजूद वो किसानों के मुद्दे को लेकर सरकार के खिलाफ लगातार मुखर हैं। पूर्व कृषि मंत्री, नीतीश सरकार को जिन मुद्दों पर घेर रहे हैं उनमें कृषि विभाग में भ्रष्टाचार, खाद में कालाबाज़ारी और मंडी कानून मूख्य रूप से शामिल हैं। साल 2022 में विधान सभा के शीतकालीन सत्र में सुधाकर सिंह मंडी कानून को लेकर एक प्राइवेट मेंबर बिल भी लाए जिसका नाम था-"कृषि उपज और पशु विपणन एंव मंडी स्थापना कानून।" लेकिन बिहार विधान सभा के अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी ने समय की कमी की वजह से इसपर अपनी विवशता ज़ाहिर कर दी हालांकि बिल को खारिज नहीं किया। जनवरी 2023 में ही कुछ दिन पहले राकेश टिकैत एक मुद्दे को लेकर बिहार के बक्सर जिला आए थे जहां उन्होंने बिहार में मंडी कानून के मुद्दे पर बोलते हुए कहा कि यहां मंडी कानून लागू होना चाहिए ताकि बिहार के किसानों को राज्य से बाहर जाकर मज़दूरी ना करना पड़े।

बिहार राज्य के विक्रम विधानसभा क्षेत्र में डॉक्टर ममतामइ प्रियदर्शनी सहकारिता विभाग में धान खरीद में हो रही देरी और अनियमितता को लेकर चिट्ठी लिखी, पूरे बिहार की यही स्थिति है

सुधाकर सिंह पूरे मामले पर मीडिया को बताते हैं कि, "साल 2006 में मंडी कानून खत्म होने के बाद राज्य में मूल्य और उत्पादन स्तर पर किसानों को गेहूं और धान में करीब 90 हज़ार करोड़ रुपये और सभी फसलों को मिला दें तो लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। कई संस्थाएं भी इस बात की सिफारिश कर चुकी हैं कि राज्य में मंडी कानून होना चाहिए जिससे किसानों को फसल का न्यूनतम मूल्य मिल सके।"

नीतीश सरकार ने 14 साल पहले एपीएमसी अधिनियम को किया था खत्म

नीतीश कुमार साल 2005 में सत्ता में आए थे और वर्ष 2006 में कृषि उपज बाज़ार समिति (APMC) अधिनियम और मंडी प्रणाली को समाप्त कर दिया था। 16 साल पहले नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार में एपीएमसी अधिनियम के बदले प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (पीएसीएस) के साथ मंडी प्रणाली को बदल दिया। पीएसीएस बिहार में पंचायत स्तर पर सहकारी संस्थाओं के रूप में काम करती है, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए किसानों की उपज की खरीद करती है और इसे भारतीय खाद्य निगम, राज्य खाद्य निगम और निजी थोक विक्रेताओं को बेचती है। कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने भी तीनों कृषि कानूनों के तहत एपीएमसी मंडियों को खत्म करने की बात कही थीं। लेकिन किसानों के आंदोलन के सामने सरकार को झुकना पड़ा था।

बिहार के हालात से सबक लेना क्यों ज़रुरी है?

एपीएमसी मंडियों को खत्म करने के पीछे नीतीश सरकार ने ये तर्क दिया था कि पीएसीएस के माध्यम से किसानों और व्यापारियों को किसानों की उपज की बिक्री और खरीद से संबंधित आज़ादी मिलेगी। साथ ही कृषि क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा मिलने से किसानों की स्थिति में सुधार होगा, लेकिन 16 साल के बाद भी राज्य में अनाज की खरीद और बिक्री निजी निवेश को आकर्षित नहीं कर पा रही है। नीतीश कुमार अभी भी मंडी कानून को हटाने के फैसले को अपना सफल कदम मानते हैं। इसी वजह से नीतीश कुमार कई बार दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन का विरोध और सरकार का समर्थन करते भी नज़र आए। हालांकि बिहार के किसानों की ज़मीनी हकीकत बद से बदतर है। इसलिए यहां के किसान दिल्ली और पंजाब में मज़दूरी करने के लिए विवश हैं।

APMC मंडियों के बंद होने के बाद बिहार में क्या हुआ?

अनाज की खरीद के लिए ट्रेड यूनियनों के माध्यम से प्राथमिक कृषि ऋण समितियों की गतिविधि पर 35 साल कृषि विभाग में काम कर चुके अरुण कुमार झा बताते हैं कि, "बिहार में लगभग 95% छोटे किसान हैं जिनके पास 2-3 बीघा खेत हैं। एपीएमसी मंडियों को हटाने से इन किसानों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा है। पीएसीएस में अनाज बेचने पर तत्काल भुगतान नहीं किया जाता है यहां तक भुगतान में छह महीने से साल भर तक का वक्त लग जाता है। ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना भी किसानों के लिए किसी संघर्ष से कम नहीं है। धान की खरीद के लिए कागज़ी कार्रवाई की लंबी प्रक्रिया से किसान परेशान रहते हैं। इस वजह से किसानों को बिचौलियों के माध्यम से अनाज बेचना पड़ता है। एक दिक्कत भंडारण की भी है। छोटे किसान अपनी उपज को अधिक दिन तक घर पर नहीं रख सकते हैं। पीएसीएस में भंडारण सुविधा का भी अभाव है। इसलिए बिचौलिया जो दाम देता है उसी दाम पर उन्हें बेचना पड़ता है।"

भंडारण की समस्या पर सहरसा जिला के महिषी पंचायत के जनप्रतिनिधि नितीन ठाकुर बताते हैं कि, "अभी गेहूं की कीमत 3000 रूपये प्रति क्विंटल है जबकि सिर्फ 5 महीने पहले बिचौलियों के द्वारा इसे महज़ 1600 रूपये में खरीदा गया था। हालांकि इस बार गेहूं की कीमत का अचानक इतना बढ़ना किसानों के लिए सुखद है। अगर सरकार के द्वारा भंडारण की व्यवस्था गांव में कर दी जाए तो किसान सही समय पर अनाज बेचकर उचित कीमत पा सकते हैं। अधिकांश किसानों के पास अनाज रखने के लिए घर नहीं रहता जिसका फायदा बिचौलिया उठाता है और मजबूरन किसानों को एमएसपी से बहुत कम रेट पर अपना अनाज बेचना पड़ता है।"

समस्तीपुर जिला के विद्यापति धाम गांव में पैक्स में धान की खरीद

पूस की रात का दर्द हलकू ही समझ सकता है

बिहार में सुपौल जिला के कजरा गांव के लक्ष्मण 2 बीघा ज़मीन पर धान की खेती करते हैं। वो एक बटाईदार किसान हैं। इस बार लक्ष्मण के 2 बीघा खेत में लगभग 34 क्विंटल धान हुआ जिसमें से उसने 17 क्विंटल धान अपने खेत के मालिक को दे दिया और बाकी 17 क्विंटल में से 7 क्विंटल रखकर 10 क्विंटल धान बेच दिया। जिसके बदले में लक्ष्मण को साल भर खाने के धान के साथ महज़ 15000 रूपये मिले जिसमें 5000 रूपये की लागत भी शामिल है। मतलब पूरे साल मेहनत करने के बाद लक्ष्मण को सिर्फ 10 हज़ार रूपये का फायदा हुआ। लक्ष्मण इस बार खेती छोड़कर कमाई के लिए दिल्ली जा रहे हैं। बिहार में अधिकांश किसान बटाईदार किसानी के तहत ही खेती करते हैं। लक्ष्मण की हालत और सरकार के रवैये को देखकर तो इतना ही कहा जा सकता है कि पूस की रात का दर्द हलकू ही समझ सकता है। राज्य में 104.32 लाख किसानों के पास कृषि भूमि है। जिसमें 82.9 प्रतिशत भूमि जोत सीमांत किसानों के पास है और 9.6 प्रतिशत छोटे किसानों के पास है।

उत्पादन अधिक और खरीदी कम

बिहार के भागलपुर जिला में किसानों के हक के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे विपिन यादव बताते हैं कि, "70-80 के दशक में अनाज 76-80 रुपये प्रति क्विंटल बेचा जाता था। उस वक्त एक सरकारी क्लर्क का वेतन लगभग 100 रूपये होता था। अभी अनाज 1500-2000 प्रति क्विंटल बेचा जा रहा है जबकि एक क्लर्क का वेतन 40-50 हज़ार हो गया है। एपीएमसी अधिनियम के खत्म होने से पहले बिहार के कई क्षेत्रों के किसान अपना अनाज बाज़ार समितियों को बेचते थे जहां न्यूनतम मूल्य की गारंटी होती थी। लेकिन अब बिहार के किसान पंजाब और हरियाणा के किसानों के यहां मज़दूर के रूप में काम कर रहे हैं। राज्य में कृषि कानूनों के बारे में जागरुकता की कमी है। इसका सबसे मुख्य कारण ये है कि पूरे बिहार के किसानों के लिए कोई भी समिति नहीं बनी है जो उसकी बात कर रही हो। पैक्स में अनाज बेचना किसानों के लिए मुश्किल है ही वहीं सरकार पैक्स को खाद और यूरिया बेचने के लिए भी कहती है। लेकिन अभी पूरे बिहार में किसान यूरिया के लिए भटक रहे हैं। शायद ही किसी पैक्स केंद्र में आपको यूरिया मिलें।"

बिहार देश में धान, गेहूं और मक्का उत्पादक प्रमुख राज्यों में शामिल है, जहां की करीब 76 फीसदी आबादी कृषि कार्यों में लगी है। राज्य में करीब 79.46 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से लगभग 32 लाख हेक्टेयर में चावल की खेती होती है जो पूरी भूमि का 40% हैं। वहीं देश में मक्का के कुल उत्पादन का 80 फीसदी हिस्सा बिहार से आता है। बिहार का खाद्यान उत्पादन 2021-2022 में 184.86 लाख मीट्रिक टन दर्ज किया गया है, जो कि वर्ष 2020-2021 से 5 लाख मीट्रिक टन अधिक है।

धान की बिक्री के लिए किसानों को सहकारी विभाग की वेबसाइट के माध्यम से ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता हैं। लेकिन सरकार के द्वारा दिए गए आंकड़े के मुताबिक सरकारी ऐजेंसी के माध्यम से राज्य में काफी कम खरीदी हुई है। वित्तीय वर्ष 2021-2022 में धान उपार्जन के लिए मात्र 9,80,624 किसानों ने ऑनलाइन आवेदन किया था। जबकि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में करीब 1 करोड़ 16 लाख रजिस्टर्ड किसान हैं। 23 जनवरी, 2023 तक सहकारी विभाग के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक सरकार ने 324676 किसानों से 23.79 लाख मीट्रिक टन धान की खरीद की है, जो कि अपने लक्ष्य का लगभग 50% है।

वहीं सहरसा कृषि विभाग में काम कर रहें एक अधिकारी भी मानते हैं कि सुचारू ढंग से काम नहीं हो रहा है। हालांकि उन्होंने अपना नाम ना छापने की गुज़ारिश की। उनके मुताबिक पैक्स और व्यापार मंडल बिहार के प्रत्येक पंचायतों में जाकर किसानों से सुलभ तरीके से जल्द ही धान की खरीद की प्रक्रिया शुरू करेगा। विभाग इस पर काम कर रहा है।

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