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देश में फैली ग़रीबी के बारे में ‘बिहार का जाति सर्वेक्षण’ बहुत कुछ कहता है!

ये सच है कि बिहार, पूरे देश की हालत का प्रतिनिधित्व नहीं करता है लेकिन सर्वे की ये जानकारियां भाजपा सरकार द्वारा जीडीपी ग्रोथ को लेकर किए जा रहे प्रोपेगेंडा की हक़ीक़त को उजागर करती है।
caste census
बिहार में जाति-आधारित जनगणना के लिए निवासियों से जानकारी एकत्र करते हुए प्रगणक कर्मचारी। फ़ोटो: PTI

बिहार के जातिगत सर्वे में एक ध्यान खींचने वाली जानकारी निकल कर आई है, जो इस बात की सत्यता को साबित करती है, जिस बात को वामपंथ एक लंबे अरसे से कहता आ रहा था। जानकारी यह है कि हमारे देश में निरपेक्ष या घोर गरीबी, भारत में एक के बाद एक सरकारें जो दावे करती आई हैं, उसके मुकाबले कहीं ज़्यादा व्यापक रूप से फैली हुई है।

बिहार के जाति सर्वे में गरीबी

यह सर्वे दिखाता है कि बिहार की 34.1 फ़ीसदी आबादी की मासिक पारिवारिक आय, 6000 रूपये या उससे कम है। 6,000 रूपये महीना का यह बैंचमार्क आंकड़ा, खुद सरकार के अपने मानदंड के हिसाब से जो सरकारी ‘‘गरीबी की रेखा’’ होनी चाहिए, उसके बराबर होता है। यह दूसरी बात है कि इन दिनों तो सरकार ने गरीबी की बात करना ही बंद कर दिया है। इसके बजाए अब सरकार ने ‘बहु-आयामी गरीबी’ की अवधारणा को अपना लिया है, जिसका प्रचार कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा किया जाता है और जो यह दिखाती है कि देश की सिर्फ 15 फ़ीसदी आबादी गरीबी में जी रही है! बेशक, यह सही है कि बिहार, पूरे देश की हालत का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। फिर भी, बिहार के सर्वे का गरीबी का आंकड़ा इतना ज़्यादा बड़ा है कि देश में गरीबी के व्यापक रूप से फैले होने से इनकार नहीं किया जा सकता है।

6000 रूपये को बैंचमार्क मानने के पीछे काम कर रहा तर्क इस प्रकार है। 2011-12 के लिए सुरेश तेंडुलकर कमेटी ने, जिसे सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था, ग्रामीण भारत के लिए 29 रूपये प्रतिदिन की गरीबी की रेखा की सिफारिश की थी। अगर हम खेत मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को देखें, तो 2011-12 से 2021-22 के बीच इस सूचकांक में हमें 77.5 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दिखाई देती है, इसके आधार पर उक्त गरीबी की रेखा 2021-22 के लिए 51.475रूपये बैठती है। और चार व्यक्तियों के एक परिवार के लिए यह रेखा, 6177 रूपये प्रतिमाह की आय के बराबर बैठती है। इसलिए, ग्रामीण गरीबी के बैंचमार्क आंकड़े के तौर पर 6,000 रूपये की मासिक आय, खुद सरकार के अपने मानदंड के हिसाब से पूरी तरह उचित बैठती है।

जाहिर है कि शहरी गरीबी का बैंचमार्क आंकड़ा इससे कहीं बहुत ज़्यादा होगा। इसलिए, अगर हम देश में समग्रता में गरीबी को देख रहे हों, जिसमें शहरी और ग्रामीण, दोनों ही क्षेत्रों की गरीबी शामिल है, तो 6,000 रूपये महीना की पारिवारिक आय के एक जैसे बैंचमार्क का अपनाया जाना, गरीबी की मात्रा को बहुत ही घटाकर दिखाने का ही काम करता है। इसके बावजूद, हम जान-बूझकर डेटा पर 6,000 रूपये महीना के एक समान बैंचमार्क का उपयोग कर रहे हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई यह नहीं कह सके कि गरीबी को बढ़ाकर दिखाया जा रहा है।

गरीबी के लिए आय का पैमाना

बहरहाल, 6,000 रूपये महीने का बैंचमार्क भी, सरकारी मानदंड के अनुरूप होते हुए भी, वास्तव में एक उपयुक्त मानदंड नहीं है। तेंडुलकर कमेटी एक सरकार द्वारा नियुक्त की गयी कमेटी थी और उसका गरीबी की रेखा सुझाते हुए, सरकारी इच्छाओं का ख्याल रखना स्वाभाविक था। लेकिन, हम तो इस मुद्दे को अलग एंगल से भी ले सकते हैं।

योजना आयोग ने शुरूआत में 2200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन को ग्रामीण भारत में गरीबी के मानक के रूप में अपनाया था। अब अगर हम राष्ट्रीय नमूना सर्वे के प्रतिव्यक्ति खर्च के आंकड़ों से वह स्तर निकालें, जिस पर ग्रामीण भारत में 2200 कैलोरी आहार हासिल हो सकता है, यह राशि 2017-18 के लिए 70 रूपये बैठती थी। चार लोगों के परिवार के लिए, यह राशि 8,400 रूपये महीना बैठती है। अब चूंकि 2017-18 से 2021-22 के बीच खेत मजदूरों के लिए मूल्य सूचकांक में 21 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है, चार लोगों के परिवार का मासिक पारिवारिक खर्च जिसे 2021-22 के लिए गरीबी का पैमाना माना जाना चाहिए, 10,164 रूपये बैठता है। इसलिए, हमें ग्रामीण गरीबी को परिभाषित करने के लिए, कम से कम 10,000 रूपये महीना की पारिवारिक आय को रेखा या पैमाना मानना चाहिए। शहरी क्षेत्र में गरीबी को परिभाषित करने वाला आय का स्तर कहीं ऊंचा होना चाहिए। फिर भी हम शहरी व ग्रामीण परिवारों के लिए आय का एक समान मानदंड ही माने लेते हैं, जिससे किसी के इसका आरोप लगाने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहे कि हम गरीबी को बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहे हैं।

अगर हम इस मानक को लागू करें तो हम, बिहार के जाति सर्वे के अनुसार यह पाते हैं कि उसकी 63.74 फ़ीसदी यानी करीब 64 फ़ीसदी आबादी, गरीबी की इस रेखा के नीचे जी रही है। यह विचार ही कि भारत के एक बड़े राज्य में 2022-23 में कम से कम उसकी 64 फ़ीसदी आबादी शुद्घ गरीबी में डूबी हुई है, एक हैरान कर देने वाला निष्कर्ष है। हमारे देश में सरकारी प्रवक्ता जीडीपी में वृद्घि पर कुछ इस प्रकार जोर देते रहते हैं, जैसे इससे खुद ब खुद देश की तमाम आर्थिक समस्याएं हल हो जाने वाली हों। वास्तव में वर्तमान सरकार के प्रवक्ता तो 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बन जाने की ओर बढ़ने को कुछ इस तरह से पेश करते हैं, जैसे यह सबसे बड़ा सुर्खाब का पर हो, जो जल्द ही देश के आर्थिक मुकुट में लग जाने वाला है। लेकिन, जीडीपी में वृद्घि के इस सारे महिमागान के पीछे यह भयावह तथ्य छुपा हुआ है कि अगर हम बिहार की स्थिति के आधार पर पूरे देश के लिए अनुमान लगाएं तो, हमारी दो-तिहाई आबादी शुद्ध या घोर गरीबी में जी रही है।

डरावनी हक़ीक़त

बेशक, इस भयावह हक़ीक़त की एक झलक पहले ही दूसरे कई संकेतकों में देखी जा सकती है। खासतौर पर वैश्विक भूख सूचकांक में, जिसमें भारत कुल 125 देशों में 111वें नंबर पर आया है। लेकिन, सरकार ऐसे हर एक संकेतक को निरर्थक बताकर खारिज ही करती आई है। यह तथ्य कि ऐसे सर्वे में भी, जो आबादी के जातिवार गठन का पता लगाने के एक पूरी तरह से भिन्न उद्देश्य से किया गया था, देश में गरीबी तथा वंचितता के बहुत व्यापक रूप से फैले होने के सच का पता चला है, इस दयनीय सचाई के होने की ही पुष्टि करता है।

यह दयनीय सचाई, अर्थव्यवस्था की दशा को लेकर भाजपा के रुख के घोर सतहीपन को और वास्तव में उसके घोर पक्षपातीपन को ही उजागर करता है। यह तथ्य किसी से छुपा हुआ नहीं है कि भाजपा एक ऐसी पार्टी है जो मोनोपॉली पूंजीपतियों के, खासतौर पर दरबारी मोनोपॉली के हितों को साधती है।

लेकिन, भाजपा अपने इस रुख को इस दलील की आड़ में सही ठहराने की कोशिश करती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए जीडीपी की वृद्धि ही सबसे महत्वपूर्ण है और इस तरह की आर्थिक वृद्धि पूंजीपति और खासतौर पर मोनोपॉली पूंजीपति ही ला सकते हैं। इसके लिए उन्हें सरकार की तरफ से सारी सुविधाएं दी जानी चाहिए, जिनमें ट्रांसफर के रूप में प्रोत्साहन दिया जाना भी शामिल हैं। इस तरह जीडीपी की वृद्धि पर सारा जोर देने के जरिए, ‘‘राष्ट के हित’’ को, मोनोपॉली पूंजीपतियों के हितों के साथ एकरूप कर दिया जाता है। लेकिन, यह तथ्य कि भारत में जीडीपी की वृद्घि, जो सरकार के अपने दावे के अनुसार दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ऊंची दर से वृद्घि है, दो-तिहाई आबादी को घोर गरीबी में छोड़े हुए है, भाजपा की दलील के खोखलेपन और पक्षपातीपन, दोनों को ही रेखांकित करता है।

बहुआयामी गरीबी सूचकांक की भ्रामकता

लेकिन, तब यह पूछा जा सकता है कि फिर बहु-आयामी गरीबी सूचकांक के निष्कर्षों का क्या? लेकिन, वह तो सूचकांक ही एक बौद्धिक मतिभ्रम पर टिका हुआ है। हरेक उत्पादन पद्घति के दायरे में गरीब होते हैं, जो एक खास तरीके से आचरण करते हैं। इसलिए, हरेक उत्पादन पद्धति का गरीबी की पहचान का अपना ही मानदंड होना चाहिए। मिसाल के तौर पर सामंतवाद के अंतर्गत गरीबी एक खास रूप लेती है जिसके तहत बच्चे भूखे मरते हैं, अशिक्षित छोड़ दिए जाते हैं और श्रम शक्ति में शामिल होने के लिए मजबूर किए जाने के जरिए, उनका तीखा शोषण होता है। दूसरी ओर, पूंजीवाद के अंतर्गत और खासतौर पर विकसित पूंजीवाद के अंतर्गत, गरीबी बच्चों के काम करने पर मजबूर किए जाने का रूप विशेष नहीं लेती है बल्कि उनको दरिद्र स्कूलों तथा दरिद्र स्वास्थ्य-रक्षा सुविधाओं तक ही पहुंच हासिल होने, दयनीय हालात में टूटे-फूटे फर्नीचर आदि व पुराने-धुराने उपकरणों के साथ जीने और अपराध की ओर धकेले जाने का रूप लेती है। गरीबी और अपराध के बीच का रिश्ता, उन्नत पूंजीवाद के अंतर्गत खासतौर पर मजबूत है। यह भी एक वजह है कि गरीबी पर ऐसा कोई भी सर्वे जो जाहिर है कि जेल में रहने वालों को कवर नहीं करता है, असंतोषजनक ही बना रहेगा।

गरीबी को इस आधार पर परिभाषित करता कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं जा रहे हैं, एक सामंती समाज के लिए तो प्रासंगिक होगा। लेकिन, एक उन्नत पूंजीवादी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं होगा, जहां बच्चे स्कूल तो जा ही रहे होंगे लेकिन, हो सकता है कि वे बहुत ही घटिया दर्जे के स्कूल में जा रहे हों। संक्षेप में यह कि गरीबी की पहचान के मानक, अलग-अलग उत्पादन पद्धतियों में अलग-अलग होंगे। और अगर हमारे जैसे समाज में, जहां विभिन्न उत्पादन पद्धतियों का मिश्रण मौजूद है, हमें एक ऐसा मानदंड चाहिए जो गरीबी के सभी रूपों को कवर करता हो, तो ऐसा मानदंड आय का स्तर ही हो सकता है।

पोषण का स्तर ही है गरीबी का उपयुक्त मानदंड

बहरहाल, खुद आय ऐसी अवधारणा नहीं है जिसका माप करना आसान हो। इसीलिए, उसके लिए कोई आसानी से गणनीय एवजीदार या प्रॉक्सी खोजना होता है और पोषण का स्तर, अपने आप में महत्वपूर्ण होने के साथ ही साथ, एक ऐसा ही एवजीदार है। हम गरीबी को चाहे सामंती संबंध व्यवस्था के दायरे में देखें या उन्नत पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में देखें, हम हमेशा गरीबों को अल्पपोषित पाएंगे; जबकि सामंती संबंध व्यवस्था के अंतर्गत वे काफी कम आयु में ही श्रम शक्ति में शामिल हो रहे होंगे, जबकि दूसरी व्यवस्था में वे घटिया दर्जे के स्कूलों में जा रहे हो सकते हैं। बहुआयामी गरीबी सूचकांक की समस्या यह है कि इसमें पोषण को बहुत कम स्थान दिया जाता है और उसके लिए भी बॉडी-मास इंडैक्स जैसे खराब निकटवर्ती सूचक का सहारा लिया जाता है और दूसरी ओर उसमें दूसरे ऐसे अनेक संकेतकों को लिया जाता है, जैसे बच्चों का स्कूल जाना, उपकरणों तक उनकी पहुंच होना आदि, जिन्हें गरीबी न होने के सूचक के तौर पर लिया जा रहा होता है, जबकि वे ज़्यादा से ज़्यादा सामंती गरीबी से पूंजीवादी गरीबी में संक्रमण को ही प्रदर्शित करते हैं।

इस पूरी तरह से संदिग्ध बहुआयामी गरीबी माप के आधार पर ही भाजपा की सरकार इसका दावा करती आई है कि जीडीपी में वृद्धि से, गरीबी खुद ब खुद मिट जाती है। बिहार की जाति गणना के नतीजों से, उन सभी की आंखें खुल जानी चाहिए, जो सरकार के उक्त प्रचार में आ गए हों।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Bihar Caste Survey is an Eye-Opener to India’s Poverty Spread

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