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बिहार के आर्थिक आंकड़े: लोकतंत्र में एक टर्निंग पॉइंट!

कोई भी राजनीतिक दल यहां तक कि आरएसएस के नेतृत्व वाली भाजपा भी बिहार की जाति जनगणना के सामाजिक-आर्थिक निष्कर्षों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती है।
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फ़ोटो : PTI

बिहार सरकार द्वारा अक्टूबर में राज्य की जाति-वार जनसंख्या की एक विस्तृत संरचना जारी करने के बाद उसने हाल ही में राज्य की जनसंख्या की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर सांख्यिकीय निष्कर्ष जारी किए। आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग 63.13% है और गैर-मुस्लिम ऊंची जातियां आबादी का सिर्फ 10% हैं। एकल जाति के रूप में यादवों की संख्या सबसे बड़ी है यानी 14.27%।

आंकड़े इस प्रकार है: पिछड़ा (27.13%) और सर्वाधिक पिछड़ा समुदाय (36%) बनाने वाली जातियां मिलकर राज्य की जनसंख्या का 63.13% बनती हैं। सामान्य श्रेणी की जातियां जिनमें ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ और राजपूत शामिल हैं, आबादी का केवल 15.52% हैं।

दूसरे शब्दों में यादव वस्तुतः उतना ही बड़ा सामाजिक समूह है जितना उस राज्य में सामान्य श्रेणी के सभी समुदाय हैं।

यदि मुस्लिम आबादी को हटा दिया जाए तो हिंदू ओबीसी कुल आबादी का 50% है और उच्च जाति (सामान्य) वर्ग केवल 10% है।

जाति जनगणना का प्रभाव

एक तात्कालिक प्रश्न उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर न्यायिक निर्णयों के संदर्भ में जाति जनगणना कैसे काम करेगी? सभी आरक्षणों पर लगाई गई 50% की सीमा न्यायालय द्वारा उठाए गए नैतिक आधार पर आधारित है। एक बार जाति संरचना का ऐसा प्रामाणिक डेटा अदालत के सामने रख दिया जाएगा तो सीमा समाप्त हो जाएगी।

एक बार जब अखिल भारतीय स्तर पर जाति जनगणना हो जाएगी तो पूरे राजनीतिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाएगा।

सामाजिक संरचना की यह समझ ही कारण थी कि सभी दलों में द्विज जाति के नेता जाति-वार जनगणना डेटा एकत्र करने से डरते थे।

जातिवार सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक डेटा पेश किए जाने के बाद बिहार सरकार ने राज्य में ओबीसी आरक्षण को 65% तक बढ़ाने का फैसला किया। ईडब्ल्यूएस आरक्षण को मिलाकर अब बिहार में आरक्षण बढ़कर 75 फीसदी हो जाएगा।

नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव सरकार का यह फैसला भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक संकट पैदा कर देगा। यह न्यायपालिका को कोटा पर अपनी 50% की सीमा पर फिर से विचार करने के लिए भी मजबूर करेगा। अब उसके सामने एक ठोस डेटाबेस रखा जा सकता है कम से कम एक संख्यात्मक रूप से बड़े राज्य से।

गरीबी सूचक

आइए हम बिहार में जातिवार गरीबी के स्तर पर भी नज़र डालें। जो लोग प्रति माह 6,000 रुपये से कम कमाते हैं उन्हें किसी भी राज्य में 'सबसे गरीब' माना जाता है। यानी ये परिवार प्रति वर्ष 72,000 रुपये से भी कम कमाते हैं। 21वीं सदी और वैश्वीकृत दुनिया में इतनी कम आय से एक पत्नी, पति और उनके दो बच्चों का भरण-पोषण मुश्किल से ही हो पाता है।

पूर्ववर्ती योजना आयोग के आर्थिक सर्वेक्षणों और मौजूदा नीति आयोग के सर्वेक्षणों द्वारा परिभाषित गरीबी रेखा यह स्थापित करती है कि बिहार भारत में सबसे अधिक गरीबी से ग्रस्त राज्य है जिसके बाद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश आते हैं। इस कारण राजस्थान के साथ-साथ इन राज्यों को भी 'बीमारू राज्य' के रूप में एक साथ जोड़ दिया गया है।

अब बिहार जाति जनगणना के आंकड़े पहली बार जाति-वार गरीबी की स्थिति दर्शाते हैं। यह स्पष्ट रूप से देखा गया है कि अनुसूचित जाति के 42.93% लोग पूर्ण गरीबी में जी रहे हैं। अनुसूचित जनजातियां गरीबी से ग्रस्त जीवन जीने के मामले में अनुसूचित जातियों के बाद आती हैं जिनमें से 42.7% बिल्कुल गरीब हैं।

जनसंख्या की दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा वर्ग सबसे बड़ा समूह है लेकिन गरीबी के मामले में वे ओबीसी में सबसे खराब स्थिति में हैं - उनमें से 33.58% सबसे गरीब की श्रेणी में आते हैं।

इसके अलावा, 33.16% ओबीसी सबसे अधिक गरीबी से ग्रस्त श्रेणी में हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि यादव हालांकि संख्यात्मक रूप से प्रभावशाली हैं सबसे अधिक गरीबी से त्रस्त श्रेणी में 35.87% हैं।

दरअसल, ब्राह्मणों का एक वर्ग - 25.32% - और भूमिहारों का 27.58%, उसके बाद 24.89% राजपूत गरीबी से पीड़ित हैं। सबसे कम गरीबी वाली जाति कायस्थ है जिनमें 13.38% गरीब हैं।

हालांकि हमें यह समझना चाहिए कि 'सबसे गरीब लोगों' में भी जो लोग ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित जातियों से हैं उनके पास शिक्षा और जाति पूंजी की अधिक कमी है।

इसलिए जब हम जाति को एक इकाई के रूप में देखते हैं तो बिहार की अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ईबीसी को केवल आरक्षण के अलावा बहुत सारे कल्याणकारी प्रयासों की आवश्यकता होती है।

बिहार में कृषि उत्पादकता को उन्नत करने की आवश्यकता है क्योंकि राज्य के पास शायद ही कोई औद्योगिक पूंजी है। आर्थिक जीवंतता के संदर्भ में राज्य की राजधानी पटना सहित इसके शहरी स्थान, दक्षिण भारतीय राज्य के किसी जिला मुख्यालय के भी करीब नहीं हैं। जब तक राज्य की उत्पादकता उन्नत नहीं होती इसकी विशाल आबादी को गरीबी रेखा से ऊपर उठाना असंभव है।

बिहार डेटा का राष्ट्रीय निहितार्थ

एक प्रमुख निहितार्थ यह है कि कई राज्य अब जातिवार डेटा एकत्र करने के लिए मजबूर हैं। राजस्थान और आंध्र प्रदेश सरकारों ने पहले ही जातिवार डेटा एकत्र करना शुरू कर दिया है।

बिहार जाति डेटा जारी होने के बाद, कांग्रेस पार्टी की अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने बैठक की और निर्णय लिया कि जहां भी वह सत्ता में है, वहां जाति डेटा एकत्र किया जाएगा। जब कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आएगी तो वह जाति जनगणना को एक दशक में एक बार होने वाली सामान्य जनगणना का हिस्सा बनाएगी।

यह नया विकास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लिए एक झटका है जो भाजपा के माध्यम से देश पर शासन कर रही है। वजह साफ है। आरएसएस, आरक्षण हटाने और जाति पहचान पर किसी भी चर्चा पर रोक लगाने के पक्ष में था। सोशल इंजीनियरिंग का उनका विचार दलित/शूद्र जनता को यह विश्वास दिलाना था कि हिंदुओं को मुसलमानों और ईसाइयों से लड़ने के लिए एकजुट होना चाहिए न कि जातिगत पहचान का विस्तार करना चाहिए और न ही द्विज-नियंत्रित सनातन धर्म में संकट पैदा करना चाहिए।

बड़ी अनिच्छा के साथ उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव में वोट हासिल करने के लिए अपनी ओबीसी पहचान का उपयोग करने की अनुमति दी। उनका शायद यह मानना था कि जाति के प्रश्न को राजनीतिक चर्चा में आने की अनुमति दिए बिना वह लगातार 'मुस्लिम तुष्टीकरण', और 'पाकिस्तान का खतरा' इत्यादि का उपयोग करके देश का प्रबंधन करेंगे जैसा कि उन्होंने गुजरात में किया था।

लेकिन भारत गुजरात नहीं है। मोदी की जातिगत पहचान और उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश में जातिगत पहचानों के आधार पर उनका वोट जुटाना मंडलवादियों के लिए जातिगत पहचान के मुद्दे को उसके तार्किक अंत की ओर धकेलने के लिए प्रेरक शक्ति बन गया।

अब आरएसएस/भाजपा को राष्ट्रीय जाति जनगणना पर स्टैंड लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यदि वे इस मुद्दे से बचते हैं तो संपूर्ण शूद्र/ओबीसी जनता को यह एहसास हो जाएगा कि उनकी वोट शक्ति का उपयोग केवल द्विज शक्ति को मजबूत करने के लिए किया गया था।

प्रधानमंत्री ने अपने 2023 राज्य चुनाव अभियानों में बार-बार कहा है कि उनकी सरकार ने 27 ओबीसी को मंत्री बनाया है। वह यह भी कहते रहे हैं कि जातीय जनगणना हिंदू समाज को बांट देगी।

ऐसे तर्कों से यही पता चलता है कि वे ज़मीनी स्तर पर ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित ओबीसी का उत्थान नहीं करना चाहते। जाति जनगणना, प्रत्येक समुदाय के कल्याण के लिए उसकी वास्तविक स्थिति के आधार पर और वैज्ञानिक डेटा के आधार पर संसाधनों का आवंटन और योजना बनाने के बारे में है। जातीय जनगणना के सवाल को अब कोई भी पार्टी टाल नहीं सकती।

(लेखक एक राजनीतिक सिद्धांतकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक 'द क्लैश ऑफ कल्चर्स-प्रोडक्टिव मास वर्सेज़ हिंदुत्व-मुल्ला कॉन्फ्लिक्टिंग एथिक्स' है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Bihar Economic Data a Turning Point in Democracy

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