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मंडल राजनीति का तीसरा अवतार जाति आधारित गणना, कमंडल की राजनीति पर लग सकती है लगाम 

बिहार सरकार की ओर से जाति आधारित जनगणना के एलान के बाद अब भाजपा भले बैकफुट पर दिख रही हो, लेकिन नीतीश का ये एलान उसकी कमंडल राजनीति पर लगाम का डर भी दर्शा रही है।
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बिहार सरकार ने राज्य में जातीय जनगणना कराने का फैसला कर लिया है। पहले सर्वदलीय बैठक और फिर कैबिनेट की मीटिंग में सबकुछ तय करने के बाद यह ऐलान कर दिया गया है कि बिहार, कर्नाटक मॉडल की तर्ज पर सूबे में जातीय गणना को अंजाम देगा। इस महाअभियान पर सरकारी खजाने से 500 करोड़ खर्च किये जायेंगे जो 9 महीने के भीतर सूबे की 14 करोड़ की आबादी की जाति, उपजाति, धर्म और संप्रदाय के साथ ही उसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति का भी आकलन करेगा। 

बिहार में सीएम नीतीश कुमार के नेतृत्व में जैसे ही सर्वदलीय बैठक के बाद कैबिनेट की मंजूरी का ऐलान हुआ, देश के अन्य इलाकों के भी कान खड़े हो गए। बिहार का यह मैसेज देश के कोने-कोने में पहुंचा और जाति की राजनीति करने वाली पार्टियां और खासकर मंडल राजनीति के पैरोकारों ने बैठकें शुरू कर दी। बिहार से निकली यह चिंगारी उत्तर प्रदेश पहुंची, मध्यप्रदेश पहुंची और दक्षिण के राज्यों में भी इसके असर दिखने लगे। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के साथ ही गुजरात और हिमाचल में भी इस पर बहस शुरू हो गई है। खासकर हिन्दी पट्टी के राज्यों में जिस तरह से जातीय समीकरण के जरिए चुनावी खेल होते हैं अब बिहार ने सबको जगा दिया है। बिहार ने मंडल की राजनीति को मजबूत करने का बड़ा सन्देश दिया है साथ ही यह भी जताया है कि अगर जाति की गणना हो जाती है तो इससे साफ़ हो जाएगा कि किस जाति-उपजाति की कितनी संख्या है और आरक्षण में कितनी भागीदारी। अगर आरक्षण पाने वाली पिछड़ी जातियों की संख्या अधिक होगी तो जाहिर है आरक्षण का दायरा जो अभी 50 फीसदी तक है उसे आगे बढ़ाने की मांग उठेगी। अभी मानकर चला गया है कि देश में पिछड़ी जातियों की संख्या करीब 52 फीसदी है और उसी के मुताबिक उसे 27 फीसदी आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है जा रहा है। हालांकि मंडल की राजनीति करने वालों की समझ है कि पिछड़ों की आबादी 52 फीसदी से ज्यादा है। पिछड़ों की राजनीति करने वाली तमाम क्षेत्रीय पार्टियां इसी वजह से जातीय गणना की मांग करती रही है ताकि कुल आबादी में पिछड़ों की आबादी साफ़ हो जाने के बाद आरक्षण का नया रूप तैयार किया जा सके। भाजपा की यही परेशानी है। वह नहीं चाहती कि देश में आरक्षण को लेकर कोई नया बखेड़ा हो जाए और उसकी धार्मिक राजनीति कमज़ोर पड़ जाए।

आने वाले समय में इस खेल का राजनीति पर क्या असर होगा इसे देखना होगा, लेकिन एक बात तो तय है कि बीजेपी ने अगर राष्ट्रीय स्तर पर जाति आधारित गणना को आगे नहीं बढ़ाया तो बीजेपी की राजनीति कुंद हो सकती है। गैर बीजेपी पार्टियां इस जाति आधारित गणना को मंडल राजनीति का तीसरा अवतार मानती है और उसे लगने लगा है कि अगर इसमें सफलता मिल जाती है तो बीजेपी की हिंदूवादी राजनीति को ध्वस्त किया जा सकता है। बीजेपी ने दबाव में ही सही लेकिन बिहार में जातिगत गणना पर सहमति तो दे दी है लेकिन अन्य राज्यों में भी यह बवंडर उठता है तो फिर उसे संभालना कठिन हो सकता है। नीतीश कुमार के इस दांव ने बीजेपी को फंसा दिया है। अगर केंद्र जातिगत जनगणना का विरोध करती है तो यह मैसेज जाएगा कि बीजेपी पिछड़ा विरोधी है और अगर बीजेपी इसका समर्थन करती है तो न सिर्फ उसकी धार्मिक राजनीति जमींदोज होगी बल्कि पार्टी के भीतर भी पिछड़ों की आवाज उठेगी। पार्टी कमजोर होगी और टूट की सम्भावना भी बढ़ेगी। बीजेपी शासित राज्य मध्यप्रदेश में भी जातिगत जनगणना की मांग हो रही है और पिछले कई महीनों से वहां आंदोलन भी चल रहा है। 

बिहार के इस फैसले का देश में क्या असर होगा इस पर हम चर्चा करेंगे लेकिन पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस पर क्या कहा है इस पर एक नजर डालते हैं।

सीएम नीतीश कुमार ने मीडिया के सामने कहा कि ''जाति आधारित गणना के माध्यम से राज्य के सभी धर्मों व संप्रदायों के प्रत्येक व्यक्ति के बारे में हर तरह की जानकारी इकट्ठी की जायेगी। जाति के साथ उपजाति, निवास स्थान, घर सहित अमीर और गरीब की भी जानकारी जुटायी जायेगी। इसका मकसद राज्य में उपेक्षित वर्गों और व्यक्तियों की पहचान कर उनका विकास करना है।''

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि विधानसभा से दो बार सर्वसम्मति से इसका प्रस्ताव पास किया जा चुका है। इसके बाद सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर राष्ट्रीय स्तर पर जाति आधारित जनगणना करवाने का प्रस्ताव रखा था। उस पर पीएम ने कहा था कि इसे राष्ट्रीय स्तर पर नहीं किया जा सकता है, राज्य स्तर पर किया जा सकता है। सीएम ने कहा कि  बिहार में इसकी शुरुआत के बाद सभी राज्य इस पर विचार कर रहे हैं। अगर सभी राज्यों में यह हो जायेगी, तो राष्ट्रीय स्तर पर ऑटोमेटिक हो जायेगी। हम लोग जातीय गणना को बिहार में बहुत अच्छे ढंग से करना चाहते हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि सर्वदलीय बैठक कर जातीय जनगणना का निर्णय पहले ही ले लिया जाता,  लेकिन विधान परिषद और स्थानीय निकाय चुनावों की वजह से इसमें विलंब हुआ।

जाति आधारित गणना के बारे में मुख्यमंत्री ने कहा कि इसके शुरू होने के बाद सब कुछ पब्लिक डोमेन में उपलब्ध होगा। इसे हर कोई देख सकेगा। इसके बारे में समय-समय पर राजनीतिक दलों सहित मीडिया को जानकारी दी जायेगी। मुख्यमंत्री ने कहा कि कैबिनेट से पास होने के बाद इसके बारे में विज्ञापन दिया जायेगा। सोशल मीडिया के माध्यम से भी प्रचारित किया जायेगा। इसका मकसद आम लोगों को जानकारी उपलब्ध करवाना है।

केंद्र सरकार ने तो पहले ही सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर साफ़ कर दिया है कि वह जातीय जनगणना नहीं कराएगी। लेकिन बिहार में चूंकि एनडीए की सरकार है और नीतीश के बिना बिहार में वह लूली-लंगड़ी सी है इसलिए मजबूरी में उसे जातिगत गणना में सहभागी होना पड़ा है। फिर राष्ट्रपति चुनाव से लेकर आगामी लोकसभ चुनाव में भी बीजेपी को नीतीश की जरूरत है। इसके साथ ही बिहार के पिछड़ों में भी बीजेपी दखल रखती है। ऐसे में कई वजहों के कारण बीजेपी बिहार में जातिगत गणना के साथ है। अब इसे साथ कहिये या फिर मजबूरी। लेकिन एक बात और है कि बिहार के इस महाअभियान में कई पेंच फ़साने से भी बीजेपी बाज नहीं आ रही है।

बिहार में सर्वदलीय बैठक के दौरान ही नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने कहा था कि चुकी बिहार में एनडीए के 39 सांसद लोकसभा में हैं। इसके अलावे अन्य दलों के सांसद राज्य सभा में हैं। सभी मिलकर प्रधानमंत्री से आग्रह करेंगे कि इस गणना का खर्च केंद्र वहन करे। लेकिन बीजेपी ने नहीं माना। बीजेपी ने पेंच फसाते हुए कहा कि इस गणना का सारा खर्च राज्य सरकार उठाएगी। केंद्र कोई मदद नहीं करेगा। बाद में राज्य सरकार को ऐसा ही करना पड़ा। बीजेपी का दूसरा पेंच और भी बड़ा है। बीजेपी ने कहा है कि बिहार के सीमांचल इलाके में कई ऐसे मुस्लिम शेख हैं जो अगड़ी जाती में आते हैं लेकिन वे वहां शेखोरा और कुल्हरिया बनकर पिछड़ी जाति का हक़ मारते हैं। ऐसे में गणना करने वालो को यह देखना होगा कि शेख जैसे अगड़ी जातियां पिछड़ी जातियों में शामिल न हो पाए। बीजेपी का कहना है कि देश में आम तौर पर 3747 जातियां हैं। इसका ध्यान रखना होगा। बीजेपी का तीसरा पेंच यह है कि इस गणना में बांग्लादेशी और रोहिंग्या को नहीं जोड़ा जाए। क्योंकि ऐसा होने पर वे बाद में नागरिकता पाने की कोशिश करेंगे। हालांकि नीतीश कुमार ने साफ़ कर दिया है कि सभी जाति, उपजाति की बेहतर तरीके से गणना होगी ताकि किसी भी धर्म, संप्रदाय की सभी जातियों का विवरण सामने आ जाए।

अब सवाल है कि जब देश कई गंभीर समस्यायों का सामना कर रहा है तो अचानक जातीय गणना की कहानी कहां से आ गई?  इसका जबाब यही है कि जिस तरह से हिन्दू और मुसलमान की राजनीति को आगे बढ़ाकर बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ा रही है, मंडल की राजनीति करने वाली पार्टियां बीजेपी के खेल से आहत है और कमजोर भी हुई है। याद रहे बिहार में मंडल की राजनीति को आगे बढ़ाने में लालू प्रसाद और नीतीश की भूमिका काफी रही है, और आज नीतीश जहां सत्ता में हैं वही राजद मुख्य विपक्षी। इन दोनों दलों का आधार ही जातीय राजनीति पर टिका  रहा है। इन दलों को लग रहा है कि अगर जातीय आंकड़े सामने आ गए तो एक नयी तस्वीर सामने आएगी और बीजेपी की विस्तारवादी राजनीति पर लगाम लग सकती है।

बता दें कि देश में आखिरी जातिगत जनगणना 1931 में की गई थी। हालांकि इसी तरह की गणना 1941 में भी की गई लेकिन उसके आंकड़े सामने नहीं लाये गए। ऐसे में 1931 के आकड़े के मुताबिक ही देश में जातिगत ब्योरे की राजनीति की जाती है। ऐसे में जातिगत गणना के पक्ष में जो लोग है उनका कहना है कि देश में हर दस साल पर एससी और एसटी का डाटा सामने आता है और उसी आधार पर उसे आरक्षण भी मिलता है। लेकिन ओबीसी का डाटा सामने नहीं आता। ऐसे में ओबीसी को किस आधार पर आरक्षण मिलता है उसका कोई आधार नहीं है। जो आधार है वह 1931 का है। ऐसे में नया डाटा सामने आना जरुरी है ताकि आरक्षण को नए तरीके से लागू किया जा सके। याद रहे 1990 में मंडल आयोग की सिफारिस के मुताबिक पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ दिया जाता है। मंडल की राजनीति करने वालों को लगता है कि पिछड़ों की आबादी 52 फीसदी से कही ज्यादा है।

ऊपर से देखने में मंडल नेताओं की मांग जायज लगती है और जायज है भी। लेकिन केंद्र सरकार इसके विरोध में है। सरकार को लगता है कि अगर जातीय गणना हो जाएगी तो देश 1990 दौर में पहुंच जाएगा और जातीय राजनीति तेज हो सकती है। बीजेपी को भय है कि ऐसी राजनीति में वह खुद झुलस सकती है। उसकी राजनीति ख़राब हो सकती है। बीजेपी को यह भी लगता है कि अगर पिछड़ों की संख्या बढ़ती है तो आरक्षण का दायरा बढ़ाने की मांग होगी और फिर देश में एक नया बवाल खड़ा होगा। बीजेपी को यह भी लगता है कि गणना में अगर पिछड़ों की आबादी कम होती है तो डाटा पर सवाल उठेगा और सरकार पर दबाब भी।

बीजेपी की पैठ अभी सवर्ण जातियों में ज्यादा है। आरक्षण का दायरा बढ़ने पर सवर्ण जातियां आंदोलन करेंगी और सरकार की परेशानी बढ़ेगी। हालांकि बीजेपी की पैठ पिछड़ी जातियों में भी है। पिछड़ी जातियों की आबादी बढ़ने पर उसका दबाब बढ़ेगा और दबाब को नहीं माना गया तो बीजेपी को पिछड़ी जातियों का विरोधी माना जा सकता है। ऐसे में बीजेपी अभी इस पर चुप है और देशवार जाति गणना नहीं चाहती। जानकार यह भी मान रहे हैं कि जनगणना कराने का अधिकार केंद्र सरकार का है ऐसे में बिहार में गणना हो भी जाती है तो उसे स्वीकार करने और न करने का अधिकार केंद्र का ही होगा। यही वजह है कि कर्नाटक में 2014 में जातीय गणना तो कराई गई लेकिन उसकी रिपोर्ट सार्वजानिक नहीं की गई। लिंगायत और वोक्कालिंगा समुदाय की नाराजगी को देखते हुए डाटा को ओपन नहीं किया गया।

लेकिन अब बिहार के फैसले के बाद अन्य राजनीतिक पार्टियों के भीतर से जाति आधारित जनगणना कराने की मांग ज़ोर पकड़ रही है। ऐसे में पता चलता है कि अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी का दायरा बड़ा है और आरक्षण की 50 फ़ीसदी की सीमा टूट सकती है। और अगर ऐसा हुआ तो देश की राजनीति बदल सकती है और बीजेपी की प्रभावित हो सकती है।

पिछले कुछ चुनावों में, ख़ासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में, इन क्षेत्रीय पार्टियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के सफल चुनावी अभियानों को देखा है। ओबीसी में प्रभुत्व वाली जातियों के बदले जिनका प्रभुत्व नहीं रहा है, उन्हें तवज्जो देना, ऊंची जातियों और ओबीसी-एससी में ग़ैर-प्रभुत्व वाली जातियों का एक शक्तिशाली गठबंधन बनाना, बीजेपी की अहम चुनावी रणनीति रही है। इसके साथ ही धर्म के नाम पर समाज को बांटकर, हिन्दू और मुसलमानो के बीच दरार पैदा कर राजनीति को अपने पाले में करने में अबतक बीजेपी काफी सफल रही है। बीजेपी के इस खेल में उसका विस्तार तो हुआ ही है लेकिन संविधान के जिस सेकुलर व्यवस्था को कुचलकर बीजेपी का जीत अभियान दिख रहा है, उससे समाज में टूटन है, घुटन है और वर्चस्व का बोलबाला है। राजनीती का यह रंग मौजूदा दौर में देश के संविधान को ही भ्रमित करता दिख रहा है। बीजेपी के इस खेल का विरोध अब उन क्षेत्रीय दलों ने किया है जिसकी स्थापना ही क्षेत्रवाद, जातिवाद पर की गई थी। टिकट बांटने, मंत्री बनाने और कुछ विधायी हस्तक्षेप को देखें तो लगता है कि बीजेपी ने मंडल राजनीति के नए वर्जन को मैनेज किया है। बीजेपी ने इस प्रबंधन में हिन्दुत्व की राजनीति को भी साथ रखा है।

बता दें कि 2011 की जनगणना में जाति आधारित सामाजिक आर्थिक स्थिति के ब्यौरे को मोदी सरकार ने जारी नहीं किया था। इसके अलावा ओबीसी के भीतर नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण को लेकर कम प्रभुत्व वाली जातियों की स्थिति देखने के लिए बनाई गई ‘जी रोहिणी’ कमीशन की रिपोर्ट भी नहीं आई है, जबकि 2017 में इस कमीशन को बनाने के बाद से 11 बार एक्सटेंशन दिया जा चुका है।

क्षेत्रीय पार्टियों में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी समेत दर्जन भर से ज्यादा पार्टियों की मांग है कि बीजेपी ओबीसी की सही तादाद बताए और उसके बाद आरक्षण की 50 फ़ीसदी की सीमा को बढ़ाए। अगर बीजेपी इसे नहीं मानती है तो इनके लिए यह कहने में आसानी होगी कि बीजेपी अन्य पिछड़ी जातियों के साथ धोखा कर रही है जबकि उनके ही वोट से वह सत्ता में पहुंची है। इसके अलावा मंडलवादी पार्टियां सामान्य जातियों में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए जो 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया है, उसमें उप-वर्गीकरण की ओर इशारा कर रही हैं। क्षेत्रीय पार्टियों ने स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की है कि बीजेपी ने ओबीसी को लेकर जो क़दम उठाए हैं, उसे ऊंची जातियों को अपने पक्ष में रखने के लिए संतुलित किया है। बीजेपी में बड़ी संख्या में ओबीसी सांसद हैं, लेकिन ऊंची जातियों की भावना की उपेक्षा नहीं की गई है, ख़ास कर उत्तर प्रदेश में जहां इनका वोट क़रीब 18 से 20 फ़ीसदी है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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