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बिहार की शिक्षा व्यवस्था: केके पाठक जी, डर से बोरा बिकवा सकते हैं बदलाव नहीं ला सकते!

“केके पाठक जी को यह भी देखना होगा कि कई जिलों में शिक्षकों को 4-4 महीने वेतन नहीं मिलता, उनका परिवार कैसे चलता होगा। उनके पास क्या स्कूल आने-जाने का किराया भी है। शिक्षकों की समस्या का समाधान किए बिना अगर कार्रवाई की जाएगी तो इसे एकपक्षीय कार्रवाई मानी जाएगी और इससे नुकसान होगा।”
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स्कूल निरीक्षण करते अपर मुख्य सचिव के के पाठक।

गुरु-गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाए, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताए। भारतीय संस्कृति और समाज में शिक्षक को जो स्थान दिया गया है उसके कारण हैं। मसलन, शिक्षक ही वह ताकत है, जो किसी राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अब, ऐसे शिक्षक को एक अधिकारी उसके स्कूल में जा कर, उसके छात्रो के सामने “मोटा कहीं का”, “इडियट” बोले तो फिर सोचिए कि शिक्षक का अपने ही छात्रों के सामने क्या नैतिक बल बचा रह जाएगा और ऐसे शिक्षक किस नैतिक ताकत के बल पर अपने छात्रों को शिक्षा दे पाएंगे? बिहार में आजकल यही हो रहा हैं।

6000 से अधिक शिक्षकों का वेतन काटा जा चुका है। कई सस्पेंड किए जा चुके हैं। जबकि बिहार में आज भी शिक्षकों का वेतन कई-कई महीनों के बाद आता है। और यह सब हो रहा है बिहार का शैक्षणिक स्तर सुधारने के नाम पर। लेकिन, इसे ले कर बिहार के राजनीतिक दल और शिक्षक संगठन के लोग क्या सोचते हैं, इस पर न्यूज़क्लिक के लिए उन लोगों से विस्तार से बात की।

एकतरफ़ा एक्शन ठीक नहीं!

बिहार के शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक इन दिनों संपूर्ण बिहार को नालंदा-विक्रमशीला वाले जमाने का जगप्रसिद्ध शिक्षा केंद्र बनाने के मिशन पर निकले हुए है। न मंत्री देखते है, न संतरी। शिक्षकों को सार्वजनिक रूप से “इडियट” या “मोटा कहीं का” बोल देते हैं। कभी शिक्षकों के लिए बोरा बेचने तो कभी स्कूल से कुर्सी हटवाने का फरमान जारी कर देते हैं। बहरहाल, सवाल है कि किसी भी जिलाधिकारी, किसी भी अधिकारी, किसी भी नेता के द्वारा स्कूलों के औचक निरीक्षण के दौरान शिक्षकों को जलील करना क्या नैतिक रूप से सही माना जाए और बच्चों के सामने उनके शिक्षकों का अपमान क्या भारतीय संस्कृति का भी घोर अपमान नहीं माना जाना चाहिए?

इस मुद्दे पर बात करते हुए टीईटी एसटीईटी उत्तीर्ण नियोजित शिक्षक संघ के प्रदेश प्रवक्ता अश्विनी कुमार कहते हैं, “हमलोगों को ट्रेनिंग दी जाती है कि बच्चों को मारना नहीं हैं, प्यार से पढ़ाना है। लेकिन आज पुलिसवालों के साथ जिनके हाथ में बन्दूक होता है, उनके साथ केके पाठक स्कूलों में घुस जाते हैं जांच के नाम पर। क्या इससे बच्चों में भी खौफ का माहौल पैदा नहीं होगा? क्या यह तरीका उचित है?”

कांग्रेस प्रवक्ता असित नाथ तिवारी मानते है कि केके पाठक जी का प्रयास तो सराहनीय है लेकिन उन्हें एकपक्षीय न हो कर सभी पक्षों पर ध्यान देना होगा। असित नाथ तिवारी कहते हैं, “केके पाठक जी को यह भी देखना होगा कि कई जिलों में शिक्षकों को 4-4 महीने वेतन नहीं मिलता, उनका परिवार कैसे चलता होगा। उनके पास क्या स्कूल आने-जाने का किराया भी है। शिक्षकों की समस्या का समाधान किए बिना अगर कार्रवाई की जाएगी तो इसे एकपक्षीय कार्रवाई मानी जाएगी और इससे नुकसान होगा।”

जाहिर है, शिक्षकों की समस्याएँ भी महत्वपूर्ण हैं, जिसकी वजह से भी बिहार की शिक्षा व्यवस्था को सुधारना, वह भी सिर्फ डंडे के बल पर, असंभव होगा।

अश्विनी कुमार भी यही मानते हैं कि पाठक जी एकतरफा डायलाग कर रहे हैं और वे शिक्षकों की समस्याओं को समझें और बैठ कर एक्चुअल प्रॉब्लम पर बात करें। कुमार कहते हैं,“ हवाबाजी और मीडिया में आने से काम नहीं होगा। वे बायोमेट्रिक लगाए, हम उसका स्वागत करते है लेकिन हमारे वेतन-ट्रांसफर पर भी बात करें। टीचर जब तक टेंशन-फ्री नहीं होगा तो अच्छी शिक्षा कैसे देगा।”

बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और विधान परिषद् सदस्य मदनमोहन झा ने भी माना कि शिक्षकों की समस्याओं पर बैठ कर बातचीत की जानी चाहिए और उनकी समस्याओं का निराकरण किया जाना चाहिए। हालांकि, झा सीधे केके पाठक के अजीबोगरीब फैसलों और स्टाइल पर कोई टिप्पणी करने से बचते रहे।

डरा हुआ शिक्षक कैसे डर-मुक्त समाज बनाएगा?

राजद विधायक और बिहार के पूर्व शिक्षा मंत्री सुधाकर सिंह अपनी साफगोई के लिए जाने जाते हैं। न्यूज़क्लिक के लिए जब उनसे केके पाठक की मौजूदा कार्यप्रणाली के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था,“ डर के साए में शिक्षा व्यवस्था इसलिए नहीं पनप पाएगी क्योंकि शिक्षा भयमुक्य समाज का निर्माण करती है। इसलिए जरूरी है कि भयमुक्त समाज बनाने वाले शिक्षक खुद भयमुक्त हों। आज वे भय में हैं। स्कूल में भी रहते हैं तो भी भय में हैं हर वक्त। आखिर कैसे एक भयभीत शिक्षक भयमुक्त समाज का निर्माण कर सकेगा।”

तो सवाल है कि फिर क्या किया जाना चाहिए ताकि शिक्षक खुद भी भयमुक्त हो सके और बिहार की शिक्षा व्यवस्था भी बेहतर बन सके? इस सवाल के जवाब में सिंह का कहना है, “अगर सर्वसम्मति से काम हो तो परिणाम सकारात्मक आएगा। बिहार की शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक सुधार आए, यह वर्षों से लंबित मांग रही है। कई स्तरों पर ढांचागत सुविधाओं का अभाव भी था, प्रशिक्षित मैन पावर की कमी और सरकार की नीयत का भी सवाल था। इनमें समन्वय बनाने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। आज सर्वसम्मति की आवश्यकता है, अन्यथा पाठक जी का मौजूदा प्रयास वह उपलब्धि हासिल नही कर पाएगा, जिसकी जरूरत है।”

इस बीच, बिहार यूनिवर्सिटी के कुलपति और प्रतिकुलपति का वेतन रोकने का आदेश दे कर भी केके पाठक बिहार की राजनीति में गर्माहट ला चुके हैं क्योंकि अब इस मामले में राज्यपाल भवन भी कूद चुका है लेकिन नीतीश कुमार ने केके पाठक का समर्थन कर दिया है।

सुधाकर सिंह मानते है कि बिहार में उच्च शिक्षा की बदहाली नीतिगत है और प्राथमिक की बदहाली व्यवस्था की खामी है। शिक्षकों, बिल्डिंग की कमी इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण सकारात्मक परिणाम नहीं आ रहा है। उनका मानना है कि बिहार में शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए जहां समन्वय की जरूरत थी, वहीं ये लड़ाई अब अधिकारों में तब्दील होती जा रही हैं। हालांकि, कोई अधिकारी अतिरिक्त प्रयास कर रहा है तो उसे भी रोका नहीं जाना चाहिए।

मंत्री बनाम अधिकारी में फंसी शिक्षा!

जब से केके पाठक शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव बने हैं, तब से शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर, जो राजद कोटे से आते हैं, के साथ उनका छत्तीस का आकड़ा देखने को मिल रहा है। केके पाठक की कार्यशैली से खफा चंद्रशेखर ने अपने पीए से जब एक पत्र लिखवाया तो बदले में केके पाठक ने उस पीए की विभाग में एंट्री ही बंद करवा दी। जानकार बताते हैं कि मंत्री चाह कर भी ट्रांसफर-पोस्टिंग नहीं कर पा रहे हैं। जद(यू) के एक मंत्री तो खुलेआम केके पाठक के समर्थन में आ गए।

बहरहाल, शिक्षक संगठनों ने जब केके पाठक द्वारा शिक्षकों को अपमानित किए जाने के मुद्दे पर शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर से मुलाक़ात कर अपनी शिकायत दर्ज करवाई, तब मंत्री ने साफ़ कहा कि हम इसकी जांच करेंगे और जरूरत हुई तो उचित कार्रवाई भी करेंगे।

इस मसले पर जब सुधाकर सिंह की राय पूछी गयी तो उन्होंने कहा, “18 साल से नीतीश कुमार हैं तो सफलता-विफलता उन्हीं के हिस्से में आएगी लेकिन मैं नहीं मानता कि वर्तमान प्रयास बहुत गंभीर प्रयास हैं। यह सतही प्रयास हैं। जिस स्तर पर सुधार की हमलोगों की मांग या अपेक्षा है, उस स्तर पर काम नहीं हो रहा है।” बहरहाल, शिक्षा में सुधार के लिए सभी के योगदान की आवश्यकता है। सरकार को सबका योगदान लेना चाहिए। किसी एक अधिकारी के सहारे रातोंरात सबकुछ बदल जाएगा, ऐसा सोचना भी खुद को धोखा देने जैसा होगा। और इस तथ्य को कांग्रेस प्रवक्ता असितनाथ तिवारी के शब्दों में और बेहतर ढंग से समझा जा सकता है कि “राज्य, सरकार का होता है और सरकार जनता की। राज्य किसी अधिकारी का नहीं होता। ये भ्रम किसी अधिकारी को नहीं रखना चाहिए कि उसका राज चलेगा। जिस किसी ने ये भ्रम रखा बाद में उसकी दुर्दशा हुई।”

नीयत ठीक, नीति कहां है?

शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहता से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि क्या आज बिहार का कोई आम नागरिक अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में पढ़ाना चाहता है? निश्चित रूप से नहीं। अब 30 साल के रोग को केके पाठक एक दिन में, एक महीने में ठीक करना चाहते हैं। एक दिन में तो रोम भी नहीं बना था। तो नीयत ठीक होगी, नीति कहां है? किसी भी नीति का सबसे अहम् हिस्सा होता है सस्टेनेबिलिटी। निरंतरता, वो कहां है? जब आप शिक्षकों से बोरा बेचावाएंगे, तो शिक्षक का आत्मबल, नैतिक बल का क्या हश्र होगा? और जब आत्मबल-नैतिक बल, शिक्षक होने का अभिमान ही ख़त्म हो जाएगा तब शिक्षक क्या ख़ाक पढ़ाएगा, और पढ़ा भी दिया तो उससे हासिल क्या होगा?

फिलहाल, तो इस पर कोई बहस ही नहीं है कि प्राथमिक स्कूल से ले कर महाविद्यालयों तक, कितने शिक्षक स्थायी-अस्थायी हैं, कितने स्कूलों का इन्फ्रास्ट्रक्चर नेशनल लेवल का है, कितने हेडमास्टर मिड डे मिल का हिसाब करने की जगह अपने शिक्षकों के पठन-पाठन का हिसाब रखते हैं, कितने शिक्षक साल में कितने दिन बैल-गाय-बकरी-आदमी गिनते हैं, चुनाव कराते हैं और कितने दिन शैक्षणिक कार्य करते हैं? बहरहाल, केके पाठक इस वक्त निगरानी तंत्र के जरिये जो बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं, उस काम के लिए भारतीय संसद ने पंचायत स्तर पर ही ग्राम सभा नाम की एक संस्था बनाई है, जो आसानी से इस काम को कर सकती थी। फिर, केके पाठक को यह सब करने की जरूरत नहीं होती। बशर्ते ऐसी नीतियां भर बना देतें, जो क्रियान्वयन के आधार पर सस्टेनेबल हो। ताकि, जब केके पाठक शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव नहीं रहेंगे तब भी उनकी बनाई नीतियां कारगर तरीके से चलती रहे। बड़ा बदलाव समय मांगता है। बड़ा बदलाव बड़ा रिसोर्स मांगता है। डर से पैदा हुआ बदलाव क्षणिक होता है। काश, केके पाठक खुद से इतर अन्य सच्चाई को भी स्वीकार पाते!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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