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भारत
राजनीति
बिहार चुनाव: संख्या में ज़्यादा होने के बावजूद "बाहरी" बने रहने पर मजबूर मुसहर समुदाय
यह वंचित समुदाय, जिसके ज़्यादातर लोग भयावह ग़रीबी में रहने को मजबूर हैं, वह त्रिस्तरीय चुनावों के बाद तख़्त का बादशाह चुनने में अहम किरदार अदा करेगा।
तारिक़ अनवर
30 Oct 2020
बिहार चुनाव

सासाराम/नवादा/गया/दरभंगा (बिहार): दरभंगा जिले की कुशेश्वरस्थान विधानसभा सीट में भरही-उसरार गांव के रहने वाले 33 साल के दाहुर सदा बैठने के लिए बोरा निकाल रहे हैं, क्योंकि "उच्च" जाति के लोग अपने घरों में मुसहरों को कुर्सियों पर नहीं बैठने देते।

उन्होंने न्यूज़क्लिक से ग्लानि भरी आवाज़ में कहा, "आपको इस फट्टे पर बैठना असुविधाजनक लग सकता है, लेकिन मुझ पर लगी बंदिशों पर ध्यान दीजिए।" दाहुर सदा उन जाति आधारित प्रतिबंधों की बात कर रहे थे, जिनका पालन करने के लिए यह लोग शताब्दियों से मजबूर हैं।

दिल्ली स्थित एक फार्मास्यूटिकल कंपनी में स्वास्थ्य प्रतिनिधि के तौर पर काम करने वाले दाहुर स्थानीय क्षेत्र में अपने समुदाय के पहले इंसान हैं, जिसे कॉलेज जाने का माौका मिला। दाहुर ने अंग्रेजी साहित्य में डिग्री ली है।

वह कई सारे सवालों की बौछार करते हुए पूछते हैं, "परिवार को आर्थिक मदद करने के बजाए उच्च शिक्षा हासिल करने से मुझे क्या हासिल हुआ? एक निजी क्षेत्र की नौकरी, जो मुझसे हमेशा स्वस्थ्य और उत्पादक रहने की अपेक्षा रखती है? क्या मुझे और दबे-कुचले वंचित समुदायों से आने वाले लोगों को सरकारी नौकरी नहीं दी जानी चाहिए? अगर सरकारें हमारी स्थिति सुधारने और हमें मुख्याधारा में लाने के लिए किए गए ऊंचे-ऊंचे वायदों को लेकर इतनी ही ईमानदार हैं, तो 21वीं सदी में भी हमें सामाजिक निष्कासन क्यों झेलना पड़ रहा है?"

पारंपरिक तौर पर पाला बदलने वाले मतदाताओं के तौर पर पहचाने जाने वाले दलित मुसहरों की बिहार में बड़ी आबादी है। इस विधानसभा चुनावों में वे ताज पहनने वाले सिर का चुनाव करने में अहम योगदान निभाएंगे।

राजनीतिक अहमियत

2011 की जनगणना के मुताबिक़, मुशहरों की राज्य में 27.5 लाख की आबादी थी, जो आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, अब बढ़कर 35 लाख पहुंच चुकी है। बिहार के पू्र्व मुख्यमंत्री और मुसहर समुदाय से आने वाले जीतनराम मांझी का मानना है कि अगर रविदास और दुसाधों को शामिल कर लिया जाए, तो पारंपरिक अनुमानों के हिसाब से इस वर्ग की आबादी 60 लाख से कम नहीं होनी चाहिए। समुदाय की गया, मधेपुरा, खगड़िया और पूर्णिया के साथ-साथ दूसरे इलाकों में घनी आबादी है।

इन जिलों की आरक्षित सीटों में प्रत्याशियों के जीतने में इस समुदाय की बड़ी अहमियत होगी।

"मुसहर: अ नोबल पीपर, अ रेसिलिएंट कल्चर" नाम की किताब लिखने वाले सेंट ज़ेवियर कॉलेज के प्रिंसपल और मसीही महंत फादर टी निशांत कहते हैं, "उत्तरी बिहार में सदा और दक्षिणी बिहार में मांझी व राजवार, भुइया जनजाति से आने वाले समुदाय हैं। अगर इन तीनों को एक साथ मिला दिया जाए, तो यह बिहार में अनुसूचित जनजातियों में सबसे बड़ा हिस्सा हैं। यह लोग अपने लिए ज़्यादा राजनीतिक भागीदारी की मांग कर सकते हैं।"

इन लोगों के जीवन के अलग-अलग आयाम को समझने के साथ-साथ, इस सवाल का जवाब जानने कि क्यों बड़ी संख्या और एक लचकदार संस्कृति होने के बावजूद मुसहर समुदाय मुख्यधारा से बाहर है, न्यूज़क्लिक ने रोहतास, नवादा, गया, दरभंगा और मधुबनी जिले में मुसहर बहुल क्षेत्रों में यात्रा की।

जैसे ही मुसहर गांवों की शुरुआत होती है, सिंगल लेन कंक्रीट सड़क खत्म हो जाती है। इन गांवों में बमुश्किल ही कोई पक्का या ईंट का घर होता है। सारे घर कच्ची झोपड़ियों से बने होते हैं। ना तो सड़कों पर स्ट्रीट लाइट हैं, ना ही इनके घरों में टीवी है। यहां तक कि स्वच्छ भारत योजना से इनके यहां शौचालय तक नहीं बनाए गए। 

ज़्यादातर बच्चे नंगे पैर चलते मिले। केवल कुछ के पास ही इतने कपड़े थे कि वे अपना ऊपरी तन ढंक सकें। भयावह गरीबी, अशिक्षा, भूमिहीनता, शराब का नशा, कुपोषण, कमज़ोर स्वास्थ्य जैसे कई समस्याएं इन लोगों का भाग्य नज़र आती हैं।

शिकायतों की बाढ़

एक सवाल ही इनकी शिकायतों की बाढ़ लाने के लिए बहुत था। एक साथ ही कई महिलाएं, पुरुष और युवाओं के समूह बोलना शुरू हो गए। यह सब लोग राशन कार्ड, वृद्ध पेंशन, इंदिरा आवास योजना, विकास कार्यों और रोज़गार के मौकों को लेकर शिकायत कर रहे थे। 

जीतनराम मांझी के नेतृत्व वाली गया जिले की इमामगंज विधानसभा में रहने वाली कुंती देवी एक भूमिहीन महिला हैं। वह अपने विधायक को जानती हैं। वह उनके प्रदर्शन से बेहद नाखुश हैं, लेकिन कहती हैं कि वो उन्हें ही वोट देंगी, क्योंकि जीतनराम मांझी उन्हीं की जाति से हैं।

जब नीतीश कुमार 2010 में दोबारा सत्ता में आए थे, तब उन्होंने वायदा किया था कि दलित समुदाय के भूमिहीन लोगों को 3 डिसमिल (लगभग 1306 वर्ग फीट) जगह दी जाएगी। सरकार का दावा है कि इस वायदे को पूरा कर दिया गया है। लेकिन मैदान पर जाने पर कुछ अलग ही तस्वीर देखने को मिलती है। केवल कुछ ही लोगों को वायदे के मुताबिक़ ज़मीन दी गई है। कई ऐसे लोग जिन्हें ज़मीन के कागज़ मिल गए थे, उन्हें अभी आवंटित ज़मीन का कब्ज़ा मिलना बाकी है। 

राजेश भारती प्रवासी मज़दूर हैं, जो पंजाब जाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। वह कहते हैं, "मांझी जी कभी हमारे पास नहीं आते, यहां तक कि चुनावों में भी नहीं। उन्होंने हमें उठाने के लिए कुछ नहीं किया। लेकिन हमारे पास उन्हें ही वोट देने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं है।"

वह चुनाव होने के बाद पंजाब वापस लौट जाएंगे, क्योंकि उनके क्षेत्र में रोज़गार का कोई मौका उपलब्ध नहीं है।

राजेश भारती कहते हैं, "अगर यहां फैक्ट्रियां होतीं, तो हमें पंजाब जाने की जरूरत क्यों पड़ती। कौन परिवार से दूर रहना चाहता है। एक बार कुछ अधिकारी आए थे और हमसे पूछा था कि क्या हम यहीं काम कर सकते हैं। हमने उनसे कहा कि अगर सरकार रोजी-रोटी का कुछ कर दे, तो हम कहीं नहीं जाएंगे। हमें भरोसा दिलाया गया कि अपने मन के काम को शुरू करने के लिए हमें सरकार से आर्थिक मदद मिलेगी। लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ।"

उसी गांव के रहने वाले राजकुमार दैनिक मज़दूरी करते हैं, लेकिन उन्हें रोज काम नहीं मिलता। वह भी मांझी से नाराज़ हैं।

राजकुमार कहते हैं, "मांझी को हमारा नेतृत्व करने और हमारे लिए काम करने का मौका दिया गया था। लेकिन उन्होंने हमें धोखा दिया है। हमारे पास ना तो स्वच्छ पानी तक पहुंच है, ना ही हमारे बच्चों के लिए शिक्षा उपलब्ध है। ना तो रोज़गार के मौके हैं और ना ही रहने के लिए पक्का घर है। हमें सरकार से हर महीने सिर्फ़ राशन (चावल, गेहूं और थोड़ी मात्रा में दालें) मिलता है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इससे केवल कुछ ही खाद्यान्न सुरक्षा मिलती है। हमें दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम की जरूरत पड़ती है। लेकिन यहां काम नियमित तौर पर उपलब्ध नहीं है। फसल बुआई और कटाई के समय को छोड़कर, हमें महीने में 12-13 दिन ही काम मिल पाता है। हमारे जैसे दैनिक मज़दूर की आमदनी पूरा महीने का खर्च चलाने के लिए पर्याप्त नहीं होती। यह विडंबना है कि इस तकनीकी युग में भी सम्मान से जीने के लिए हमें अब भी संघर्ष करना पड़ रहा है।"

PDS की सुविधा पर्याप्त नहीं है, गांवों में कुछ लोगों के BPL कार्ड बने हैं, लेकिन ज़्यादातर लोगों को राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा कानून के तहत जोड़ा नहीं गया है।

राजकुमार से जब हमने उनके पसंदीदा प्रत्याशी के बारे में पूछा तो उन्होंने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ सवाल टाल दिया।

सुरजी देवी, रोहतास जिले के परासिया गांव की रहने वाली हैं। वह अपनी वृद्धा पेंशन को हासिल करने के लिए चौखट दर चौखट चक्कर लगा रही हैं। लेकिन अब तक सफल नहीं हो पाई हैं। वह कहती हैं, "मैं 60 साल से ज़्यादा की हो चुकी हूं, लेकिन मुझे वृद्धा पेंशन नहीं मिल रही है। मैं जब भी संबंधित कार्यालय जाती हूं, तो मुझे बस भरोसा दिलाया जाता है। कहा जाता है कि आपके बैंक खाते में रकम पहुंच जाएगी। मैं हर महीने बैंक जाती हूं, लेकिन खाली हाथ ही लौटती हूं। बिना पैसे के मेरा गुजारा कैसे होगा? कहने को तो मेरे तीन बच्चे हैं, लेकिन वे मेरा ध्यान नहीं रखते।"

न्यूज़क्लिक जब उनसे मिला था, तब दोपहर एक बजे तक उन्हें अन्न का एक निवाला तक नहीं मिला था।

अफ़सरशाही में नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति और भ्रष्टाचार

लगभग हर जगह से यह शिकायत मिली कि सरकारी कार्यालयों में बड़े स्तर का भ्रष्टाचार है। ज़्यादातर शिकायतों में यह कहा जाता, "कोई ना सुनत होयी।"

न्यूज़क्लिक ने जिन लोगों से बातचीत की, उनमें से ज़्यादातर ने कहा कि उन्हें इंदिरा आवास योजना के तहत घर बनाने के लिए पैसा नहीं मिला है। जिन लोगों को पहली किस्त का पैसा मिल गया है, उन्हें अगली किस्त का इंतज़ार है, क्योंकि मुखिया या संबंधित अधिकारी पैसा जारी करने के लिए रिश्वत की मांग करते हैं।

नवादा जिले के एक गांव के स्थानीय बाज़ार में अपनी उम्र के चौथे दशक में चल रहीं काजल देवी सुअर का मांस बना रही हैं। उनका तीन साल का बच्चा है और शराब के नशे का आदी उनका पति काजल देवी को दो साल पहले छोड़ चुका है। तबसे वे अपने माता-पिता के साथ रह रही हैं। वे यौन उत्पीड़न के डर से ताकतवर "उच्च" जाति के ज़मीदारों के खेतों में काम करने नहीं जातीं।

काजल देवी कहती हैं, "उच्च जाति के लोग हमें अछूत मानते हैं। लेकिन जब यौन इच्छाओं की बात आती है, तो हमारी सहमति के विरुद्ध जाकर वे हमारा फायदा उठाने से नहीं चूकते। इसलिए मैं खेतों में काम करने नहीं जाती। माता-पिता के साथ रहने वाली तलाकशुदा को वैसे भी सामाजिक कलंक माना जाता है। लेकिन मेरे पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। यह एक साप्ताहिक बाज़ार है और इसमें हमारे द्वारा बनाए जाने वाले सुअर के मांस को लोग खरीदते हैं। हमें प्याज, तेल और मसाले जैसे साधन उपयोग करने होते हैं। इससे जो आय होती है, वो बमुश्किल ही पर्याप्त हो पाती है, क्योंकि तेल और मसालों के दाम आसमान छू रहे हैं।"

कई लोगों ने सरकारी कार्यालयों में जातिगत भेदभाव की शिकायतें कीं। दरभंगा जिले के भरही-उसरार गांव के नथुनी सदा कहते हैं, "प्रखंड कार्यालयों और दूसरे सरकारी कार्यालयों में बैठे उच्च जाति के लोग हमारी बात नहीं सुनते। वह हमें छोटे से काम करे लिए भी दर-ब-दर भटकाते हैं। ज़्यादातर लोगों के पास यहां राशन कार्ड नहीं है। एक बहुत छोटे वर्ग को यहां 6000 रुपये मिले हैं (बिहार सरकार द्वारा घोषित बाढ़ राहत निधि के तहत)। लेकिन जब हम शिकायत करने जाते हैं, तो चाहे BDO (ब्लॉक विकास अधिकारी) हों या CO (सर्किल ऑफिसर), SDO (सब डिवीज़नल ऑफिसर) हों या कर्मचारी (बाबू), कोई भी हमारी नहीं सुनता।"

बिहार में आज भी मुसहरों को सिर्फ़ उनके लिए तय किए गए मुसहरी क्षेत्र को छोड़कर कहीं भी रहने की अनुमति नहीं है। उन्हें अस्वच्छ परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किया गया है, जहां उनके पास बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं।

मिथलांचल क्षेत्र में भरही-उसरार मुसहरी और ऐसे ही कई दूसरे क्षेत्र, जो मुसहर लोगों के लिए तय किए गए हैं, उनमें बाढ़ के चलते साल के 6 महीने तो पानी भरा होता है। यहां के लोग पानी के लिए ट्यूबवेल के पानी पर निर्भर हैं, जबकि यह पानी संक्रमित हो चुका है और पीने लायक नहीं है। क्योंकि इसमें बड़ी मात्रा में लोहा, सल्फर और आर्सेनिक घुल गया है।

नल-जल योजना (हर घर तक नल का पानी पहुंचाने के लिए मुख्यमंत्री की योजना) बहुत बड़ा घोटाला नज़र आती है। पानी के पाइप, जिन्हें आदर्श तौर पर मिट्टी के एक फीट नीचे होना चाहिए, वे यहां-वहां बिखरे नज़र आते हैं।

उदय साहा शिकायत करते हुए कहते हैं, "आपको यहां-वहां पाइप बिखरे हुए मिल जाएंगे। लेकिन पानी की कोई आपूर्ति नहीं है। कुछ गांवों में नल का पानी पहुंच रहा है, लेकिन उसमें भी मिट्टी और रेत मिली होती है, जिससे उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। जब बरसात होती है, तब आप गांव नहीं पहुंच सकते, क्योंकि कोई पक्की सड़क ही नहीं है। पूरे इलाके में किसी घर में शौचालय नहीं है। 2000 रुपये की रिश्वत खिलाने के बाद, स्वच्छ भारत अभियान के तहत, गांव के दो-तीन लोगों को शौचालय बनवाने के लिए सरकार से 12,000 रुपये मिले थे। लेकिन उन लोगों ने कभी उस पैसे का शौचालय बनाने में इस्तेमाल नहीं किया।"

अब पोस्टर ब्वॉय नहीं रह गए नीतीश कुमार

मुसहर समुदायों के गांवों के गांवों में एक गहरी निराशा नज़र आती है। समुदाय का मानना है कि कोई भी सत्ता में आए, उनके लिए कुछ भी बदलने वाला नहीं है। जब हमने उनसे चुनाव को लेकर सवाल पूछा, तो दूसरे लोगों की तरह, मुशहरों में भी नीतीश को लेकर नाराजगी सामने आई। लेकिन इनमें से ज़्यादातर लोगों ने कहा कि वे अपनी जाति के हिसाब से वोट देंगे। महागठबंधन को भी उनके बड़े हिस्से का वोट मिलेगा। 

मुसहर 21 महादलित जातियों का हिस्सा हैं, जिनका गठन नीतीश कुमार ने 2007 में अपने पहले कार्यकाल में किया था। उन्होंने इस हिस्से का गठन अपनी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) का समर्थक वर्ग तैयार करने के लिए किया था। लेकिन अब इतना तो तय है कि नीतीश कुमार इन लोगों के पोस्टर ब्वॉय नहीं हैं, जबकि नीतीश ने ही इन्हें विशेष दर्जा दिया था।

फादर निशांत कहते हैं, सभी सरकारें वंचित समुदायों के लिए वायदे करती हैं और योजनाएं बनाती हैं, लेकिन उनका मैदान पर असर बहुत कम दिखाई पड़ता है।

उन्होंने न्यूज़क्लिक से कहा, "RJD सरकार के वक़्त एक अच्छी चीज यह हुई थी कि इनमें से कई लोगों को इंदिरा आवास योजना के तहत फायदा मिला था। यह लालू प्रसाद यादव की वज़ह से हुआ था, जिन्होंने लोगों से अपील में कहा कि वे भ्रष्ट और लालची कांट्रेक्टर के बजाए तीन स्तरों में अपना घर बनाएं। इससे लोगों के श्रम की भागीदारी सुनिश्चित हुई और रहने लायक घर तैयार हुए।"

वह कहते हैं, "नीतीश सरकार ने भी "माउंटेन मैन" दशरथ मांझी के नाम पर योजनाएं बनाईं थीं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि इन योजनाओं से मुसहर समुदाय को कोई बड़ा फायदा हुआ है, क्योंकि दलालों ने इनका बड़ा हिस्सा खा लिया। मुसहरों के बीच जागरुकता और सशक्त नेतृत्व की कमी बड़ा घाटा है।"

जब हमने फादर निशांत से पूछा कि मुसहरों पर इतना ज़्यादा सामाजिक और राजनीतिक ध्यान केंद्रित है, तब भी उनकी स्थिति इतनी खराब क्यों है, तो उन्होंने हमें कई वज़हें गिनाईं। इन वज़हों में "सशक्त और जागरुक करने वाली शिक्षा की कमी और पासवान जाति की तरह राजनीतिक एकत्रीकरण (रामविलास पासवान के चलते) का ना होना" समेत दूसरी चीजें शामिल थीं। उन्होंने आगे कहा, "कई सदियों के उत्पीड़न से इस समुदाय में चेतना और विश्वास की कमी है। गंभीर जातिगत उत्पीड़न, कोई असरदार भूमि वितरण ना होने और सांस्कृतिक क्रांति की गैर मौजूदगी वो वज़हें हैं, जो इस समुदाय के विकास में बाधा बनती हैं।"

उन्होंने आखिर में कहा, "1956 में केरल में चुनी गई पहली मार्क्सवादी सरकार ने एक विधेयक पारित किया था, जिसमें सभी भूमिहीनों को 10 डिसमिल ज़मीन दी गई थी। करीब़ 95 फ़ीसदी मुसहर भूमिहीन मज़दूर हैं। अगर केरल की तरह राज्य उन्हें कुछ ज़मीन देता, तो उनकी शक्ति में कुछ बढ़ोत्तरी होती।"

फादर निशांत के मुताबिक़, मुसहरों के आंतरिक विकास के लिए दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत है, उन्हें सांस्कृतिक क्रांति और सामाजिक-आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक सशक्तिकरण की जरूरत है।

पद्मश्री सुधा वर्गीज़ द्वारा चलाए जाने वाले 'नारी गुंजन' की तरह कुछ NGO समुदाय की महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे हैं। वह कहती हैं, "इन प्रयासों के ज़रिए कुछ बदलाव लाने की कोशिश है, जैसे कुछ महिलाओं द्वारा कृषि कार्य संपन्न करवाना। इनमें से कुछ महिलाओं ने तो कुछ कट्ठे ज़मीन भी खरीद ली है। "

वर्गीज़ कहती हैं, "समुदाय के पास अब भी कोई नेतृत्व नहीं है, इसलिए वे पीछे हैं।"

वह कहती हैं कि "अगर मौका दिया जाए, तो समुदाय में प्रतिभा की कमी नहीं है। हमारे हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों को 10 वीं कक्षा तक मुफ़्त शिक्षा मिलती है। उन्हें खेल और संगीत के साथ-साथ खाना बनाने, सिलाई-बुनाई करने में भी प्रशिक्षित किया जाता है। वे मार्शल आर्ट्स में भी अव्वल हैं। यहां तक कि मुसहर लड़कियां जापान और अर्मेनिया में भी कुछ प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लेने गई हैं। वह कुछ मेडल भी जीतकर लाई हैं। कई लड़कियां राज्य स्तर भी खेलती हैं। लेकिन मौकों के आभाव में उनकी प्रतिभा दबकर रह जाती है।"

जब हमने उनसे राजनीतिक और सामाजिक एकत्रीकरण के आभाव पर सवाल पूछा तो उन्होंने कहा, "अपने अधिकारों के लिए खड़े होने और उनके मोल-भाव करने में आत्मविश्वास की कमी होने के चलते समुदाय आज जैसी स्थिति में मौजूद होने के लिए मजबूर है।"

छुआछूत को लेकर उन्होंने कहा, "आप काम करने वाले मुसहर लड़के और लड़कियों को कभी चाय की दुकान पर जाते हुए नहीं देखेंगे। क्योंकि वे जानते हैं कि वे अछूत हैं। उन्हें मंदिरों में जाने की अनुमति नहीं होती। वह जानते हैं कि यह जगह उनके लिए नहीं हैं। उन्हें खाना भी उनके लिए अलग से रखे गए बर्तनों में दूर से दिया जाता है।"

क्या कोई ऐसी सरकार आएगी, जो नज़रिए में बदलाव करने की कोशिश करेगी (जैसा फादर निशांत ने कहा), यह तो 10 नवंबर को ही पता चल सकेगा, जब चुनावों के नतीजे घोषित होंगे।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Bihar Elections: Musahars, Numerically Significant Yet ‘Otherised’

Bihar Assembly Election
Musahar Voters
Discrimination Against Musahars
Untouchability in Bihar
Bihar government
caste discrimination
Nitish Kumar
jitan ram manjhi
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