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बिहार : सिर्फ चुनाव रद्द नहीं हुआ, पक्षपाती मीडिया रिपोर्टिंग व चुनाव आयोग की कार्यशैली पर भी सवाल है

मीडिया ने पटना हाई कोर्ट के इस ऑब्जरवेशन पर ध्यान देने की जहमत तक नहीं उठाई, जो उसने राज्य निर्वाचन आयोग के सन्दर्भ में कही है और न ही 2010 में के कृष्णमूर्ती बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की विवेचना के जरिये इस मामले को समझाने की कोशिश की। आखिर, पटना हाई कोर्ट का ताजा आदेश क्या आरक्षण के खिलाफ है? यह आदेश उलटे आरक्षण की अवधारणा को और मजबूत करता है और साथ ही आर्टिकल 15 के मुकाबले आर्टिकल 243 को बेहतर ढंग से पारिभाषित भी करता है।
HIGH COURT

4 अक्टूबर को पटना हाई कोर्ट के आदेश के बाद मीडिया में सिर्फ यही खबर है कि बिहार नगर निकाय चुनाव रद्द कर दिया गया (बिहार राज्य निर्वाचन आयोग के आदेश से) है और हाई कोर्ट ने पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित सीटों को अनारक्षित कर के चुनाव कराने का आदेश दिया है। लेकिन, मीडिया की यह रिपोर्टिंग न सिर्फ भ्रामक है, बल्कि पक्षपातपूर्ण और दुर्भावना से भी ग्रस्त है। मीडिया ने पटना हाई कोर्ट के इस ऑब्जरवेशन पर ध्यान देने की जहमत तक नहीं उठाई, जो उसने राज्य निर्वाचन आयोग के सन्दर्भ में कही है और न ही 2010 में के कृष्णमूर्ती बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की विवेचना के जरिये इस मामले को समझाने की कोशिश की। आखिर, पटना हाई कोर्ट का ताजा आदेश क्या आरक्षण के खिलाफ है? क्या यह आदेश आरक्षण की समीक्षा की ओर जाने के लिए राजनीतिक दल और समाज को प्रेरित करता है? नहीं, ऐसा कुछ नहीं हैं, बल्कि यह आदेश उलटे आरक्षण की अवधारणा को और मजबूत करता है और साथ ही आर्टिकल 15 के मुकाबले आर्टिकल 243 को बेहतर ढंग से पारिभाषित भी करता है। आइये, पटना हाई कोर्ट के इस आदेश को पुराने मामले के सन्दर्भ में नए तरीके से समझाने की कोशिश करते हैं।

के कृष्णमूर्ती बनाम भारत सरकार 

2010 के इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि स्थानीय निकायों के चुनाव में दिए जाने वाले आरक्षण की प्रकृति सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में दिए जाने वाले आरक्षण से बिलकुल अलग है। शीर्ष अदालत ने माना कि आर्टिकल 15(4) और 16 (4) में वर्णित आरक्षण व्यवस्था (सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों) को स्थानीय निकायों में आरक्षण की व्यवस्था करते वक्त इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इसकी जगह आर्टिकल 243 (डी) का इस्तेमाल होगा, जिसके तहत राज्य विधान मंडल को यह अधिकार होगा कि वह राज्य में राजनैतिक पिछड़ेपन की पहचान करें और 50 फीसदी आरक्षण सीमा के भीतर ही अति पिछड़े या अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था करे। साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि राजनीतिक पिछड़ेपन की पहचान करने का जिम्मा राज्य सरकार का होगा, जिसे एक तय प्रक्रिया के तहत किया जाएगा।

बिहार एनडीए की लापरवाही 

उक्त फैसला 2010 में आया था। तब से ले कर अब तक स्थानीय नगर निकायों के दो चुनाव हो चुके है। इस बीच, नीतीश कुमार और भाजपा की मिली-जुली सरकार ने ईबीसी और एमबीसी की पहचान की, उन्हें सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण भी मुहैया कराया, लेकिन राजनीतिक पिछड़ेपन की पहचान के लिए जिस आयोग का गठन करना था, वो नहीं किया। गौरतलब है कि राजनीतिक पिछड़ेपन की पहचान के लिए आयोग बनाए बिना आरक्षण की व्यवस्था चलती रही। और इस वजह से यह मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट पहुंचा (सुनील कुमार बनाम राज्य सरकार) जहां सुप्रीम कोर्ट ने 2010 के फैसले के आलोक में पटना हाई कोर्ट को मामले की सुनवाई करने को कहा और इसके बाद पटना हाई कोर्ट का यह आदेश आया है। इस आदेश को अगर ध्यान से देखा जाए तो यह राज्य सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग की लापरवाही को उजागर करती है न कि आरक्षण ख़त्म कर उन सीटों को सामान्य करने की बात। असल में, राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेश के सदर्भ में कोइ एक्शन ही नहीं लिया था, जिसकी वजह से अदालत से ऐसा फैसला आया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट 243 (डी) की संवैधानिक मान्यता को मानती है, लेकिन उसे आर्टिकल 15(4) से अलग भी रखती है। \ पटना हाई कोर्ट के ही एडवोकेट कुमार अमित ने न्यूजक्लिक को बताया कि बिहार सरकार ने जिस तरीके से अन्य या अति पिछड़े वर्ग की पहचान कर उन्हें आरक्षण दिया, उससे इन वर्गों के राजनीतिक पिछड़ेपन की पहचान नहीं होती है। कुमार अमित कहते है, “राजनीतिक पिछड़ेपन की पहचान एक सतत प्रक्रिया है। आज जो राजनीतिक रूप से पिछड़ा है, वह कल नहीं हो सकता। इसलिए, बिहार सरकार को एक ऐसे आयोग के गठन की आवश्यकता है, जो सतत रूप से इस काम को करते रहे।” 

राज्य निर्वाचन आयोग स्वायत्त संस्था है? 

पटना हाई कोर्ट ने अपने आदेश में काफी तल्ख़ लहजे में राज्य निर्वाचन आयोग पर टिप्पणी करते भुए कहा है कि राज्य निर्वाचन आयोग इस बात की समीक्षा करे कि क्या वह एक स्वायत्त संस्था की तरह काम कर रही है या फिर वह राज्य सरकार के डिक्टेशन पर काम करती है। यानी, जब सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में एक फैसला दे दिया था तब बिना उस फैले के पालन के राज्य सरकार अगर राज्य निर्वाचन आयोग से चुनाव कराने की सिफारिश भी करती है तो क्या राज्य निर्वाचन आयोग उसे मानने के लिए बाध्य है? बिलकुल नहीं, क्योंकि संवैधानिक रूप से राज्य निर्वाचन आयोग एक स्वायत्त संस्था है। फिर ऐसी कौन सी स्वायत्ता है, जिसके कारण बिहार राज्य निर्वाचन आयोग ने बिहार सरकार से बिना सवाल किए (आरक्षण व्यवस्था के सन्दर्भ में आयोग के गठन से संबंधित) ही चुनाव की अधिसूचना जारी कर देता है? ऐसे में, चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संविधानिक संस्था पर हाल के दिनों में जो सवाल उठे है, वे सवाल पटना हाई कोर्ट के मौजूदा आदेश से और भी पुख्ता होते है। अदालत ने सीधे-सीधे निर्वाचन आयोग की स्वायत्ता को ले कर एक तरह से चिंता जाहिर की है? आखिर इन चिंताओं का निवारण कौन करेगा? विधायिका या न्यायपालिका या फिर स्वयं को संवैधानिक रूप से स्वायत्त संस्था कहने वाला निर्वाचन आयोग? 

आरक्षण के खिलाफ साजिश! 

अब यह अलग बात है कि पटना हाई कोर्ट के इस आदेश से मंडलवादी राजनीति को सांप सूंघ गया है। लेकिन, यह भी सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 12 साल बाद तक ये मंडलवादी दल क्या कर रहे थे? क्यों इनकी नींद कुंभकर्ण से भी अधिक गहरी हो गयी थी? क्या इन्हें इस बात का अंदेशा नहीं था कि उनके आरक्षण की व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है? आखिर क्यों उन्होंने राजनीतिक पिछड़ेपन की पहचान के लिए आयोग का गठन नहीं किया था? क्यों बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आज बताए जा रहे ट्रिपल टेस्ट को पहले ही पूरा किया? क्या 2010 से 2022 के बीच, नीतीश कुमार भाजपा के दबाव में ऐसा नहीं कर पाए? क्या उन पर आरक्षण संबंधी निर्णय न लेने का दबाव था? नीतीश कुमार की सरकार आज कह रही है कि वे पटना हाई कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएंगे या उनके नेता उपेन्द्र कुशवाहा कह रहे है कि वे इसके खिलाफ आन्दोलन करेंगे, लेकिन 12 साल तक आप सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करते रहे, यह जानकारी के अभाव में हुआ या साथी दल के दबाव में, नीतीश कुमार मको स्पष्ट करना चाहिए? 

आगे क्या होगा? 

सवाल है कि अब आगे क्या होगा? जाहिर है, अब फिर से चुनाव कराने में वक्त लगना तय है। मुख्य तौर से दो विकल्प है। पहला तो यह कि चुनाव आयोग ओबीसी/ईबीसी/एमबीसी वाले आरक्षित सभी सीट को सामान्य घोषित कर दें। ऐसी परिस्थिति में उन सीटों पर फिर से नामांकन होगा और तब सामान्य सीट के हिसाब से चुनाव होगा। यह काम बिहार के सभी निकायों के लिए करना पड़ेगा, जिसकी संभावना नगण्य है। दूसरा यह कि सर्वप्रथम राज्य सरकार एक समिति बनाएगी, जो ओबीसी/ईबीसी/एमबीसी के राजनीतिक पिछड़ापन की जाँच कर अपनी अनुशंसा देगी और उस समिति की अनुशंसा के आधार पर निकायों में आरक्षण का निर्धारण  होगा, जो आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी सीमा के अंदर होगी और और राज्य सरकार को इसके लिए क़ानून लाना पड़ेगा। ऐसा करने के बाद ही, चुनाव आयोग सभी निकायों के आरक्षित सीट की पुनः घोषणा करेगी। जाहिर है, इस प्रक्रिया में 6 माह तक का समय लग सकता है। 

 

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