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जन्मदिन विशेष : अमृता प्रीतम के साहित्य का नारीवाद

अमृता को सिर्फ़ साहिर और इमरोज़ के होने पर समझना अमृता प्रीतम को अकेला और अधूरा समझने के बराबर है। अमृता ने तमाम तरह की रचनाएँ रचीं, जिनमें प्रेम शामिल था, लेकिन उस प्रेम का विस्तार रूमानी प्रेम से परे था।
अमृता प्रीतम

"यह ज़िंदगी एक रात थी/
हम तो जागते रहे, क़िस्मत को नींद आ गई/
इस मौत से वाकिफ़ हैं हम/
अक्सर हमारी ज़िंदगी, उसका ज़िक्र करती रही....."

-अक्षरों के साये, अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम को उनकी प्रेम भरी कविताओं, कहानियों और जीवन घटनाओं के बीच पढ़ा और गढ़ा गया। साहिर और इमरोज़ के बरअक्स न जाने उनकी कितनी ही तस्वीरें नज़र आती हैं। लेकिन अमृता को सिर्फ़ साहिर और इमरोज़ के होने पर समझना अमृता प्रीतम को अकेला और अधूरा समझने के बराबर है। अमृता ने तमाम तरह की रचनाएँ रचीं, जिनमें प्रेम शामिल था, लेकिन उस प्रेम का विस्तार रूमानी प्रेम से परे था। साहित्य जगत में एक औरत को आने वाली कुछ दिक़्क़तों पर अमृता ने अपनी आत्मकथा में बात की है। उन्होनें धर्म और जाति के विरोध में लिखा और साथ ही अपनी कहानियों और कविताओं में तमाम औरतों के किरदार को गढ़ा। जो समाज के विभिन्न तबक़ों से ताल्लुक रखती थीं और सामाजिक कुरीतियों पर सवाल करती थीं। उन रचनाओं में अमृता प्रीतम औरतों के ढांचागत दमन की बात करते हुए, परंपरा और आधुनिकता के टकराव को कटघरे में लाती हैं। और साथ ही पात्रों की पीड़ा और मानसिक वेदना दोनों को समान रूप से जगह देती हैं।

हम जानते हैं कि आज के समय में मानसिक स्वस्थ्य, मानसिक वेदनाओं पर बात करना कितना आवश्यक हो गया है। अमृता प्रीतम ने अपनी रचनाओं के ज़रिये आज से कई दशकों पहले ही मानसिक स्वास्थ्य के विमर्श को साहित्य में लाने की कोशिश की थी, जो उनके समय से काफ़ी आगे था। उन्होनें स्त्री-पुरुष की मानसिक दिक़्क़तों को सामाजिक ढांचों से जोड़ते हुए उनके दर्द के बारे में लिखा। अमृता प्रीतम इन सभी विषयों को जोड़ते हुए एक नारीवादी सोच और प्रक्रिया को हमारे सामने भी रखती हैं। वह किसी पुरुष विशेष की ओर इंगित कर सिर्फ़ उसे शोषण का कारण नहीं समझतीं बल्कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर निशाना साध उसे मनुष्य की मानसिक पीड़ा और शोषण का कारण समझती हैं।

अमृता प्रीतम का साहित्य जगत में संघर्ष

अमृता प्रीतम साहित्यिक क्षेत्र में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली प्रथम महिला बनीं। और इसी साहित्य जगत में स्थान बनाते वक़्त उन्हें कई तरह की पितृसत्तात्मक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जिसके लिए उन्होंने अपने तर्क और विचारों को अपना औज़ार बनाया। अमृता प्रीतम अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में लिखती हैं कि उस समय के मशहूर पंजाबी कवि मोहनसिंह ने उन पर कई कवितायें लिखी थीं, जिनमें से एक थी 'जायदाद' उस कविता का भाव था - 'वह दरवाज़े में खामोशी खड़ी थी, एक जायदाद की तरह, एक मालिक की मिल्कियत की तरह…'।  इन शब्दों को पढ़ने के बाद अमृता प्रीतम परेशान रहीं और जब अगली बार वह उनसे मिली तो उनके एक दोस्त कपूरसिंह ने मोहनसिंह से कहा कि अमृता प्रीतम उनसे प्यार नहीं करती हैं। जिसके बाद मोहनसिंह और प्रीतम के बीच बातचीत बंद हो गयी।

कुछ इसी तरह का वाक़या लाहोर स्टूडियो में हुआ। काम करते वक़्त साहित्य के एक प्रेमी ने उनसे कहा कि 'अगर मैंने आज से कुछ बरस पहले आपको देखा होता तो या तो मैं मुसलमान से सिक्ख हो गया होता या फिर आप सिक्ख से मुसलमान हो गयी होतीं।' अमृता प्रीतम का स्त्री के तौर पर एक स्वतंत्र व्यक्ति होना कहीं न कहीं तत्कालीन समय के पितृसत्तात्मक समाज को अखरता था। ऐसे ही एक पंजाबी कवि ने उनके नाम एक अजीबोग़रीब प्रेम की कविता लिखी तथा आग्रह करते हुए कई तरह से उनके कामों पर प्रभाव डालने की कोशिश करने लगे कि अमृता प्रीतम अपने लिखे में इसके बारे में लिखे और उसके बारे में नहीं। इन सज्जन की इन हरक़तों की वजह से अमृता प्रीतम खीज गईं और इससे पहले कि वह कुछ कहतीं भारत विभाजन हो गया था। साहित्य जगत में आने वाली दिक़्क़तों पर प्रीतम अपनी आत्मा कथा में खुलकर लिखा तथा साथ ही प्रगतिवादी लेखक संघ का हिस्सा बन साहित्य जगत की पितृसत्तात्मक पैठ को चुनौती देती रहीं।

अमृता प्रीतम की कहानी और किरदारों का ज़िन्दानामा

एक स्त्री के जीवन और उनकी कहानियों के बीच एक झीनी सी ही दीवार होती है। अमृता प्रीतम का जीवन जानने के बाद पाठकों को उनकी रचनाओं की गहराई पूरी नहीं तो थोड़ी बहुत समझ आने लगती है। अमृता प्रीतम की कहानियाँ अधूरेपन की बात करती हैं, ठीक उसी तरह जैसे उनका जीवन अधूरा रहा। 11 वर्ष की छोटी आयु में उनकी माँ चल बसीं और पिता की फ़क़ीरी की वजह से धार्मिक हो गईं। उन्होंने धार्मिक काफ़िये और रदीफ़ लिखे जिसे वो पारंपरिक विचार बताती हैं और साथ ही दक़ियानूसी भी कहती हैं। उम्र के उस पड़ाव पर उसके ख़िलाफ़ अपने पिता से ना बोल पाने का ज़िक्र प्रीतम रसीदी टिकिट में करती हैं। और यही बेबसी उनकी कहानियों में भी उतर आती है। फिर चाहे वह ''अमाकड़ी' पात्र का किशोर हो, जो अपने बाप के कहने पर अपनी पसंद को छोड़ उनके पसंद की लड़की से शादी कर लेता है या फिर 'एक रुमाल : एक अंगूठी : एक छलनी' का किरदार बंटी, जिसकी सास के साथ भी यही घटना घटती है।

1947 अमृता प्रीतम के लिए उम्र का वह पड़ाव था जब सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मूल्य टूट गए और उन्होनें इसके ख़िलाफ़ लिखना शुरू किया। धार्मिक छुआछूत का विरोध तो वह बचपन में भी करती रहीं। पहली शादी करने के बाद अमृता अपने पति को तलाक़ देकर अकेले रहने का निर्णय लेती हैं और साथ ही अपने साहित्य के सफ़र भी जारी रखती हैं। उनकी यह पहचान और अस्तित्व समाज की शादी को लेकर कई अवधारणाओं को चुनौती देती है। उनके जीवन का यह निर्णय उनके व्यक्तिपरकता को स्थापित करता है जो उनके कहानी 'करमांवाली' में नज़र आता है। इस कहानी करमांवाली के पात्र की शादी एक आदमी से होती है लेकिन वह किसी और औरत से प्यार करता है। वो औरत की बहुत अच्छी दोस्त रहती है। पर करमांवाली को जैसे ही उसके पति के प्रेम का पता चलता है उसे लगता है, वह किसी की उतरन पहन रही है और वह शादी छोड़ कर अपने रिश्तेदार के साथ रहने लगती है।

यह कहानी स्त्री के जीवन का अंत शादी को न समझ कर औरत की जीवन की दुविधा और दुख को केंद्र में रखती है। दुविधा, उसकी सबसे प्रिय सखी की, जो उसके पति की प्रेमिका होती है और दुख इसका की समाज उसके दुख को समझने के बजाय उसे शादी वापिस जोड़ने पर ज़ोर देता है। जहां समाज में व्यापक तौर पर कहानियों में हम यह पढ़ते है कि आदमी औरत को छोड़ कर चले जाने का अधिकार रखता है वहीं प्रीतम अपनी इस रचना में स्त्री के व्यक्तित्व पर ज़ोर देती हैं। अमृता प्रीतम ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्त्री की स्वच्छंद, व्यक्तिपरक तथा सामाजिक रीति-रिवाजों एवं संस्थाओं से स्वतंत्र किरदारों को गढ़ा, जो तत्कालीन भारतीय समाज से कहीं आगे की सोच थी।

रचनाओं और किताबों में मानसिक वेदना एवं तनाव का विमर्श

अमृता प्रीतम अपने मानसिक स्वस्थ्य के बारे में अपनी किताब रसीदी टिकिट में लिखती हैं कि साल 1960 उनके लिए सबसे उदास बरस था। उसी साल एक उन्हें ख़बर मिली थी कि साहिर को उनकी मुहब्बत मिल गयी। मन की दशा तलाशते वह ऑस्कर वाइल्ड को पढ़ती हैं, जिसमें लिखा होता है 'मैंने मर जाने का विचार किया…ऐसे भीषण विचार में जब ज़रा भी कुछ कमी हुई तो जीने के लिए अपना मन पक्का कर लिया,पर सोचा, उदासी को मैं अपना एक शाही लिबास बना लूँगा और हर समय पहने रहूँगा।' यही लिबास पहने अमृता ने अपने जीवन की सबसे उदास कवितायें इस वर्ष में लिखीं। इसी वर्ष अमृता ने साइकेट्रिस्ट से इलाज भी करवाया और उसी दौरान अपनी मन की बातें और सपनों का ज़िक्र अपनी आत्मकथा में किया। माँ को खोने से लेकर विभाजन तक के तनाव से लेकर अमृता प्रीतम ने अपनी रचनाओं को लेकर समाज की अवहेलना तक झेली लेकिन उनकी कलम और विचार कभी नहीं झुके। अमृता प्रीतम की जीवनी से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने रूढ़िवादी विचारधारा को अक्सर अपनी कलम से टक्कर दी। इनसे लड़ते-लड़ते भी रचनाकार परेशान होते हैं, जिसके बारे में विचार ना के बराबर होता है। रचना प्रक्रिया को जारी रखने के साथ समाज के मूल्यों को चुनौती देना एक इंसान को अकेला कर देता है।

अमृता प्रीतम ने अपनी कलम की नोक से और अपने जीवन में हमेशा संघर्ष किया साथ ही प्रतिरोध के स्वर को बुलंद रखा। अमृता प्रीतम की कहानी 'अमाकड़ी' में एक गाँव की लड़की अमाकड़ी से प्यार करने वाला व्यक्ति, विवशता में किसी और से शादी कर लेता है। शादी के उपरांत वो अपने सारे भाव खो बैठता है और ख़ुद को ‘मर्द नहीं बैल’ मानने लगता है। इस तरह उसका जीवन ठंडा हो जाता है जो गाँव की उसी गर्मी को ढूँढता है, जहां उसे अमाकड़ी मिली थी। वह गाँव के आम के पेड़ के नीचे रखे 'मिट्टी के घड़े' को याद करता है, जिससे अमाकड़ी उसे भरी गर्मी में पानी पिलाया करती थी। यही 'मिट्टी का घड़ा' ही उसको संभालता है। समाज के संस्थाओं के नियम न सिर्फ़ औरत बल्कि आदमी के दिमाग़ पर भी एक गहरा घाव छोड़ते हैं। उसका अकेलापन अमूर्त रूप से उपस्थित नहीं होता है बल्कि समाज की विवाह को लेकर संरचना उसको अकेलेपन की ओर धकेलती है।

इसी तरह दूसरी कहानी में 'एक रुमाल, एक अंगूठी , एक छलनी' में अमृता प्रीतम दो औरतों के बीच एक खूबसूरत संबंध स्थापित करती हैं। दोनों रिश्ते में सास-बहू होती हैं, जो सहेली से बढ़ कर होती हैं। परन्तु दोनों ही अधूरे प्यार को लिए शादी कर लेती हैं। एक रुमाल बहु बन्ती की प्यार का निशानी होता है, जिसको वो छुपा कर अपने ससुराल लाती है और अपने बेटे का नाम राजू रख उस रुमाल को हमेशा के लिए छुपाने से बच जाती है। वहीं उसकी सास रूपो एक भटियार (भट्टे पर काम करने वाला व्यक्ति) से प्यार कर बैठती है लेकिन शादी किसी और से करनी पड़ती है, पर रूपो भटियार की दी हुई छलनी और अंगूठी लेकर अपने घर में सभी के सामने मरते दम तक अपने साथ रखती है।

यह सारी आम चीज़ें अमृता के कहानी में विरोध का प्रतीक स्थापित करते है। इसी कहानी में बंती का पात्र औरत के जीवन में कदम कदम पर हो रहे सामाजिक विषाद के तरफ बात करते औरत की छुपे हुए निरंतर बहते हुए आसुओं के बारे में पाठकों को बतलाती है। एक स्त्री होने के नाते इस पितृसत्तात्म्क समाज के नियम औरतों को रोज़ मानसिक वेदना देते है, लेकिन उनकी इस वेदना समाज के मुख्य धारा में कहीं गुम हो जाती है। इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता है, और सदियों से चले आ रहे इन प्रथाओं को औरत अपने अंदर साध लेती है और अंदर ही अंदर घुटती और रोती है। ऐसे में ज़रूरी हो जाता है की हम समाज में मौजूद विवाह, प्रेम, जाति, धर्म, पितृसत्ता के ढांचों पर एक साथ वार करे, जिससे की मानसिक दर्द की निरंतर चली आ रही प्रक्रिया को रोका जा सके।

आज अमृता प्रीतम को प्रेम का प्रतीक माना जाता है। उनकी रचना 'अज्ज आखां वारिस शाह नूं' उनके नाम की पर्यायवाची हो गई। यह कविता विभाजन के वक़्त लिखी गई वरिश शाह से एक अरज थी, कि वारिस शाह दो मुल्कों के बीच प्यार का कोई नया पन्ना खोल दे। आज कोई ऐसी ख़्वाइश भी करे तो उसे देशद्रोही करार दिया जाएगा। अमृता 'रसीदी टिकिट' में बताती हैं कि 1975 में विभाजन के बाद जब पाकिस्तान के एक मशहूर साहित्यकार दिल्ली आए तो उन्होनें बताया कि पाकिस्तान में उर्स के मौक़े पर 'जश्न ए वारिस शाह' मनाया जाता है, जहां हर साल उनकी इसी नज़्म से जश्न को शुरू किया जाता है। इस नज़्म के अक्षरों ने दो मुल्कों के बीच दर्द साझा करने की नयी रीत को स्थापित कर दिया था। अमृता के जीवन की तरह ही उनकी रचनाओं का रंग भी असीम अकेलापना, गम, और इंतज़ार समेटे हुए नज़र आता है। लेकिन इन सभी को तोड़ कर इनसे संघर्ष कर, नए उम्मीद और आशा के प्रतिमान और प्रतीक गढ़ते भी वह स्वयं नज़र आती हैं।

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