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क्या मोदी के भारत में नूरेमबर्ग की गूंज सुनाई देती है?

नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और तथाकथित लव-जिहाद कानूनों में दर्ज़ सभी द्विअर्थी बातें मुस्लिम भारतीयों की नागरिकता को धीमे तरीक़े से ख़त्म करने की बात को नहीं छिपा सकती हैं।
Modi

भारत का संविधान, बंटवारे की उन्मादी धार्मिक हिंसा की गमगीन छाया के बीच लिखा गया था। देशों की नई-नई बनी सीमा के दोनों ओर हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने एक-दूसरे के समुदायों से संबंधित दस लाख से अधिक लोगों का कत्लेआम किया था और 1.5 करोड़ लोगों को अपनी मातृभूमि से उखाड़ फेंक दिया गया था।

अविभाजित भारत के पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों से अलग होकर बना पाकिस्तान, मुसलमानों और उनके लिए एक देश के रूप में स्थापित किया गया था। इसके उलट,  भारत के लोगों ने संविधान सभा में अपने 389 प्रतिनिधियों के ज़रिए तीन वर्षों से अधिक समय तक चले विचार-विमर्श के माध्यम से एक मजबूत प्रस्ताव पारित किया जो हो लेकिन आज़ाद भारत कोई धार्मिक राज्य नहीं होगा।

हालांकि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में "धर्मनिरपेक्ष" शब्द को तीन दशक के बाद जोड़ा गया था, लेकिन संविधान लिखने के समय इस पर लिया गया संकल्प साफ़ था कि, भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य होगा।

भारत की संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के कई मायने हैं। राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। यह ईमानदारी से सभी धर्मों से समान दूरी रखेगा। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों धर्मों के हर मत के लोगों को न केवल धर्म को निभाने बल्कि अपनी धार्मिक मान्यताओं का प्रचार करने की भी पूर्ण स्वतंत्रता होगी।

जब धर्म संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन करेगा तो हुकूमत के पास धार्मिक अभ्यास में हस्तक्षेप करने का अधिकार और कर्तव्य भी होगा। सभी अल्पसंख्यक धर्मों के लोगों को बहुसंख्यक धर्म के लोगों के बराबर पूर्ण नागरिकता के अधिकार का आश्वासन दिया जाएगा।

इन अधिकारों की रक्षा करना और यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य होगा कि राज्य धर्म के आधार पर किसी भी तरह से भेदभाव न करे।

भारतीय गणराज्य के निर्माण के दौरान भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अभ्यास कभी भी सही नहीं था। शुरुआत से, लेकिन विशेष रूप से 1964 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद, नई दिल्ली के साथ-साथ विभिन्न राज्यों की राजधानियों में लगातार सरकारों ने कई अवसरों पर विभिन्न तरीकों से धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के संवैधानिक सिद्धांतों के साथ समझौता किया है।

लेकिन धर्मनिरपेक्षता की इमारत अभी भी इन हमलों से बची हुई है। अब तक तो बची हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के दशक में इतनी गंभीरता और ताकत भर हमलों का दौर देखा गया है कि कई लोगों को डर है कि भारत पहले से ही एक धार्मिक राज्य, एक हिंदू राष्ट्र में बदल गया है, भले ही संविधान की प्रस्तावना का अक्षरश: धर्मनिरपेक्ष (और समाजवादी) लोकतंत्र की प्रतिज्ञा अभी भी कायम है।
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मोदी के नेतृत्व के दशक में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के गढ़ में कई ज़बरदस्त घुसपैठें हुईं हैं। इनसे धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिम नागरिकों, बल्कि कभी-कभी ईसाइयों की धार्मिक स्वतंत्रता और समान नागरिकता अधिकारों का भी उल्लंघन हुआ है।

यह लेख भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर क़ानून द्वारा दो हमलों पर केंद्रित रहेगा। इनमें से एक मुसलमानों की समान नागरिकता के सिद्धांत पर हमला करता है। दूसरा अंतर-धार्मिक विवाह के लिए धर्म परिवर्तन को अपराध मानता है। हम जानना चाहेंगे कि क्या इन दो कानूनों नाज़ी जर्मनी के नूरेमबर्ग कानूनों की प्रतिध्वनि है।

जर्मनी के केंद्र में स्थित होने के कारण आंशिक रूप से नाज़ी युग के दौरान नूरेमबर्ग का विशेष महत्व था। जर्मनी में वर्षों नाज़ी शासन के दौरान बर्लिन के बाहर आयोजित रीचस्टैग की एकमात्र बैठक में, नूरेमबर्ग में एक विशाल विजयी रैली के बाद सितंबर 1935 में एडॉल्फ हिटलर ने नूरेमबर्ग कानूनों की घोषणा की गई थी।

नूरेमबर्ग कानूनों ने यहूदी जर्मनों से नागरिकता के अधिकार छीन लिए और अंतर-धार्मिक वैवाहिक और यौन संबंधों को अपराध करार दे दिया था। रीच नागरिकता कानून के तहत केवल जर्मन लोग रीच के नागरिक बनने योग्य थे। 

बाकी - मुख्य रूप से यहूदी, लेकिन सिंती और रोमा और काले लोगों को भी किसी भी बिना किसी नागरिकता के अधिकार वाले प्रजा के रूप में वर्गीकृत किया गया था। इससे पहले भी, हिटलर ने 1933 में यहूदी व्यवसायों के राष्ट्रीय बहिष्कार की घोषणा की थी, और कानून द्वारा तथाकथित गैर-आर्यों को सिविल सेवा और कानूनी अभ्यास और शिक्षण जैसे व्यवसायों से प्रतिबंधित कर दिया था।

दूसरा नूरेमबर्ग क़ानून जर्मन रक्त और जर्मन सम्मान की सुरक्षा वाला कानून था, जिसने यहूदियों और 'आर्यन' जर्मनों के बीच विवाह और यौन संबंध को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। उल्लंघन करने वालों को जेलों और एकाग्रता शिविरों में कैद की सजा दी गई, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर उनकी मौत हो जाती थी। 

इन दो नूरेमबर्ग कानूनों ने जर्मनी के यहूदियों को गैर-नागरिक बना दिया और यहूदियों और जर्मनों के बीच विवाह और यौन संबंध को अपराध घोषित कर दिया था। क्या मोदी के भारत में पारित कानूनों में नूरेमबर्ग कानूनों की गूंज सुनाई देती है?
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2019 की सर्दियों में पारित भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम ने स्वतंत्र भारत में अब तक के सबसे बड़े शांतिपूर्ण जन विद्रोह को जन्म दिया था, जिसमें न केवल मुस्लिम नागरिक बल्कि हर धर्म और पहचान के हजारों लोगों ने देश के अधिकांश हिस्सों में कानून का विरोध करने के लिए आपस में हाथ मिलाया था। 
भारतीय लोग उक्त कानून के खतरों को तुरंत भांप चुके थे जिसने पहली बार किसी व्यक्ति की नागरिकता के अधिकार को निर्धारित करने के लिए धार्मिक पहचान के फिल्टर का इस्तेमाल किया था। उन्होंने इसमें एक कील की पतली धार देखी जो भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को पलट सकती थी। 

सरकार के नेताओं की तरफ से इस संशोधन के लिए तर्क यह दिया गया कि यह एक मानवीय शरणार्थी कानून है जो पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों की सहायता और आश्रय के लिए बनाया गया है। लेकिन कानून और हाल ही में अधिसूचित नियमों के एक सरसरी अध्ययन से भी सबसे पहले यह पता चलता है कि उत्पीड़न शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है। नागरिकता के लिए आवेदक को उत्पीड़न का दावा करने या साबित करने की जरूरत नहीं है।

इस बात का भी कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि भारत का 2019 नागरिकता कानून केवल तीन मुस्लिम-बहुल देशों- अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर-दस्तावेज वाले व्यक्तियों को नागरिकता के लिए फास्ट-ट्रैक आवेदन क्यों प्रदान करता है।

भारत के पड़ोस के लगभग हर देश में धार्मिक उत्पीड़न एक गंभीर वास्तविकता है - पाकिस्तान में हिंदुओं, ईसाइयों और अहमदियाओं का उत्पीड़न; अफ़गानिस्तान में हिंदू, सिख और हजारा शिया का उत्पीड़न; चीन में उइगर मुस्लिम और तिब्बती का उत्पीड़न; म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान का उत्पीड़न; श्रीलंका में तमिल हिंदू और मुस्लिम का उत्पीड़न; और बांग्लादेश में हिंदूओं का उत्पीड़न होता है।

यदि मानवीय विचारों के तहत कानून को लागू किया, तो भारत को भारत के पड़ोस में सबसे क्रूर रूप से सताए गए अल्पसंख्यकों के लिए अपने दरवाजे क्यों नहीं खोलने चाहिए थे, जो दुनिया में सबसे अधिक उत्पीड़ित लोगों में से हैं – जैसे म्यांमार से रोहिंग्या, पाकिस्तान से अहमदिया और चीन से उइगर? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि श्रीलंका के हिंदू तमिलों को छोड़कर ये सभी लोग मुस्लिम पहचान वाले हैं?

संभवतः वह विचारधारा जो वास्तव में कानून को प्रेरित करती है, वह दृढ़ विश्वास है कि जैसे इज़राइल प्रत्येक यहूदी व्यक्ति का प्राकृतिक घर है, वैसे ही भारत दुनिया में कहीं के भी हिंदुओं का प्राकृतिक घर है। लेकिन यह अनुमानित मौन वैचारिक आधार भारत को उसके संविधान में निहित देश के धर्मनिरपेक्ष विचार से दूर धकेलता है, इस विचार से कि भारत अपने हिंदू, मुस्लिम, आदिवासी, दलित, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और नास्तिक आबादी का समान रूप से हिस्सा है। 

यह डर कि 2019 नागरिकता संशोधन अधिनियम भारतीय मुसलमानों को उसी रास्ते पर ले जा रहा है जैसे नूरेमबर्ग कानून जर्मन यहूदियों को ले गया था - जो प्रभावी रूप से भारतीय मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर देगा - प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा मुसलमानों को "घुसपैठिए" के रूप में कलंकित करने वाली समय-समय पर सार्वजनिक घोषणाओं से आंशिक रूप से गुस्सा भड़क गया था। (यह 2024 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री के भाषणों में भी जारी है)।

"घुसपैठिया" शब्द का इस्तेमाल इस तरह से किया जाता है कि ये "अवैध आप्रवासी" नहीं है; बल्कि उस भूमि पर कब्ज़ा करने की एक घातक साजिश है जो अधिकारिक रूप से उनकी नहीं है।

केंद्रीय गृह मंत्री की इस घोषणा से घबराहट और बढ़ गई कि लोगों को सरकार के नीतिगत निर्णयों के "कालक्रम" पर ध्यान देना चाहिए; कि उनकी सरकार पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम लेकर आई और फिर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लाएगी।

असम राज्य में लागू एनआरसी ने बांग्लादेश की सीमा से लगे इस राज्य के लाखों निवासियों को भारी पीड़ा पहुंचाई, सबसे अधिक इसलिए क्योंकि इसने सबूत के बोझ और बेगुनाही के अनुमान को पलट दिया है।

सभी निवासियों को पुराने कठिन दस्तावेज़ों के साथ यह साबित करना था कि वे नागरिक हैं, और यदि वे ऐसा करने में विफल रहते हैं, तो राज्य यह मान लेगा कि वे अवैध आप्रवासी थे (या 'घुसपैठिये', यदि आप चाहें तो), तो उन्हें गैर-नागरिक घोषित कर दिया जाएगा और संभवतः उन्हें हिरासत केंद्रों में कैद कर दिया जाएगा।

लेकिन अगर कोई बिना दस्तावेज वाला हिंदू है, तो उसे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि नागरिकता संशोधन अधिनियम के साथ अब कानून की किताबों में, किसी को बांग्लादेश से सताया हुआ हिंदू माना जाएगा और उसे नागरिकता जल्दी दे दी जाएगी।

इसके विपरीत, यदि कोई मुसलमान होता तो इस धारणा के तहत किसी भी संरक्षण से इनकार कर दिया जाता।
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भारतीय मुसलमानों के लिए भी उतना ही डरावना वह कानून है जिसे अनौपचारिक रूप से 'लव जिहाद' कानून कहा जाता है, जो देश में मोदी के नेतृत्व के एक दशक के दौरान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) शासित राज्यों में तेजी लागू किया गया है।

एक बार फिर, ये स्पष्ट रूप से नूरेमबर्ग कानूनों की तरह हिंदू महिलाओं के साथ मुस्लिम पुरुषों के संबंधों पर रोक नहीं लगाते हैं और उन्हें अपराध की श्रेणी में नहीं रखते हैं। लेकिन जिस तरह से पुलिस और यहां तक कि कभी-कभी अदालतों द्वारा इन कानूनों की व्याख्या और कार्यान्वयन किया जा रहा है, व्यवहार में ये कानून वैसे ही नज़र आते हैं।

2019-20 में प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वेक्षण में उत्साहवर्धक तथ्य पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल 84 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे "वास्तव में भारतीय" होने पर गर्व करते हैं, और इसलिए सभी धर्मों का सम्मान करना बहुत महत्वपूर्ण है। लगभग 80 प्रतिशत भारतीयों ने कहा कि अन्य धर्मों का सम्मान करना उनके अपने धार्मिक समुदाय का सदस्य होने का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है।

फिर भी, विरोधाभासी रूप से, लगभग दो-तिहाई हिंदुओं का कहना है कि हिंदू महिलाओं (67 प्रतिशत) या हिंदू पुरुषों (65 प्रतिशत) को अन्य धार्मिक समुदायों में शादी करने से रोकना बहुत महत्वपूर्ण है। अंतरधार्मिक विवाह के विरोध में मुसलमानों का अनुपात और भी अधिक था: क्रमशः 80 प्रतिशत और 76 प्रतिशत।

भारत लंबे समय से उन जोड़ों के लिए एक खतरनाक जगह रहा है जो अन्य धर्मों या 'निचली' जातियों के लोगों के साथ शादी करना या साथ रहना पसंद करते हैं। यह सर्वविदित है कि परिवार खुद उन महिलाओं और पुरुषों की हत्या कर देते हैं जो इन सामाजिक बाधाओं का उल्लंघन करते हैं, जिसे 'ऑनर किलिंग' के गलत नाम से जाना जाता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के 'लव जिहाद' के जहरीले मिथक के फैलने से ऐसे जोड़ों के खतरे कई गुना बढ़ गए हैं, यह झूठ कि मुस्लिम पुरुषों को हिंदू महिलाओं को इस्लाम में परिवर्तित करने के उद्देश्य से रोमांटिक और यौन रूप से शादी के जाल में फंसाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है और जनसांख्यिकीय साजिश के तहत बड़ी संख्या में मुस्लिम बच्चों को पैदा करना है। लेकिन तथाकथित लव जिहाद कानूनों ने अंतरधार्मिक जोड़ों के लिए खतरों को लगातार बढ़ा दिया है।

लव जेहाद क्या है? पत्रकार बेतवा शर्मा और अहमर खान ने इस जहरीले हिंदुत्व मिथक के इर्द-गिर्द गढ़ी गई कुछ फर्जी कहानियों को एक साथ जोड़ा। इनमें ऐसे दावे शामिल हैं कि मुस्लिम पुरुष हिंदू नामों और धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करके हिंदू बन कर सामने आते हैं; मुस्लिम महिलाएं हिंदू महिलाओं को अपने 'जिहादी' भाइयों से मिलवाने के लिए उनसे दोस्ती करती हैं; मुस्लिम दुकानदार, ख़ासकर मोबाइल फोन की दुकानें चलाने वाले, इलाके की हिंदू महिलाओं पर नज़र रखते हैं; स्थानीय मस्जिदें युवा पुरुषों को हिंदू महिलाओं का पीछा करने के लिए पैसे देती हैं और सफलतापूर्वक शादी करने और उनका धर्म परिवर्तन करने के लिए उन्हें इनाम देती हैं - जितनी ऊंची जाति, उतना अधिक पैसा मिलेगा; मुसलमान हिंदू घरों में ड्राइवर और रसोइया के रूप में रोजगार की तलाश करते हैं, अक्सर अपने हिंदू समकक्षों की तुलना में कम वेतन पर काम करते हैं, ताकि वे परिवार में महिलाओं को लुभा सकें।

इसीलिए "हिन्दुओं को अपने घरों में मुसलमानों को काम पर नहीं रखना चाहिए"। फिर वे "स्कूलों, कॉलेजों, बसों, कॉफी शॉपों, जिमों, होटलों, सिनेमा हॉलों, अदालतों और स्कूल के बाद की ट्यूशन के लिए कोचिंग सेंटरों" में मुखबिरों का एक विशाल नेटवर्क बनाते हैं, जो अंतर-धार्मिक रोमांटिक रिश्तों पर रिपोर्ट कर सकते हैं। कई बार, “हिन्दू अपने परिवार की महिलाओं के बारे में जानकारी देंगे। यहां तक कि कुछ हिंदू समुदायों में विवाह अधिकारी भी महिला के माता-पिता को सूचित करेंगे।

अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में लगभग 90 प्रतिशत विवाह एकपत्नी, विषमलैंगिक, व्यवस्थित और एक ही धार्मिक समुदाय और जाति के भीतर होते हैं। 2 प्रतिशत से भी कम विवाह अंतर-धार्मिक होते हैं, और इनमें से अधिकांश विवाह व्यस्कों के बीच सहमति से होते हैं।

फिर भी, बंटवारे से पहले के दिनों से ही, हिंदू दक्षिणपंथ ने मुस्लिम पुरुष को यौन शिकारी के रूप में भावनात्मक रूप से गढ़ने का काम किया है। इस मिथक का नवीनतम अवतार व्यापक लव जिहाद का प्रचार है।
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मोदी के नेतृत्व के दस सालों के दौरान, मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों सहित वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने इस घृणित झूठ को प्रचारित करने और वैध बनाने में मदद की है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने घोषणा की, "मैं उन लोगों को चेतावनी देता हूं जो पहचान छिपाते हैं और हमारी बहनों के इज्जत के साथ खेलते हैं," यदि आप नहीं सुधरते हैं, तो आपकी 'राम नाम सत्य' यात्रा शुरू हो जाएगी।'' 

जब हिंदू शव को श्मशान घाट ले जाते हैं तो वे 'राम नाम सत्य है' का जाप करते हैं, जिसका अर्थ है 'राम का नाम सत्य है'। वास्तव में, मुख्यमंत्री उन्हें हत्या की धमकी दे रहे थे।

वे इसमें अकेले नहीं थे। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2023 में घोषणा की कि राज्य में "लव जिहाद जैसी चीजें" बर्दाश्त नहीं की जाएंगी।

उन्होंने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को लव जिहाद के खिलाफ "कड़ी कार्रवाई" करने और राज्य में बाहर से आकर बसने वाले लोगों के इतिहास को जांचने के लिए समय-समय पर सत्यापन अभियान चलाने का निर्देश दिया था।

उन्होंने दावा किया कि लव-जिहाद के खिलाफ सामने आने वाले लोगों की बढ़ती संख्या इस प्रकृति के अपराधों के बारे में बढ़ती जागरूकता को दर्शाती है, जिसका आंशिक कारण बोलचाल की भाषा में लव जिहाद कानून कहा जाता है।

लेकिन दोमुंही बातें करना भाजपा नेतृत्व की खासियत है, जब यह स्पष्ट है कि वह संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन कर रही है, तो केंद्र सरकार (केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने संसद में एक लिखित उत्तर में कहा) फरवरी 2020 में स्पष्ट किया गया कि 'लव जिहाद' शब्द को कानून के तहत परिभाषित नहीं किया गया है, और किसी भी केंद्रीय एजेंसी द्वारा ऐसा कोई मामला रिपोर्ट नहीं किया गया है।

उन्होंने सही ही पुष्टि की कि संविधान का अनुच्छेद 25 सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है। उन्होंने एक लिखित उत्तर में कहा, “केरल उच्च न्यायालय सहित विभिन्न अदालतों ने इस दृष्टिकोण को बरकरार रखा है।”
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जिसे लोकप्रिय रूप से लव जिहाद कानून कहा जाता है, वह वास्तव में धार्मिक रूपांतरण से संबंधित कानूनों में संशोधन है जो विवाह के कारण धर्म में परिवर्तन पर विभिन्न प्रकार की बाधाएं डालता है।

मोदी के शासनकाल के दौरान सात भाजपा शासित राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानूनों में संशोधन के लिए अंतरधार्मिक जोड़ों को राज्य के अधिकारियों के पास आवेदन करने और शादी करने की अपनी इच्छा की सार्वजनिक घोषणा करने होगी। 

ये प्रभावी रूप से ऐसे विवाहों को अपराध घोषित करते हैं और जेल जाने का ख़तरा पैदा करते हैं और विवाह को गैर-कानूनी घोषित कर देते हैं, और उन्हें निगरानीकर्ताओं की धमकी और हिंसा के खतरों के प्रति और भी अधिक उजागर करते हैं। ये कई खतरे तब और बढ़ जाते हैं जब जोड़ा शादी किए बिना साथ रहने का विकल्प चुनता है।
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हाल के लव जिहाद क़ानूनों के महत्व को समझने के लिए, हमें संक्षेप में धर्मांतरण विरोधी कानूनों के विकास का पता लगाने की ज़रूरत है, क्या इन्हें विनियमित और अपराधीकृत किया गया है।

1960 के दशक से लेकर "लव जिहाद को रोकने" वाले समकालीन अधिनियमों तक धर्मांतरण विरोधी कानूनों के इतिहास पर नज़र डालते हुए, वरिष्ठ मानवाधिकार रक्षक मिहिर देसाई ने इन्हें "संकोच वाले हिंदू दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद से अत्यधिक जुझारू राष्ट्रवाद में परिवर्तन" के रूप में वर्णित किया है। कोई वर्जित धारण नहीं है- वर्तमान में अवतार इसका प्रमाण है।''

संविधान के मौलिक अधिकार वाले अध्याय का अनुच्छेद 25(1) धार्मिक स्वतंत्रता की व्यापक व्याख्या में स्पष्ट है, जिसमें "धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार शामिल है।”

ओडिशा 1967 में धर्मांतरण विरोधी कानून बनाने वाली पहली राज्य सरकार थी। अन्य राज्यों में बाद के ऐसे कानूनों की तरह, फिर से खास दोगली भाषा में, इसे धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम कहा गया।

1968 में मध्य प्रदेश अगला राज्य था। अन्य राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु (जहां इसे बाद में निरस्त कर दिया गया), गुजरात, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान शामिल थे।

इन कानूनों ने बलपूर्वक, धोखाधड़ी, प्रलोभन या लालच के माध्यम से धर्म परिवर्तन को अपराध घोषित कर दिया। यह सिद्धांत रूप में अप्राप्य है। समस्या यह है कि इनमें और बाद में मिलते-जुलते कानूनों में शब्दों को कैसे परिभाषित और व्याख्या किया जाता है।

कई क़ानूनों में, बल में दैवीय अप्रसन्नता की धमकी भी शामिल है; धोखाधड़ी में गलतबयानी और प्रलोभन शामिल है; और प्रलोभन में नकद या वस्तु के रूप में कोई उपहार या रिश्वत, या यहां तक कि स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी सेवाएं भी शामिल हैं।

ये व्यापक परिभाषाएं वास्तव में संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को गंभीर रूप से सीमित कर देती हैं।

इन कानूनों के लिए जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष सार्वजनिक घोषणा की जरूरत होती है, आमतौर पर परिवर्तन से पहले और, कुछ मामलों में, सार्वजनिक नोटिस भी होते हैं।

कई कानून सजा का प्रावधान करते हैं, जिसमें धर्मांतरण करने वालों को कारावास देना भी शामिल है; लेकिन कुछ कानून धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को दंडित भी करते हैं और धर्म परिवर्तन को रद्द कर देते हैं।

मोदी के नेतृत्व के दस वर्षों के दौरान, कई भाजपा-शासित राज्य सरकारों ने न केवल अपने धर्मांतरण विरोधी कानूनों को और अधिक कठोर बनाया, बल्कि उन्हें मुस्लिम पुरुषों और हिंदू महिलाओं के बीच विवाह और यहां तक कि लिव-इन संबंधों को प्रभावी ढंग से हतोत्साहित करने और अपराधीकरण करने के लिए हथियार बनाया।

2017 में झारखंड राज्य विधानसभा द्वारा पारित धर्म स्वतंत्रता अधिनियम में धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति के लिए भी कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। इसने पहली बार इस अधिनियम के तहत अपराधों को गैर-जमानती बना दिया था। नियमों के अनुसार जिला मजिस्ट्रेट को धार्मिक संस्थानों के रजिस्टरों को बनाए रखने की आवश्यकता होगी, जिससे उन्हें संस्थानों की जांच करने और इन संस्थानों से लाभान्वित होने वाले लोगों के रिकॉर्ड बनाने का अधिकार मिलता है।

2018 में यह उत्तराखंड ही था जिसने सबसे पहले विवाह के लिए धर्मांतरण को अपने वैधानिक निषेध में शामिल किया था। इसके क़ानून में कहा गया है कि "कोई भी व्यक्ति गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, जबरदस्ती, प्रलोभन या किसी कपटपूर्ण तरीके से या विवाह द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को सीधे या अन्यथा एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने का प्रयास नहीं करेगा।" 

अधिनियम की भाषा अंतर-धार्मिक विवाह में एक वयस्क की पसंद से धार्मिक रूपांतरण को अपराध मानती प्रतीत होती है। इसे कुछ हद तक उन नियमों द्वारा नियंत्रित किया गया था जो "एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन के परिणामस्वरूप किए गए विवाह" को अपराध मानते हैं यदि यह "गलत बयानी, बल, जबरदस्ती, प्रलोभन या किसी अन्य धोखाधड़ी के इरादे से किया गया हो तो यह अपराध माना जाएगा"।

कानूनों ने यह स्थापित करना कि धर्मांतरण वैध था, प्रमाण देने का भार उस व्यक्ति पर है जिसका धर्मांतरण किया गया है। इसमें पहली बार न्यूनतम सज़ा भी निर्धारित की गई, यदि धर्म परिवर्तन करने वाला व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, तो एक साल की कैद को बढ़ाकर दो साल कर दिया जाएगा।

इसने निषिद्ध प्रलोभन की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें "किसी भी धार्मिक संस्था द्वारा संचालित प्रतिष्ठित स्कूल में मुफ्त शिक्षा, पैसा, बेहतर जीवन शैली, सुख" को भी शामिल किया। दूसरी ओर, इसने हिंदू धर्म में धर्मांतरण को प्रभावी रूप से छूट दे दी, इस खंड के साथ कि "यदि कोई व्यक्ति अपने पैतृक धर्म में वापस आता है, तो (इसे) इस अधिनियम के तहत धर्म परिवर्तन नहीं माना जाएगा"।

2020 का उत्तर प्रदेश अध्यादेश (जिसे मार्च 2021 में राज्य विधानसभा द्वारा पारित किया गया था) किसी भी व्यक्ति द्वारा "शादी के ज़रिए" धार्मिक परिवर्तन को अपराध मानने में अधिक स्पष्ट था, भले ही परिवर्तन स्वैच्छिक था या नहीं।

इसके अलावा किसी को धर्म परिवर्तन के लिए मनाने की कोशिश को भी अपराध घोषित कर दिया गया। ऐसे विवाहों को न्यायालय द्वारा शून्य गैर-कानूनी घोषित किया जा सकता है। कानून में सबूत के बोझ को स्थानांतरित करने, अपराधों को गैर-जमानती बनाने, न्यूनतम दंड निर्धारित करने और किसी व्यक्ति के "तत्काल पूर्व धर्म" में परिवर्तन को छूट देने के उत्तराखंड में प्रावधान भी शामिल थे।

अन्य भाजपा शासित राज्यों- झारखंड (2017), हिमाचल प्रदेश (2019), मध्य प्रदेश (2021), गुजरात (2021), कर्नाटक (2022) और हरियाणा (2022) ने भी मोदी दशक के दौरान अपने धर्मांतरण विरोधी कानूनों में संशोधन किया है।

झारखंड को छोड़कर सभी राज्यों ने मुस्लिम पुरुषों द्वारा अंतर-धार्मिक विवाहों को प्रभावी ढंग से अपराध घोषित करने के उद्देश्य से, विवाह के लिए धार्मिक परिवर्तन को गैरकानूनी घोषित किया।

दंड अधिक कठोर हैं, न्यूनतम दंड निर्धारित हैं, और अपराध गैर-जमानती हैं। पहले के कानूनों में अधिकारियों को केवल धर्म परिवर्तन की बाद में सूचना देने की जरूरत होती थी, अब कानूनों के मुताबिक पहले अनुमति, विवरण को सार्वजनिक करना और पुलिस पूछताछ की जरूरत है।

भारत में अंतरधार्मिक विवाहों की सामाजिक वास्तविकता को देखते हुए, यह परिवारों और विजिलैंट समूहों दोनों को विवाहों को हिंसक रूप से रोकने या जोड़ों को दंडित करने में सक्षम बनाता है।
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इन कानूनों के पारित होने और लागू होने के सामाजिक प्रभावों ने अंतर-धार्मिक विवाहों को स्पष्ट रूप से अधिक खतरनाक बना दिया है। न केवल धर्मांतरण विरोधी कानून अधिक सख्त हो गए हैं बल्कि विवाह को धार्मिक परिवर्तन के वैध आधार के रूप में गलत करार दे दिया गया है। पहले की तरह सिर्फ परिवार और स्थानीय समुदाय ही नहीं; अब हिंदुत्व के संरक्षक और राज्य अधिकारी अक्सर इन विवाहों का विरोध करने वाले परिवारों के साथ मिलकर काम करते हैं ताकि ऐसे जोड़ों को बलपूर्वक रोका जा सके, पुरुषों को अपराधी ठहराया जा सके और महिलाओं को उनके समुदाय के भीतर पुरुषों के साथ विवाह करने पर मजबूर किया जा सके।

इन कानूनों की व्याख्या की गई है और पुलिस अधिकारियों तथा विजिलौन्ट समूहों दोनों को हथियार बनाया गया है। न्यूज़लॉन्ड्री ने 2022 में हरियाणा गैरकानूनी धर्म परिवर्तन रोकथाम अधिनियम के पारित होने के परिणामों की जांच की।

न्यूज़लॉन्ड्री के पत्रकारों ने पुलिस अधिकारियों से बात की जिन्होंने नए कानून के पारित होने के बाद अंतरधार्मिक जोड़ों के परिवारों और विजिलैंन्ट समूहों द्वारा जबरन धर्मांतरण की प्रेरित शिकायतों में बड़े पैमाने पर वृद्धि की ओर इशारा किया।

पत्रकार बेतवा शर्मा और अहमर खान ने इसी तरह उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्म परिवर्तन अध्यादेश 2020 की ज़मीनी कार्यप्रणाली की जांच की है।

दोनों जांचों ने वैचारिक रूप से प्रेरित और स्त्री-द्वेषी हिंदुत्व सतर्कताओं, मुस्लिम पुरुषों से शादी करने की उनकी पसंद का विरोध करने वाली हिंदू लड़कियों के परिवारों और पुलिस और राज्य प्रशासन की साझेदारी की एक भयानक जमीनी तस्वीर उजागर की है।

शर्मा और खान का मानना है कि हालांकि उत्तर प्रदेश स्पष्ट रूप से हिंदू महिलाओं और मुस्लिम पुरुषों के बीच विवाह पर प्रतिबंध नहीं लगाता है, "राज्य में हिंदू विजिलैन्ट समूहों ने पुलिस के सहयोग से 'लव जिहाद' की जांच करने के लिए इसका इस्तेमाल किया है, अक्सर हिंसा और चालाकी का इस्तेमाल करते हैं... राष्ट्रीय सरकार के इस आग्रह के बावजूद कि ऐसा अपराध कानूनी रूप से अस्तित्व में नहीं है, विजिलैन्ट समूह 'लव जिहाद' के कथित मामलों को आगे बढ़ाते हैं।

विजिलैन्ट समूह और पुलिस आम तौर पर घनिष्ठता के साथ काम करते हैं। एक बार जब विजिलैन्ट समूह को अंतरधार्मिक संबंधों के बारे में पता चलता है, तो वे पुलिस को बुलाते हैं और इन जोड़ों की सेल फोन निगरानी, और उन्हें डराने-धमकाने और पूछताछ के लिए उनकी मदद मांगते हैं।

न्यूज़लॉन्ड्री की जांच में एक भयावह मामला सामने आया, जिसमें 22 वर्षीय कामकाजी महिला संस्कृति शुक्ला ने 2023 में जावेद खान नामक व्यक्ति से शादी करने से पहले इस्लाम धर्म अपना लिया था। उसने अपने पिता को समझाने की कोशिश की कि वह अपने पति से प्यार करती है और इसलिए स्वतंत्र रूप से शादी करने का विकल्प चुना था।

लेकिन उसके पिता ने शादी के दो महीने बाद नए धर्मांतरण विरोधी कानून का इस्तेमाल करते हुए जावेद के खिलाफ जबरन धर्म परिवर्तन की शिकायत दर्ज कराई। बजरंग दल और बिट्टू बजरंगी के नेतृत्व वाले गौरक्षा बजरंग बल जैसे हिंदुत्व निगरानीकर्ताओं की धमकियों ने जोड़े को छिपने और भागने पर मजबूर कर दिया था।

एक अन्य दुखद घटना में, एक हिंदू महिला ट्विंकल ने अपने परिवार के विरोध के बावजूद मुस्लिम लड़के शाहरुख से शादी की, लेकिन तीन साल पहले उसका शव उनके घर के पंखे से लटका हुआ पाया गया।

शाहरुख को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में नहीं बल्कि धर्म परिवर्तन के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। ट्विंकल का परिवार "नए कानूनों के तहत" मामला दर्ज कराने का श्रेय हिंदुत्ववादियों, खासकर बिट्टू बजरंगी को देता है। उनके भाई सुमित ने संवाददाताओं से कहा, "अगर बिट्टू हमारे साथ नहीं होते तो हम शायद एफआईआर भी दर्ज नहीं करा पाते।"

विजिलैन्ट समूह महिलाओं को "परामर्श" देने के नाम डराने की बात स्वीकार करते हैं। इसमें महिला के खिलाफ शारीरिक हिंसा, उसके चेहरे पर तेजाब फेंकने और उसकी नाक काटने की धमकी भी शामिल है; और पुलिस को उसके मुस्लिम प्रेमी का "एनकाउंटर" करना, जो उसकी न्यायेतर हत्या की ही एक व्यंजना है।

माता-पिता को सलाह दी जाती है कि वे अपनी बेटी को बेहोशी, दिल का दौरा पड़ने का बहाना और खुद को जहर देने की धमकी देकर भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करें। एक बार जब लड़की हार मान लेती है, तो वे अपने कई स्वयंसेवकों में से एक के साथ उसकी शादी की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी लेते हैं, जिसके लिए वे अपने व्हाट्सएप ग्रुप पर उसकी तस्वीर और बायो-डाटा प्रसारित करते हैं।
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यह सब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन है, जिसने कई निर्णयों में व्यस्कों की सहमति से शादी करने या एक साथ रहने के विकल्प के अधिकार को बरकरार रखा है। लता सिंह बनाम यूपी राज्य मामले में, जहां एक अंतरजातीय जोड़े ने पुलिस और अपने रिश्तेदारों से उत्पीड़न से सुरक्षा मांगी थी, सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की थी कि "एक बार जब कोई व्यक्ति बालिग हो जाता है तो वह जिससे चाहे शादी कर सकता है"।

एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "विषम यौन संबंध रखने वाले दो व्यस्कों के बीच सहमति से लिव-इन रिलेशनशिप किसी अपराध की श्रेणी में नहीं आता है"।

शफीन जहां बनाम अशोकन के.एम. (हादिया विवाह मामला) में सुप्रीम कोर्ट ने एक लड़की के चयन के अधिकार को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकार के रूप में मान्यता देते हुए कहा, "एक साथी की पसंद, चाहे वह शादी के भीतर हो या बाहर, प्रत्येक व्यक्ति के विशेष डोमेन के अंतर्गत आती है।"

हालांकि, व्यवहार में, जैसा कि हमने देखा है, अक्सर पुलिस और कभी-कभी निचली अदालतें भी इन अधिकारों को बनाए रखने में विफल हो जाती हैं या जब जोड़े अलग-अलग धर्मों या जातियों से होते हैं तो सीधे इनकार कर देती हैं।

भारत के प्रमुख लॉ स्कूल, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, बैंगलोर में प्रोफेसर सरसु एस्थर थॉमस का मानना है कि हाल के धर्मांतरण विरोधी कानूनों का परिणाम यह है कि अंतरधार्मिक जोड़े न केवल सामाजिक प्रतिबंधों से डरते हैं, बल्कि हुकूमत से भी डरते हैं।

इससे पहले, जब जोड़ा एक ही लिंग या वैधानिक रूप से कम उम्र का नहीं पाया जाता था, तब उनका विवाह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता था और हिंसा या जबरन अलगाव के खतरे में जोड़े को वैधानिक सुरक्षा प्रदान की जाती थी।

आज, इन नए कानूनों के बाद, कई राज्यों में पारिवारिक अदालतें अंतर-धार्मिक विवाह को गैर-कानूनी ठहरा सकती हैं, भले ही वयस्क जोड़ा एक-दूसरे के साथ रहना चाहे।

थॉमस पूछते हैं यदि "शादियां अब सुरक्षित नहीं हैं" तो "लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले अविवाहितों का क्या होगा?"

अब तक धर्मांतरण विरोधी कानूनों में लिव-इन संबंधों को विनियमित करने की मांग नहीं की गई है। लेकिन व्यस्कों को अपने साथी चुनने के निजी अधिकार के मामले में एक अशुभ घटना भाजपा शासित उत्तराखंड सरकार में घटी जिसे 2024 में पेश की गई समान नागरिक संहिता कहते हैं। 

इस कोड के मुताबिक, लिव-इन जोड़ों को राज्य के अधिकारियों के पास पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा, ऐसा न करने पर उन्हें जेल हो सकती है। हाल ही के एक मामले में, किरण रावत बनाम यूपी राज्य, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले एक अंतरधार्मिक जोड़े को पुलिस सुरक्षा देने से इनकार कर दिया था।

इसने विवादास्पद रूप से कहा, "सर्वोच्च न्यायालय केवल एक सामाजिक वास्तविकता को स्वीकार करता है और उसका भारतीय पारिवारिक जीवन के ताने-बाने को उजागर करने का कोई इरादा नहीं है।"
जो बात लव-जिहाद के विमर्श और पुलिस तथा विजिलैन्ट समूहों दोनों की कार्रवाइयों को और जटिल बनाती है, वह यह है कि सभी अंतर-धार्मिक विवाह हिंदुत्व विचारकों और विजिलैन्ट समूहों के लिए वर्जित नहीं हैं।

यदि आवश्यक हो तो विजिलैन्ट समूहों की हिंसा या हुकूमत द्वारा मुस्लिम पुरुषों को हिंदू महिलाओं से शादी करने से रोका जाना चाहिए। लेकिन अगर कोई हिंदू पुरुष किसी मुस्लिम महिला से शादी करता है, तो यह एक जश्न मनाने का विषय है।

ये बिल्कुल विपरीत मानदंड है जो पितृसत्ता के स्त्रीद्वेषी चश्मे से निकला है, जिसमें एक महिला को समुदाय की संपत्ति के रूप में माना जाता है (न कि किसी व्यक्ति के तौर पर उसे माना जाता है)।

इसलिए, यदि कोई मुस्लिम पुरुष किसी हिंदू महिला से शादी करता है, तो वह हिंदू "संपत्ति" की चोरी कर रहा होता है और इसलिए सजा का हकदार है, यहां तक कि उसके खिलाफ हिंसा या मौत भी दी जा सकती है। दूसरी ओर, जब एक हिंदू पुरुष किसी मुस्लिम से शादी करता है, तो वह हिंदू "संपत्ति" को बढ़ा रहा होता है और यह स्वागत योग्य बात मानी जाती है। कभी-कभी, हिंदुत्व विजिलैन्ट समूह ऐसी शादियों में बिना बुलाए पहुंच जाते हैं जहां वे भद्दे ढंग का नृत्य करते हैं और तेज़ संगीत बजाते हैं।

कानून इतना स्पष्ट भेद नहीं करता है, सिवाय इसके कि - जैसा कि उत्तर प्रदेश में- यह हटा दिया गया है कि कोई पूर्ववर्ती धर्म में परिवर्तन नहीं कर सकता है।

चूंकि यह माना जाता है कि अधिकांश भारतीय मुसलमान अपने वंश में किसी समय हिंदू धर्म से मुस्लिम धर्म में परिवर्तन किया होगा, इसलिए वास्तव में कानून का यह खंड इस्लाम से हिंदू धर्म में परिवर्तन को छूट देता है।

हालांकि, लव-जिहाद कानूनों के लागू होने की समीक्षा से पता चलता है कि व्यवहार में इसका चयनात्मक अनुप्रयोग केवल उन मुस्लिम पुरुषों पर होता है जो अपनी आस्था के बाहर शादी करते हैं (या लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हैं), न कि उन हिंदू पुरुषों पर जो अपनी आस्था के बाहर प्यार करते हैं और शादी करते हैं।
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मोदी के 2024 के भारत में क्या 1935 के नूरेमबर्ग की गूंज सुनाई देती है? नाज़ी जर्मनी में, यहूदियों, रोमा और सिंती लोगों और काले जर्मनों को नागरिकता से बाहर निकालने का आधिकारिक संकल्प स्पष्ट और बड़ा ही कठोर था। यहूदियों और जर्मनों के बीच यौन संबंध और विवाह को गंभीर अपराध बनाने का आधिकारिक दृढ़ संकल्प भी इसी तरह का था।

मोदी के भारत में, आकांक्षाएं और कभी-कभी सार्वजनिक चर्चा भी भिन्न नहीं है। लेकिन कानूनों और राज्य कार्रवाई के माध्यम से देश के मुस्लिम नागरिकों का बहिष्कार और अपराधीकरण अधिक गुप्त है, जैसा कि हमने देखा है, नागरिकता और अंतर-धार्मिक विवाह के भारतीय क़ानून भारतीय मुसलमानों के बहिष्कार में उतने स्पष्ट नहीं हैं जितना कि नूरेमबर्ग कानून यहूदी जर्मन के बारे में थे।

हालांकि, उनके तैयार करने में, और उनके साथ होने वाले आधिकारिक चर्चा और अभ्यास में, मुसलमानों के समान नागरिकता अधिकारों और उनके सहमतिपूर्ण अंतर-धार्मिक संबंधों दोनों के लिए खतरे गंभीर हैं और संविधान की भावना का उल्लंघन हैं।

जैसा कि हमने देखा, नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 सीधे तौर पर भारतीय मुसलमानों से उनकी नागरिकता नहीं छीनता है। इसने पहली बार जो किया वह यह था कि भारत का नागरिक बनने के लिए किसी व्यक्ति की पात्रता में मुख्य रूप से धार्मिक पहचान शामिल की गई; और गैर-दस्तावेजी मुसलमानों को अन्य धर्मों के भारतीयों के लिए उपलब्ध एक धारणा से बाहर करना कि वे भारत के पड़ोस के मुस्लिम-बहुल देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यक हैं।

इसी तरह, पहले के कानून शादी के लिए धर्म परिवर्तन से संबंधित नहीं थे। लेकिन अब धार्मिक बदलाव के लिए निषिद्ध प्रेरणाओं में विवाह के लिए धर्मांतरण को शामिल करके, नए क़ानून विवाह और अंतर-धार्मिक विवाह दोनों के लिए धर्मांतरण को प्रभावी ढंग से रोकते हैं, हतोत्साहित करते हैं और यहां तक कि प्रतिबंधित भी करते हैं।

नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन के दौरान, देश भर की कई मुस्लिम महिलाओं ने मुझसे कहा कि उन्हें यह डर सता रहा है कि उन्हें "बे-वतन" कर दिया जाएगा, जिसका शाब्दिक अर्थ है बिना राष्ट्र के लोग।

मोदी के नेतृत्व के दस वर्षों के दौरान धर्मांतरण विरोधी कानूनों में बदलावों का प्रभाव धार्मिक स्वतंत्रता और वयस्कों की अपने साथी चुनने की स्वतंत्रता – अपनी आस्था के बाहर साहचर्य के लिए, सेक्स के लिए, रोमांस के लिए और शादी के लिए - दोनों में भारी कटौती हुई है। 

राज्य और नागरिक सतर्कता दोनों द्वारा इन आवश्यक स्वतंत्रताओं के उल्लंघन के साथ, भारत के संविधान की प्रतिज्ञाओं का उल्लंघन हुआ है और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर ग्रहण लग गया है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि 1935 के नूरेमबर्ग के काले बादल आज भारतीय आकाश पर अशुभ रूप से छाए हुए हैं।

मैं स्वाति ड्रेक और ओमैर खान के शोध में दिए गए समर्थन के लिए आभारी हूं।
हर्ष मंदर एक न्याय और शांति कार्यकर्ता, लेखक, स्तंभकार, शोधकर्ता और शिक्षक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 
 
साभार: द लीफ़लेट 

मूलतः अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :-

In Modi’s India, are There Echoes of Nuremberg?

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