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चुनावी बॉन्ड मामला : भारतीय लोकतंत्र में पारदर्शिता की जड़ें काफ़ी गहरी हैं

जैसे ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई शुरू की, उससे संविधान सभा में चर्चा और भ्रष्टाचार के मूल कारणों पर गठित संथानम समिति की टिप्पणियों की प्रासंगिकता बढ़ गई है।
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31 अक्टूबर को, सुप्रीम कोर्ट ने वित्त अधिनियम 2017 के ज़रिए शुरू की गई चुनावी बांड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह पर सुनवाई शुरू कर दी है। सुनवाई शुरू होने से एक दिन पहले, और याचिकाएं दायर होने के पांच साल बाद, भारत के अटॉर्नी जनरल ने अदालत को सूचित किया कि नागरिकों को राजनीतिक दलों द्वारा हासिल होने वाले धन के स्रोत और राशि को जानने का अधिकार नहीं है। चुनावी बांड योजना ने राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग को गैर-पारदर्शी और अस्पष्ट बना दिया है। अन्य कानूनों में, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में इस प्रावधान को खत्म करने के लिए संशोधन किया गया था कि 20,000 रुपये से अधिक की राशि हासिल करने वाले राजनीतिक दलों को व्यवसाय और कॉर्पोरेट घरानों सहित किसी भी व्यक्ति या संस्था से हासिल राशि और स्रोत का खुलासा करना अनिवार्य है।

चुनावी बॉन्ड से बीजेपी को सबसे अधिक लाभ

सुप्रीम कोर्ट में सरकार का यह रुख कि राजनीतिक दलों के चंदे/धन के स्रोत और राशि को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए, यह लोकतंत्र को नकारना है, जो राजनीतिक दलों के मौद्रिक संसाधनों पर से पर्दा हटाकर कायम रह सकता है। यह चुनाव खर्च के लिए धन इकट्ठा करने के खुले माध्यम के खिलाफ है। चुनावी बांड योजना के माध्यम से हासिल अधिकांश धनराशि सत्तारूढ़ पार्टी, भाजपा के पास गई है। इस बात को दर्शाया गया है कि इस योजना के माध्यम से उसे आश्चर्यजनक रूप से 5,000 करोड़ रुपये से अधिक हासिल हुए हैं।

अपारदर्शी फंडिंग भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है

कोई भी फंडिंग प्रणाली जो अपारदर्शी है वह भ्रष्ट आचरण का स्रोत है, जिसमें राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली भी शामिल है। यह उन लोगों के लिए खासतौर पर सच है जो हुकूमत/राज्य तंत्र को नियंत्रित करते हैं और शासन चलाने के लिए लोगों का जनादेश हासिल करते हैं। जून 1962 में तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा भ्रष्टाचार निवारण पर बनाई गई केएस संथानम समिति, भ्रष्टाचार के कई कारणों से निपटने वाली पहली समिति थी। इसने स्पष्ट रूप से कहा था कि राजनीतिक दलों के बढ़ते चुनाव खर्च के लिए व्यापक तौर पर भ्रष्टाचार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि, "राजनीति के ऊंचे स्तरों पर भ्रष्टाचार की व्यापकता के बारे में जनता का विश्वास इस बात से मजबूत हुआ है कि राजनीतिक दल किस तरह से धन इकट्ठा करते हैं, खासकर चुनाव के समय।" समिति ने कहा कि, "इस तरह के संदेह न केवल सत्तारूढ़ दल बल्कि सभी दलों से जुड़े होते हैं, क्योंकि अक्सर विपक्ष निजी निहित स्वार्थ, सरकारी दल के सदस्यों का भी समर्थन कर सकते हैं।" इसलिए, इसने सिफारिश की कि "राजनीतिक दलों के आचरण को धन संग्रह और चुनाव प्रचार के संबंध में सख्त सिद्धांतों द्वारा रेगुलेट/विनियमित किया जाना चाहिए"।

राजनीतिक दलों को फंडिंग में पारदर्शिता

संथानम समिति का एक शिक्षाप्रद विश्लेषण यह था कि: "यदि तीन में से एक भी परिवार किसी राजनीतिक दल को हर वर्ष चन्दा देता है, तो भारत में सभी राजनीतिक दलों के लिए कुल वार्षिक योगदान सभी वैध उद्देश्यों के लिए आवश्यक राशि से अधिक होगा।" व्यापक आधार पर छोटे चंदे करने में उन पार्टियों की अनिच्छा और असमर्थता को ध्यान में रखते हुए, समिति ने कहा कि: "... बड़े दान के ज़रिए शॉर्टकट का सहारा लेने की इच्छा, भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत है और इससे भी अधिक भ्रष्टाचार का संदेह पैदा करता है"।

समिति के अनुसार, "राजनीतिक दलों और उनके उद्देश्यों के लिए निगमित निकायों द्वारा सभी किस्म के चंदों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने से पूरा माहौल साफ हो जाएगा"। इसलिए, इसने सिफारिश की कि "सभी राजनीतिक दलों को अपनी प्राप्तियों और व्यय का उचित हिसाब रखना चाहिए और सभी व्यक्तिगत प्राप्तियों का विवरण देते हुए ऐसे खातों का एक लेखापरीक्षित विवरण सालाना प्रकाशित करना चाहिए"। इसमें यह भी कहा गया है कि, "हमें नहीं लगता कि किसी भी राजनीतिक दल को इस प्रावधान पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए, क्योंकि स्वैच्छा से इसे लागू करना आसान नहीं होगा, इसलिए ऐसे खातों को रखने और इसके प्रकाशन को बाध्य करने वाला सरल कानून आवश्यक हो सकता है।"

आरबीआई और ईसीआई ने चुनावी बॉन्ड का विरोध किया था

संथानम समिति की सिफारिशें भारत के लिए दूरगामी महत्व रखती हैं, यह देखते हुए कि चुनावी बांड योजना भारतीय रिजर्व बैंक के साथ-साथ भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) के विरोध के बावजूद चल रही है। जबकि ईसीआई ने इसका विरोध किया क्योंकि इसमें फंडिंग स्रोत गुमनाम रहते हैं और चुनावी प्रक्रिया में बेहिसाब नकदी बढ़ जाएगी, उसे उम्मीद थी कि पारदर्शिता के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में अंतिम बहस के चरण में विचार किया जाएगा।

दूसरी ओर, आरबीआई ने कथित तौर पर इस आधार पर इस योजना पर आपत्ति जताई कि यह मनी लॉन्ड्रिंग को बढ़ावा देगी और भारतीय बैंक नोटों में विश्वास कम होगा जिससे एक "बुरी मिसाल" स्थापित होगी। ऐसा लगा कि यह योजना केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूल सिद्धांत को नष्ट कर देगी। देखा यह गया कि: “बॉन्ड वाहक ही बांड हैं और डिलीवरी के द्वारा हस्तांतरणीय हैं। इसलिए, आख़िरकार और वास्तव में राजनीतिक दल के लिए बांड का योगदान कौन करता है, इसका पता नहीं चलता है। 

इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सरकार का रुख हैरान करने वाला है। लोकतंत्र में नागरिकों को राजनीतिक दलों द्वारा हासिल धन के स्रोत और मात्रा को जानने का अधिकार कैसे नहीं हो सकता है?

द्वितीय प्रशासनिक आयोग की रिपोर्ट

यदि संथानम समिति की रिपोर्ट ने चुनाव खर्च में भ्रष्टाचार के मूल कारण का पता लगाया, तो चुनाव सुधार पर लगातार आयोगों और समितियों ने उस दावे का समर्थन किया। पूर्व मंत्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की चौथी रिपोर्ट ("नैतिकता और शासन" पर) में कहा गया है कि चुनावी खर्चों पर अंकुश लगाकर और राजनीतिक दलों के वित्त पोषण के स्रोतों को अधिक पारदर्शी बनाकर, भ्रष्टाचार के संकट से काफी प्रभावी ढंग से निपटा जा सकता है। यह शासन प्रक्रिया के नैतिक रुख को कायम रखेगा।

भ्रष्टाचार और उसके कारणों पर इन स्पष्ट टिप्पणियों को देखते हुए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि गुप्त चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों की गैर-पारदर्शी फंडिंग हमारे देश में भ्रष्टाचार का एक बड़ा भंडार है।

चुनावों का राज्य वित्त पोषण

हमारे संवैधानिक इतिहास पर नज़र डालने से संविधान सभा के प्रतिष्ठित सदस्य लोकनाथ मिश्र का एक दूरदर्शी विचार सामने आता है। 29 नवंबर 1948 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए, मिश्रा ने कहा था कि चुनावों का राज्य वित्त पोषण- व्यावसायिक घरानों से राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन के विपरीत- चुनाव को पारदर्शी बनाएगा और लोगों के जनादेश का सम्मान करेगा।

मिश्रा ने यह भी देखा कि कॉर्पोरेट फंडिंग से चुनाव और चुनावी प्रक्रिया एक निजी व्यवसाय और वाणिज्यिक मामला बनकर रह जाएगी। उन्होंने यह भी आगाह किया कि संसद/विधायिकाओं में प्रवेश को "मुनाफाखोरी व्यवसाय" के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। दुख की बात है कि उनकी चेतावनी भरी टिप्पणियाँ आज के भारत में एक गंभीर वास्तविकता बन गई हैं।

चुनाव और भ्रष्टाचार पर सी राजगोपालाचारी की चेतावनी

1921-22 तक वेल्लोर जेल में रहे, सी राजगोपालाचारी ने लिखा था कि, "हम सभी को यह समझ लेना चाहिए कि स्वराज, या मुझे लगता है, यहां तक कि आने वाले लंबे समय तक भी लोगों के लिए बेहतर सरकार या बड़ी खुशी नहीं होगी"। उन्होंने दूरदर्शितापूर्वक भविष्यवाणी की थी कि, "चुनाव और उनके भ्रष्टाचार, अन्याय, और धन की शक्ति और अत्याचार, और प्रशासन की अक्षमता, जैसे ही हमें आजादी मिलेगी, जीवन को नरक बना देंगे।"

उन्होंने लिखा कि, "आशा केवल सार्वभौमिक शिक्षा में निहित है जिसके द्वारा नागरिकों में बचपन से ही सही आचरण, ईश्वर का भय और प्रेम विकसित किया जा सकता है"। उन्होंने तब टिप्पणी की कि, “अगर हम इसमें सफल हो गए तो ही स्वराज का मतलब खुशी होगा। अन्यथा, इसका अर्थ होगा घोर अन्याय और धन का की तानाशाही।'' 

राजगोपालाचारी की चेतावनियों के सौ साल बाद, भारत लगातार बढ़ती चुनावी गैर-पारदर्शिता, अस्पष्टता और कदाचार का सामना कर रहा है। चुनावी प्रणाली की लगभग हर समस्या का कारण राजनीतिक दलों के अनियंत्रित और बेरोकटोक चुनाव खर्चों को माना जा सकता है। यह कि राजनीतिक दल चुनावी बांड की एक योजना के माध्यम से धन हासिल कर सकते हैं, जो उन्हें अपने धन के स्रोतों और उन्हें हासिल होने वाली राशि का खुलासा करने से बचाता है, जो कि एक मजाक है।

इसलिए, पूरी उम्मीद है कि चुनावी बांड योजना की कानूनी और संवैधानिक वैधता का फैसला संविधान सभा और कानूनी और संवैधानिक दिग्गजों के नेतृत्व वाली कई समितियों की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा, जिन्होंने चुनाव प्रक्रिया में भ्रष्टाचार से लेकर अन्य खामियों तक का पता लगाया है।

लेखक भारत के राष्ट्रपति केआर नारायणन के ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटि रह चुके हैं। व्यक्त विचार निजी हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Electoral Bonds Case: Transparency has Deep Roots in Indian Democracy

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