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यूनिफॉर्म सिविल कोड या यूनिफॉर्म कम्युनल कैंपेन?

पर्सनल लॉ में महिला विरोधी रीति-रिवाजों और प्रथाओं को ख़त्म करने के लिए मुस्लिम महिलाओं समेत विभिन्न समुदायों की महिलाओं की मांगों के प्रति राजनीतिक समर्थन की ज़रूरत है।
UCC

मोदी सरकार 'एक देश, एक कानून' के नारे पर समान नागरिक संहिता को बढ़ावा दे रही है। हालांकि यूसीसी, आरएसएस और उसके परिवार का एक राजनीतिक नारा रहा है लेकिन इन सभी सालों में, वह कभी भी इस तरह की संहिता का कोई भी मसौदा नहीं ला पाई है। केवल मुस्लिम समुदाय को डराने और बदनाम करने के लिए संहिता के नारे का इस्तेमाल किया है गया है। अब एक बार फिर जब उनकी सरकार के सत्ता में आखिरी कुछ महीने बचे हैं, ठीक चुनावों से पहले वह यूसीसी लाने की कसम खा रही है। लेकिन किसके लिए?

यह रिपोर्ट किया गया है कि नगालैंड सरकार के 12 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की और प्रस्तावित समान नागरिक संहिता को नगालैंड में लागू करने को लेकर चिंता व्यक्त की है। बैठक के बाद जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में, मुख्यमंत्री सहित प्रतिनिधिमंडल ने कहा कि अमित शाह ने स्पष्ट शब्दों में आश्वासन दिया है कि "इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्र 22वें विधि आयोग के दायरे से ईसाइयों और कुछ आदिवासी इलाकों को छूट देने पर सक्रिय रूप से विचार कर रहा है।" चूंकि गृह मंत्रालय ने इस रिपोर्ट का खंडन नहीं किया है, इसलिए माना जा सकता है कि यह सही है। यदि ईसाइयों और आदिवासियों को 'छूट' दे दी जाएगी तो फिर इससे कौन बचेगा? फिर प्रधानमंत्री के उस कथन का क्या होगा जिसमें उन्होने कहा है कि किसी भी देश में कानूनों की 'दोहरी प्रणाली' नहीं हो सकती है? यह स्पष्ट प्रमाण है, यदि ज़रूरी हो तो, मोदी सरकार, यूसीसी का इस्तेमाल समाज का ध्रुवीकरण करने के लिए चुनिंदा हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है और इसका महिलाओं के अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है। यह इस हकीकत को भी प्रमाणित करता है कि सार्वभौमिक अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध सामाजिक सुधार आंदोलनों को खास सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए रणनीति विकसित करनी होगी। आज के भारत में, जहां सबसे धुर दक्षिणपंथी सांप्रदायिक-कॉरपोरेट निज़ाम अपने खुद के एजेंडे और मनुवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता के साथ सत्ता में बैठा है, तब यह सोचने की ज़रूरत है कि सभी समुदायों की महिलाओं के लिए समान अधिकारों को लेकर आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका क्या है?

वामपंथी आंदोलन सभी समुदायों की महिलाओं के प्रति समान अधिकारों के लक्ष्य को हासिल करने के लिए दोतरफा रणनीति की वकालत करता है। वास्तव में, यह अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति ही थी, जिसने 1995 में सबसे पहले सभी समुदायों की महिलाओं के लिए समान अधिकारों की मांग को प्रासंगिक बनाने की ज़रूरत की वकालत की थी। इसका संदर्भ, अल्पसंख्यक और आदिवासी महिलाओं पर उनके धार्मिक विश्वास, यानि एक तरफ आस्था और दूसरी तरफ समान कानूनों के बीच चयन करने के दबाव के अनुभव से स्थापित किया गया था। उस समय, बाबरी मस्जिद के विध्वंस के कारण सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुईं, जिनमें महिलाएं विशेष तौर पर प्रभावित हुईं थीं। यह शाहबानो मामले के घटनाक्रम, ईसाई महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार के मामले में मैरी रॉय मामले का अनुभव और आदिवासी महिलाओं की संपत्ति के अधिकार के मामले के बाद आया था। सभी समुदायों की महिलाओं के साथ उनके हितों को सर्वोपरि रखते हुए विस्तृत चर्चा के बाद आगे का रास्ता तय किया गया था।

ऐसी रणनीति का पहला कदम मौजूदा धर्मनिरपेक्ष कानूनों को मजबूत करना और उनका विस्तार करना है जो सभी समुदायों की महिलाओं पर लागू होते हैं। दूसरा, संबंधित समुदायों के पुरुषों और महिलाओं दोनों के प्रतिनिधियों के परामर्श से सभी समुदायों के व्यक्तिगत और प्रथागत कानूनों के सुधार के साथ आगे बढ़ना सुनिश्चित करना है। यह हिंदू पुरुषों और हिंदू महिलाओं, मुस्लिम पुरुषों और मुस्लिम महिलाओं, आदिवासी पुरुषों और आदिवासी महिलाओं आदि जैसे समुदायों के भीतर और साथ ही हिंदू, मुस्लिम, आदिवासी, पारसी, ईसाई, सिख आदि जैसे समुदायों के बीच महिलाओं के लिए समान अधिकारों में तब्दील हो सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि गहन चर्चा और अभ्यास के बाद, 2016 में मोदी सरकार द्वारा न्यायमूर्ति बीएस चौहान की अध्यक्षता में नियुक्त 21 वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 में पारिवारिक कानूनों के सुधार नामक अपने परामर्श पत्र में व्यक्त धारणा के आधार पर इस समान निष्कर्ष पर पहुंचा था। 

21वें विधि आयोग के निष्कर्ष

समान नागरिक संहिता के सवाल पर विचार करने के लिए सरकार ने विधि आयोग को खास मेंडेट दिया था। इसने समान नागरिक संहिता के मार्ग को 'न तो ज़रूरी माना और न ही वांछनीय' और इसे स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया था। सबसे पहले, इसने विशेष विवाह अधिनियम, घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम और अन्य जैसे धर्मनिरपेक्ष कानूनों को मजबूत करने और इनका विस्तार करने की विस्तृत सिफारिशें की थी। दूसरे, हिंदुओं, मुसलमानों (सुन्नियों और शियाओं दोनों), ईसाइयों, पारसियों, सिखों और विभिन्न आदिवासी समुदायों पर लागू विभिन्न व्यक्तिगत और प्रथागत कानूनों के विस्तृत अध्ययन के बाद, इसने विवाह जैसे पारिवारिक कानूनों पर जैसे कि तलाक, बच्चों की कस्टडी, गोद लेना, विरासत और उत्तराधिकार इत्यादि सबसे महत्वपूर्ण मामलों पर सिफारिशें की थीं, जो विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ के भीतर लक्षित सुधार की वकालत करते हैं।

व्यापक विचार-विमर्श और 75,378 प्रतिक्रियाएं हासिल करने के बाद, इसने एक सबसे उपयोगी खाका तैयार किया जो निश्चित रूप से समान कानूनों के लिए सभी समुदायों की महिलाओं के संघर्ष को आगे बढ़ा सकता है। रिपोर्ट मौजूदा हिंदू पर्सनल लॉ में हिंदू महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले कई भेदभावों का विवरण भी देती है। आयोग की रिपोर्ट ने 2005 के सुधार के बाद भी हिंदू कानून की सहदायिकी की अवधारणा को महिलाओं के प्रति अनुचित मानते हुए इसे समाप्त करने की सिफारिश की थी। यह हिंदू अविभाजित परिवार की अवधारणा से मिलने वाली कर रियायतों को समाप्त करने की भी सिफारिश करता है। क्या ऐसी सिफारिशों के कारण ही विधि आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था, जो भाजपा के इस कथन को खारिज करती थी कि सुधार केवल मुसलमानों के भीतर ज़रूरी हैं?

शायद, मोदी सरकार का वह दावा जो और भी शर्मनाक है वह यह कि यही एकमात्र सरकार है जिसने तीन-तलाक के खिलाफ कानून के माध्यम से 'अपनी मुस्लिम बेटियों' की मदद करने का काम किया है, लेकिन विधि आयोग की रिपोर्ट सीधे तौर पर यह बताती है कि यह सर्वोच्च न्यायालय था जिसने इसे अवैध ठहराया था। इस आधार पर कि यह एक ज़रूरी धार्मिक प्रथा नहीं थी। हालांकि सीधे तौर पर मोदी सरकार के कानून की आलोचना नहीं की गई, लेकिन यह कहा गया है कि मुस्लिम महिला पीड़ितों की सुरक्षा के लिए कार्रवाई की ज़रूरत है, जिसे घरेलू हिंसा की रोकथाम पर नागरिक कानून के प्रावधानों को लागू करके किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि मोदी सरकार द्वारा लाया गया कानून महिला को कोई राहत नहीं देता है - यह सिर्फ मुस्लिम पुरुष को जेल भेजता है।

यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि संकीर्ण राजनीतिक विचारों को अपना एजेंडा निर्धारित करने की अनुमति देते हुए, मोदी सरकार ने इस मूल्यवान रिपोर्ट को नज़रअंदाज़ कर दिया, जो 2018 में सरकार को प्रस्तुत की गई थी, और एक भी कानून या पर्सनल लॉ सुधार पर किसी भी समुदाय के साथ कोई भी गंभीर परामर्श किए बिना अपना पूरा दूसरा कार्यकाल बर्बाद कर दिया। यूसीसी पर उसके प्रयास को 21वें विधि आयोग द्वारा खारिज कर दिए जाने के बाद, उसने बिना किसी कारण के, हाल ही में नियुक्त अध्यक्ष न्यायमूर्ति रितु राज अवस्थी के नेतृत्व में 22वें विधि आयोग को मेंडेट दिया कि आयोग एक बार फिर से इस मुद्दे की जांच करे। इसलिए एक बार फिर से राय मांगी गई है। यह जनता के समय, धन की स्पष्ट बर्बादी है और आयोग को अपने कर्तव्यों और प्राथमिकताओं से भटकाना है। लेकिन मोदी सरकार में यह भी संभव है। स्पष्ट रूप से, एजेंडे का महिलाओं के अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है और यह सीधे तौर पर समाज के ध्रुवीकरण करने के चुनावी एजेंडे से जुड़ा हुआ है।

इस बीच, सभी लंबित पड़े धर्मनिरपेक्ष कानून जो सभी महिलाओं को समानता दिलाने की वकालत करतें, उन्हें या तो नज़रअंदाज़ कर दिया गया है या खारिज कर दिया गया है जैसे कि महिला आरक्षण विधेयक, तथाकथित सम्मान-संबंधी अपराधों के खिलाफ कानून, शादी के दौरान समुदाय में बनाई गई सभी संपत्तियों के लिए कानून और वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण। मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल या दूसरे कार्यकाल में अब तक एक भी महिला समर्थक कानून न तो बनाया है और न ही अपनाया है।

"दोहरी व्यवस्था": जनजातीय समुदाय

हाल ही में भोपाल में एक समारोह में बोलते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक संहिता लाने के अपनी सरकार के दृढ़ संकल्प को दोहराया और इसका विरोध करने वाले सभी लोगों पर "तुष्टिकरण" की राजनीति करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि, ''एक घर में, अगर एक सदस्य के पास एक कानून हो और दूसरे सदस्य के पास दूसरा कानून हो, तो क्या वह घर, परिवार चल सकता है? तो दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा?" उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी समझ में, "हमारी मुस्लिम बेटियों के बार-बार संदर्भ से, लक्षित होने वाली 'दोहरी' प्रणाली मुस्लिम समुदाय के पर्सनल लॉ से संबंधित थी।"

क्या भारत के प्रधानमंत्री इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करने के लिए इतने अनभिज्ञ हैं कि यह भारत का संविधान है जिसने 'दोहरी प्रणाली' का प्रावधान किया है? दुर्भाग्य की बात है कि भारत के प्रधानमंत्री भारत को संवैधानिक चश्मे से नहीं, बल्कि संघ परिवार के राजनीतिक चश्मे से देखते हैं। यही कारण है कि वह मुस्लिम समुदाय के प्रति अपने सांप्रदायिक जुनून के तहत, जानबूझकर यूसीसी को लागू करने से पूरे भारत पर पड़ने वाले प्रभावों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट (पैरा 1.23) में विशेष रूप से कहा है कि "समान नागरिक संहिता की व्यवहार्यता के संबंध में पहली संभावित समस्या संविधान की छठी अनुसूची के संबंध में है।"

अनुच्छेद 244 के तहत छठी अनुसूची, जो त्रिपुरा, असम, मिजोरम और मेघालय के कुछ इलाकों पर लागू होती है, विशेष रूप से इस अनुसूची के तहत गठित जिला और क्षेत्रीय परिषदों को उन मामलों पर राज्यपाल की सहमति से कानून बनाने का अधिकार देती है जिनमें विवाह, तलाक संपत्ति के अधिकार, जैसे पारिवारिक कानून शामिल हैं। इसके अलावा, अनुच्छेद 371 ए, बी, सी, एफ, जी और एच छह पूर्वोत्तर राज्यों के लिए विशेष अधिकार और छूट प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए, नागा समुदायों के लिए 371-ए और मिज़ो समुदायों के लिए 371-जी धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं, प्रथागत कानून के संबंध में नागरिक और आपराधिक न्याय आदि की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करते हैं। पूर्वोत्तर में इन राज्यों में आदिवासी समुदाय पहले से ही कई मामलों में अप्रभावित कैसे होंगे? जैसे कि मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में, प्रथागत कानून के संबंध में उनके संवैधानिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले किसी भी उपाय पर कैसे प्रतिक्रिया देंगे? पांचवीं अनुसूची इलाकों में, पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया एक्ट (PESAA) के अधिनियमन के माध्यम से, स्व-शासन के माध्यम से प्रथागत और सामाजिक प्रथाओं की सुरक्षा के लिए ग्राम सभाओं को कानूनी अधिकार दिए जाते हैं। मध्य और पूर्वी भारत में आदिवासी समुदाय पहले से ही आर्थिक नीतियों के माध्यम से हमले का शिकार हो रहे हैं जो उनके जंगलों और जमीन पर कब्ज़ा कर रहे हैं। इसलिए पूरे भारत में यूसीसी जनजातीय समुदायों के लिए बने संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों के साथ सीधे टकराव में आ जाएगी।

प्रधानमंत्री को जवाब देना चाहिए। क्या वे, उनकी सरकार और उनकी पार्टी आदिवासी समुदायों के लिए संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों की "दोहरी व्यवस्था" के खिलाफ हैं? क्या वे समान नागरिक संहिता लागू करके इन सुरक्षाओं को ख़त्म करने जा रहे हैं? या फिर समान नागरिक संहिता आदिवासी समुदायों पर नहीं बल्कि सिर्फ मुसलमानों पर लागू होगी? उन्हें इस पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने की ज़रूरत है।  

भाजपा का दोहरा पाखंड: नगालैंड एक उदाहरण

जहां एक तरफ प्रधानमंत्री और भाजपा नेता देश में एकरूपता-एक कानून की ज़रूरत के बारे में वाक्पटुता से बात कर रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ, भाजपा नगालैंड में महिलाओं के अधिकारों पर सबसे पाखंडी भूमिका निभा रही थी। 2012 के बाद से, नगालैंड में किसी भी स्थानीय निकाय के चुनाव नहीं हुए हैं क्योंकि कई नागा समूहों ने महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का विरोध किया है - जिसे वे नागा प्रथागत कानून के खिलाफ मानते हैं। नागा महिलाओं ने अपने संगठन, नागा महिला समिति के नेतृत्व में जिसे देश भर के महिला संगठनों का समर्थन हासिल है, ने एक तिहाई आरक्षण के प्रावधान की जोरदार मांग की है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि इसका विरोध पुरुष-प्रधान व्याख्या में निहित है और नागा प्रथागत कानून में इस तरह के आरक्षण के खिलाफ कुछ भी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पर इस बाबत सुनवाई हो रही है। पिछली कुछ तारीखों में, नाराज़ अदालत ने इस मामले पर जानबूझकर अपना हलफनामा दाखिल नहीं करने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की है। यहां महिलाओं के अधिकारों का स्पष्ट मामला है। "मुस्लिम बेटियों" के लिए इतने चिंतित प्रधानमंत्री "नागा बेटियों" को आरक्षण के संवैधानिक अधिकार से वंचित किए जाने पर पूरी तरह से चुप हैं। इस पर केंद्र सरकार चुप क्यों है?

इस साल अप्रैल में, चुनावों के तुरंत बाद, यह नवनिर्वाचित सरकार थी (इसमें भाजपा भी भागीदार थी और इसके नेता उपमुख्यमंत्री पद पर क़ाबिज़ हैं) जिसने महिलाओं को स्थानीय निकायों में एक तिहाई आरक्षण के अधिकार से वंचित करने का प्रस्ताव पारित किया था। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष तेमजेम इम्ना ने अपनी सरकार का बचाव करते हुए कहा कि आदिवासी निकायों के साथ चर्चा के लिए अधिक समय की ज़रूरत है। जब यह भाजपा को सूट करता है, तो "दोहरी व्यवस्था" ठीक है, जब वह किसी विशेष समुदाय को निशाना बनाना चाहती है, तो वह समान कानून की बात करती है।

नगालैंड का यह उदाहरण क्या साबित करता है? सबसे पहले, यह भाजपा के सिद्धांत के उस पाखंड को बेनक़ाब करता है जिसे वह आम महिलाओं के अधिकारों के नाम पर प्रचारित समान नागरिक संहिता कहती है। नागालैंड में, नागा 'बेटियों' की मांग के बावजूद, महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने से इनकार करके, महिलाओं पर पुरुषों के अधिकारों की एकरूपता, को स्वीकार कर लिया है यानि महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व को स्वीकार किया गया है। दूसरे, नगालैंड में भाजपा उन कट्टरपंथियों के साथ खड़ी है, जिन्होंने प्रथागत कानून की पितृसत्तात्मक व्याख्या की थी। तीसरा, यह दर्शाता है कि बदलाव के लिए समुदाय के साथ संवाद करना ज़रूरी है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण वर्ग महिलाएं हैं।

पारिवारिक कानून समेत आदिवासी समुदायों को विशेष सुरक्षा देने वाले संवैधानिक प्रावधानों का समर्थन करते हुए, सीपीआई(एम) सुधार के माध्यम से महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिए काम करने वाले समुदायों के भीतर उन सभी लोगों का समर्थन और प्रचार करती रही है। तर्क यह नहीं है कि प्रथागत कानून को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, बल्कि यह है कि इसमें सुधार किया जाना चाहिए।

पर्सनल लॉ में सुधार

व्यक्तिगत और प्रथागत कानूनों में सुधार की तत्काल ज़रूरत है। यह भाजपा और उसकी सरकारें हैं जो समुदायों के भीतर राजनीतिक प्रभाव वाले उन लोगों का समर्थन करती हैं जो किसी भी सुधार का विरोध करते हैं जैसा कि नगालैंड मामले में दिखाया गया है। जहां तक चर्च में सुधारों का सवाल है, भाजपा रूढ़िवादी विचार रखने वालों के पक्ष में खड़ी रही है। यह केवल तभी होता है जब मामला मुस्लिम समुदाय से संबंधित होता है, कि भाजपा और उसकी सरकार आक्रामक रूप से समुदाय को निशाना बनाती है। इससे समुदाय के भीतर रूढ़िवादी ताकतों को धर्म के खतरे में होने और किसी भी बदलाव के खिलाफ लामबंद होने का झंडा उठाने का मौका मिल जाता है। साथ ही, यह सच है कि भाजपा का बहुसंख्यकवादी राजनीतिक ढांचा समुदायों के भीतर सुधारकों को रक्षात्मक स्थिति में धकेलता है। मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथियों ने सुधार के लिए मुस्लिम महिलाओं की मांगों से जुड़ने से इनकार कर दिया है। इसके अलावा, राजनीतिक ताकतें जो खुद को मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में पेश करती हैं, उन्होंने भी कभी सुधार की ज़रूरत के बारे में बात नहीं की है और इसके विपरीत, असमान यथास्थिति को मजबूत करने के लिए भाजपा के बहुसंख्यकवाद का इस्तेमाल किया है। इस तरह की प्रतिगामी स्थिति केवल भाजपा को उसके लक्षित अभियान में मदद करती है। उन विभिन्न रुझानों का मुकाबला करना और भी ज़रूरी है जो सभी समुदायों की महिलाओं के लिए समान अधिकारों के वास्तविक और ज़रूरी मुद्दे से ध्यान भटकाना चाहते हैं। ऐतिहासिक रूप से यह सबसे अधिक विवादित क्षेत्र है क्योंकि अंतिम विश्लेषण में, यह महिलाओं के नियंत्रण और परिवार के भीतर महिलाओं की अधीनता पर निर्भर करता है। कट्टरपंथी ताकतों के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है लेकिन सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए समुदायों के साथ एक व्यवस्था स्थापित करनी होगी। पर्सनल लॉ में महिला विरोधी रीति-रिवाजों और प्रथाओं को समाप्त करने के लिए मुस्लिम महिलाओं सहित विभिन्न समुदायों में महिलाओं की मांग के लिए राजनीतिक समर्थन की ज़रूरत है, जिन पर्सनल लॉ की व्याख्याएं पुरुष ने की हैं।

गोवा नागरिक संहिता का उदाहरण

गोवा-भाजपा, नागरिक संहिता का मुद्दा खूब उठाती है। हाल ही में, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड में एक सार्वजनिक सभा में राज्य में यूसीसी का मसौदा तैयार करने की पहल करने के लिए मुख्यमंत्री को बधाई दी। वे कहते हैं कि "अगर गोवा में यूसीसी है, तो शेष भारत में क्यों नहीं?" ऐसा दावा करने से पहले उन्हें तथ्यों का अध्ययन करना चाहिए था। 

वास्तव में, गोवा नागरिक संहिता इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण है कि ऐसी संहिताएं काम क्यों नहीं करती है। हालांकि गोवा संहिता के कुछ क्षेत्रों में, सामान्य कानून लागू होते हैं, कई अन्य क्षेत्रों में, यह विभिन्न समुदायों के पारिवारिक कानूनों का एक पैकेज है जो असमान हैं। उदाहरण के लिए, कैथोलिकों के पास विवाह के प्रमाण के संबंध में अलग नियम हैं और चर्च में विवाह करने वालों को नागरिक कानून के तहत तलाक के प्रावधानों से बाहर रखा गया है। जबकि मुसलमान बहुविवाह नहीं कर सकते हैं, कुछ परिस्थितियों में, हिंदू पुरुषों को द्विविवाह की अनुमति है। यह गोवा कोड के एक अलग खंड के अंतर्गत है जिसे "द जेंटाइल हिंदू कस्टम्स एंड यूसेज कोड" कहा जाता है। इसके प्रावधान अत्यधिक प्रतिगामी हैं। यदि एक हिंदू पत्नी 25 साल की उम्र से पहले बच्चे को जन्म देने में विफल रहती है या यदि वह 30 साल की उम्र से पहले बेटे को जन्म देने में विफल रहती है, तो हिंदू पुरुष दूसरी पत्नी से शादी कर सकता है। यदि कोई हिंदू महिला व्यभिचार करती है, तो यह तलाक का आधार बन जाता है, लेकिन यदि कोई हिंदू पुरुष ऐसा करता है, तो वह तलाक का आधार नहीं है। क्या इसीलिए भाजपा गोवा कोड का हवाला देती रहती है? वे सरकार चला रहे हैं फिर ये महिला विरोधी प्रावधान अब भी कानून क्यों बने हुए हैं?

महिलाओं के समान अधिकार: एक मुख्य प्रश्न

ये सभी समुदायों और उनके संगठनों की महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने समुदायों के साथ-साथ सभी महिलाओं के लिए सामाजिक और कानूनी सुधार के लिए महान बलिदान दिया है। हम महिलाओं के लिए समान कानूनी अधिकारों जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने के भाजपा के कदम और समान नागरिक संहिता के नाम पर समाज का ध्रुवीकरण करने के उसके प्रयासों का कड़ा विरोध करते हैं। सभी समुदायों में महिलाओं का समान अधिकार केंद्रीय प्रश्न है। एकरूपता की तुलना समानता से नहीं की जा सकती है। 21वें विधि आयोग की रिपोर्ट संघर्ष को आगे बढ़ाने का आधार बन सकती है और बननी भी चाहिए। भाजपा सरकार को भारत की जनता को बताना चाहिए कि वह इस रिपोर्ट पर चर्चा करने से क्यों इनकार कर रही है। 

बृंदा करात सीपीआई (एम) की पोलिट ब्यूरो सदस्य हैं और पूर्व राज्यसभा सांसद हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

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