ब्लिंकन के 'इंडो-अब्राहमिक समझौते' का हुआ खुलासा

अमेरिकी विदेश मंत्री या गृह सचिव एंथनी ब्लिंकन, लगता है काफी जल्दी में हैं। राष्ट्रपति को उम्मीद है कि वे विदेश नीति की सफलता की कहानियां तैयार करेंगे।
अमरीका को सफलता की कहानियों की सख्त जरूरत है क्योंकि अफ़गानिस्तान एपिसोड के बाद दुनिया की महाशक्ति सार्वभौमिक रूप से हंसी का पात्र बन गई है। ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन गंभीर रूप से विचलित है और रूस प्राकृतिक गैस बेचने के लिए यूरोप के बीचों-बीच घूम रहा है। उधर, ईरानियों ने जेसीपीओए में अमेरिका की वापसी पर वार्ता को फिर से शुरू करने के लिए अभी तक कोई तारीख नहीं दी है।
चीन पर, जितना कम कहा जाए उतना अच्छा है। चेयरमैन, ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ जनरल माईले को "स्पुतनिक के पलों" का एहसास हो रहा है। रूसी और चीनी युद्धपोत जापान के पूर्वी तट के वर्जित समुद्र में "नेविगेशन की स्वतंत्रता" का अभ्यास कर रहे हैं, जो शीर्ष-गुप्त सैन्य ठिकानों से अटे पड़े हैं।
यह सूची लम्बी होती चली जाती है। सबसे निर्दयी बात तो यह है कि पश्चिम एशिया में पारंपरिक शासन भी अपना जोर आजमा रहे हैं। वे अपने संबंधों में विविधता लाने और व्यापक गठबंधनों के माध्यम से अपनी शक्ति दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। और जितना अधिक वे पूर्व की ओर देखते हैं, उतना ही वे चीन के साथ जुड़ते जाते हैं।
ब्लिंकन को चिंता करनी चाहिए। आखिर, चीनी आखिर चीनी हैं। खाड़ी देशों को हथियारबंद ड्रोन बेचने से अमेरिका के इनकार के बाद, चीन ने सऊदी अरब किंग अब्दुलअज़ीज़ सिटी फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी में यानि खाड़ी में पहली ड्रोन फ़ैक्टरी स्थापित करने का सौदा किया है।
एफटी रिपोर्ट ने पिछले साल, चीन की सैन्य शक्ति पर जारी पेंटागन के एक पेपर का हवाला दिया है, जिसमें यूएई को उन देशों में सूचीबद्ध किया गया था जिन्हें बीजिंग द्वारा "सैन्य रसद सुविधाओं" प्रदान कराने के "संभावित" स्थानों के रूप में माना जाता है। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, दोनों ने हाल के वर्षों में चीन के साथ अपने संबंधों को गहरा करने के लिए औपचारिक कदम उठाए हैं।
पेंटागन भी पगला रहा है। यूएस सेंट्रल कमांड के कमांडर जनरल केनेथ एफ मैकेंजी ने इस साल की शुरुआत में एक वेबिनार में कहा था, "हमें यह पहचानने की जरूरत है कि रूस और चीन के खिलाफ प्रतिस्पर्धा केवल पश्चिमी प्रशांत या बाल्टिक में ही नहीं हो सकती है, बल्कि यह मध्य पूर्व जैसी जगहों में होनी है जहां वे विस्तार कर रहे हैं और भीतर घुस रहे हैं।"
ब्लिंकन को कांग्रेस में सीनेटरों के लिए मेमो तैयार करने में सहयोगी के रूप में प्रशिक्षित किया गया है। लेकिन साज़िशों, कपटपूर्णता और निंदक यथार्थवाद में डूबी राजनीतिक संस्कृति के चलते पश्चिम एशिया में ऐसा सब कुछ करना प्रासंगिक नहीं है। ब्लिंकन की जगह, जारेड कुशनर शक्तिशाली सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के साथ संवाद करने का एक बेहतर तरीका खोज सकते थे।
ब्लिंकन को कुशनेर का एक गुप्त प्रशंसक होना चाहिए क्योंकि उन्होने ट्रम्प के व्हाइट हाउस से अब्राहम एकॉर्ड के मुकुट को लज्जापूर्ण ढंग से चुरा लिया है। ब्लिंकन ने केवल उन धागों को उठाया जहां कुशनर ने उन्हें छोड़ा था और अब्राहम समझौते पर कुछ बेहतर करने का प्रयास किया।
संभवतः, इजरायलियों ने ब्लिंकन को सलाह दी है क्योंकि इजरायलियों में ईरान से प्रतिबंधों को हटाने और ईरान की बढ़ती साख से उलटते क्षेत्रीय संतुलन की वजह से बेचैनी बढ़ रहे है।
दरअसल, अब्राहम समझौते के बारे में अजीब बात यह है कि इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है। इस पर ख़ामोशी का मतलब होगा संघर्ष और बदनामी का जोखिम। कुशनर की मूल योजना यह थी कि सऊदी अरब को साथ लाया जाए, जो एक गेम चेंजर हो सकता था। जबकि, इसके बजाय, एक सऊदी-ईरानी सामान्यीकरण चल रहा है।
इसके लिए ईरान के कौशल को श्रेय दिया जाना चाहिए कि अब्राहम समझौता अंततः संयुक्त अरब अमीरात को परेशान करेगा। ईरानी विश्लेषकों ने इसमें लाभ देखा, क्योंकि अमीरात और इजरायल के बीच वर्षों से चल रहे तीखे मामले आखिरकार पूरी दुनिया की नज़रों के सामने हैं, और जब तक इसकी वैधता क्षेत्रीय रूप से स्थापित नहीं हो जाती, तब तक इसकी सरासर असंगति शेखों की चिंता का कारण बनी रहेगी।
अब, भारत को इसमें लाकर अब्राहम समझौते को वैध बनाने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? 18 अक्टूबर को अमेरिका, इजरायल, यूएई और भारत के विदेश मंत्रियों की वर्चुअल बैठक का विचार मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा गया था। इस परियोजना को अमेरिकी पैरवीकारों ने "भारत-अब्राहम समझौते" के रूप में स्वागत किया था।
जाहिर है, भारत के विदेश मंत्री एस॰ जयशंकर को किसी प्रयास की जरूरत नहीं थी। उन्होंने अमेरिका के साथ भारत के अर्ध-गठबंधन को मजबूत करने और खाड़ी में चीन के व्यापक प्रभाव का मुकाबला करने के लिए यूएस-इजरायल गेम प्लान के साथ तालमेल बनाने का एक और सुनहरा अवसर देखा है।
हालाँकि, भारत-अब्राहम समझौता एक गुट की मानसिकता का खुलासा करता है, जोकि पुरातन शीत युद्ध मानसिकता को भी उजागर करता है। ब्लिंकन वैसे ही होते थे। लेकिन क्षेत्रीय देशों ने अब शीत युद्ध को पीछे छोड़ दिया है।
अप्रत्याशित रूप से, पिछले सोमवार को सूडान में हुए नाटकीय घटनाक्रमों से सप्ताह पुराने भारत-अब्राहम समझौते को पहले ही उलट दिया गया था। सूडान अब मूल अब्राहमिक समझौते पर सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकता है।
यहाँ विरोधाभास काफी मात्रा में मौजदु हैं। खार्तूम का सैन्य नेतृत्व सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र के करीब है। तख्तापलट के नेता जनरल अब्देल-फतह बुरहान को मिस्र के सैन्य कॉलेज में प्रशिक्षित किया गया था और उन्होने 2019 के बाद से अमीरात के वास्तविक शासक, अबू धाबी के क्राउन प्रिंस शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान के यहां कई दौरे किए हैं।
इन जनरलों की चीन और रूस के साथ भी अच्छी निभती है। (रुसियों ने लाल सागर में पनडुब्बी बेस भी बनया है) इजरायल उम्मीद के खिलाफ उम्मीद कर रहा है कि जनरल सत्ता नहीं छोड़ेंगे। दरअसल, जैसा कि मध्य पूर्व ने अनुमान लगाया था, ''इजरायल एक कैच-22 की परिस्थिति में फंस गया है। एक सैन्य सरकार जो इसराइल के साथ संबंध बनाना चाहती है, वह जनता का उद्धार नहीं कर सकती है। दूसरी ओर, यदि सूडान में एक नागरिक, लोकतांत्रिक और स्वतंत्र सरकार आती है, तो इजरायल के साथ शांति होने की संभावना बहुत कम है।”
फिर भी, अमेरिका सूडान में भी लोकतंत्र कायम नहीं कर सकता है। असल बात यह है कि अरब स्प्रिंग सूडान में उसी तरह के परिणाम दे सकता है जैसे परिणाम मिस्र में दिए थे – यानि राजनीतिक इस्लाम की स्थापना। सूडानी घटनाक्रम क्वाड-प्रकार की कूटनीति की सीमाओं को दिखाते हैं जिसका आज अमेरिका पश्चिम एशिया में अभ्यास कर रहा है – यानि या तो 'आप हमारे साथ हैं, या फिर हमारे खिलाफ हैं।'
सीधे शब्दों में कहें तो अब्राहम समझौते का कोई भविष्य नहीं है। महान अब्राहमिक धर्मों के सामान्य धर्म प्रधान को उनके नाम पर फॉस्टियन सौदे का नाम देकर बदनाम क्यों किया गया? कुशनर शायद भाग्यशाली थे कि वे सही समय पर दृश्य से गायब हो गए।
ब्लिंकन पश्चिम एशिया में तार जोड़ने की कोशिश में समय बर्बाद कर रहे हैं। यह एक निराशाजनक रूप से अविश्वसनीय रणनीति है कि किसी तरह अमेरिका को पश्चिम एशिया में फंसाए रखा जाए, तब-जब उसकी कूटनीति स्पष्ट रूप से आकर्षण या पकड़ खो रही हो। अगर गाड़ी चलाते समय क्लच दबाया जाए तो क्या होगा?
सूडान ने इस बात को उजागर किया है कि यह एक गंभीर मुद्दा है। खार्तूम में जो सामने आ रहा है वह एक असफल क्लच दबाने का एक उत्कृष्ट लक्षण है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। सेना ने कभी भी लोकतांत्रिक शासन में परिवर्तन करने के लिए 2019 सौदे को गंभीरता से नहीं लिया है। ट्रम्प को यह पता था, लेकिन उसने ध्यान न देने का नाटक किया, क्योंकि उनका जुनून तो सूडान को अब्राहमिक समझौते में धकेलने का था। क्या यूएई और इज़राइल को भी यह नहीं पता था? बेशक, वे यह सब जानते थे।
लेकिन ब्लिंकन स्पष्ट रूप से इस बात से अनजान थे कि अब्राहमिक समझौता एक कमजोर नींव पर खड़ा था और इस पर एक भारतीय सुपरस्ट्रक्चर थोपना सरासर पागलपन होगा। सूडान संकेत दे रहा है कि असफल क्लच के साथ गाड़ी चलाना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि जब क्लच खराब हो जाता है, तो यह टूट सकता है, आपको बिना वाहन के छोड़ सकता है।
एम.के. भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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