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किताब: परिवार और देश की दिलचस्प दास्तान है ‘परिवारनामा’

"यह पुस्तक उस हाशमी परिवार की कहानी है जिसने धार्मिक बंटवारे के समय काफ़ी संघर्ष किया है। पर यह कहानी सिर्फ़ परिवार की नहीं बल्कि उस समय के देश की कहानी है।"
parivarnama

एक परिवार की कहानी किस तरह से देश और विभाजन का दस्तावेज बनती है यह किस्सागोई अंदाज में लेखिका शेहला हाशमी ने अपनी पुस्तक ‘परिवारनामा: बंटवारे से पहले और बाद की एक दास्तान’ में व्यक्त की है। अंगरेजी की एक कहावत के अनुसार किसी पुस्तक को उसके कवर से जज नहीं करना चाहिए। कुछ इसी तरह की बात पुस्तक परिवारनामा के बारे में कही जा सकती है। पुस्तक की लेखिका शेहला हाशमी ग्रेवाल ने भले ही अपना परिवारनामा लिखा हो लेकिन जिस तरह से ये पुस्तक लिखी गई है वह परिवारनामा से ज्यादा ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है।

‘परिवारनामा’ पुस्तक का लोकार्पण प्रेस क्लब, नई दिल्ली में 16 नवंबर 2022 को किया गया। यह किताब गुलमोहर किताब प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है। 220 पेज की इस किताब का पेपर बैक मूल्य 350 रुपये है।

जाने-माने हेरीटेज एक्टिविस्ट, इतिहासकार, फिल्म निर्माता सोहेल हाशमी ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए इस किताब के बारे में प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यह एक परिवार की कहानी है और देश के बंटवारे की भी।

इतिहासकार और प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी ( इन्होंने पुस्तक की भूमिका लिखी है) ने कहा कि यह पुस्तक उस परिवार की कहानी है जिसने धार्मिक बंटवारे के समय काफी संघर्ष किया है। पर यह कहानी सिर्फ परिवार की नहीं बल्कि उस समय के देश की कहानी है। यह मुस्लिम परिवार की कहानी है जिसने दुःख-दर्द, तनाव, संघर्ष सब सहे। यह हाशमी परिवार की कहानी है और यह ख्वाजा नबाव अली से शुरू होती है। मुखर्जी एक वाकया का जिक्र करते हुए कहते हैं कि मौलाना के पोते (जो भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समय बच्चे या किशोर थे) ने गांधी जी से पूछा कि हमें क्या करना चाहिए यहां (भारत में) रहना चाहिए या पाकिस्तान चले जाना चाहिए। यह सुनकर गांधी जी की आंखें नाम हो गईं। उन्होंने मौलाना से कहा कि मैं इस बच्चे को क्या जवाब दूं। अगर मैं इसे पाकिस्तान जाने को कहता हूं तो मेरा जीवन व्यर्थ है। और यहां रहने को कहूं तो मैं इसकी सुरक्षा की गारंटी देने में असमर्थ हूं।

यह कहानी अलीगढ़ और पुरानी दिल्ली के शहरी क्षेत्र को कवर करती है। कहानी सरल तरीके से कही गई है।

हाशमी परिवार का एक समय ऐसा भी होता है जब 13 लोग एक कमरे में रहने को विवश होते हैं। बच्चे भूखे भी होते हैं। उन पर ढंग के कपड़े भी नहीं होते पर वे किसी की सहानुभूति के आकांक्षी नहीं होते। इसमें कमर जहां आजाद का चरित्र काबिले तारीफ है।

उनके बेटे सफ़दर हाशमी की उनके नुक्कड़ नाटक “हल्लाबोल” के मंचन के समय 2 जनवरी 1989 को हत्या कर दी गई थी। बाकी बच्चे शेहला, सुहैल और शबनम हाशमी सामाजिक कार्यों में लगे हैं पर परिवारनामा उनकी कहानी नहीं है।

आदित्य मुखर्जी कहते हैं - परिवारनामा 19वीं शताब्दी के अंत से लेकर आज तक दिल्ली के एक परिवार की दिलचस्प दास्तान है। इस परिवार की कहानी के माध्यम से, हमें ब्रिटिश शासन के अत्याचारों और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा इसके खिलाफ प्रतिरोध एवं इस राष्ट्रीय आंदोलन के अंदर बह रही वामपंथी धारा के माध्यम से एक यात्रा पर ले जाया जाता है। एक ऐसी यात्रा जो दर्दनाक घटनाओं के कारण धार्मिक सांप्रदायिकता के भयानक फैलाव और देश के विभाजन की ओर ले जाती है। जीवन और आजीविका का विनाश, पुराने के बाद एक नए जीवन के निर्माण की चुनौतियाँ और कठिनाइयाँ, स्वतंत्रता के बाद भारत में एक धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण की कोशिश, स्वतंत्र भारत में सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए संघर्ष परिवार के एक बहुत ही प्रतिष्ठित युवा सदस्य की शहादत और भी बहुत कुछ।

मुकुल केसवन इतिहासकार और लेखक हैं। इस मौके पर उन्होंने कहा कि इस परिवार की कहानी के साथ मेरे भी कुछ नाते हैं। आज से 25 साल पहले मैंने भी एक नोवेल (उपन्यास) लिखने की कोशिश की थी जो मूलतः मेरी नानी की कहानी थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय उन्हें जेल हुई थी। पर इस परिवारनामा का दायरा बड़ा है। इनका संघर्ष बड़ा है। अपने उसूल और प्रोग्रेसिव कॉज के लिए तीन पीढ़ियों ने संघर्ष किया। इस परिवार की कुर्बानियों को पढ़ते हुए आंखें नम हो जाती हैं।

उन्होंने कहा कि इस समय जो नफरत फैलाई जा रही है। साम्प्रदायिकता बढ़ रही है। ऐसे समय में इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए।

इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने कहा –“ऐसी किताबों का हिन्दी में आना सुखद है। किताब की लेखिका को बधाई कि उन्होंने यह किताब हिंदी में लिखी। उन्होंने कहा कि यह किताब किस्सागोई अंदाज़ में लिखी गई है। लेखिका ने समय के दस्तावेज को दर्ज किया है।“

कवि-पत्रकार मुकुल सरल जो गुलमोहर प्रकाशन से भी जुड़े हैं उन्होंने कहा कि इस पुस्तक की प्रस्तावना में बहुत कुछ कह दिया गया है। यह किताब इतनी व्यापक है कि इसका नाम परिवारनामा की जगह इतिहासनामा या हिन्दनामा होता तो ज्यादा अच्छा होता। यह ऐतिहासिक दस्तावेज है।

आठ अध्यायों में बंटी यह किताब विभाजन की त्रासदी को बताती है। यह हाशमी परिवार के संघर्ष की कहानी है। शाहजहानाबाद से शुरू होती है परिवारनामा। इसकी बेहतरीन प्रस्तुति के कारण नायाब बन पड़ी है यह किताब।

उन्होंने कहा कि इस पुस्तक की लेखिका के पुरखे हम सब के पुरखे हैं, जो अंधेरे के खिलाफ लड़ते हुए "रौशनी बांटते-बांटते मर गए"।

परिवारनामा की लेखिका शेहला हाशमी ने अपने विचार साझा करते हुए कहा –“मार्च 2020 में कोविड ने बड़े जोर से हमला किया था। मुझे भी अपना स्टूडियो बंद करना पड़ा। मेरे पास समय था। मैंने पहले भी अपने परिवार की कुछ अधूरी-सी कहानिया लिखी थीं – सोचा क्यों न इन कहानियों पर काम किया जाए। पर इसके लिए मैटर इकठ्ठा करना मुश्किल काम था। मैंने अपने परिवार के लोगों से बात की इससे मुझे जानकारियां मिली। भारत-पाक विभाजन के बाद हमारे परिवार के दो टुकड़े हो गए। एक हिस्सा पाकिस्तान चला गया था। मैंने वहां से भी जानकारी इकट्ठी की।

मुझे पता था कि यह सिर्फ मेरे परिवार की नहीं पूरे हिन्दुस्तान की कहानी बनेगी। इसकी भाषा हिन्दुस्तानी है जो हम आम भाषा बोलते हैं। मैंने उसी में लिखा है। इसमें हिन्दी, उर्दू, इंग्लिश सभी शब्दों का इस्तेमाल किया गया है।

उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता का संघर्ष अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। समस्याओं का समाधान अभी भी नहीं हुआ है। हमारी युवा पीढ़ी इस किताब के माध्यम से मुल्क को नए तरीके से देखेगी।

सोहेल हाशमी ने कार्यक्रम का सफलता पूर्वक संचालन किया।

शिरकत करने वालों में मनमोहन, शोभा सिंह, शुभा, गौहर रज़ा, शबनम हाशमी, विष्णु नागर, मृदुला मुख़र्जी, अपूर्वानंद, इंदू अग्निहोत्री, सीमा जोशी आदि प्रमुख नाम थे।

(इस आलेख के लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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