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"फ़ियर ऑफ़ एनेमीज़": राजनीति का दंगाई समाजशास्त्र

वैसे तो "फ़ियर ऑफ एनेमीज़" एक ग्लोबन फेनोमेना है, जिसका इस्तेमाल वैश्विक स्तर पर भी देखा जाता है। लेकिन इसे हम भारतीय सन्दर्भ में देखने और जांचने की कोशिश करेंगे।
fear of enemies
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

“कल्पित दुश्मन का भय” अक्सर सत्ता की बाजीगरी का अहम् फैक्टर होता है। मौजूदा भारतीय राजनीति में इस फैक्टर को आसानी से देखा-समझा जा सकता है कि कैसे एक कौम को दुश्मन बना और बता सत्ता की चाभी हासिल की जा रही हैं।

वैसे तो "फ़ियर ऑफ एनेमीज़" एक ग्लोबन फेनोमेना है, जिसका इस्तेमाल वैश्विक स्तर पर भी देखा जाता है। लेकिन इसे हम भारतीय सन्दर्भ में देखने और जांचने की कोशिश करेंगे और यह देखेंगे कि पिछले कुछ सालों में यह थ्योरी किस तरह खुल कर आजमाई गयी। लेकिन "फ़ियर ऑफ एनेमीज़" के अत्याधिक इस्तेमाल के साथ एक चेतावनी भी जुड़ी है। मसलन, अगर आप इसका कभी-कभार की जगह बार-बार और हर जगह इस्तेमाल करेंगे तो संभव है कि यह अपना असर खो दे। और ठीक ऐसा ही होता दिखा मेवात क्षेत्र में जहां भड़की सांप्रदायिक हिंसा के बाद बहुसंख्यक समुदाय के आम लोगों की तरफ से न सिर्फ उस हिंसा की कड़ी निंदा हुई बल्कि उस हिंसा को फ़ैलाने से भी रोकने की ईमानदार कोशिश होती दिखी।

एक तरफ जहां जाट महासभा के सचिव युद्धवीर सिंह ने कहा,“जाट समाज सेक्युलर है। हम किसी की गलत बात को सपोर्ट नहीं करेंगे। मेवात में अगर सरकार ने वक्त रहते कदम उठाया होता, तो हिंसा टाली जा सकती थी।“ वहीं, सर्वखाप पंचायत के कोऑर्डिनेटर डॉ. ओम प्रकाश धनखड़ ने मेवातियों को अपना भाई बताते हुए अपने लोगों से उनके खिलाफ हिंसा में शामिल नहीं होने की अपील कर डाली। उन्होंने यह भी कहा कि यह हिंसा प्रायोजित है।

सवाल है कि बहुसंख्यकों की तरफ से ऐसे बयान क्यों आए? तो इसका एक सरल उत्तर यह है कि पिछले दिनों किसान आन्दोलन हो या पहलवानों का आन्दोलन, दोनों को सरकारों ने "फ़ियर ऑफ एनेमीज़" थ्योरी के सहारे डील करने की कोशिश की। एक को खालिस्तानी आतंकी बताया तो दूसरे आन्दोलन पर भी कई तरह के आरोप लगाए गए। और जैसा कि इस थ्योरी के साथ यह खतरा है, इसके अत्याधिक इस्तेमाल से इस्तेमालकर्ता एक्सपोज होने लगता है, लोग सच्चाई समझने लगते हैं और अंतत: यह कल्पित भय अपना असर खोने लगता है।

  

दुश्मन के भय पर टिका अस्तित्व

हावर्ड के पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर इवानिस एवरीजेनिस अपनी किताब “फ़ियर ऑफ एनेमीज़ एंड कलेक्टिव एक्शन” में लिखते हैं,“राजनीतिक समूह को एक ऐसे दुश्मन की तलाश होती है, जिसे दिखा कर वो अपने अस्तित्व को बरकरार रखना चाहते है। ये लोगों के ध्यान को भटकाने के लिए भी जरूरी है। एक तरफ कई समूह अच्छे काम के लिए साथ आते है, लेकिन कभी-कभी कुछ निगेटिव फीचर्स भी होते है, जो एक समूह को अपनी पहचान बनाने के लिए जरूरी होते हैं। ये खेल बहुत बडे पैमाने पर होता है। एक राष्ट्र को किसी दुश्मन के भय के इर्दगिर्द काफी मजबूती से एकजुट करने की कोशिश की जाती है।

बहरहाल, इसे ऐसे समझा जा सकता है कि अमेरिका पिछले 70 सालों में कभी नाजी, कभी कम्युनिस्ट और कभी आतंकवाद के नाम पर मनमाने ढंग से एकतरफ़ा अपने दुश्मन चिह्नित करता रहा है। इराक का विध्वंस और सद्दाम हुसैन का अंत भी इसी थ्योरी के तहत किया गया। हालांकि, जब डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में आए तो नस्लीय भेद के आधार पर भी दुश्मन निर्मित किए गए और ऐसे ही दुश्मनों के चारों तरफ सत्ता का चक्र घुमाया जाता रहा। मानो, बिना दुश्मन के अमेरिका का अस्तित्व कुछ है ही नहीं। सोवियत यूनियन के टूटने के बाद कहा गया कि ये एंड ऑफ हिस्ट्री है, लेकिन नए दुश्मन बनाने का चक्र थमा नहीं। नया दुश्मन बना ताकि समूह को एकजुट रखा जा सके।

यह किताब आगे बताती है कि जैसे ही इस दुश्मन की पहचान हो जाती है, राजनीति हमें “हम” बनाम ‘वे” में बांट देती है। ये “वे” आमतौर पर तिरस्कृत समूह ही होता है। “फ़ियर ऑफ एनेमीज़” थ्योरी सत्ता की सनातन साजिश रही है। अब इस थ्योरी को भारत के सन्दर्भ में देखे।

2004 से 2014 तक, हमारा दुश्मन आतंकवाद था, जिससे हम लडते थे। लेकिन 2014 के बाद, दुश्मन का “स्थानीयकरण” हो गया। एक बड़े समूह को ये दिखाया जाता है कि भारत की समस्त समस्या के लिए एक खास समुदाय ही जिम्मेदार है। ये समुदाय “विश्वसनीय” नहीं है। ये हमारे विकास में भी बाधक है। ये थ्योरी इतनी कारगर साबित हुई कि अब देश की मूलभूत समस्याओं से लड़ने के बजाए हम एक कल्पित और स्वनिर्मित दुश्मन से लड़ने में व्यस्त हैं।

निगेटिव एसोसिएशन: पहलू ख़ान से पालघर, मणिपुर से मेवात

यह पुस्तक उस चीज की जांच करती है कि आखिर वह क्या है जो अलग-अलग और अक्सर परस्पर विरोधी हितों वाले व्यक्तियों को एक साथ मिलकर एकजुट होकर काम करने के लिए प्रेरित करता है? बाहरी खतरों के डर पर आधारित, यह पुस्तक 'नकारात्मक संगति' (निगेटिव एसोसिएशन) का सिद्धांत देती है जो 'मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त है' कहावत पर आधारित है। व्यक्तिगत और समूह पहचान के निर्माण में भय और शत्रुता की भूमिका पर ध्यान केंद्रित यह पुस्तक बताती है कि बाहरी खतरों का डर राजनीतिक समूहों के गठन और संरक्षण का एक अनिवार्य तत्व है। इस निगेटिव एसोसिएशन के कारण ही विभिन्न सामाजिक स्थितियों से जुड़े लोग भी साथ आ जाते है, जैसे गोरक्षा के नाम पर पहलू खान जैसे लोगों की ह्त्या हो जाती है। मणिपुर में भी इसी थ्योरी की भूमिका है, जहां बहुसंख्यकों के बीच यह परसेप्शन फैलाया जाता है कि एक ख़ास समुदाय किस तरह धर्मांतरण के बाद हमारे लिए खतरा बन चुका है या कि कैसे वे बाहरी लोग है और उन्होंने हमारी जमीन पर कब्जा कर रखा है।

बहरहाल, इस थ्योरी ने भारत की मौजूदा केन्द्रीय सत्ता को चुनावी फ़ायदा तो पहुंचाया है लेकिन इससे एक ऐसी सामाजिक संरचना विकसित हुई है जो अब दुश्मन को एक ऑब्जेक्ट भर समझने लगी है। यानी, “फ़ियर ऑफ एनेमीज़” के अत्याधिक इस्तेमाल का एक सबसे बड़ा खतरा इस रूप में सामने आया है मानो शेर को मानव खून का स्वाद लग गया हो। मसलन, फिर वह हिंसक भीड़ यह नहीं देखती कि पालघर में मारा जा रहा शख्स किस धर्म का है या बुलंदशहर में सुबोध सिंह नाम का इन्स्पेक्टर किस समुदाय से आता है? इन उदाहरणों से हम यह भी समझ सकते है कि "फ़ियर ऑफ एनेमीज़" का जब ज्यादा इस्तेमाल होता है तब निगेटिव एसोसिएशन की ताकत और अधिक बढ़ जाने की संभावना रहती है और फिर “कल्पित दुश्मन” के निर्णय का अधिकार अकेले सत्ताधारियों का नहीं रह जाता। वैसी स्थिति में यह निगेटिव एसोसिएशन और अधिक खतरनाक साबित हो सकती है।

समाधान: कॉमन गुड

यदि हमारी राजनीति में नैतिकता नहीं है तो यह एक वैक्यूम क्रिएट करती है। इस वैक्यूम को फिर शब्दाडंबरों से भरा जाता है, जैसे “राष्ट्रवाद”।  यह भारत ही नहीं, मौजूदा वक्त में दुनिया की समस्या है, सरल शब्द में वर्ल्ड नैरेटिव।

रॉबर्ट बी. रिच की किताब “द कॉमन गुड” ग्लोबलाइजेशन के बाद की असमान दुनिया की कहानी कहती है। रिच, बिल क्लिंटन के समय अमेरिका के श्रम मंत्री थे। वे कहते हैं, कॉमन गुड आज कोई फैशनेबल आइडिया नहीं रहा। रिच का कॉमन गुड क्या है? एक नागरिक के तौर पर हम दूसरे नागरिक के साथ किस प्रकार का मूल्य साझा करते है, जहां दोनों समाज में एक साथ बन्धे हुए है। एक भारतीय (अमेरिकन की जगह भारतीय) के तौर पर हमें क्या चीज एकजुट करती है? न तो हमारा जन्म, न हमारी एथिनिसिटी, बल्कि हमारा मूल विचार और सिद्धांत। ये विचार और सिद्धांत क्या है? ये है, रूल ऑफ लॉ और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति हमारा आदर, हमारे मतभेदों और विभिन्नताओं को ले कर हमारी सहनशीलता। समान अवसर और समान राजनीतिक अधिकार में हमारा विश्वास है।

अनियंत्रित सत्ता और लाभ की चाहत राजनीति में कॉरपोरेट पूंजी के प्रवाह को बढ़ाती है। नतीजतन, असमानता और पूंजी सत्ता को नियंत्रित करने लगती है। ये पूंजी हर जगह है। ये फिर अपने लाभ के लिए काम करती है। आखिर समाधान क्या है? लीडरशीप को ट्रस्टीशीप में बदल दीजिए। कॉरपोरेट की जिम्मेदारी मुनाफाखोरी से आगे तय कर दीजिए। नौकरशाही को राजनीति से अलग कर दीजिए। रिच कहते हैं कि ट्रंप इसलिए गलत नहीं है कि उन्होंने राजनीतिक प्रक्रिया को बदल दिया या अमेरिकंस को बांट दिया या मूर्खतापूर्ण व्यवहार किया। गलत ये किया कि राष्ट्रपति बनने के लिए ट्रंप ने अमेरिकन लोकतंत्र की प्रक्रिया और संस्थान का त्याग कर दिया। यहीं आकर हमें इस चीज को भारतीय सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है। लोकतंत्र की प्रक्रिया और लोकतांत्रिक संस्थान सबसे महत्वपूर्ण है। अपने आसपास नजर दौड़ाइए, देखिए कि हमारे लोकतांत्रिक संस्थान अभी कितने मजबूत है, कितने कमजोर?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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