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फ़िलिस्तीनी संघर्ष की ब्रिटिश जड़ें

इलाक़ा दर इलाक़ा, अंग्रेज़ों ने अपने साम्राज्य के लाभ के लिए लोगों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा किया और "फूट डालो और राज करो" की रणनीतियों का इस्तेमाल किया।
palestine
प्रतीकात्मक तस्वीर।

आज यूनाइटेड किंगडम में सभी सरकारी भवनों पर इज़रायल के झंडे लहरा रहे हैं, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि पूर्व के साम्राजी देश के शासक ने ज़ायोनीवाद के पीछे अपनई प्यूरी ताक़त झोंकी है। यह 1917 का वर्ष ठान जब ब्रिटिश हुकूमत ने कुख्यात बाल्फोर घोषणा जारी की थी।

67 शब्दों का यह संक्षिप्त दस्तावेज़, आधुनिक फ़िलिस्तीनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आया था। इस घोषणा के ज़रिए ग्रेट ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक "राष्ट्रीय घर" स्थापित करने के लिए  अपनी प्रतिबद्धता को पूरा किया था। (प्रारंभिक भाषा में "यहूदी राज्य" का वादा किया गया था, लेकिन बाद में इसे बदल दिया गया।) बाल्फोर घोषणा में ऐसी भाषा शामिल थी जो फ़िलिस्तीनियों की सुरक्षा की बात करती थी, लेकिन हमने देखा है कि उसकी बाद की शताब्दी में इसका क्या असर हुआ है।

प्रथम विश्व युद्ध से लेकर 1948 तक, ब्रिटिशों ने फ़िलिस्तीन पर शासन किया, इस शासन को अधिक समय तक लीग ऑफ़ नेशंस द्वारा जारी एक शासनादेश के तहत किया गया था । फ़िलिस्तीन में यहूदी आबादी इन दशकों में बढ़ी - विशेष रूप से 1930 के दशक में - क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने उनके आप्रवासन को बढ़ावा दिया था। 1922 में, इस इलाके की केवल 11 प्रतिशत आबादी यहूदी थी। 1931 तक यह आंकड़ा लगभग 17 प्रतिशत और 1939 तक, यह लगभग 30 प्रतिशत तक पहुँच गया था।

एक समय आया जब, ब्रिटिश हुकूमत ने इलाके में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए यहूदी आबादी के विस्तार को सीमित करने की कोशिश की थी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी - ज़मीनी हालात बदल चुके थे। वह इलाका जो लगभग 90 प्रतिशत फ़िलिस्तीनी था, व जनसांख्यिकीय के हिसाब से असंख्य समूहों के बीच एक विवादित भूमि बन गया था। इसके अलावा, ब्रिटिशों ने यहूदी लोगों को ज़मीने देने के लिए फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन हड़प ली और फ़िलिस्तीनी के शुरूआती राष्ट्रवाद को कुचलने में लग गइ। और 1930 के दशक में, एक ब्रिटिश सरकारी आयोग ने असफल ढंग से "दो-राष्ट्र समाधान" वाली विचारधारा के आधार पर फिलिस्तीन को विभाजित करने की सिफारिश की थी। 

दूसरे शब्दों में, यह संघर्ष ख़ास ब्रिटिश साम्राज्य्वादी नीतियों का उत्पाद है जो 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में एक औपनिवेशिक परियोजना को बढ़ावा देने के लिए अपनाई गई थीं। "यहूदी प्रश्न" - जो खुद यहूदी-विरोध को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं कर पाए और यूरोप की लंबे समय से चली आ रही समस्या जिसे वे निपटाने में असमर्थत थे  - को ब्रिटिश साम्राज्य ने फिलिस्तीनियों की ज़ायोनी समस्या थाली में परोस दी थी।

ब्रिटिश हुकूमत की प्रमुख विशेषताओं में से एक विभिन्न समूहों का एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ाना था। सदियों से उनके द्वारा अपनाई गई प्रमुख विधियों में से एक उनके द्वारा दुनिया में गुलाम बनाए गए देशों/प्रांतों की राजनीति का प्रबंधन करने के लिए तथा एक-दूसरे के खिलाफ विभिन्न समूहों लड़ाने लिए उनके निवासियों के सामाजिक इतिहास का अध्ययन करना था।

फ़िलिस्तीन में यहूदियों के प्रवास के समर्थन ने देशज फ़िलिस्तीनियों में आक्रोश पैदा किया और उन्हें इसके खिलाफ लामबंद होना पड़ा, जो अंततः 1936-1939 के महान विद्रोह का कारण बना था। विद्रोह, जिसमें एक आम हड़ताल और किसान विद्रोह हुआ था, को ज़ायोनी अर्धसैनिक बलों के सहयोग से ब्रिटिश सरकार ने हिंसक दमन कर दबा दिया था। हालाँकि, विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने इस इलाके में यहूदी आप्रवासन को सीमित करना शुरू कर दिया था, और उस समूह के खिलाफ हो गए जिसका उन्होंने अपने शाही हितों की रक्षा के लिए समर्थन किया था। इसके परिणामस्वरूप फ़िलिस्तीन में ज़ायोनीवादियों ने हिंसक हमले शुरू कर दिए थे।

फ़िलिस्तीन इस मामले में अकेला नहीं है। बल्कि इलाका-दर-इलाका, अंग्रेज साम्राज्य ने अपने लाभ के लिए लोगों को एक-दूसरे लोगों के खिलाफ लड़ना शुरू कर दिया और "फूट डालो और राज करो" की रणनीतियों का इस्तेमाल किया। ब्रिटिश भारत में, उन्होंने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को आगे बढ़ाया, कभी एक आबादी का पक्ष लिया, कभी दूसरी आबादी का। साइप्रस में, उन्होंने यूनानियों को तुर्कों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। श्रीलंका में सिंहली के विरुद्ध तमिल थे। आयरलैंड में, प्रोटेस्टेंटों के विरुद्ध कैथोलिक थे। और यह सूची अंतहीन है।

इन सभी देशों या इलाकों में, विभिन्न समूहों के बीच टकराव/संघर्ष की कथित "प्राचीन" राजनीति ब्रिटिश साम्राज्य के सूर्यास्त होने के बाद भी कायम रही है। जातीयता या धर्म के आधार पर इलाकाई विभाजन हुए हैं। ब्रिटिश भारत के रहते भारत और पाकिस्तान बन गया। इसके बाद पाकिस्तान को, पाकिस्तान और बांग्लादेश में विभाजित कर दिया गया। आयरलैंड को आयरलैंड गणराज्य और यूके के उत्तरी आयरलैंड में विभाजित किया गया था। साइप्रस दो भागों में विभाजित है, और इसकी कानूनी स्थिति अभी भी अनसुलझी है। सिंहली बहुल श्रीलंका में तमिल राज्य की स्थापना के लिए 30 साल तक गृहयुद्ध चला, जो 2009 में उसी तरह समाप्त हुआ, जैसा आज हम गाजा में देख रहे हैं। और 1948 में, फ़िलिस्तीन को औपचारिक रूप से विभाजित किया गया, एक ज़ायोनी राष्ट्र की स्थापना की गई और जिसे पूर्व ब्रिटिश शासकों के आशीर्वाद से फ़िलिस्तीनी राज्य कहा गया, जिन्होंने नकबा की शुरुआत की जो आज भी जारी है।

इनमें से प्रत्येक स्थान को "प्राचीन" काल में पैदा की गई नफ़रतों के आधार पर हिंसक संघर्ष से चिह्नित किया गया है, जिसकी जड़ें पिछली एक या दो शताब्दियों में ढूंढी जा सकती है। यह आम विचार है जो दृढ़ता से इसे स्थापित करटा है कि ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियां इन इलाकों में हिंसा का मूल कारण हैं; ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़े इन टकरावों/संघर्षों के इतने अधिक उदाहरण हैं कि किसी संयोग की कल्पना करना भी मुश्किल है।

जबकि इज़रायली रंगभेद, कब्ज़ा और नरसंहार के सबसे भयंकर कारण स्पष्ट रूप से इज़रायल और उसके मुख्य प्रायोजक, संयुक्त राज्य अमेरिका के टेल दबे हुए हैं, यूनाइटेड किंगडम की फ़िलिस्तीन और हर जगह अपने ऐतिहासिक पापों को सही करने की विशेष ज़िम्मेदारी है। न्यूनतम पहला कदम इज़रायली झंडा लहराने के बजाय मौजूदा नरसंहार को रोकने के लिए काम करना होगा। लेकिन यह - क्षतिपूर्ति की बात तो दूर - बातचीत की मेज पर नहीं दिख रही है।

सौरव सरकार न्यूयॉर्क के लॉन्ग आइलैंड में रहने वाले एक स्वतंत्र लेखक, संपादक और कार्यकर्ता हैं। वे न्यूयॉर्क सिटी, नई दिल्ली, लंदन और वाशिंगटन, डी.सी. में भी रह चुके हैं। उन्हें ट्विटर @sauravthewriter और sauravsarkar.com पर फ़ॉलो किया जा सकता है।

यह लेख ग्लोबट्रॉटर में प्रकाशित हो चुका है।

मूल अंग्रेजी लेख का पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें: 

British Roots of Conflict in Palestine

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