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भारत का हमास पर नज़रिया सौम्य होना चाहिए

एक सभ्य राष्ट्र होने के नाते, भारत को इतिहास की गहरी समझ के साथ ही काम करना चाहिए।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : विकिमीडिया कॉमन्स

उन्हें कीट या पुशर्स कहें - या रॉटवीलर माने - इजरायली राजनयिकों ने वक़्त के साथ अंतरराष्ट्रीय सर्किट में एक अनोखी नस्ल के रूप में कुख्याति हासिल कर ली है, जिनके पास हालात या वक़्त की बारीकियों या औचित्य के लिए समय या धैर्य नहीं है, क्योंकि तेल अवीव ने उन्हें जिस मेज़बान देश में नियुक्त किया है वहां उन्हे अपने एजेंडे को ऊपर रखने का निर्देश दिया जाता है। 

यह सीमा किसी और ने नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने पार की थी, जब 2015 में उन्होंने वाशिंगटन में राष्ट्रपति बराक ओबामा के चैनल को दरकिनार करते हुए, अमेरिका का दौरा किया और अमरीकी संसद के एक संयुक्त सत्र को संबोधित करने के लिए सांसदों से निमंत्रण हासिल कर लिया था, कांग्रेस - जिसमें उन्होंने परमाणु समझौते पर तेहरान के साथ ओबामा की चल रही बातचीत को धता बताने के लिए उत्साहपूर्वक आगे बढ़ाया था।

यह अमेरिका की राजनीतिक व्यवस्था में खुला हस्तक्षेप था। नेतन्याहू ने न केवल ओबामा को अपमानित किया और दिखाया कि वाशिंगटन में सत्ता के दलालों के साथ उनका दबदबा राष्ट्रपति से अधिक था, बल्कि उन्होंने व्हाइट हाउस को ईरान के प्रति अमेरिका की नीति क्या होनी चाहिए उसे भी समझाया था। वह यह सब कहकर बच निकले क्योंकि उनका अनुमान बिल्कुल सही था कि अमेरिकी राजनीतिक अभिजात वर्ग इजराइल लॉबी के पेरोल पर है और रहेगा। 

ऊपर दिया गया प्रकरण नई दिल्ली में इजरायली राजदूत नाओर गिलोन की टिप्पणियों की मीडिया रिपोर्टों को देखकर याद आता है, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से मांग की कि भारत को हमास को "आतंकवादी" संगठन के रूप में प्रतिबंधित करना चाहिए और फ़िलिस्तीन के प्रति भारतीय नीति में बदलाव लाना चाहिए। 

गिलोन लंबे समय से राजनयिक रहे हैं जिसका लगभग 35 वर्षों का ट्रैक रिकॉर्ड है और इस बात की संभावना नहीं है कि वे जो कह रहे हैं उसके औचित्य से अनभिज्ञ हैं। निश्चित रूप से, दिल्ली ने हमास पर गिलोन राय को नहीं माना और उसने अपनी लड़ाई को भारतीय मीडिया में मजबूत इज़राइल लॉबी तक ले जाने का फैसला किया।

यह वह समय है जब इजरायली कूटनीति को एक सफलता की कहानी की सख्त जरूरत है क्योंकि गज़ा में बर्बर क्रूरता के बाद देश की प्रतिष्ठा कीचड़ में धस गई है। यह धारणा जोर पकड़ रही है कि इजराइल नरसंहार कर रहा है और जातीय सफाया कर रहा है। सब का अंदाज़ा है कि, "मानवीय विराम" समाप्त होने के बाद इज़राइल अपने सैन्य अभियान का अगला चरण शुरू करने वाला है।

जब तक अमेरिकी दबाव के कारण इज़राइल अपनी दिशा नहीं बदलता, जो कि असंभावित लगता है, हमास के साथ एक लंबा टकराव तय है। लेकिन पश्चिमी दबाव की कमी है। जी-7 के विदेश मंत्रियों ने मंगलवार को जारी संयुक्त बयान में खुद को "मानवीय विराम को बढ़ाने और भविष्य में जरूरतनुसार विराम लगाने तक ही सीमित रखा ताकि सहायता बढ़ाई जा सके और सभी बंधकों की रिहाई को सुविधाजनक बनाया जा सके।"

हालाँकि, बयान में स्थायी युद्धविराम का आह्वान नहीं किया गया और दूसरी ओर, "अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार, अपनी और अपने लोगों की रक्षा करने के इज़राइल के अधिकार के प्रति जी-7 की प्रतिबद्धता पर फिर से जोर दिया गया, क्योंकि वे 7 अक्टूबर के हमलों की पुनरावृत्ति को रोकना चाहते हैं।" 

तमाम बहादुरी के बावजूद, इज़रायली सेना ने अब तक अपना कोई अच्छा लेखा-जोखा नहीं पेश कर पाई है और वह चालाकी कर रही है। लेकिन यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि हमास को गज़ा में व्यापक समर्थन हासिल है। इसलिए, अत्यधिक हिंसा का दौर आने वाला है। और इज़राइल, हमास के खिलाफ युद्ध के अगले चरण में खड़े होने और आगे बढ़ने के लिए मित्र देशों को एकजुट कर रहा है – और भारत उनमें से एक है।

नेतन्याहू के नेतृत्व में इज़राइल का हमास के मुकाबले बेहद विवादास्पद अतीत रहा है। दो पूर्व प्रधानमंत्रियों, एहुद ओलमर्ट और एहुद बराक ने हाल ही में प्रमुख पश्चिमी मीडिया को साक्षात्कार देकर आरोप लगाया है कि नेतन्याहू हमास के उदय के लिए जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कतरी धन से आंदोलन को वित्तपोषित किया है। एक पूर्व इजरायली जनरल, जो गज़ा पर कब्जे का प्रभारी था, ने वास्तव में हमास को धन देने की बात स्वीकार की है।

जिम्मेदार लोगों के इन आश्चर्यजनक खुलासों से पता चलता है कि नेतन्याहू बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। जब राजदूत गिलोन मांग करते हैं कि दिल्ली को हमास को आतंकवादी संगठन घोषित करना चाहिए, तो यह सब इस पर निर्भर करता है कि वे हमास के किस गुट का जिक्र कर रहे हैं।

मजे की बात यह है कि इजराइल में मारिव हशवुआ ब्रांड के तहत प्रकाशित हिब्रू भाषा के दैनिक समाचार पत्र ने हाल ही में इस आशय की एक सनसनीखेज रिपोर्ट जारी की थी कि 2011 और 2023 के बीच, नेतन्याहू ने इजरायली खुफिया एजेंसी शिन बेट द्वारा प्रस्तुत कम से कम छह योजनाओं को खारिज कर दिया था, जिसे योरम कोहेन, नदाव अर्गमन और वर्तमान प्रमुख रोनेन बार के संबंधित कार्यकाल के दौरान अंजाम दिया जाना था – गज़ा में हमास लड़ाकों के नेता याह्या अल-सिनवार (जिन्होंने स्पष्ट रूप से 7 अक्टूबर के हमले का नेतृत्व किया था) और फ़िलिस्तीनी आंदोलन अन्य वरिष्ठ सदस्यों को खत्म करना था। 

मंगलवार को इसराइल के पूर्व रक्षा मंत्री एविग्डोर लिबरमैन ने इस रिपोर्ट की सत्यता की पुष्टि की है।  लिबरमैन के अनुसार, नेतन्याहू ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने सिनवार और हमास के अन्य नेताओं को "इम्युनिटी" प्रदान की थी, और उन्हें बेअसर करने के किसी भी प्रयास के खिलाफ खड़े हुए थे। उन्होंने कहा कि, "मैं इसे महज अटकलों के तौर पर नहीं, बल्कि मामले की निजी जानकारी रखने वाले व्यक्ति के तौर पर कह रहा हूं।"

दरअसल, नेतन्याहू का फ़िलिस्तीनी ओथोरीटी और उसके राष्ट्रपति महमूद अब्बास को कमजोर करने के एजेंडे के तहत फ़िलिस्तीनी गुटों के बीच विभाजन को बढ़ाने के लिए व्यवस्थित रूप से हमास को मजबूत करने का एक संदिग्ध रिकॉर्ड रहा है। उनका गुप्त उद्देश्य किसी भी शांति प्रक्रिया को रोकना, ग्रेटर इज़राइल परियोजना को पूरा करने के लिए समय निकालना है।

इजराइल के एक प्रमुख पत्रकार बेन कैस्पिट, जिन्होंने पिछले सप्ताह मारिव रिपोर्ट लिखी थी, का अनुमान है कि नेतन्याहू हमास को एक "खजाने" के रूप में देखते हैं जो उन्हें दो-राष्ट्र  समाधान को विफल करने में मदद करेगा। कैस्पिट ने याद दिलाया कि नेतन्याहू ने हमास को जो पहली मदद दी थी, वह 2011 में कैदियों की अदला-बदली का सौदा था, जिसमें सिनवार सहित 1,027 फिलिस्तीनी बंदियों के बदले में इजरायली सैनिक गिलाद शालित को रिहा किया गया था।

स्पष्ट रूप से, भारत को हमास के मुकाबले नेतन्याहू की चालों से दूर रहना चाहिए। दोहा में मौजूद हमास का राजनीतिक नेतृत्व गज़ा में शत्रुता की समाप्ति पर मंगलवार को एक तरफ दौरे पर आए सीआईए निदेशक और दूसरी तरफ मोसाद प्रमुख और कतरी मध्यस्थों के बीच तीन-तरफ़ा शीर्ष गुप्त चर्चा का हिस्सा है।

कहीं भी मौजूद प्रतिरोध आंदोलनों की भयानक सुंदरता यह है कि वे कभी ख़त्म नहीं होते हैं। अंतिम विश्लेषणयह है कि, हमास भविष्य के किसी भी फ़िलिस्तीन में प्रमुखता से शामिल हो सकता है, जैसे अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी), जो 1960 से 1990 तक एक प्रतिबंधित संगठन था, अंततः रंगभेद के बाद दक्षिण अफ़्रीका में हुआ, (एएनसी का 1960 के दशक से नई दिल्ली में एक प्रतिनिधि कार्यालय था!)

यह एक खुला रहस्य है कि नेतन्याहू ने - अमेरिका के मौन समर्थन और मिस्र और जॉर्डन की गुप्त भागीदारी के साथ - मई 2021 में वेस्ट बैंक में विधायी चुनावों में गड़बड़ की थी, इस डर से कि फतह आंदोलन को हमास के हाथों निश्चित हार का सामना करना पड़ेगा। जनमत सर्वेक्षणों ने हमास की भारी जीत की संभावना का संकेत दियाथा। (मौजूद फ़िलिस्तीनी चुनाव: कारण और परिणाम शीर्षक से कार्नेगी रिपोर्ट देखें)

पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूह लश्कर-ए-तैयबा पर इजरायल के हालिया प्रतिबंध के कारण भारत पर पारस्परिक कदम उठाने की मांग को लेकर गिलोन आधे से अधिक चतुराई दिखा रहा है। यह उपमा हास्यास्पद है. लश्कर-ए-तैयबा पाकिस्तान स्थित एक इस्लामी आतंकवादी संगठन है जो भारत और अफगानिस्तान में सक्रिय है। इसकी शुरुआत 1980 के दशक के अंत में सुन्नी इस्लाम के वहाबी संप्रदाय से प्रभावित एक इस्लामी संगठन मरकज़-उद-दावा-वल-इरशाद के एक उग्रवादी विंग के रूप में हुई थी और जो अंततः पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर मुस्लिम शासन स्थापित करने की कार्यवाई करता है। 

इसके विपरीत, हमास एक देशज फ़िलिस्तीनी आंदोलन है जो खासतौर पर इसरायली कब्जे को खाली कराने पर केंद्रित है। हमास, इस्लामी संदर्भ में फ़िलिस्तीनी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देता है। यह जताता है कि फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी की भूमिका फ़िलिस्तीनी लोगों की सेवा करना और उनकी सुरक्षा, उनके अधिकारों और उनकी राष्ट्रीय परियोजना की रक्षा करना होना चाहिए। हमास, फ़िलिस्तीनी राष्ट्रीय निर्णय लेने की स्वतंत्रता को बनाए रखने और फ़िलिस्तीनी लोगों के सशक्तिकरण की आवश्यकता पर बल देता है। 

यदि चर्चा में कोई सादृश्य लाना है, तो निकटतम उत्तरी आयरलैंड में सिन फेन और उसके उग्रवादी विंग, जिसे आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के रूप में जाना जाता है, के साथ हो सकता है। तर्कसंगत रूप से, यह तथ्य कि 1998 के गुड फ्राइडे समझौते के बाद से उत्तरी आयरलैंड में एक चौथाई सदी से शांति कायम है,यह  फ़िलिस्तीन के लिए आशा की एक किरण देता है कि इतिहास का बोझ आखिरकार उठाया जा सकता है। एक सभ्य राष्ट्र के रूप में, भारत को इतिहास की गहरी समझ के साथ ही काम करना चाहिए।

एम.के. भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार निजी हैं। 

सौजन्य: इंडियन पंचलाइन 

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