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बजट 2023-24: अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्या की अनदेखी

इस बजट में सामाजिक क्षेत्र पर सरकार के ख़र्चों को घटाया गया है, ताकि पूंजी ख़र्च के हिस्से को और भी बढ़ाया जा सके।
budget

भारतीय अर्थव्यवस्था की आज की सबसे खास बात यही है कि यहां वास्तविक उपभोग खर्च में बढ़ोतरी में सुस्ती बनी हुई है। मिसाल के तौर पर 2019-20 और 2022-23 के बीच, प्रतिव्यक्ति वास्तविक उपभोग खर्च में 5 फीसद से भी कम बढ़ोतरी हुई है, जो कि सकल घरेलू उत्पाद में वृद्घि की दर से भी घटकर है। इस तरह, महामारी में अर्थव्यवस्था जिस गड्ढे में जा पड़ी थी, उससे उसका थोड़ा-बहुत जो बाहर निकलना हुआ भी है, वह भी निवेश-संचालित ही रहा है, न कि उपभोग संचालित। इस तरह की आर्थिक बहाली की दो स्वत:स्पष्ट समस्याएं हैं। पहली तो यह कि इस तरह की बहाली, साफ तौर पर गैर-वहनीय ही होगी। इस मामले में हो यह रहा होगा कि बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में, ठाली पड़ी उत्पादन क्षमता ही और ज्यादा बढ़ जाएगी। इसके चलते, बैंकों के डुबाऊ ऋण और बढ़ जाएंगे, जो अंतत: आर्थिक बहाली का ही रास्ता मूंद देगा। समूची वित्तीय व्यवस्था की स्थिरता के लिए ही खतरा पैदा हो जाएगा, वह ऊपर से। दूसरी समस्या यह कि, आर्थिक वृद्धि या विकास का तो बुनियादी अर्थ ही है, अवाम की जीवन दशा में बेहतरी लाना। अगर, अवाम के उपभोग का स्तर ही जहां का तहां रुका रहता है, तो ऐसे विकास का मतलब ही क्या हुआ?

सामाजिक क्षेत्र पर कटौतियों की मार

इसलिए, 2023-24 के बजट के सामने मुख्य काम था, अर्थव्यवस्था में उपभोग के तत्व को उत्प्रेरित करना। और इसके लिए सबसे पहले तो सामाजिक क्षेत्र पर खर्चों में बढ़ोतरी की जानी चाहिए थी। एक मिसाल लें। इस देश में जहां जनता का विशाल हिस्सा भूख की मार झेल रहा है, भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में अनाज के अनबिके पहाड़ लगते जाने का।  जाहिर है कि एक ही कारण हो सकता है - स्वास्थ्यरक्षा, आवास, स्वास्थ्य तथा इसी तरह की अन्य न्यूनतम जरूरतों के अनाप-शनाप तरीके से बढ़ते खर्चे पूरे करने के बाद, लोगों के हाथ में इतना पैसा ही नहीं बचता है कि पर्याप्त भोजन कर सकें। लेकिन, यह बजट सामाजिक क्षेत्र पर खर्चों में बढ़ोतरी करने से ही तो परहेज करता है। उल्टे इस बजट में तो सामाजिक क्षेत्र पर सरकार के खर्चों को घटाया ही गया है, ताकि पूंजी खर्च के हिस्से को और भी बढ़ाया जा सके। इसका सबसे हैरान करने वाला उदाहरण है, मनरेगा पर खर्चे में भारी कटौती कर के, उसे 60,000 करोड़ रुपये पर ले आना, जिस स्तर पर यह एक दशक पहले हुआ करता था। यह आवंटन, 2021-22 के 1,12,000 करोड़ रुपये के खर्च के मुकाबले, करीब आधा ही रह गया है। इसके साथ यह और जोड़ लें कि इस योजना के लिए, काम का सबूत देने की जो नयी व्यवस्था थोपी गयी है, उसके लिए इंटरनेट कनैक्टिविटी की जरूरत होती है, जो ग्रामीण भारत के बड़े हिस्से में तो उपलब्ध ही नहीं है। जाहिर है कि इससे तो एक ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह सरकार, इस योजना को पूरी तरह से बंद ही करना चाहती है!

हालांकि सरकार, 81 करोड़ लोगों को, हर महीने 5 किलोग्राम अनाज मुफ्त देने की अपनी ‘उपलब्धि’ का दुनिया भर में ढिंढोरा पीटती है, वास्तव में रुपयों में सबसिडी में भारी गिरावट ही नजर आती है। 2022-23 के संशोधित अनुमान के मुकाबले, रुपयों में खाद्य सब्सीडी में 31 फीसदी की कमी का प्रस्ताव किया गया है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि गरीबों के एक हिस्से से छीनकर ही, दूसरे हिस्से को सस्ता अनाज दिया जाएगा। इसी प्रकार, ग्रामीण विकास के मामले में भी, रुपयों में आवंटन में कटौती ही कर दी गयी है। उधर शिक्षा व स्वाथ्य के मामले में, रुपयों में आवंटन में मामूली सी बढ़ोतरी जरूर की गयी है, लेकिन मुद्रास्फीति को हिसाब में लिया जाए तो, इन क्षेत्रों में भी वास्तविक मूल्य के हिसाब से कटौती ही हुई नजर आ रही है।

राज्यों पर भी थोपी जा रही है सामाजिक खर्चो में कंजूसी

लेकिन, इस सरकार के उपभोग विरोधी और इसलिए गरीब विरोधी रुख को देखते हुए, बजट में ऐसा किए जाने में अचरज की कोई बात ही नहीं है। वास्तव में 2023-24 के बजट की एक चौंकाने वाली विशेषता यह है कि इसमें, राज्यों के लिए हस्तांतरण समेत, संघ सरकार के कुल खर्चे में जितनी बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया गया है, वह सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि से घटकर ही रहने जा रही है। संघीय सरकार के कुल खर्च में वृद्धि की दर, 2022-23 के (संशोधित अनुमान) के 15.3 फीसदी के स्तर से घटकर, 14.9 फीसदी ही रह जाने वाली है। संघीय सरकार के कुल खर्चे में वृद्धि की दर में इस कटौती का अनुपात उतना ही है, जितना अनुपात राजकोषीय घाटे में प्रस्तावित कटौती का है। राजकोषीय घाटा, 6.4 फीसदी से घटकर, 5.9 पर लाए जाने का प्रस्ताव है।

उपभोग को उत्प्रेरित करने के प्रति यह कंजूसी, राज्य सरकारों के लिए केंद्र से होने वाले हस्तांतरणों में गिरावट में भी देखी जा सकती है। 2021-22 में राज्यों के लिए कुल 4,60,575 करोड़ रुपयों का हस्तांतरण किया गया था, जिसे 2022-23 के बजट में घटाकर 3,67,204 करोड़ रुपये कर दिया और संशोधित अनुमानों के अनुसार बाद में और भी घटाकर, 3,07,204 करोड़ पर ही ले आया गया। नये बजट में इसके लिए सिर्फ 3,59,470 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो 2022-23 में इन हस्तांतरणों में हुई कटौती की भरपाई करना तो दूर रहा, वास्तव में पिछले साल के बजट अनुमान से भी घटकर आवंटन करता है। चूंकि सामाजिक कल्याण के कामों पर खर्च का बड़ा हिस्सा राज्य सरकारों से ही आता है, इन कामों पर खर्चों के मामले में केंद्र सरकार खुद तो कंजूस बनी ही हुई है, वह आर्थिक संसाधनों के इस तरह के केंद्रीयकरण के जरिए, जो साफ तौर पर हमारी व्यवस्था के संघीय ढांचे को कमजोर करता है, राज्यों पर भी सामाजिक खर्चों के मामले में कंजूसी थोप रही है।

पूंजी व्यय में बढ़ोतरी यानी बदतर विकल्प

याद रहे कि जीडीपी के अनुपात के रूप में, केंद्र सरकार के खर्च में इस कटौती के संदर्भ में ही, पूंजी व्यय में भारी बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया गया है। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में, पूंजी व्यय के 7.5 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर, 10 लाख करोड़ किए जाने का बहुत ढोल पीटा है। उन्होंने इसे ही, इस समय भारत को अपनी जकड़ में लिए बैठी, बेरोजगारी की लानत का रामबाण उपचार बताने की कोशिश की है। लेकिन, वह चार बुनियादी नुक्तों को अनदेखा ही कर देती है। पहला, तो यह कि ठीक उतनी ही राशि को अगर सामाजिक क्षेत्र पर खर्च किया जाता, तो उससे कम से कम उतना ही रोजगार जरूर पैदा होता, जितना कि पूंजी व्यय से पैदा होने जा रहा है। दूसरे, अगर यह राशि सामाजिक क्षेत्र पर खर्च की जा रही होती, तो उससे सीधे मेहनतकशों को लाभ मिला होता, जिनके संबंध में खुद सरकार की ओर से बजट से एक ही दिन पहले संसद में पेश किया गया आर्थिक सर्वे यह कबूल करता है कि उनकी वास्तविक मजदूरी में, कोई बढ़ोतरी होना दूर, शुद्ध गिरावट ही दर्ज हुई है। तीसरे, सामाजिक क्षेत्र पर खर्चों में बढ़ोतरी के जरिए किए जाने वाले खर्च का गुणनकारी प्रभाव, जो प्रत्यक्ष तथा परोक्ष, दोनों तरीकों से मेहनकशों के हाथों में क्रय शक्ति को बढ़ा रहा होगा, सार्वजनिक पूंजी व्यय के प्रभाव के मुकाबले कहीं ज्यादा होगा। इस तरह, उतनी ही राशि अगर सामाजिक क्षेत्र पर खर्चों में लगायी जाए तो रोजगार पर उसका प्रभाव, पूंजी व्यय में उतनी ही राशि लगाए जाने से ज्यादा होगा। और चौथा नुक्ता यह कि पूंजी व्यय का काफी हिस्सा, पूंजी मालों के आयातों के रूप में विदेश की ओर रिस जाता है, जबकि मेहनतकश जनता के उपभोग में बढ़ोतरी के मामले में ऐसा नहीं होता है। यह नुक्ता, सार्वजनिक खर्च के इन दो तरीकों के रोजगार प्रभावों की असमानता के संबंध में हमारे नुक्ते को और मजबूत कर देता है।

नवउदारवादी व्यवस्था के अंतर्गत हाल के वर्षों में पूंजी खर्च की आयात निर्भरता बढ़ गयी है। हाल के दौर में, निवेश संचालित आर्थिक बहाली के बावजूद, देश के अपने पूंजी माल क्षेत्र में गतिरोध बना रहने का यही एक प्रमुख कारण है। घरेलू पूंजी माल क्षेत्र को और ज्यादा संरक्षण दिलाए जाने के अभाव में, यह उम्मीद करना कि बढ़े हुए पूंजी व्यय से किसी तरह से उल्लेखनीय रूप से ज्यादा घरेलू रोजगार पैदा होगा, एक दिवास्वप्न के सिवा और कुछ नहीं है। लेकिन यह बजट तो, आयातों से पहले से ज्यादा संरक्षण मुहैया कराने के बजाए, उल्टी चाल चलते हुए अनेक आयातों के लिए तटकर को घटाने का ही काम करता है। इन परिस्थितियों में यह दावा करना कि पूंजी व्यय में प्रस्तावित बढ़ोतरी से रोजगार में कोई उल्लेखनीय बढ़ोतरी होने जा रही है, कपटलीला के सिवा और कुछ नहीं है।

इतना ही नहीं, सार्वजनिक खर्च के इन दो रास्तों में से - पूंजी खर्च में बढ़ोतरी के जरिए या सामाजिक खर्च में बढ़ोतरी के जरिए - पूंजी खर्च का रास्ता कहीं ज्यादा आयात सघन होता है, इससे देश के सिर पर मंडरा रही भुगतान संतुलन की समस्या और बदतर हो जाने वाली है। विश्व मंदी के चलते, भारत की निर्यात वृद्धि पर मार पड़ी है और यह मार रुपए का भारी अवमूल्यन होने के बावजूद पड़ी है। जिस आखिरी तिमाही के आंकड़े आ चुके हैं, उसमें चालू खाता घाटा जीडीपी के 4 फीसद से ऊपर दर्ज हुआ है। ऐसे में सरकार ने अगर पूंजी व्यय बढ़ाने के बजाए, सामाजिक खर्च में उतनी ही बढ़ोतरी की होती, तो वह एक तीर से तीन शिकार कर सकती थी। एक तो इससे सीधे आम जनता की हालत सुधरी होती। दूसरे, इससे रोजगार में कहीं ज्यादा बढ़ोतरी हुई होती। और तीसरे, इससे भुगतान संतुलन के चालू घाटे पर अंकुश लगा होता। इसके बजाए उसने ऐसा विकल्प चुना है, जो साफ तौर पर कहीं बदतर विकल्प है।

दरबारी पूंजीपतियों के स्वार्थ साधने का खेल

और यहां तक तो हमने सरकार के सामने उपस्थित सार्वजनिक खर्च के दो विकल्पों की आपस में ही तुलना की है और यह देखा है कि कैसे सरकार ने, दोनों में से बदतरीन विकल्प को चुना है। लेकिन, कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के सामने इन दो विकल्पों में से एक को चुनने की ही मजबूरी कतई नहीं थी। सरकार के अपने अनुमानों के अनुसार, जीडीपी के अनुपात के रूप में सरकार का राजस्व, चालू वित्त वर्ष की तुलना में अगले वर्ष अपरिवर्तित ही बना रहने जा रहा है। लेकिन यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि हमारे देश में आय तथा संपदा की असमानता में भारी बढ़ोतरी हुई है और असमानता के बढऩे के ऐसे दौर में, संपदा कर के लगाए जाने के बिना भी, जीडीपी के अनुपात के रूप में कर राजस्व में खुद ब खुद बढ़ोतरी हो जानी चाहिए। और अगर संपदा कर लगा दिया जाता या अमीरों से और ज्यादा राजस्व जुटाने के लिए अन्य कदम उठाए गए होते, तो जीडीपी के अनुपात के रूप में राजस्व और भी बढ़ गया होता। लेकिन, इस बजट के संबंध में यही उल्लेखनीय है कि इसमें राजस्व में बढ़ोतरी करने के कोई गंभीर कदम उठाए ही नहीं गए हैं।

बेशक, इस बजट में वेतनभोगी वर्ग के कुछ हिस्सों को आय कर में कुछ राहत दी गयी है। फिर भी, दो अर्थों में इस बजट की अदूरदर्शिता बहुत ही हैरान करने वाली है। पहली बात तो यह कि ऐसे दौर में भी, जब आय तथा संपदा की असमानताएं तेजी से बढ़ रही हैं, जीडीपी के अनुपात के रूप में सरकारी राजस्व में बढ़ोतरी करने के प्रति यह बजट घोर उदासीनता का ही प्रदर्शन करता है। दूसरे, यह बजट सामाजिक खर्चों में बढ़ोतरी करने के जरिए, मेहनतकश जनता के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने की जरूरत के प्रति घोर उदासीनता प्रदर्शित करता है और इसके बजाए, पूंजी व्यय पर ही जोर देता है, जिसका रोजगार पैदा करने वाला प्रभाव, ज्यादातर तो आयातों के जरिए देश से बाहर ही रिस जाने वाला है।

लेकिन शायद इस बजट को अदूरदर्शी कहना भी, जैसा कि मैंने उसे बताया है, पूरी सचाई का बयान नहीं करता है। सचाई यह है कि ढांचागत क्षेत्र में ही इस सरकार के दरबारी पूंजीपतियों की खास दिलचस्पी है। इसलिए ढांचागत क्षेत्र पर खर्च बढ़ाना, उसके लिए अपने दरबारी पूंजीपतियों की मदद करने का ही एक तरीका है। और इस सरकार से तो, उसका अब तक का जो प्रदर्शन रहा है उसे देखते हुए, मेहनतकश जनता के हितों की बात तो छोड़ ही दीजिए, उससे तो समग्रता में देश की अर्थव्यवस्था के हितों तक को, अपने दरबारी पूंजीपतियों के स्वार्थों से ऊपर रखने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। 

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