बजट '23: सालों से ग्रामीण भारत के साथ हो रही नाइंसाफ़ी से निजात पाने की ज़रूरत
कुल आबादी का तक़रीबन दो-तिहाई हिस्सा भारत के ग्रामीण इलाक़ों में रहता है, लेकिन हाल में पेश किये गये किसी भी केंद्रीय बजट में इन इलाक़ों के साथ इंसाफ़ नहीं किया गया है।इस ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ज़बरदस्त अहमियत और इंडिया बनाम भारत वाली बहस को लेकर ज़ोर-शोर से बातें तो होती रहती हैं,लेकिन इसके बावजूद, ग्रामीण भारत को प्रभावित करने वाले कई मंत्रालयों और ख़ासकर ग्रामीण आजीविका और कल्याण से जुड़े तीन मंत्रालय- कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण, ग्रामीण विकास और मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी के आवंटन में इन ज़्यादतर सालों में गिरावट ही आयी है।
कृषि और इससे जुड़े मत्स्य पालन, पशुपालन, डेयरी, आदि जैसे क्षेत्रों के लिए बजटीय आवंटन पिछले सात सालों में कुल केंद्रीय बजट के दो से पांच प्रतिशत के बीच रहा है। सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के लिहाज़ से भी कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों के लिए आवंटन 0.3% और 0.7% के बीच रहा है। ( देखें-महामारी के समय में बजट, बजट का केंद्र और सरकार की जवाबदेही)। यह रक़म एक तिहाई आबादी की मदद के ख़्याल से अपर्याप्त है और यह राशि इस बात को सरेआम कर देती है कि आख़िर ग्रामीण भारत का जीवन स्तर निम्न क्यों है।
किसानों को नक़दी का हस्तांतरण करने वाली प्रधान मंत्री किसान सम्मान योजना वार्षिक केंद्रीय बजट में ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी में हुए हालिया इज़ाफ़े के पीछे की बड़ी वजह है। हालांकि, यह आवंटन अब भी बजट के 5% के भीतर ही है। नाकारात्म पहलू यह है कि कुछ अहम योजनाओं के लिए शुरुआत में जितनी राशि आवंटित की गयी थी,उसके मुक़ाबले कुछ सालों में उसके संशोधित अनुमानों में काफ़ी कमी आयी है। यह हतोत्साहित करने वाला रुझान 2020-21 में भी दिखायी दे रहा था, जब लोगों ने ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर दिये जाने वाले एक विशेष कोविड-19 राहत पैकेज की उम्मीद की थी। कृषि मंत्रालय के लिए 2020-21 का संशोधित अनुमान मूल आवंटन (बजट अनुमान के रूप में जाना जाता है) से 17,000 करोड़ रुपये या उससे भी कम हो गया है। यहां तक कि असरदार किसान सम्मान निधि में भी 10,000 करोड़ रुपये की कटौती की गयी। किसान-उत्पादक संगठनों या एफ़पीओ को बढ़ावा देने के लिए एक और बहुप्रचारित योजना में 50% की कटौती देखी गयी।
इस तरह की कटौती से 2020-21 के लिए संशोधित अनुमानों को बजट घटकर महज़ 3.7% की हिस्सेदारी तक रह गयी। यह आंकड़ा इस साल के बजट अनुमान (बजट का 4.8%) से काफ़ी कम ही नहीं था,बल्कि पिछले साल (2019-20) के दौरान किये गये वास्तविक व्यय से भी कम था। 2019-20 में यह व्यय बजट के हिस्से का महज़ 3.9% था।
इस तरह की मनमाने तौर पर की जाने वाली और अहम कटौती से ज़मीनी स्तर पर जीवन और आजीविका जिस तरह से प्रभावित हुए हैं, इस पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। यहां तक कि संशोधित अनुमान के स्तर पर यह कम आवंटन केंद्रीय बजट की विश्वसनीयता को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। हाल के दिनों में लोगों ने महसूस किया है कि अहम अनुदानों को लेकर जो ऐलान किया जाता है,उससे लोगों में उम्मीदें जगती है, लेकिन उम्मीदें आख़िरकार अधूरी रह जाती हैं, क्योंकि मूल आवंटन कभी पूरा ही नहीं होता है। ( देखें- सीबीजीए की पोल खोलता केंद्रीय बजट की प्राथमिकतायें)।
हम कई ऐसे उदाहरण देख सकते हैं, जहां उम्मीदों के आसमान छूने के बावजूद बजट नाकाम हो जाता है। प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना में विभिन्न मंत्रालयों की ओर से प्रबंधित कई उप-योजनायें शामिल हैं। अगर हम उनके सभी आवंटन को जोड़ भी लें, तो 2019-20 में बजट अनुमान 9,843 करोड़ रुपये का था, जो संशोधित अनुमान में घटकर 7,958 करोड़ रुपये रह गया। फिर अगले साल (2020-21) 11,378 करोड़ रुपये के बजट अनुमान को घटाकर 8,206 करोड़ रुपये कर दिया गया। इस तरह, इन दो सालों में इस उच्च प्राथमिकता वाली योजना से तक़रीबन 5,000 करोड़ रुपये की कटौती की गयी।
2019-20 में राष्ट्रीय कृषि विकास योजना को 3,745 करोड़ रुपये के बजट अनुमान से 2,760 करोड़ रुपये के संशोधित अनुमान की बड़ी कटौती का सामना करना पड़ा था। 2020-21 में इस कटौती ने 3,700 करोड़ रुपये के बजट अनुमान से 2,551 करोड़ रुपये की भारी कटौती करके ख़ुद को दोहराया।
2019-20 में बाज़ार हस्तक्षेप योजना और मूल्य समर्थन योजना को बजट अनुमान 3,000 करोड़ रुपये से घटाकर संशोधित अनुमान के 2,010 करोड़ रुपये करने का सामना करना पड़ा। इसके अलावा 2,000 करोड़ रुपये के बजट अनुमान को संशोधित अनुमान में घटाकर 996 करोड़ रुपये कर दिया गया।
इस तरह की कटौती योजनाओं के नतीजों और प्रदर्शनों पर बहुत ही प्रतिकूल अलर डाल सकती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हर परियोजना की कुछ निश्चित लागतें होती हैं, जिन्हें पूरा किया जाना चाहिए, चाहे ज़मीन पर प्रदर्शन हो या न हो। इसलिए, योजना आवंटन के कम होने पर ज़मीनी कार्य और संबंधित फ़ायदे लोगों तक कभी नहीं पहुंच पाते हैं।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के लिए यह आवंटन पिछले सात सालों के दौरान कुल बजट व्यय का 3.8 प्रतिशत से लेकर 5.7 प्रतिशत के बीच रहा है। बजट अनुमान में सबसे कम,यानी 3.8% की हिस्सेदारी साल 2021-22 में थी। सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में ग्रामीण विकास मंत्रालय के लिए यह आवंटन 0.53% और 1.00% के बीच रहा है।
इस तरह, अगर हम सभी तीन मंत्रालयों-कृषि, कृषि से जुड़े क्षेत्रों वाले मंत्रालय और ग्रामीण विकास मंत्रालय के हुए आवंटन को भी जोड़ लें, तो पिछले सात सालों के दौरान यह वित्त पोषण कुल बजट हिस्सा 6.3 फ़ीसदी से 10.5 फ़ीसदी तक बढ़ा है, जो कि एक मामूली वित्त पोषण है। 2020-21 के संशोधित अनुमान में तब 10.5% का उच्चतम आवंटन किया गया था, जब सरकार ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत कोविड-19 राहत पैकेजों का ऐलान किया था। नतीजतन, ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से किये गये व्यय का संशोधित अनुमान 2020-21 में इस बजट हिस्सेदारी का 5.7% तक पहुंच गया।
दुर्भाग्य से भले ही इन चिंताओं का ज़्यादतर का वास्ता व्यय में हुई बढ़ोत्तरी से रहा था, तब भी सरकार अगले ही साल जल्दबाज़ी दिखाते हुए और समय से पहले इसे वापस लेते हुए पीछे हट गयी थी। इसका नतीजा यह हुआ था कि 2021-22 में बजट अनुमान पिछले साल के 5.7% हिस्से के संशोधित अनुमान के मुक़ाबले बजट हिस्सेदारी के 3.8% तक गिर गया था। अगर फिर इन तीनों मंत्रालयों के अनुमानों को जोड़ दिया जाये, तो 2021-22 में बजट अनुमान काफ़ी कम था, जो कि कुल बजट का 7.7% हिस्सा था।
ख़ास तौर पर ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना-MG-NREGA के लिए आवंटन में हुई अहम बढ़ोतरी को समय से पहले ही वापस लिये जाने का फ़ैसला ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले सबसे ग़रीब नागरिकों के लिए दुखद परिणाम लेकर आया। चूंकि लॉकडाउन, काम का बंद होना और अर्थव्यवस्था का आंशिक रूप से फिर से खोला जाना जारी रहा, ऐसे में काम की मांग ज़्यादा बनी रही, इस वजह से उपलब्ध सीमित बजट को बहुत ही जल्दी ख़त्म कर दिया गया। कई अर्थशास्त्रियों, कार्यकर्ताओं और ग़ैर-सरकारी संगठनों ने कहा कि एमजी-नरेगा फ़ंड को साल के मध्य में बढ़ाया जाना चाहिए था, लेकिन फ़ंड की कमी बनी रही।
असल में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जितने पैसों की ज़रूरत है,उससे कम का आवंटन भारत की विरासत से मिली समस्या रही है। हालांकि, मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार कृषि आय को दोगुना करने की अपनी बयानबाज़ी के बावजूद इस प्रवृत्ति को लगातार या अहम तरीक़ी से रोक नहीं पायी है। ग्रामीण क्षेत्रों की यह अनदेखी उन ज़्यादतर भारतीयों की क़ीमत पर होती है, जो या तो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं या अपने गांव के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। हक़ीक़त तो यही है कि मौजूदा सरकार ने कोविड-19 राहत पैकेजों के ज़रिये जो सीमित बढ़ोत्तरी की थी,उसने उसे भी वापस ले लिया। इन सभी कारणों से केंद्र सरकार को वित्तीय साल 2022-23 के केंद्रीय बजट में ग्रामीण भारत के लिए आवंटन को तत्काल और अहम रूप से बढ़ाना चाहिए।
लेखक कंपेन टू सेव अर्थ नाउ के मानद संयोजक हैं। उनकी लिखी हालिया किताबों में “मैन ओवर मशीन एंड प्लेनेट इन पेरिल” शामिल हैं। इनके विचार निजी हैं
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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