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बजट की फांस– इधर कुआँ, उधर खाई

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट इतना गंभीर हो गया है कि नवउदारवादी हों या कींसवादी दोनों ही तरह की नीतियों से इसके समाधान का कोई वास्तविक विकल्प नजर नहीं आ रहा है।
Nirmala Sitharaman
फाइल फोटो

अब यह किसी विवाद का विषय नहीं रहा कि भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट और मंदी के गहरे भंवर में फंसी हुई है। अभी कोई बहस है तो इस बात पर कि इस मंदी की वजह क्या है और सरकार इससे पार पाने के लिए क्या कदम उठा सकती है और उनके कामयाब होने की कितनी आशा की जा सकती है। इसी स्थिति में 1 फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए बजट प्रस्तुत करेंगी।

पूंजीवादी अर्थशास्त्री संकट से निकलने के दो मुख्य रास्ते सुझाते हैं, नवउदारवादी और कींसवादी। नवउदारवादी कहते हैं कि सरकार को अपने खर्च को सीमित कर अपने वित्तीय घाटे को कम करना चाहिये। इससे सरकार को कर्ज लेने की अधिक आवश्यकता नहीं रहेगी और वह उपलब्ध पूंजी के लिए निजी क्षेत्र के साथ होड़ नहीं करेगी। पूंजी के लिए होड़ के कम होने से ब्याज दरें गिर जायेंगी और निजी क्षेत्र को सस्ती ब्याज लागत पर प्रचुर पूंजी उपलब्ध होगी और वह अर्थव्यवस्था में निवेश को तेज करेगा। इससे आर्थिक वृद्धि तेज होगी, रोजगार सृजित होंगे और ट्रिकल डाउन के जरिये आर्थिक वृद्धि का लाभ आम जनता तक भी पहुंचने लगेगा। तब उपभोग और मांग में वृद्धि होकर अर्थव्यवस्था संकट से निकल कर तीव्र विकास की राह पकड़ लेगी।

इसी विचार से सरकार के वित्तीय घाटे की सीमा बांधने वाले कानून बहुत देशों में बनाये गये जैसे भारत में एफ़आरबीएम एक्ट जिसके अनुसार वित्तीय घाटे को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए गये। इसके अनुसार अभी सरकार का वित्तीय घाटा 3% से अधिक नहीं होना चाहिये।

बजट के अनुसार चालू वित्तीय वर्ष में यह 3.43% रहने का अनुमान है हालांकि स्वतंत्र विश्लेषक मानते हैं कि सरकार इसके के बड़े हिस्से को सार्वजनिक संस्थानों के कर्ज के नाम पर छिपा रही है और वास्तविक घाटा 8-10% है। इसी वजह से रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा नीति में 5 बार रेपो ब्याज दर घटाने के बाद भी बैंकों के वास्तविक कर्ज की औसत ब्याज दर में कोई प्रभावी कमी नहीं आई है।

इसके विपरीत कींसवादी मानते हैं कि आर्थिक संकट के मौके पर सरकार को खर्च कम करने के बजाय बढ़ाना चाहिये क्योंकि संकट काल में बाजार मांग कम होने से पूंजीपति कम ब्याज पर प्रचुर पूंजी उपलब्ध होने से भी निवेश नहीं करते क्योंकि उत्पादित माल को बेचकर मुनाफा कमाना उनका मकसद है लेकिन बाजार में मांग नहीं हो तो माल बिकेगा नहीं और घाटा हो जायेगा।

अतः वे सस्ते कर्ज लेकर अपने पुराने महंगे कर्ज चुकाने का रास्ता अपनाते हैं। इसलिये कींसवादी मानते हैं कि उत्पादन में पूंजी निवेश बढ़ाने का काम सरकार ही कर सकती है और उसे वित्तीय घाटे की परवाह न कर कर्ज लेकर भी ऐसा करना चाहिये। सरकार अगर खर्च बढ़ाये तो उससे बहुत से व्यक्तियों के हाथ में पैसा आयेगा और वे उसे उपभोग के लिए खर्च करेंगे। उपभोग बढ़ने से बाजार में माल की मांग बढ़ेगी। तब निजी पूंजीपति ऊंची ब्याज दर पर कर्ज लेकर भी पूंजी निवेश कर उत्पादन बढ़ाएंगे, आर्थिक वृद्धि तेज होगी एवं रोजगार सृजन अधिक होगा, जिसे मांग और बढ़कर अर्थव्यवस्था विकास के चक्र में प्रवेश कर लेगी। तेज आर्थिक वृद्धि से सरकार की टैक्स आय बढ़ेगी जिससे वह लिये गये कर्ज को चुका कर अपनी वित्तीय स्थिति को फिर से ठीक कर लेगी।

1970 के दशक से पूरी पूंजीवादी दुनिया में नवउदारवादी विचार का प्रभुत्व रहा है। भारत में भी 1980 के दशक से उदारीकरण का दौर शुरू हुआ जिसके अंतर्गत अधिकांश पूंजीवादी देशों की तरह यहां भी सार्वजनिक उद्यमों में विनिवेश कर उनका निजीकरण किया गया और शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, आदि सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों पर बजटीय खर्च घटा उनके व्यवसायीकरण को बढावा दिया गया।

इस सबके पीछे तर्क यही था कि सरकार को पूंजीनिवेश से दूर रहकर अपना वित्तीय घाटा नियंत्रित रखना चाहिये और निजी क्षेत्र नियंत्रण मुक्त हो खूब निवेश कर आर्थिक वृद्धि को गति दे। आरंभ में इसका लाभ निजी पूंजीपतियों को ही होगा पर बाद में यह फायदे रिसते रिसते आम जनता तक भी पहुंचेंगे और गरीबी दूर होगी। इसी क्रम में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने वाले एफआरबीएम कानून को पारित किया था।

किंतु इन नीतियों के नतीजे के तौर पर भारत में भी जल्दी ही व्यापक वित्तीय संकटों का दौर शुरू हुआ। 2008 के ऐसे ही विश्वव्यापी संकट को टालने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने अल्पकालिक तौर पर कींसवादी और नवउदारवादी नीतियों के मिश्रण को अपनाकर एक ओर मनरेगा लागू किया तो दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा इंफ्रास्ट्रक्चर में पूंजी निवेश के लिए खुले हाथ भारी संख्या में कर्ज बांटने की नीति अपनाई। पर यह नीति भी संकट को तीन साल ही टाल पाई तथा 2011 पार होते होते अर्थव्यवस्था फिर से मंदी का शिकार हो गई और इसी संकट के दौर से पैदा असंतोष का लाभ उठाकर तेज विकास के अच्छे दिन के सपने वाली मोदी सरकार सत्ता में आई।

मौजूदा मोदी सरकार सैद्धांतिक तौर पर नवउदारवादी नीतियां अपनाने के लिए कटिबद्ध थी। लेकिन इन नीतियों का नतीजा विकास के अच्छे दिनों के बजाय बढ़ती बेरोजगारी, घटते उपभोग और मेहनतकश जनता के लिए तकलीफदेह गरीबी वाली वर्तमान आर्थिक मंदी है। सरकार और रिजर्व बैंक दोनों द्वारा ब्याज दरें घटाकर निजी पूंजी निवेश को बढ़ाने की तमाम कोशिशों के बावजूद भी आज पूंजी निवेश में वृद्धि 1% से भी नीचे के ऐतिहासिक स्तर पर जा पहुंची है। ऐसी ही स्थिति विकसित से विकासशील सभी पूंजीवादी देशों की है। अतः नवउदारवादी आर्थिक नीतियों द्वारा तीव्र आर्थिक वृद्धि और आम जनता के जीवन में सुधार के सारे दावों का दिवालियापन पूरी तरह जाहिर हो चुका है।

इसके चलते अब फिर से पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा हिस्सा सरकार द्वारा वित्तीय घाटे के बढ़ने की परवाह छोड़ कर्ज लेकर भी भारी पूंजी निवेश द्वारा अर्थव्यवस्था में वृद्धि को किकस्टार्ट करने की वकालत करने में जुट गए हैं। हालांकि एक हिस्से का जोर अभी भी पूंजीपति वर्ग और अमीर मध्यम वर्ग को कॉरपोरेट या इनकम टैक्स छूट और सस्ते कर्ज देकर उपभोग और निवेश बढाने पर है पर पिछली ऐसी कॉर्पोरेट टैक्स रियायतों से वास्तविकता में ऐसा कुछ भी नहीं होने से इनकी आवाज कमजोर हुई है।

पर क्या कींसवादी नीति भी वर्तमान संकट का वास्तविक समाधान कर सकती है? यहां सवाल यह है कि सरकार घाटा बढाकर खर्च करेगी कहां? एक तरीका है ग्रामीण बेरोजगारों के लिए मनरेगा पर बजट बढ़ाना तथा शहरी बेरोजगारों के लिए भी ऐसी ही रोजगार गारंटी आरंभ कर इन बेरोजगारों के हाथ में कुछ पैसा देकर इनका उपभोग व उसके जरिए बाजार मांग बढ़ाने का प्रयास करना। निश्चित ही इससे तात्कालिक तौर पर इन बेरोजगार श्रमिकों को राहत मिलेगी और यह किया ही जाना चाहिए। पर इन योजनाओं से अर्थव्यवस्था में स्थाई मांग और उत्पादक शक्ति का विकास नहीं किया जा सकता। अतः यह अर्थव्यवस्था के संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं है।

दूसरा जो उपाय सुझाया जा रहा है वह है इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ाना। सरकार पहले ही पांच साल में एक सौ लाख करोड़ रुपये से अधिक खर्च की योजना इसके लिए घोषित कर चुकी है। अगर हम इसके लिए पूंजी की व्यवस्था की बारीकी में जाये बगैर यह मान भी लें कि सरकार यह निवेश करेगी तब भी यह सोचना होगा कि बुलेट ट्रेन, मेट्रो, एक्सप्रेस वे, स्मार्ट सिटी, डिजीटलाईजेशन, जैसी विशाल योजनाओं पर होने वाले इस खर्च से क्या अर्थव्यवस्था सुधर सकती है। इन सभी योजनाओं का डिजाइन ऐसा है कि इनका उपयोग करने वाली जनता का प्रतिशत बहुत कम है जिसके चलते इन योजनाओं के द्वारा मुनाफा कमाकर बैंक कर्ज से जुटाई गई पूंजी की किश्त और ब्याज को चुकाने में बहुत शक है। इसलिये अधिक संभावना यही है कि जैसे 2008-09 में यूपीए सरकार के वक्त बैंकों द्वारा इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों के लिए बांटे गये बड़े कर्ज बाद में डूब गये, उसी तरह ये नये बड़े कर्ज भी बाद में एनपीए बनकर बैंकिंग प्रणाली को और भी भयंकर वित्तीय संकट में धकेल देंगे।

यही वजह है कि बजट प्रस्ताव सरकार के लिए गले की फांस बने हुए हैं क्योंकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का संकट इतना गंभीर हो गया है कि नवउदारवादी हों या कींसवादी दोनों ही तरह की नीतियों से इसके समाधान का कोई वास्तविक विकल्प नजर नहीं आ रहा है।

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