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झारखंड में चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था और मरीज़ों का बढ़ता बोझ : रिपोर्ट

कैग की ओर से विधानसभा में पेश हुई रिपोर्ट में राज्य के जिला अस्पतालों में जरूरत के मुकाबले स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी का खुलासा हुआ है।
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Image courtesy : The Indian Express

कुछ ही दिन पहले अधिकारियों को 'बेलगाम' कहने वाले झारखंड के स्वास्थ्य मंत्री के अपने विभाग की व्यवस्था बद से बदतर हो गई है। महालेखाकार यानी कैग की ओर से विधानसभा में पेश हुई रिपोर्ट में राज्य के जिला अस्पतालों में जरूरत के मुकाबले स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी का खुलासा हुआ है। रिपोर्ट में बच्चों को लगे एक्सपायरी इंजेक्शन से लेकर शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली हाई फ्रीक्वेंसी एक्सरे मशीन तक सभी का जिक्र है। इतना ही नहीं इस रिपोर्ट में ये भी दावा किया गया है कि कोरोना काल में जब राज्य की जनता दवा और इलाज के अभाव में दर-दर भटक रही थी, बिना इलाज मर रही थी। उस समय भी झारखंड का स्वास्थ्य विभाग अपने बजट की राशि का सही इस्तेमाल नहीं कर रहा था।

बता दें कि डॉक्टरों की 58 प्रतिशत, नर्सों की 87 प्रतिशत और पारा मेडिकल स्टाफ की 76 प्रतिशत तक की कमी है। वहीं, 11 से 22 प्रतिशत तक आवश्यक दवाइयां ही उपलब्ध हैं। पांच वर्षों में स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए राज्य सरकार द्वारा दी गयी राशि का औसतन 70 प्रतिशत ही खर्च हो सका है। वहीं नेशनल हेल्थ मिशन (एनएचएम) के तहत मिली राशि में से भी 42-60 प्रतिशत तक खर्च की गयी है।

क्या है पूरा मामला?

झारखंड के राज्य के जिला अस्पतालों से संबंधित सीएजी की विशेष रिपोर्ट मंगलवार, 15 नवंबर को विधानसभा में पेश की गई। इस रिपोर्ट में वर्ष 2014-2019 तक जिला अस्पतालों से नागरिकों को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं का उल्लेख किया गया है। रिपोर्ट में बाहरी मरीजों, अस्पताल में भर्ती मरीजों, मैटरनिटी सर्विस, डायग्नोस्टिक सर्विस, इंफेक्शन कंट्रोल और ड्रग मैनेजमेंट से जुड़े पहलू शामिल हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक मरीज की गंभीर अवस्था के लिए राज्य के सिर्फ नौ जिला अस्पतालों में आईसीयू की सुविधा उपलब्ध है। आईसीयू में भी आवश्यकता के मुकाबले कई सुविधाएं नहीं हैं। कुछ जिला अस्पतालों के आईसीयू में दवाइयां सहित अन्य चीजें रखी गयी हैं। आईसीयू में 14 प्रकार की आवश्यक दवाइयों का होना जरूरी है। हालांकि ऑडिट में देवघर के आईसीयू में छह आवश्यक दवाइयां नहीं पायी गयीं।

रामगढ़ में बच्चों को हेपेटाइटिस बी की 410 खुराक एक्सपायरी इंजेक्शन की लगा दी गई हैं। वैक्सीन की डेट अक्टूबर 2018 में खत्म हो गई थी। इसके बाद नवंबर 2018 से जनवरी 2019 के बीच इनका इस्तेमाल किया गया। इसके साथ ही कई दवाएं लैब की जांच में नकली पाई गई है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि राज्य के कई अस्पतालों में आईसीयू नहीं है। पलामू में आईसीयू है लेकिन काम नहीं करता है। लैब तकनीशियन की कमी है। जिसकी वजह से जरूरी जांच भी नहीं हो पाती है। सीटी स्कैन मशीन की भारी कमी है। एक्सरे की मशीनें हाई फ्रीक्वेंसी की हैं। जिसकी वजह से मानव शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

प्रसव में राज्य औसत से अधिक मृत बच्चों का जन्म

रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के जिला अस्पतालों के मैटरनिटी सेंटर में पूरी सुविधाएं भी नहीं हैं। मैटरनिटी सेंटर में भी दवाइयों की कमी है। वर्ष 2014-19 तक की अवधि में निबंधित गर्भवती महिलाओं में से 60 प्रतिशत को टिटनेस का पहला इंजेक्शन नहीं मिला। वर्ष 2016-19 की अवधि में जननी सुरक्षा योजना से संबंधित 362 मामलों की जांच की गयी।

इसमें पाया गया कि 310 महिलाओं को इस योजना का लाभ नहीं मिला। 97 महिलाओं को इस योजना का लाभ छह महीने के बाद दिया गया। झारखंड मेडिकल एंड हेल्थ केयर इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोक्योरमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (जेएमएचआइडीपीसीएल) ने राज्य से मिली राशि के 88 प्रतिशत का इस्तेमाल नहीं किया।

महालेखाकार की रिपोर्ट के अनुसार, सदर अस्पतालों में जितने प्रसव होते हैं, उसके अनुपात में डॉक्टर व नर्स की भारी कमी है। सिर्फ पूर्वी सिंहभूम में ही पर्याप्त संख्या में डॉक्टर व नर्स उपलब्ध हैं। देवघर, हजारीबाग, पलामू, रामगढ़ तथा रांची में डॉक्टर व नर्स की सात से 65 प्रतिशत तक की कमी है। रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि छह जिलों के सदर अस्पतालों में हुए प्रसव में राज्य औसत से अधिक मृत बच्चों का जन्म (स्टिल बर्थ) हुआ। राज्य में यह दर एक हजार जन्म पर एक ही है, जबकि इन जिलों में यह दर 1.08 से 3.89 प्रतिशत है। पलामू, देवघर और हजारीबाग में तो यह दर क्रमश: 3.89, 2.52 तथा 2.09 प्रतिशत थी।

ऑडिट के दौरान छह जिलों (हजारीबाग,देवघर, पूर्वी सिंहभूम, पलामू,रांची व रामगढ़) में दुर्घटना और ट्रॉमा केयर की सुविधाओं की जांच में पाया गया कि सिर्फ हजारीबाग में ही दुर्घटना और ट्रॉमा वार्ड की सुविधा है। देवघर, पूर्वी सिंहभूम, पलामू और रांची में ट्रामा के मरीज का इलाज इमरजेंसी वार्ड में किया जाता है।

ऑपरेशन थिएटर और इमरजेंसी सेवा उपलब्ध नहीं

रामगढ़ में तो ड्रेसिंग रूम में ट्रामा के मरीजों का इलाज किया जाता है। राज्य के पांच जिला अस्पतालों में ऑपरेशन थिएटर और इमरजेंसी सेवा उपलब्ध नहीं हैं। ऑडिट में सिर्फ पूर्वी सिंहभूम के जिला अस्पताल में ऑपरेशन थिएटर में ऑपरेशन से संबंधित विस्तृत ब्यौरा पाया गया। राजधानी रांची और हजारीबाग के जिला अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर में ऑपरेशन की प्रक्रिया का ब्योरा आंशिक रूप से उपलब्ध है। राज्य के तीन जिला अस्पतालों (देवघर,पलामू,रामगढ़) के ऑपरेशन थिएटर में ऑपरेशन से संबंधित कोई ब्योरा उपलब्ध नहीं है।

रिपोर्ट के मुताबिक एक ओर जिला अस्पतालों में 19-58 प्रतिशत तक विभिन्न स्तर के डॉक्टरों की कमी है। 43 से 77 प्रतिशत तक पारा मेडिकल स्टाफ और 11 से 87 प्रतिशत तक नर्सों की कमी है। तो वहीं दूसरी ओर जिला अस्पतालों में आउटडोर पेशेंट का दवाब लगातार बढ़ता जा रहा है। 2018-19 में 2014-15 के मुकाबले आउटडोर का दबाव 57 प्रतिशत बढ़ा। जेनरल मेडिसिन ओपीडी में एक- एक डॉक्टर पर 79 से 325 मरीजों को देखने की जिम्मेवारी है। गाइनी में यह 30 से 194 तक और बच्चों के ओपीडी में 20 से 118 मरीजों का दबाव बढ़ा है।

डॉक्टरों की कमी और मरीजों का बढ़ता बोझ

महालेखाकार की रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि झारखंड के सदर अस्पतालों के ओपीडी में आनेवाले मरीजों की संख्या में 57 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। दूसरी तरफ, प्रत्येक ओपीडी महज एक डॉक्टर की ही उपलब्धता रही। ओपीडी पर मरीजों का बोझ बढ़ता गया, जिसके कारण डॉक्टर मरीजों को पर्याप्त परामर्श नहीं दे सके। जनरल मेडिसिन के ओपीडी में 79 से 325 मरीजों, गायनोकोलॉजी में 30 से 149 तथा पीडियाट्रिक ओपीडी में 20 से 118 मरीजों को प्रत्येक दिन एक डॉक्टर द्वारा परामर्श दिया गया। इस वजह से मरीजों को मिलने वाले पांच मिनट से कम समय मिल सका।

जिला अस्पतालों में पैथोलॉजी और रेडियोलॉजी जांच की सुविधा कम है। उपकरणों को चलानेवाले तकनीकी कर्मचारियों की भी कमी है। देवघर, हजारीबाग और पलामू में डॉक्टरी सलाह के बिना ही अस्पताल छोड़ने वाले मरीजों की संख्या सबसे ज्यादा है। पांच जिला अस्पतालों में ऑपरेशन थिएटर और इमरजेंसी सेवा उपलब्ध नहीं है।

सात साल में भी चालू नहीं हो सकीं बर्न यूनिट

रिपोर्ट के अनुसार, अगस्त 2014 में झारखंड के सभी जिलों के सदर अस्पतालों में दस-दस बेड की बर्न यूनिट प्रत्येक 1.35 करोड़ की लागत से स्वीकृत हुई थी। इनमें से चार जिलों की योजना बाद में रद्द कर दी गई। 20 जिलों में 12.40 करोड़ रुपये खर्च कर यूनिट की स्थापना तो की गई, लेकिन उपकरण नहीं खरीदे जाने के कारण 7 साल में भी ये चालू नहीं हो सकीं। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा की झारखंड की स्वास्थ्य व्यवस्था जमीनी स्तर पर चरमराई हुई है।

गौरतलब है कि हाल ही में झारखंड सरकार द्वारा जारी बजट में स्वास्थ्य में सबसे ज्यादा 27 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी के ऐलान के साथ सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधा पहुंचाने के लिए मोबाइल क्लीनिक व बाइक एंबुलेंस सेवाएं शुरू करने की घोषणा की गई है। हालांकि वाकई इन सुविधाओं और सेवाओं का लाभ लोगों तक पहुंचेगा या नहीं ये तो वक्त ही बता सकता है। फिलहाल इतना जरूर साफ है कि हमारी सरकारें स्वास्थ्य व्यवस्था और आम जन को मिल रही सुविधआओं को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं हैं।

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