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झारखंड: सिलिकोसिस के कारण तिल-तिल मर रहे श्रमिक

झारखंड में चल रहे बड़े पैमाने पर पत्थर तोड़ने के काम में मुख्य रूप से आदिवासी क्षेत्रों के श्रमिक या प्रवासी काम करते हैं जो देर-सबेर सिलिकोसिस की चपेट में आ जाते हैं और अंततः अपनी जान गंवा देते हैं।
Victims of the killer Dust
जानेलवा धूल की पीडि़त

झारखंड: 34 वर्षीय कुणाल बिस्‍तर पर लेटे हुए थे, इस चिलचिलाती गर्मी की दोपहर में ऐसी का तापमान 21 कर रखा है। एक समय स्‍वस्‍थ रहा व्‍यक्ति जिसे कमरे की दीवार पर टंगी तस्‍वीर में देखा जा सकता है अब उनका शरीर पीला पड़ गया है। लेटे हुए कुणाल के चेहरे पर लगभग स्‍थायी रूप से ऑक्‍सीजन मास्‍क लगा होता है यहां तक कि वॉशरूम में जाते समय भी उन्‍हें ऑक्‍सीजन कंस्‍ट्रेटर साथ ले जाना पड़ता है।

ऑक्‍सीजन सिलेंडर तभी हटता है जब बिजली चली जाती है। नहीं तो, मशीन स्‍थायी रूप से उसके पास रहता है। कुछ साल पहले तक कुणाल बंगलुरु में काम करते थे बाद में वे घर वापस आ गए। यहां वे नौकरी ढूंढने लगे और अंत में उन्‍हें ''कृष्‍णा एण्‍ड कृष्‍णा उद्योग'' में नौकरी मिली, वहां उनका काम बिल बनाना और भुगतान का ध्‍यान रखना होता था।

कृष्णा एंड कृष्णा उद्योग, वह फैक्ट्री जो पूर्वी सिंहभूम के विभिन्न ग्रामीण इलाकों में अलग-अलग नामों से संचालित होती है और असहाय मजदूरों के जीवन का निर्वाह करती है।

जो वेतन उन्‍हें मिल रहा था वह परिवार चलाने के लिए नाकाफी था। वह दूसरी नौकरी करने की सोच रहे थे तभी कंपनी का मालिक उनके पास आया। मालिक ने उत्‍पानद की देखभाील की अतिरिक्‍त जिम्‍मेदारी दी और उसका वेतन बढ़ा दिया।

उसे इस बारे में अधिक जानकारी नहीं थी कि वेतन में बढ़ोत्तरी के साथ सिलकिॉन डाईऑक्‍साईड की अतिरिक्‍त खुराक भी आई जो आज की उसकी स्थिति के लिए जिम्‍मेदार है। रैमिंग मास फैक्ट्रियां क्‍वार्टजाइट पत्‍थरों को पीसने और उन्‍हें विभिन्‍न कणों में बनाने का काम करती हैं और 'रैमिंग मास' तैयार करने के लिए अन्‍य कणों के साथ मिश्रण करने का काम करती हैं।

यह उत्‍पाद स्‍टील उद्योगों में इंसुलेटर्स बनाने के लिए उपयोग होता है। बड़ी-बड़ी मशीने पत्‍थरों को पीसने का काम करती हैं और उनका पाउडर बनाती हैं। इस कारण बहुत धूल निकलती है। इस धूल में सिलिकॉन ऑक्‍साईड होती है। जब ये सांस के द्वारा अंदर जाती है तो इससे सिलिकोसिस बीमारी होती है। फेफड़ों का यह संक्रमण फेफड़ों में घाव पैदा करता है जो सांस लेने की क्षमता को धीरे-धीरे कम कर देता है और अंततः मरीज को सांस लेने में तकलीफ होने लगती है। इसके तीन प्रकार हैं- तीव्र, जीर्ण और त्वरित। अवस्था रोगी के सिलिका सेवन पर निर्भर करती है। बड़े पैमाने पर उत्पादन में, सिलिका धूल की मात्रा 99% है। इसलिए सिलिकोसिस से पीड़ित लगभग सभी श्रमिक गंभीर अवस्था में होते हैं।

मौत की ओर बढ़ता एक दुष्‍चक्र

अपने पिता की हालत से बेखबर कुणाल की बेटी उनके आसपास मंडराती रहती है और उनसे खेलने के लिए कहती रहती है। कुणाल धीरे से उसके चेहरे पर हाथ रखता और उसे दूसरे कमरे में जाने के लिए कहता। जब परिवार का एकमात्र कमाने वाला सदस्य बिस्तर पर होता है, तो घर खुद ही सब कुछ बोलता है। परिवार कुणाल के दिवंगत पिता की पेंशन के पैसे और उनके द्वारा परिवार के लिए छोड़ी गई बचत पर जीवित है। उसकी माँ की मदद की पुकार किसी भी व्यक्ति को परेशान कर देगी।

उन्होंने कहा, "मेरे बेटे की क्या गलती थी? वह बेंगलुरु से वापस आया क्योंकि वह मेरे साथ रहना चाहता था। और उसे यही मिला।"

कुणाल को दिन में दो बार सात बड़ी गोलियां निगलते देख अक्सर पत्नी और मां की आंखों में आंसू आ जाते हैं।

"जब हमें पता चला कि उसे सिलिकोसिस है, तो हमने कंपनी के मालिक से संपर्क किया, जिसने मेरे बेटे को ही दोषी ठहराया। उसने कहा कि मेरे बेटे ने शराब और तंबाकू का सेवन किया था, जिसके कारण उसकी यह हालत हुई।"

कुणाल ने बताया कि कैसे मालिक का बेटा अक्सर उसके साथ सिगरेट पीता था। उसके द्वारा बोले गए प्रत्येक शब्द के साथ, उसे सांस लेने में कठिनाई होती थी और मास्क को अपने मुंह पर कसकर पकड़ना पड़ता था। पिछले कुछ दिनों में उनकी सांस लेने में दिक्कत बढ़ गई है। बाद में उन्हें एहसास हुआ कि फैक्ट्री मालिक केवल थोड़े समय के लिए ही परिसर में क्यों रुकता था।

कुणाल ने कहा, ''वे बस कार्यालय में आकर बैठेंगे, वह भी लंबे समय तक नहीं।''

न्यूज़क्लिक ने आईसीएमआर (इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च) के पूर्व निदेशक, कमलेश सरकार से संपर्क किया। उनकी विशेषज्ञता व्यावसायिक स्वास्थ्य में है।

जब उनसे सिलिका धूल के संपर्क में आने वाले कर्मचारी पर तंबाकू सेवन के प्रभाव के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा, "सिलिका एक्सपोजर और तंबाकू सेवन दोनों ही फेफड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन सिलिकोसिस के साथ, यह अलग है। अपने वर्षों में, जैसा कि मैंने केंद्र और राज्य सरकारों को सिफारिशें कीं, हमने महसूस किया कि सिलिका धूल के संपर्क में आने वाले रोगी में क्लब सेल का एक निश्चित प्रोटीन स्राव कम हो जाता है। यदि वार्षिक परीक्षण किया जाता है, तो इसे बहुत अच्छी तरह से समझा जा सकता है।"

मजदूरों का कहना है कि एक बार जब वे इस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं तो मालिक उनकी कॉल का जवाब देना बंद कर देता है। कर्मचारी के पास कोई सबूत न होने के कारण, श्रमिकों को मरने के लिए असहाय छोड़ दिया जाता है।

जगन्नाथ पटोर (35) कुणाल के साथ उसी कारखाने में मजदूर के रूप में काम करते थे। उनके हालत बदतर थी. जब न्यूज़क्लिक ने उनसे मुलाकात की तो वह एक महीने से अधिक समय तक आपातकालीन वार्ड में थे।

जगन्नाथ पटोर की हालत इस हद तक खराब हो गई है कि वह हांफने के बिना पूरा वाक्य भी नहीं बोल पाते हैं।

एमजीएम, जमशेदपुर का एक सरकारी अस्पताल, सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे की एक विशिष्ट तस्वीर दर्शाता है। आपातकालीन वार्ड मरीजों से भर गया है; बिस्तर न केवल वार्ड में बल्कि गलियारे में भी लगाए गए हैं।

पाटोर को आपातकालीन वार्ड में रहना पड़ा क्योंकि सामान्य वार्ड में ऑक्सीजन की कोई व्यवस्था नहीं थी जहां उन्हें बेहतर इलाज दिया जा सके। उनके दो बच्चे हैं और वह अपने परिवार के साथ मुसाबनी में रहते थे। वह इस बात के प्रमुख उदाहरण हैं कि कैसे श्रमिकों को पैसे का लालच देकर इस खतरनाक कार्य क्षेत्र में लाया जाता है। वहां काम करते समय उन्होंने देखा कि कुछ मजदूर सिलिकोसिस से पीड़ित हैं और वे डर गये। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्वस्थ जीवन जीने के लिए कहीं और काम करना शुरू कर दिया।

लेकिन उन पर ज़िम्मेदारियों के कारण उन्‍हें अधिक पैसे की आवश्यकता थी क्‍योंकि उनकी नई नौकरी में मिलने वाली मज़दूरी परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने में विफल रही। उसी समय, उन्हें अपने पिछले कार्यस्थल से एक कॉल आया। उसे अधिक पैसे की पेशकश की गई, और वह वहां काम करने के लिए वापस चला गया। एक दिन उसे एहसास हुआ कि वह ठीक से सांस नहीं ले पा रहा है। सीने में दर्द ने कठिनाई बढ़ा दी और पैटोर को अस्पताल में भर्ती कराया गया। नौ महीने से अधिक समय हो गया है, और पटोर 200 मीटर की दूरी भी मिनटों तक रुके बिना, हांफते हुए नहीं चल सकते। उनकी माँ अस्पताल के बिस्तर पर उसके पास बैठी उम्मीद कर रही है कि उसका बेटा जीवित रहेगा।


पैटोर कहते हैं, "मुझे वापस नहीं जाना चाहिए था। मैंने एक भयानक निर्णय लिया जिसका असर अब मेरे परिवार पर पड़ेगा। मैं हर दिन अपने परिवार को इस स्थिति में देखकर मर जाता हूं, और मुझे पता है कि यह बीमारी मेरी जान लेने से पहले कभी नहीं रुकेगी।"

रैमिंग मास: घातक हत्‍यारा

अतीत में आई रिपोर्टों में पत्थर तोड़ने वाली फैक्ट्रियों और खनन स्थलों के बारे में विस्तार से बात की गई है। लेकिन बड़े इस्पात उद्योगों और इंसुलेटर बनाने में शामिल लोगों द्वारा उपयोग किए जाने वाले बड़े पैमाने पर उत्पादन को प्रभावित करने के बारे में बहुत कम बात की गई है। इसमें शामिल सिलिका धूल की मात्रा के बारे में ज्यादा बात नहीं की गई है, जबकि यह किसी भी अन्य उत्पादन की तुलना में बहुत अधिक है।

अतीत में ऐसी मीडिया रिपोर्टें आई हैं जहां बड़ी संख्या में मजदूरों की मौत स्थानीय समाचार चैनलों की सुर्खियां बनी हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप, फ़ैक्टरियां अक्सर बंद हो जाती हैं, या श्रमिक काम करना बंद कर देते हैं जब उन्हें एहसास होता है कि वे पहले से ही खतरे में हैं।

न्यूज़क्लिक ने पाया कि जिस फ़ैक्टरी में कुणाल और पटोर काम करते थे, वह दलभूमगढ़ में परिचालन शुरू करने से पहले एक अलग स्थान पर एक अलग नाम से चलती थी। यह फैक्ट्री पहले केके मिनरल्स द्वारा चलाई जाती थी और अब इसे कृष्णा एंड कृष्णा उद्योग कहा जाता है।

बस नाम में अंतर है और कुछ बदलाव; केके मिनरल्स में, मजदूरों को उनके उपस्थिति कार्ड के रूप में एक गुलाबी पर्ची दी जाती थी, हालांकि उस पर कोई आधिकारिक हस्ताक्षर नहीं होते थे, जबकि यहां वर्तमान कृष्णा और कृष्णा उद्योग में, उपस्थिति या रोजगार का कोई सबूत नहीं था। एक अलग स्थान पर श्रमिकों के एक अन्य समूह ने समान और उससे भी अधिक विनाशकारी कामकाजी परिस्थितियों में काम किया। पूर्णापानी के बाद फैक्ट्री दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरित होकर दलभूमगढ़ में संचालित हुई।

पुरनापानी में एक के बाद एक मजदूरों की मौत होने लगी तो मृतकों के परिवारों ने फैक्ट्री मालिकों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तेज करना शुरू कर दिया. पुरनापानी निवासी बासो सोबो (55) के पति जब फैक्ट्री चालू थी तब वहां काम करते थे।

सोबो ने बताया, "जब उन्होंने वहां काम करना शुरू किया तो वह ठीक थे। शुरू में, हमने सोचा कि हमारे परिवार की वित्तीय स्थिति में सुधार होगा क्योंकि मालिक अधिक मजदूरी देंगे। लेकिन 2-3 साल तक वहां काम करने के बाद, मेरे पति की तबीयत अचानक खराब हो गई। एमजीएम के डॉक्टरों ने कहा कि उनकी हालत खराब हो गई है। उन्‍हें टीबी है।" और उन्‍हें छह महीने तक दवा दी। कुछ भी नहीं बदला; उसका स्वास्थ्य गिरता रहा। मुझे याद है कि यह 2020 में रविवार की सुबह थी जब उन्‍होंने अंततः सांस लेने की क्षमता खो दी थी। वह मदद के लिए पुकारते रहे, अपने शरीर पर नियंत्रण खोना शुरू कर दिया, और अंततः, मेरी आँखों के सामने दम तोड़ दिया।"

ऐसी ही हालात अन्‍य मजदूरों के साथ थे। कुछ पिछले सालों मर गए और कुछ ने काम करना बंद कर दिया क्‍योंकिे उन्‍हें सांस की समस्‍या होने लगी थीे। जब फैक्‍ट्री बंद हो गई तो इंसाफ के लिए यानी मुआवजे की लड़ाई शुरू हुई। जैसा कि गांव वालों ने बताया कि मृतको के परिवार वालों ने वाहन बुक किया और उस फैक्‍ट्री की ओर चल पड़े जो वर्तमान में दलभूगढ़ में संचालित है। कुणाल की बातें भी गांव वालों की बातों का समर्थन करती हैं। कुणाल कहते हैं, ''हम दो बार फैक्‍ट्री में गए पर हमें मालिक नहीं मिला। मालिक से मिलने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है।''

गांव वालों के दावों और फैक्‍ट्री की स्थिति का जायजा लेने न्‍यूजक्लिक कृष्‍णा एंड कृष्‍णा उद्योग मुसाबनी में पहुंचा जो दलभूमगढ़ से 30 किमी दूर है। यह फैक्‍ट्री रहवास से दूर संकीर्ण गली में स्‍थापित थी जहां दुपहिया वाहन से ही जाया जा सकता था। फैक्‍ट्री की दीवार पर धूल भरा एक बोर्ड लगा था जिस पर फैक्‍ट्री का नाम और कुछ विवरण लिखा था।

फैक्‍ट्री से आने वाली सामान्‍य आवाज सुनाई दे रही थी। वहां या तो बड़े-बड़े आकार के पत्‍थर थे या फिर घास थी। अंदर दाहिनी तरफ, सुरक्षा गार्ड का कमरा था। बाईं तरफ एक एअरकंडीशन कार्यालय था। और सामने एक बड़ा प्‍लांट था जहां रैमिंग मास का उत्‍पदान होता था। जब रिपोर्ट कार्यस्‍थल पर गए, सुपरवाइजर कार्यालय के अंदर बैठा था उसने मुस्‍कान के साथ स्‍वागत किया। जब बातचीत की प्रकिया शुरू हुई तो सुपरवाइजर ने कुछ विवरण दिया जो कुछ बिंदुओं को जोड़ता चला गया।

उन्होंने गर्व से कहा, "फ़ैक्टरी पहले पूर्णापानी में थी। मालिक वही हैं।"

"वे सभी गुप्ता उपनाम वाले मारवाड़ी परिवार के भाई हैं। पहले यह प्रेम गुप्ता के नाम से था और अब विमान गुप्ता के नाम से है।"

उन्होंने खुलासा किया कि पूर्णापानी में ग्रामीणों ने जबरन फैक्ट्री बंद करा दी. हालांकि, उन्होंने इस बारे में कोई बात नहीं की कि ग्रामीण क्यों नाराज हैं।

सुपरवाइजर ने बताया कि फैक्ट्री में कोई भी कर्मचारी दूर-दराज के इलाके से नहीं था; वे सभी स्थानीय थे। फैक्ट्री हमेशा इसी तरह से संचालित होती रही है, जिसमें आसपास के गांवों से कार्यबल की मांग की जाती है। यह पूछने पर कि क्या वे कर्मचारी थे, सुपरवाइजर ने कहा, "हम स्थायी कर्मचारी नहीं रखते हैं। एक शिफ्ट में लगभग 15 कर्मचारी काम करते हैं, और उन सभी को दैनिक वेतन दिया जाता है।"

पीड़ितों के परिवार अवश्य क्रोधित हुए होंगे क्योंकि यह साबित करने का कोई स्रोत नहीं था कि ये कर्मचारी उक्त कंपनी द्वारा नियोजित थे। इसके अलावा, कंपनी ने कभी भी कर्मचारियों को ईएसआई (कर्मचारी राज्य बीमा निगम) के तहत पंजीकृत नहीं किया, जिससे उन्हें मुआवजा और उनके रोजगार का प्रमाण प्राप्त करने में मदद मिल सके। यहां तक कि कुणाल जैसे लोगों के लिए भी, जो तुलनात्मक रूप से बेहतर पद पर थे, कोई ऑफर लेटर या ईमेल नहीं था जो उन्हें कंपनी में शामिल होने के लिए प्रमाणित करता हो, हालांकि उनके पास ईएसआई था।

जब सुपरवाइजर से प्लांट में जाकर देखने के बारे में पूछा गया तो वह झिझकते दिखे। उन्होंने अनुमति के लिए मालिक विमान गुप्ता को फोन किया, जिन्हें पता नहीं चला कि फोन स्पीकर पर था और उन्होंने सुपरवाइजर को सभी को सकारात्मक बातें कहने के लिए मार्गदर्शन करने का आदेश दिया।

फैक्ट्री परिसर में बड़ी-बड़ी पीसने वाली मशीनें, कन्वेयर बेल्ट, फर्श पर रेत जैसा पाउडर और पैक्ड रैमिंग मास की बोरियां देखी जा सकती थीं। विशाल उत्पादन कक्ष के बाहर, खुले में, 5 माइक्रोन से नीचे तक के कणों में पिसे हुए क्वार्टजाइट पत्थरों का विशाल ढेर था।

शिफ्ट में काम करने वाले कर्मचारी दोपहर का भोजन कर रहे थे। कार्यस्थल तक पहुंचने के लिए वे हर दिन 20 किमी से अधिक की यात्रा करते थे। जब रिपोर्टर ने उनसे पूछा कि क्या उनके पास कोई रोजगार प्रमाण है, तो वे इस बात से अनजान थे कि यह उनकी सुरक्षा के लिए पालन किया जाने वाला एक मानक है।

जब सुरक्षा गियर के बारे में पूछा गया, तो कर्मचारी मंद-मंद मुस्कुराए, जिससे पता चला कि बहुत कम सावधानी बरती गई थी। एक ने 4 एन95 मास्क का इस्तेमाल किया और कहा कि धूल अभी भी नाक में घुसी हुई है। जबकि दूसरे, जिसने केवल एक मास्क पहना था, ने उसे अपने हाथ में पकड़ लिया और दावा किया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।

फैक्ट्री के अंदर एक मजदूर. वह सिर्फ एक मास्क का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उसे सांस लेने में दिक्कत होती है और हर हाल में नियमित अंतराल पर मास्क उतारना पड़ता है।

फैक्ट्री से कुछ मील की दूरी पर पाणिझी गांव की पट्टी थी। कथित तौर पर, कारखाने में काम करने वाले कम से कम चार कर्मचारी जिनकी हाल ही में मृत्यु हो गई, वे इसी गांव क्षेत्र से थे। घंटों की खोज के बाद, रिपोर्टर को एक बूढ़ा व्यक्ति मिला जो कारखाने में काम करता था।

बूढ़े ने वहां केवल कुछ महीने ही काम किया था। उसका काम तैयार उत्पादों की बोरियों को सील करना था। उन्होंने कामकाजी परिस्थितियों के बारे में विस्तार से बताया। वहां इतनी धूल है कि सामने वाला भी नजर नहीं आता. अक्सर आपकी आंखें अपने आप बंद हो जाती थीं. मास्क का बहुत कम उपयोग होता है क्योंकि फैक्ट्री के अंदर गर्मी और धूल के कारण सांस लेने में तकलीफ के कारण उन्हें उतारना पड़ता है।

''जब सरकार से उद्योग में धूल की तुलना में इन मास्क के बारे में सवाल पूछा गया, तो उन्होंने कहा, "ये एन-95 मास्क इस तरह से डिजाइन किए गए हैं कि थोड़ी देर के बाद, किसी को अपनी सांस लेने के लिए इसे उतारना होगा। एक व्यक्ति एक से अधिक पहनता है, तो वे ऐसा अधिक बार करेंगे। और जब धूल के भीतर काम करते हैं, तो उनके पास कोई विकल्प नहीं होता है।" पनिझी बेल्ट में एक बिंदु पर, बस्तियां समाप्त हो गई थीं क्योंकि सामने जो कुछ भी था वह जंगल था। स्थानीय लोगों ने संकेत दिया कि जो लोग अभी भी कारखाने में काम करते थे वे एक ऐसे गांव में रहते थे जिसका पता लगाना अज्ञात लोगों के लिए लगभग असंभव था। इस गांव का नाम जरपोगोडा है। ग्रामीण अजनबियों का स्वागत करने से अपरिचित थे और विवरण साझा करने के बारे में आशंकित लग रहे थे। साथ आए सूत्र ने स्थानीय बोली में बात कर उन्हें शांत कराया तो वे खुल गए। वे सभी कर्मचारी जो अभी भी वहां काम कर रहे थे, घर पर नहीं थे। गांव के घर आवश्यकताओं से वंचित थे। फ़ैक्टरी में काम करना कुछ लोगों के लिए आशा और कई लोगों के लिए मौत लेकर आया था।दूसरों के मृतकों से सीख लेने वालों ने काम करना बंद कर दिया था. अन्य लोग, जो दूसरी नौकरी ढूंढने में असफल रहे, अभी भी जा रहे थे। महेंद्र की मां उनमें से एक हैं। "मैं हर दिन अपनी मां को वहां जाने से रोकता हूं। मैं उनसे कहता हूं कि वहां कुछ महीनों तक काम करने वाला कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं बचता, लेकिन वह नहीं सुनती। वह जीवित रहने का सवाल उठाती हैं और मुझे चुप करा दिया जाता है।" वे उस स्थिति में हैं, जहां कुछ साल पहले पूर्णापानी था। श्रमिक शिकार बन रहे हैं, कुछ बीमार पड़ रहे हैं, और कम से कम यह एहसास हो रहा है कि निकट भविष्य में काम करने की स्थिति क्या होगी। करीब छह महीने पहले रूपाली (35) वहां काम करती थी।

रूपाली का स्वास्थ्य धीरे-धीरे गिरता जा रहा है, उन्होंने अपनी बीमारी के कारण छह महीने पहले काम करना छोड़ दिया था।

जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत और सीने में दर्द होने लगा तो उन्होंने काम करना बंद कर दिया। बात करते समय उसे खांसी हुई और उसने लंबी सांसें लेने की कोशिश की। थोड़ी देर बाद वह रुक नहीं सकी और फर्श पर बैठ गई। हर गुजरते महीने के साथ उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही है. जब रिपोर्टर ने रूपाली को फैक्ट्री और लंच पर मिले कर्मचारियों की तस्वीर दिखाई तो वह तुरंत उन्हें पहचान गईं। न्यूज़क्लिक रिपोर्टर ने फैमिल्‍न पैटोर से दो बार बात की, पहले उन्हें सिलिकोसिस होने की घोषणा की गई और बाद में रिपोर्ट में ही सिलिकोसिस शब्द को रद्द कर दिया गया और फेफड़ों की बीमारी के लिए एक व्यापक शब्द 'न्यूमोकोनियोसिस' का इस्तेमाल किया गया। पेनुमो का मतलब हवा है, जिसका अर्थ है फेफड़े; कॉन का मतलब कणों से है जिसका अर्थ है धूल के कण, इसलिए फेफड़ों की बीमारी हुई। यह बहुत व्यापक शब्द है। ऐसा क्यों किया जा सकता है, इसके संभावित कारणों का जवाब तलाशते हुए, न्यूज़क्लिक इन मरीज़ों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले व्यक्ति समित कैर तक पहुंचा। वह OSHAJ नामक एक संगठन भी चलाते हैं जो व्यावसायिक स्वास्थ्य को पूरा करता है। कैर ने कहा, "सिलिकोसिस लिखने से साबित हो जाएगा कि कर्मचारी कार्यस्थल पर संक्रमित हो गया है। यह कोई गलती नहीं है। यह मुआवजा दिए बिना बच निकलने का एक तरीका है।"उन्होंने यह भी पुष्टि की कि यह पहली बार नहीं है कि मरीजों को सिलिकोसिस के तहत नहीं कहा जा रहा है। अपने अनुभव में, उन्होंने ऐसी ही स्थितियों का सामना किया था और प्रशासन से लड़ाई लड़ी थी, जिसके बाद उन्होंने सिलिकोसिस के रोगियों का निदान किया। कुणाल के मामले में, कैर कहते हैं, "यह ऐसा था जैसे उसका सारा विवरण, उसका पता, आधार नंबर, पैन नंबर और सब कुछ एक फॉर्म पर लिखा गया था, लेकिन उसका नाम नहीं।

"रिपोर्ट में सिलिकोसिस उत्पन्न करने वाली सभी स्थितियां देखी जा सकती थीं, लेकिन सिलिकोसिस नहीं लिखा गया था। झारखंड सरकार द्वारा शुरू की गई नीति में एक प्रमुख शर्त यह है कि यदि श्रमिक को राज्य से मुआवजा मिलना है तो रिपोर्ट में सिलिकोसिस के बारे में लिखना अनिवार्य है।

"प्रतिबंधात्मक फेफड़ों की बीमारी, पुरानी श्वसन विफलता, विस्तारित घाव, और विकृत फेफड़े' के साथ कुणाल का व्यावसायिक इतिहास, जहां एक रैमिंग मास फैक्ट्री में काम करने के दौरान वह 99% सिलिका धूल के संपर्क में था, रिपोर्ट में दिखाया गया था। हालां, शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था।

दुष्‍चक्र में श्रमिक

अधिकांश जीवित बचे लोगों और मृतकों के परिवारों को यह पता नहीं है कि वे मुआवजे के हकदार हैं या नहीं। कोई आवधिक परीक्षण भी नहीं किया गया, जिससे पुष्टि हो सके कि ये कर्मचारी व्यावसायिक रोग श्रेणी में आते हैं या नहीं।

1948 का फ़ैक्टरी अधिनियम सिलिकोसिस को एक उल्लेखनीय बीमारी के रूप में मान्यता देता है। जिसका अर्थ है कि सिलिकोसिस से प्रभावित किसी भी व्यक्ति के लिए रिपोर्ट सरकार को दी जानी चाहिए। रैमिंग मास के उत्पादन में शामिल ये श्रमिक सबसे बुनियादी लाभ ईएसआई (कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम) 1948 के अध्याय 5 के तहत पाने के हकदार हैं।

हालांकि, रिपोर्टर ने जिस फैक्ट्री का दौरा किया, वहां की मौजूदा स्थितियों के अनुसार, श्रमिकों को वहां काम करना शुरू किए हुए कई महीने हो गए हैं, और यहां तक कि रूपाली जैसे लोगों के पास भी, जिन्होंने अपनी बीमारी के कारण काम करना बंद कर दिया था, उनके पास भी ईएसआई कार्ड नहीं है।

हाल के दिनों में, झारखंड सरकार ने एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) की सिफारिश के अनुसार 40 से अधिक श्रमिकों को 4 लाख रुपये का मुआवजा दिया है। ऐसा तब हुआ जब कैर ने एनएचआरसी को कई पत्र लिखे और उन मरीजों की रिपोर्ट सौंपी जो या तो मर चुके थे या सिलिकोसिस से पीड़ित थे।

यहां तक कि श्रमिक मुआवजा अधिनियम भी स्थायी और आंशिक विकलांगता को मान्यता देता है, लेकिन कर्मचारी होने के प्रमाण की कमी ने फैक्ट्री मालिकों को अपराध-मुक्त कर दिया है। स्क्रीनिंग में दिखाई देने वाले फेफड़ों की क्षति की मात्रा से क्षति और विकलांगता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

हालांकि, सरकार की देरी और लापरवाही का अंदाजा उसके आंकड़ों से लगाया जा सकता है। न्यूज़क्लिक के आकलन के अनुसार, 2014 में, झारखंड सरकार ने सिलिकोसिस से प्रभावित 27 रोगियों की पहचान की। इन 27 में से पांच को मुआवजा दिया गया। आने वाले वर्षों में, अप्रैल 2023 तक, दो और रोगियों की मृत्यु हो गई, जबकि 20 जीवित रहे। हालाँकि, इन 20 को अभी तक कोई मुआवज़ा नहीं मिला है। भले ही राज्य सरकार ने 2021 में सिलिकोसिस प्रभावित श्रमिकों के लिए एक नीति पेश की।

हालांकि इस नीति में एक बड़ा दोष है, श्रमिक एक दुष्चक्र में फंस गए हैं जहां मात्र मुआवजा प्राप्त करना लगभग असंभव हो गया है। सबसे पहले, इनमें से किसी भी श्रमिक के पास अपने रोजगार का प्रमाण नहीं है। इसके अलावा, अस्पताल अक्सर इस बीमारी को सिलिकोसिस भी नहीं मानते हैं। सरकार ने इस बारे में बात की कि कैसे कोई भी एमबीबीएस डॉक्टर सिलिकोसिस के मरीज का निदान कर सकता है।

"दो चीजें हैं जो किसी मरीज में सिलिकोसिस की पुष्टि करती हैं- पहला, मरीज का व्यावसायिक इतिहास। यह देखते हुए कि जिस स्थान पर मरीज काम करता था, वहां सिलिका धूल का संपर्क था, इसे पहचानना आसान है। दूसरे, चूंकि सिलिकोसिस एक प्रगतिशील बीमारी है, एक गंभीर निष्क्रिय बीमारी है फेफड़ों पर सफेद अपारदर्शिता, एक्स-रे पर छाती पर छाया, से पता चलता है कि किसी व्यक्ति को सिलिकोसिस है। जब ये दोनों मौजूद होते हैं, तो इसे सिलिकोसिस के रूप में निदान किया जा सकता है।"

सिलिकोसिस रोगी के फेफड़ों का एक्स-रे।

सरकार की सिलिकोसिस सूची से गायब लोगों के बारे में सबसे जिम्मेदार कारण समय-समय पर जांच का अभाव है। इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि प्रारंभ में डॉक्टर सिलिकोसिस का पता लगाने में विफल रहेंगे। लेकिन छह महीने या एक साल बाद एक और परीक्षण, जब फेफड़ों की क्षति बहुत अधिक होगी, तो सिलिकोसिस का पता चल जाएगा। ऐसे मामले झारखंड में भी देखने को मिल सकते हैं. पूर्णापानी के निवासी बादल कर्माकर के मामले में बताया गया कि वह शुरू में सिलिकोसिस की श्रेणी में नहीं आते थे, लेकिन कैर द्वारा संचालित फाउंडेशन OSHAJ द्वारा नियमित परीक्षण के बाद, वर्षों बाद पता चला कि उन्हें सिलिकोसिस था।

सरकार ने यह भी बताया कि सरकार 2025 तक टीबी को खत्म करने के लिए किस तरह से योजना बना रही है और नीतियों को लागू कर रही है, लेकिन अंतर्निहित सिलिकोसिस का कहीं भी जिक्र नहीं था।

दुनिया को अभी तक सिलिकोसिस का इलाज नहीं मिल पाया है क्योंकि फेफड़ों की क्षति को सुधारना असंभव है। इस बीच, झारखंड में फैक्ट्रियां असुरक्षित परिस्थितियों में चल रही हैं, अत्यधिक ग्रामीण क्षेत्रों के बेखबर और गरीब श्रमिक पैसे के जाल में फंसते जा रहे हैं, और उनके परिवार न्याय मिलने की प्रतीक्षा में चुपचाप रोते रहते हैं।

मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Jharkhand: A Dust Dilemma Leading Workers to a Slow Death due to Silicosis

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