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कोविड-19 : असली मुद्दे से ध्यान भटकाने की कोशिश है हर्ड इम्यूनिटी का मामला 

‘हर्ड इम्यूनिटी’ का लक्ष्य न तो कोई गंभीर हेल्थ स्ट्रेटजी है न ही यह स्वीडन में जो हुआ उसका सटीक चित्रण है।
कोरोना वायरस

कोविड-19 संक्रमण को रोकने के लिए दुनिया भर की सरकारों ने तमाम तरह के कदम उठाए। कहीं बहुत ज्यादा कठोर कदम उठाए गए तो कहीं हल्के प्रतिबंध लगाए गए। इटली, बेल्जियम और स्पेन जैसे देशों में पूरी तरह लॉकडाउन लगाया गया तो कनाडा और जर्मनी में क्वारंटीन को कानूनी बनाया गया। डेनमार्क और नॉर्वे में लगाए गए प्रतिबंध हल्के थे। ताइवान और दक्षिण कोरिया में तो प्रतिबंध बेहद हल्के और नाम मात्र के थे लेकिन यहां बड़े पैमाने पर टेस्टिंग और ट्रेसिंग को अंजाम दिया गया।

हालांकि कुछ देशों में ऐसी नीतियां भी अपनाई गईं, जो साफ तौर पर कोविड-19 में लड़ने में नाकाम दिखीं। खास कर अमेरिका में जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं  से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर का कबाड़ा करने में न सिर्फ राष्ट्रपति ट्रंप की भूमिका रही है बल्कि ये दशकों से मुनाफे के लिए काम करने वाले हेल्थ केयर सिस्टम की वजह से भी बरबाद हो गए हैं। ऐसा सिस्टम, जिसमें आम लोगों के स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के बजाय मुनाफे पर नजर रहती है।   

दुनिया भर के देशों ने कोविड-19 को काबू करने के लिए भले ही अलग-अलग नीतियां अपनाई हों लेकिन इस वैश्विक महामारी का स्वरूप हर जगह लगभग एक ही जैसा रहा। (अलबत्ता मौत के आंकड़ों में काफी फर्क दिखा है)। जिन देशों में बेहद कड़े लॉकडाउन लगाए उनका अपना तर्क था। उनका मानना था कि जब तक इस बीमारी के बारे में कोई बेहतर वैज्ञानिक समझ उभर कर सामने नहीं आती या फिर इसे काबू करने की कोई तकनीक या इलाज नहीं खोज लिया जाता तब तक कड़ा लॉकडाउन ही मुफीद कदम है। (ऐसा इसलिए भी किया गया कि बढ़ते संक्रमण की वजह से उनका हेल्थकेयर सिस्टम भारी दबाव में चरमरा न उठे)। लेकिन इस वजह से उन देशों की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान उठाना पड़ा। जीडीपी ध्वस्त हो गई। ( इटली, स्पेन और फ्रांस जैसे देशों में यह स्थिति साफ दिखी)। लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान की भरपाई के लिए खुल कर दी गई सहायता भी काम नहीं आई।

इसके उलट जिन देशों ने तुरंत अपने बॉर्डर बंद कर ( खास कर दक्षिण कोरिया, ताइवान, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया) दिए और कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग के मजबूत कदम उठाए वे कोरोनावायरस संक्रमण के पहले चरण से जूझने में ज्यादा मजबूत दिखे। इस वजह से उनके यहां मौतों की संख्या भी न्यूनतम रही। बेहतर नतीजों की वजह से इन देशों को पूरी दुनिया में सम्मान की दृष्टि से देखा गया। इन कदमों की वजह से दुनिया भर में यह संदेश गया कि भले ही इस वैश्विक महामारी को शुरू में हम समझ नहीं पाए लेकिन इस वजह से हम नीतिगत फैसले लेने में चूक जाएं, ऐसा नहीं है। इसका सबसे कारगर उदाहरण ताइवान ने पेश किया। इस देश ने सार्स जैसी महामारी के दौरान जो सबक सीखे थे उसका प्रभावी इस्तेमाल किया। थाईलैंड, वियतनाम, दक्षिण कोरिया जैसे देशों की ओर से उठाए गए कदम पूरी दुनिया में एक नजीर की तरह उभरे। 
 
हर्ड इम्यूनिटी के ‘कटघरे’ में 
 
इसके बाद कुछ ऐसे देश भी रहे जिन्हें सामूहिक तौर पर ‘हर्ड इम्यूनिटी’ वाले देश कहा गया. लेकिन ऐसा कहना पूरी तरह गुमराह करने जैसा था क्योंकि इनमें ऐसे देश भी थे, जिनके कदम इस बीमारी से लड़ने के हिसाब से न तो कारगर थे और न ही पर्याप्त। हर्ड इम्यूनिटी वाले देशों के दायरे में दोनों तरह के देशों को शामिल कर लिया गया। इनमें बीमारी से जूझने में नाकाम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश भी शामिल कर लिए गए तो दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे सफल देश भी। लेकन एक देश को तो हर्ड इम्यूनिटी वाले देशों में बिल्कुल शामिल नहीं किया जा सकता और वह है स्वीडन. 

कोरोनावायरस संक्रमण को काबू करने में नाकाम रहने पर स्वीडन की नाहक ही बहुत ज्यादा आलोचना हुई. स्वीडन ने जब बहुत हल्के प्रतिबंध लगाए तो इसके यूरोपीय पड़ोसियों ने खुद से सवाल करना शुरू किया क्या उन्होंने बहुत ज्यादा कड़े प्रतिबंध तो नहीं लगा दिए। (खास कर जर्मनी, स्विटजरलैंड और नार्वे जैसे देशों ने)। स्वीडन को मजाक की तरह देखा गया. उसे ऐसे देखा गया मानों वह मनमानी करने वालों का स्वर्ग हो, जहां कहीं भी किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है। जहां राजनीतिक नेता किसी बहुत बड़ी साइंटिफिक फील्ड स्टडी के लिए लोगों की जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहे हों। जबकि सचाई यह है कि स्वीडन ने प्रतिबंध लगाए थे लेकिन एक लंबी अवधि की रणनीति के तहत दूसरे यूरोपियन देशों की ओर से लादे गए कड़े लॉकडाउन नियमों में से कुछ को खत्म कर दिया था।

इसके सकारात्मक नतीजे भी दिखे थे। लेकिन स्वीडन की ओर से उठाए गए कदमों पर बारीकी से ध्यान देने और इन्हें समझने के बजाय यहां के हालात को लेकर चेतावनियां दी गईं। दूसरे देशों को सावधान रहने को कहा गया। न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए यूरोपीय अर्थव्यवस्था को कवर करने वाले संवाददाता पीटर एस गुडमैन की रिपोर्ट में ऐसी ही चिंता जताई गई है। लेकिन हकीकत कुछ और है. स्वीडन को कोरोनावायरस को काबू करने में सफलता तो मिली लेकिन एक बड़ी नाकामी ने इसे पूरी तरह ढक लिया और वह थी बुजुर्गों की बढ़ती मौत।

स्वीडन के रुख को गैर-पारंपरिक और ओपन एयर एक्सपेरिमेंट कहने वाले गुडमैन ही अकेले शख्स नहीं थे. मई महीने में ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में छपे एक लेख में जिना गुस्तावसन ने स्वीडन के रुख को ‘अंध देशभक्ति’ करार दिया था। ‘वाशिंगटन पोस्ट’ की यासमिन अबूतालिब और जोश डॉसे की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक डोनाल्ड ट्रंप के प्रमुख स्वास्थ्य सलाहकारों में से एक स्कॉट एटलस ने व्हाइट हाउस को सलाह दी थी कि वह संक्रमण से लड़ने के लिए विवादास्पद रही ‘ हर्ड इम्यूनिटी’ रणनीति को अपनाएं. इससे संक्रमण ज्यादा लोगों में फैलेगा और एक बड़ी आबादी वायरस के खिलाफ जल्द से जल्द प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर लेगी. इस लेख में कहा गया था कि डॉ. एटलस ट्रंप प्रशासन को कथित ‘स्वीडिश मॉडल’ अपनाने के लिए कह रहे थे. हालांकि  ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने बाद में अबुतालिब और डॉसे के लेख में स्वीडिश मॉडल को गलत तरीके से दिखाने के लिए संशोधन भी प्रकाशित किया ( इस सफाई में कहा गया, “ स्वीडन ने भले ही लॉकडाउन के आदेश जारी नहीं किए और स्कूलों, उद्योगों को बंद नहीं किया लेकिन इसने सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करने और लोगों से मास्क पहनने की ताकीद जरूर की) . लेकिन यह मामले का अति सरलीकरण था. इसके जवाब में स्वीडन सरकार के महामारी विशेषज्ञ एंडरस टेगनेल को इस धारणा का खंडन करना पड़ा कि संक्रमण को काबू करने की नीति ‘हर्ड इम्यूनिटी’ को केंद्र में रख कर बनाई गई थी।

अप्रैल में यूएसए टुडे के एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि हर्ड इम्यूनिटी के बारे में बहुत ज्यादा जोर देने से स्वीडन सरकार की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों पर लोगों का ध्यान नहीं गया. स्वीडन ने हेल्थ इमरजेंसी से जुड़े जो कदम उठाए थे उनमें सार्वजनिक हेल्थ एजेंसियों की ओर से सोशल डिस्टेंसिंग, वर्क फ्रॉम होम, स्कूलों को बंद करना, सीमा पर लोगों की आवाजाही पर नियंत्रण और देश के भीतर यात्राओं पर पाबंदी से जुड़े नियमों को लागू करने पर जोर दिया गया था. इनमें से कुछ कदम बेहद प्रभावी साबित हुए क्योंकि स्वीडन के 50 फीसदी से थोड़े ज्यादा घरों में एक ही व्यक्ति रह रहा है (यूरोस्टेट के मुताबिक यह प्रतिशत यूरोप में सबसे ज्यादा है.)। इससे घरों से काम करने का नियम का काफी अच्छे तरीके से पालन हो सका। बीबीसी वर्कलाइफ के मुताबिक स्टॉकहोम में रहने वाले एक तिहाई से ज्यादा लोग घरों से काम कर रहे थे। सिटी काउंसिल की वित्तीय सहायता से चलने वाले स्टॉकहोम के कारोबारी इलाके और राजधानी स्थित दफ्तरों में से 90 फीसदी से अधिक में लोग रिमोट वर्किंग मोड में थे। 

स्वीडन में पहले 500 लोगों को एक जगह इकट्ठा करने की मनाही थी लेकिन मार्च के अंत में कहा गया कि 50 से ज्यादा लोग एक जगह इकट्ठा न हों. यह केवल सिफारिश नहीं थी. इसे अनिवार्य बना कर लागू किया गया। टेस्टिंग को सिर्फ वहीं लागू किया गया, जहां इसकी जरूरत थी। एक स्थानीय न्यूज पब्लिकेशन के मुताबिक यूरोप में प्रति व्यक्ति सबसे कम इंटेसिव केयर बेड होने के बावजूद स्वीडन कोरोना संक्रमण के दौरान उनकी तादाद दोगुनी करने में कामयाब रहा। और बाद में भी आईसीयू के पूरी तरह भर जाने की नौबत नहीं आई. हल्के प्रतिबंधों के बावजूद स्वीडन की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा, लेकिन यह कम था। स्वीडन उन देशों की तुलना में अपनी अर्थव्यवस्था की चोट को भरने में ज्यादा कामयाब दिखा, जहां कड़े लॉकडाउन लागू किए गए थे। आईएमएफ ने इस साल इटली की जीडीपी में 13 फीसदी की गिरावट का अनुमान जाहिर किया है, वहीं स्वीडन में इसमें महज 6.8 फीसदी की गिरावट की आशंका व्यक्त की गई है। यह यूरोप की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं से काफी अच्छी स्थिति है. ज्यादातर स्कैनेडेवियाई देशों की तरह ही स्वीडन की अर्थव्यवस्था भी तुलनात्मक तौर पर अच्छी स्थिति में है (जबकि यह खुली और छोटी अर्थव्ययवस्था है, जो अमेरिकी जैसी काफी हद तक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की तुलना में ग्लोबल अर्थव्यवस्था की दिक्कतों से ज्यादा प्रभावित होती है।) 

अपने नरम प्रतिबंधों की वजह से स्वीडन उन भारी परेशानियों को भी कम करता हुआ प्रतीत हुआ, जो दूसरे देशों में कारोबारों पर लगे लंबे प्रतिबंधों, शटडाउन और लॉकडाउन की वजह से पैदा हुए थे। ऐसे देशों में जो तात्कालिक परेशानियां पैदा हुई हैं वे एक लंबे समय की दिक्कतों में बदलने वाली हैं, जैसे कि बेरोजगारी की समस्या. (क्योंकि बड़ी तादाद में जो नौकरियां गई हैं वे निकट भविष्य में बहाल होती नहीं दिखतीं।).

बहरहाल, स्वीडन ने जो सामान्य प्रतिबंध का रवैया अपनाया उससे वह उन चुनौतियों से बच गया, जिनका इस वक्त ब्रिटेन जैसे दूसरे देश सामना कर रहे हैं. स्पाइक्ड के स्तंभकार टिम ब्लैक ने इस स्थिति पर लिखा, “बोरिस जॉनसन के रुढ़िवादी प्रशासन ने समाज को सुरक्षा के सिद्धांतों को इर्द-गिर्द संगठित होने की इजाजत देकर और इस नीति को बढ़ा कर खुद को कमजोर स्थिति में ला खड़ा किया है। अब इस पर हमले हो रहे हैं। लिहाजा अब अर्थव्यवस्था को सामान्य करने के लिए उसे सुरक्षा को दरकिनार कर कदम उठाने पड़ रहे हैं। स्कूलों को दोबारा खोलने जैसे राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मामलों में सरकार को सौदेबाजी करनी पड़ रही है।” (ऐसी स्थिति स्वीडन को नहीं झेलनी पड़ी क्योंकि कोविड-19 के उभरने के बाद इसने कक्षाओं के आकार, लंच पॉलिसी और मध्यान्ह की छुट्टियों में कोई खास परिवर्तन के बगैर स्कूल खुले रखे गए थे).
 
सधी रणनीति के बावजूद बुजुर्गों की मौत क्यों नहीं रोक सका स्वीडन 
 
इन सबका मतलब यह नहीं है कि स्वीडन ने कोविड-19 को लेकर जो रुख अपनाया था, उसमें कोई दिक्कत नहीं थी। स्वीडन में भी अमेरिका की तरह ही बुजुर्गों को सुरक्षा देने के लिए उठाए जाने वाले कदमों में थोड़ी ढीली रही. खास कर नर्सिंग होम्स में रखे गए बुजुर्गों को लेकर। इसी वजह से वहां मौतों में बुजुर्गों की तादाद ज्यादा रही. स्टॉकहोम स्थित थिंक टैंक Arena Idé  के रिसर्च हेड और पॉलिटिकल साइंटिस्ट लिसा पेलिंग स्वीडन में कोरोनावायरस से मरने वाले 90 फीसदी लोग 70 साल की उम्र से ज्यादा के थे। स्वीडन इस मामले में दूसरे देशों से थोड़ा भी अलग नहीं था. डब्ल्यूएचओ के रीजनल डायरेक्टर Dr. Hans Kluge के मुताबिक यूरोप में कोविड-19 से जो मौतें हुईं उनमें से 95 फीसदी की उम्र 60 साल से ऊपर थी। यूरोप में जितनी मौतें हुईं उनमें से 50 फीसदी मामलों में मरने वालों की उम्र 80 या इससे ज्यादा थी।

हालांकि लीसा पेलिंग का मानना है कि बुजुर्गों की मौतों से स्वीडन बच सकता था और उसे इस समस्या का समाधान भी मुस्तैदी से करना चाहिए था। कई ऐसे उपाय थे, जिनसे इस स्थिति से बचा जा सकता था। स्वीडन में भी अपनी तरह की समस्याएं थीं। इनमें से एक थी नर्सिंग होम के कर्मचारियों के लिए पीपीई किट का अभाव और बुजुर्गों की देखभाल को लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं की ढांचागत कमजोरियां। स्वीडन में ‘फ्री च्वाइस’ वाउचर सिस्टम की वजह से बुजुर्गों की देखभाल करने वाली निजी सेक्टर की अनाप-शनाप मुनाफा कमाने वाली एजेंसियां क्लाइंट्स खींचने की अंधी दौड़ में लगी रहती हैं। यह विडंबना ही है कि बुजुर्गों की देखभाल में नाकामी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का नतीजा साबित हुईं। ये नीतियां 1990 के दशक में लागू हुई थीं और इसने कम से कम नर्सिंग होम के मामले में देश में ऐतिहासिक तौर पर बेहद मजबूत रहे सार्वजनिक स्वास्थ सुविधाओं के बुनियादी ढांचे को ध्वस्त कर दिया था. (यह स्थिति कनाडा और अमेरिका की तरह ही था, जहां प्राइवेटी इक्विटी के दम पर खड़े हेल्थकेयर सिस्टम ने बुजुर्गों के स्वास्थ्य की देखभाल को अपने दायरे से बाहर कर दिया था) ।

हालांकि कई दूसरे देशों की सरकार के उलट स्वीडन प्रशासन ने स्वीकार किया है बुजुर्गों का बचाव न कर पाना कोविड-19 से लड़ने की उसकी नीति की एक बड़ी खामी रही। (इसके उलट न्यूयॉर्क के गवर्नर एंड्रूयू कुमो की ओर से कोविड-19 के मरीजों की भर्तियों को लेकर नर्सिंग होम को दिए गए निर्देशों को उलट देना ही यह जाहिर करता है कि इस संबंध में उसकी शुरुआती नीतियां नाकाम रही। इसके बावजूद कुमो इसे स्वीकार करने से इनकार करते रहे। लेकिन अमेरिका का मुख्यधारा का मीडिया इस कदम की तारीफ करता रहा.) 

मौजूदा दौर में बेमानी है हर्ड इम्यूनिटी का सवाल 
 
 ‘अटलांटिक’ में डॉ. जेम्स हेम्बलिन लिखते हैं कि हर्ड इम्यूनिटी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी एक अवधारणा है, जो टीकाकरण नीति को दिशा देने के लिए बनाई गई और उपयोग में लाई गई है। ( यह स्वीडन की कोविड-19 विरोधी नीतियों का सबसे समस्याग्रस्त पहलू रहा) । काफी पहले से इसका टीकाकरण नीति के लिए इस्तेमाल होता रहा है ताकि लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। इसके जरिये यह तय किया जाता रहा है कि कितने लोगों को टीका लगाने की जरूरत है ताकि उन्हें सुरक्षित किया जा सके। लेकिन आज की तारीख में यह बेकार है क्योंकि जैसा कि हेम्बलिन कहते हैं, यह इसलिए कारगर नहीं है कि महामारी अभी भी फैली हुई और इसका कोई टीका विकसित नहीं हुआ है।

वास्तव में हर्ड इम्यूनिटी 1927 के एक साइंटिफिक पेपर में दिए गए linear differential formulae पर आधारित है। इसे गणितज्ञ W.O. Kermack और A.G. Mckendrick ने दिया था जो कथित तौर पर यह बताता है कि संक्रामक बीमारियां कैसे फैलती हैं. इन सारे समीकरणों की कई एक्स्ट्रा पैरामीटर के साथ व्याख्या की गई। इन व्याख्याओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता था लेकिन इन्हें तोड़-मरोड़ कर कई डराने वाले आकलन पेश किए जा सकते थे।

अगर आंकड़े न हों तो इम्यूनिटी एक हां और ना वाली अवधारणा है. या तो आप प्रतिरोधक क्षमता से लैस हैं या फिर नहीं हैं। हर्ड इम्यूनिटी इस अवधारणा पर काम करती है कि संक्रमित होने के बाद ही (अगर उनकी मौत नहीं होती है तो) लोगों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है। हर्ड इम्यूनिटी वाली आबादी वो होती है, जहां गैर प्रतिरोधी क्षमता वाले लोगों पर भी वायरस हमला नहीं करता है।

लेकिन यह तर्क तब धराशायी हो जाता है जब हम यह मानते हैं किसी देश में कौन वायरस के प्रति प्रतिरोधी है और कौन गैर प्रतिरोधी यह तय करना असंभव है। किसी भी तरीके से इसका सटीक आकलन मुश्किल है ( पहले की महामारियों में भी ऐसा हुआ है और मौजूदा महामारी में भी ऐसा ही दिख रहा है। टेस्टिंग से जो चुनौतियां पैदा हुईं उससे भी यह साबित हुआ है) । दूसरे,  differential equation models के लिए जरूरी 40 से 70 फीसदी तक की इम्यूनिटी तक पहुंचने का थोड़ा भी दस्तावेजी सबूत अभी तक नहीं मिल सका है।

इस समस्या के समाधान के लिए  Kermack-McKendrick ने बाद में कुछ परिवर्तन किए। उन्होंने एक ऐसा पैमाना दिया जिसके मुताबिक यह माना जाता था आबादी का एक निश्चित हिस्सा (जिसका आकलन मुश्किल था) महामारी के हमले से बचा रहेगा। इससे मॉडल देने वाले यह अनुमान लगा सकते थे कि हर्ड इम्यूनिटी का प्रतिशत 1 से 70 फीसदी के बीच हो सकता है। लेकिन इससे एक अहम सवाल पैदा हो रहा था कि जिन लोगों पर संक्रमण का हमला नहीं हो सकता था वे महामारी से पहले कैसे प्रतिरोधी हो गए।

इस चुनौती से जूझने के लिए अनुसंधानकर्ताओं ने हाल के वर्षों में Heterogeneity यानी असदृश्यता की अवधारणा को पेश करना शुरू किया। इस अवधारणा के मुताबिक इम्यूनिटी बहु संयोजक है। यह बाइनरी नहीं है। इसका मतलब यह है कि संक्रमित लोगों का एक हिस्सा आगे कभी भी संक्रमित नहीं होगा। कुछ में लक्षण नहीं दिखेंगे। कुछ में हल्के लक्षण दिखेंगे। कुछ इतने बीमार हो जाएंगे कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ेगा और कुछ मर जाएंगे। अवधारणा के तौर पर देखें तो यह वास्तविकता के करीब है। 

मगर इस छूट के बावजूद, इस अवधारणा में एक दिक्कत है। और वो ये कि  इम्यून मल्टीवैलेंसी को मंजूर करते ही यह महामारी को रोकने की रणनीति के तौर पर पूरी हर्ड इम्यूनिटी की अवधारणा को समस्याग्रस्त बना देती है। तो क्या इसका मतलब यह है कि हर्ड इम्यूनिटी का मतलब है यह है कि लोगों का समूह या बड़ी तादाद में लोग कभी संक्रमित नहीं होंगे या वे संक्रमित भी हुए तो मामूली लक्षण से ज्यादा कुछ दिक्कत नहीं आएगा। या फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जाएगा लेकिन मौत नहीं होगी? 

इसके साथ हर मल्टीवैलेंट इम्यून कैटिगरी में लोगों के संक्रमण से जुड़े सवाल भी परेशानी पैदा करने वाले हैं। तमाम रिसर्चर इन सवालों का जवाब जानने की कोशिश में लगे हैं। और न हम यह जानते हैं कि क्या हर्ड इम्यूनिटी का मतलब पूरी इम्यूनिटी है। या फिर इम्यूनिटी का मतलब है हल्के लक्षण से थोड़ी खराब स्थिति. अब ऐसी अस्पष्टता की स्थिति में इस तरह के संक्रमण को रोकने के लिए एक सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति तय कैसे की जाती है? 

यह समस्या तब और उभर कर सामने आती है जब B-कोशिकाएं ( यह शरीर में रोगाणुओं को खत्म करने वाली एंडीबॉडी बनाती है, और उन्हें शक्तिहीन कर देती है) और T-कोशिकाएं बनाती है। फाइनेंशियल टाइम्स में क्लाइव कुकसन, अन्ना ग्रॉस और इयान बॉट लिखते हैं ये पुराने संक्रमण को याद रख सकता है और जैसे ही विषाणु पैदा होता, उन्हें मार सकता है। डॉ. मोनिका गांधी जैसे रिसर्चरों का मानना है कि इन कोशिकाओं के बीच पारस्परिक क्रिया ही शरीर के इम्यून रेस्पॉन्स को स्थापित करती है। ला जोला इंस्टीट्यूट के इन्फेकशस डिजीज एंड वैक्सीन सेंटर के सदस्य और प्रोफेसर एलसेंड्रो सेत का कहना है कि मूल रूप से इम्यून सिस्टम एक मेमोरी मशीन होती है। इस तरह देखें तो वायरस और दूसरी बीमारियों के बारे में सबके अलग-अलग अनुभव हैं। लेकिन परिभाषा के तौर पर देखें तो हम सभी की इम्यून मेमोरी मशीन एक जैसी नहीं होगी। इसके अलावा, डॉ. सेत के सहयोगी डेनियला विस्कॉफ का मानना है कि बीमारी का शुरुआती संक्रमण इतना मजबूत संकेत नहीं दे सकता कि आगे की रणनीति तय की जा सके। उनका मानना है, “ सामान्य सर्दी-जुकाम के मामले में कुछ लोगों में पहले से मौजूद T-सेल मेमोरी SARS-CoV-2 को क्रॉस-रिकॉगनाइज कर सकता है और इसे बिल्कुल सटीक आणविक स्ट्रक्चर तक ले जा सकता है।

इससे यह पता चल सकता है क्यों कुछ लोगों में संक्रमण के हल्के लक्षण दिखते हैं और क्यों कुछ लोग बेहद बुरी तरह बीमार पड़ जाते हैं। 
इसका मतलब यह है कि हालांकि सामान्य सर्दी-जुकाम एक किस्म का कोरोनावायरस संक्रमण ही है, लेकिन इसके खिलाफ लोगों में मौजूद प्रतिरोधी प्रतिक्रिया हमें पहले से यह नहीं बता सकती कि कोई व्यक्ति SARS-CoV-2 से पीड़ित हो तो उसके अंदर कौन सी इम्यूनिटी रेस्पॉन्स पैदा होगी। हर व्यक्ति अपने जीवनकाल में मामूली सर्दी-जुकाम से पीड़ित होता है लेकिन उनका इम्यून सिस्टम खुद-ब-खुद कोविड-19 को नहीं पहचान सकता। 
 
हम सभी का अक्सर इस सवाल से पाला पड़ता है कि हम हर्ड इम्यूनिटी तक कब तक पहुंचेंगे? लेकिन हमें यह समझने की जरूरत है कि समूह या बड़ी आबादी का इम्यूनिटी हासिल करना पूरी तरह नहीं हो सकता। एक ही बार में पूरी आबादी इम्यून नहीं हो सकती। इसके बजाय यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है और इसमें कई चरण हो सकते हैं। जैसे- कोई कभी भी संक्रमित नहीं हो सकता। या किसी को अस्पताल मे भर्ती होने की जरूरत नहीं पड़ सकती है या फिर किसी संक्रमित शख्स की मौत भी हो सकती है। महामारी के बारे में यह मौजूदा सरल समझ और प्रमाण लगातार पैदा की जाने वाली वायरल इम्यूनिटी और इसे ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की प्रक्रिया जैसी राजनीतिक मॉडलिंग से ज्यादा कारगर हो सकती है। लोगों की यह भी अवधारणा है कि मां के गर्भ से लेकर आगे तक किसी व्यक्ति के संक्रमण में आने का इतिहास जान कर इसे दबाया जा सकता है। लेकिन यह भी गलत है। आखिर में जो निष्कर्ष निकलता दिख रहा है वो यह है कि किसी पर संक्रमण का हमला हुआ है तो उसके शरीर में मौजूद पहले की स्वास्थ्य स्थितियों के आधार पर इसकी प्रतिक्रिया अलग-अलग हो सकती है। उसके शरीर में पोषण की स्थिति, बीमारी या उसके ध्रूमपान के उसके इतिहास के आधार पर संक्रमण में परिवर्तन हो सकता है। 
जलवायु परिवर्तन की तरह कोविड-19 के सवालों का भी राजनीतिकरण 
 
दुर्भाग्य से जलवायु परिवर्तन पर बहस की तरह ही COVID-19 से जूझने के सवालों का काफी राजनीतिकरण हो गया है। यही वजह है कि हम उदारवादी सीनेटर रॉन पॉल को भी सोशल डेमोक्रेटिक स्वीडन के बारे में काफी गुमराह करने वाले अस्पष्ट बयान देते देख रहे हैं। और जैसा कि UnHerd के एक्जीक्यूटिव एडिटर फ्रेडी सेयर्स ने कहा कि स्वीडन मनमानी करने या स्वछंद लोगों का समाज नहीं है. उल्टे यह नियमों के प्रति आग्रही लोगों का देश है। 

सेयर्स कहते हैं कि बुजुर्गों की मौत की त्रासदियों को छोड़ दिया जाए तो स्वीडन में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर ने बड़े ही प्रभावी तरीके से देश में मौजूदा सामाजिक समरसता को संस्थागत बनाया है। खास कर हेल्थकेयर प्रावधानों के मामले में यह साफ दिखता है। सेयर्स स्वीडन में सामुदायिकता की तुलना अमेरिका और यूरोप में अलग-थलग और बंटे रहने की संस्कृति से करते हैं (इस संस्कृति पर गौर करने पर भी यह समझ में आ जाएगा कि अमेरिका में क्यों स्वीडिश मॉडल को पूरे तौर पर अपनाना संभव नहीं है)।

सवाल यह है कि स्वीडन ने ऐसा क्या किया जाए जो काबिलेगौर है. अगर हम इसका अध्ययन न करें तो एक अवसर खो जाएगा और हम स्वीडन को हर्ड कम्यूनिटी के कैरिकेचर के तौर पर पेश करके रह जाएंगे। 

इस बात में कोई शक नहीं की स्वीडन ने स्वच्छता और सोशल डिस्टेंसिंग के तौर-तरीके में बदलाव को बढ़ावा दिया और संक्रमण को काबू करने के लिए लगाए गए प्रतिबंधों के कुछ संशोधित स्वरूपों से हमारा परिचय कराया. लेकिन प्रतिबंधों के इन हल्के तरीकों को स्वीडन की सरकार और उसके नागरिकों के बीच एक सामाजिक अनुबंध के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। देखा जाए तो ये दूसरे देशों में जोर-जबरदस्ती से लगाए गए बेहद कड़े प्रतिबंधों जैसी स्थिति को टालने के लिए किया गया समझौता था। लेकिन इन हल्के नियमों की वजह से स्वीडन की छवि बड़े ही गैर वाजिब तरीके से धूमिल की गई। 

स्वीडन ने इस दौरान जो नीति अपनाई, उसमें संक्रमण से जुड़े मिथकों पर हमला करना शामिल था। यह इससे जूझने के शुरुआती कदम था। यह कदम यह भी बताता है कि  कोविड-19 से जूझने के क्रम में हमने जो सीखा, उसके आधार पर आगे उठाए जाने वाले कदमों का आकलन होना चाहिए। हम सिर्फ लॉकडाउन लगा कर या सिर्फ वैक्सीन पर निर्भर नहीं रह सकते। हमें इसके लिए बेहतर संतुलन की तलाश करनी पड़ेगी. स्वीडन ने गलतियां की होंगी लेकिन उसे निष्पक्षता से देखा जाना जरूरी है। 

मार्शल ऑरबैक बार्ड कॉलेज के लेवी इकोनॉमिक इंस्टीट्यूट में रिसर्चर और इकोनॉमिस्ट्स फॉर पीस एंड सिक्योरिटी के फेलो हैं. विचार व्यक्तिगत हैं. 

यह लेख ‘इकनॉमी फॉर ऑल’ से लिया गया है, जो इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट का प्रोजेक्ट है. 

अंग्रेजी में मूल लेख यहां पढ़ सकते हैं. 

COVID-19: Why ‘Herd Immunity’ is a Distraction

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