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ग्रामीण भारत में करोना-28: किसान अपनी फ़सल जानवरों को खिलाने पर मजबूर

गुजरात के इसर गांव के किसानों के पास अपनी उपज को शहर तक ले जाने का कोई साधन नहीं है जो यहां से 7 किमी की दूरी पर है। इसके साथ ही यदि वे गांव से बाहर जाते हैं तो उन्हें सामाजिक तौर पर लांछन का डर भी सता रहा है, क्योंकि उन्हें कोविड-19 के संभावित वाहक की नज़रों से देखा जाएगा।
ग्रामीण भारत
प्रतीकात्मक तस्वीर

यह इस श्रृंखला की 28वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों से पड़ रहे प्रभावों की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में कई विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न गांवों का अध्ययन कर रहे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद लोगों के साथ हुई टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। इस लेख में चर्चा की गई है कि लॉकडाउन ने किस प्रकार से गुजरात के इसर गांव में लोगों के जीवन को प्रभावित कर रखा है, जहां छोटे किसानों ने अपनी रबी की फ़सल को खेतों में ही छोड़ दिया है और अभी से ही अपने खेतों में जुताई शुरू कर दी है।

इसर गांव सूरत ज़िले के मंडावी ब्लॉक में पड़ता है। 445 हेक्टेयर में फैले इस ग्राम पंचायत में क़रीब 65% हिस्सों में खेतीबाड़ी होती है। इस इलाक़े में क़रीब 82% भू-भाग की सिंचाई मिट्टी से बने बांध से होती है। पानी की उपलब्धता ने यहां के किसानों को कृषि के लिए प्रोत्साहित किया है। इनमें से अधिकांश छोटे और सीमांत किसान हैं जो रबी के सीजन में सब्जियों की खेती करते हैं।

गांव में मुख्य रूप से जिन फसलों की खेती की जाती है उनमें चावल और मूंग दाल हैं और सब्जियों में भिंडी, ग्वार, चौली (बजरबट्टू) और पालक है। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां की कुल आबादी 1891 लोगों की थी, जिसमें 25% खेतिहर किसान हैं जबकि 65% के साथ भारी संख्या में खेतिहर मज़दूर हैं।

पहुंच नहीं बन पा रही है

किसानों के साथ हुई बातचीत से खुलासा हुआ है कि कोविड-19 के कारण लॉकडाउन लागू हो जाने से गांव में काफी अफरा तफरी मची हुई है।

इस सिलसिले में सतीशभाई, विजयभाई और भालजीभाई नाम के तीन किसानों के साथ किए गए इंटरव्यू से पता चलता है कि कोविड-19 के कारण गांव में काफी उथल-पुथल मच गई है। ये तीनों सीमांत किसान हैं जिनके पास क्रमशः 2.5, 1.5 और दो एकड़ की खेती है।

भालजीभाई दो एकड़ जमीन के मालिक हैं और पिछले पंद्रह सालों से इसर बांध की भागीदारी सिंचाई समिति के प्रमुख रहे हैं। इसर और आस-पास के अन्य गांव भिंडी और ग्वार जैसी सब्जी की खेती के केंद्र बनकर उभरे हैं। किसानों को बीज, कीटनाशक और खाद जैसी आवश्यक वस्तुओं की ख़रीद में काफी कठनाइयां आ रही हैं। एक अन्य छोटे किसान सतीशभाई का कहना था कि “किसानों को इस साल खेती में काफी अच्छी पैदावार देखने को मिली थी, क्योंकि बारिश काफी हुई थी। लेकिन हमें इस प्रकार के नुकसान की उम्मीद नहीं थी। इस साल तो क़रीब-क़रीब सभी किसानों ने सब्जियों की खेती की थी।“

हमने वन विभाग के प्रतिनिधि विनीत कुमार का भी साक्षात्कार लिया।

लॉकडाउन के कारण किसानों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पहले-पहल यूरिया की आपूर्ति बाधित हुई है। यूरिया सहित अन्य उर्वरकों का यहां सीमित स्टॉक पड़ा है। सतीशभाई ने बताया कि पिछले सप्ताह की शुरुआत में यूरिया की सप्लाई के लिए एक गाड़ी पहुंची थी और कुछ किसानों ने 280 रुपये प्रति बैग के हिसाब से यूरिया की ख़रीद की थी, लेकिन पलक झपकते ही यूरिया का स्टॉक ख़त्म हो गया था। वे आगे बताते हैं कि पास के ही जनख्वा नामक कस्बे में, जो यहां से सात किलोमीटर दूर है यूरिया उपलब्ध था, और वहां के एक निजी दुकानदार द्वारा 380 रुपये प्रति बैग की दर पर इसकी बिक्री की जा रही थी।

एक अन्य छोटे किसान विजयभाई के अनुसार तो कुछ छोटे दुकानदार फुटकर में करीब 400 रुपये प्रति बैग के हिसाब से यूरिया बेच रहे हैं। जब उनसे अन्य कृषि सामग्री की उपलब्धता के बारे में सवाल किया गया तो उनका कहना था कि बाकी चीज़ों में कुछ ख़़ास दिक्कत नहीं है क्योंकि खेती के सामान बेचने वाली दुकानें दोपहर तक खुली रहती हैं। अपने बारे में उनका कहना था कि उन्हें पहले से ही पूर्वानुमान हो गया था कि लॉकडाउन में दिक्कतें पेश आ सकती हैं, इसलिए बीज की ख़रीद उन्होंने पहले से ही कर रखी थी।

हालांकि भालजीभाई ने बताया कि कीटनाशकों की आपूर्ति सुचारू रूप से नहीं हो सकी थी और इसी वजह से कृषि केंद्रों पर जो भी स्टॉक उपलब्ध था, किसान उसे ही ख़रीद कर ले जा रहे थे। जबकि जिस चीज़ की उन्हें ज़रूरत थी, वे चीज़ें दुकानों में उपलब्ध नहीं थीं। पुलिस कांस्टेबल उन्हें आसानी से बाज़ार में ख़रीदारी नहीं करने दे रहे थे जिससे उनकी परेशानियों में और इज़़ाफ़़ा हो गया। वैसे तो विसदलिया नामक गांव में वन विभाग का एक समूह भी आस-पास के कुछ किसानों को कीटनाशक, बीज और खाद जैसे इनपुट मुहैया करा रहा है, लेकिन इतना काफी नहीं है।

वैसे तो मज़दूरी की दर में तो कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिला है लेकिन मज़दूरी के अवसर ही कम उपलब्ध हैं। भालजीभाई ने बताया कि ज़्यादातर किसानों ने खेतों से सब्ज़ियों को निकालने के काम में अपने परिवार के ही सदस्यों का ही इस्तेमाल किया है, क्योंकि जो बाज़ार भाव चल रहा था उसे देखते हुए बाहर से मज़दूर लगाकर काम करना घाटे का सौदा हो सकता था। कहीं इसके चलते संक्रमण भी न हो जाये, इसका डर भी बना हुआ था। सिर्फ गिने-चुने किसान ही थे, जिन्होंने सब्ज़ियों की कटाई के लिए मज़दूरों को भाड़े पर रखा था और बाद में उन्होंने भी इसे बंद कर दिया था।

ग्वार की कटाई सुबह 8 बजे से 1 बजे के बीच की जाती है, जिसके लिए मज़दूरी 130 रुपये है। लॉकडाउन के कारण मज़दूरों के आने-जाने में ठहराव बना हुआ था और साथ ही किसानों द्वारा स्थानीय या बाहरी मज़दूरों को काम पर रखने को लेकर बनी अनिक्छुकता के कारण मज़दूरों को मज़दूरी का नुकसान उठाना पड़ रहा था। इसके अलावा बाज़ारों तक किसान अपनी उपज नहीं पहुंचा पा रहे थे, इसलिये भी गांव में मज़दूरी की ज़रूरत कम रह गई थी। बैंक ग्राहकों को उनके पैसे देने में आना-कानी कर रहे थे, इससे भी नक़दी की कमी हो रही थी। इस संबंध में भालजीभाई का मानना था कि किसानों के खातों में पैसा होने के बावजूद बैंक अधिकारी किसानों को नक़दी नहीं दे रहे थे।

मार्केटिंग में आ रही अड़चनें

भालजीभाई और विजयभाई ने बताया कि कुछ बड़े किसानों ने तो अधिक सब्जियां होने के चलते उसे अपने मवेशियों को चारे के रूप में खिला दिया और खेत जोत डाले। वहीँ भालजीभाई के अनुसार दूध की ख़रीद स्थिर बनी हुई है और यह काम बदस्तूर जारी है। गांव के किसान क़रीब 1000 लीटर दूध रोज़ सुमुल कोऑपरेटिव को सप्लाई कर रहे हैं। वे कहते हैं कि "कॉपरेटिव को दूध देते समय वे सभी शारीरिक दूरी को ध्यान में रखते हैं"।

लेकिन सब्ज़ियों की बिक्री का सवाल जस का तस है। ये दोनों किसान जहां पहले अपनी उपज गांव के ही एक व्यापारी के हाथ बेच देते थे, जो उनसे ये उपज लेकर सूरत और अहमदाबाद जैसे शहरों में बेच दिया करते थे। इसके साथ ही इसर गांव आस-पास के आदिवासी गांवों की सब्ज़ियों के संग्रहण केंद्र के रूप में भी अपनी पहचान बनाए हुए है। लेकिन लॉकडाउन ने गांव के किसानों की आवाजाही पर रोक सी लगा दी है। एक व्यापारी ने गांव के ही एक ड्राईवर को अहमदाबाद के कालूपुर मंडी में सब्जियां पहुंचाने के लिए नियुक्त कर रखा था। लेकिन जैसे ही चालक को जुकाम लगने की खबर लगी, किसानों के बीच दहशत फैल गई और पंचायत द्वारा ड्राईवर को चौदह दिनों तक के लिए क्वारंटीन में रहने को कहा गया। जांच में कोरोना वायरस के लक्षण नहीं मिले हैं, लेकिन इसके बावजूद पंचायत ने गांव से बाहर और अंदर आने वाले लोगों पर प्रतिबंध लगाने का फैसला ले लिया। इस प्रतिबंध ने सब्ज़ियों को इकट्ठा करने, वजन करने और बिक्री की प्रक्रिया को बाधित कर दिया।

भालजीभाई के अनुसार बाद में किसानों ने इस मुद्दे को पंचायत के समक्ष रखा तो उसके बाद से उन्हें अपनी सब्ज़ियों को एक नए कलेक्शन सेंटर में ले जाने की अनुमति दे दी गई। यह कलेक्शन सेंटर पास के ही गांव के बाहर स्थापित किया गया है, जहां सभी को सामाजिक दूरी बनाए रखना आवश्यक है। लेकिन यहां पर व्यापारी उपज की क़ीमत सही नहीं लगा रहे। सतीशभाई के अनुसार भिंडी के लिए मात्र 10 रुपये प्रति किलो और ग्वार के लिए 10 रुपये से 12 रुपये प्रति किलोग्राम दिए जा रहे हैं, जबकि लॉकडाउन से पहले इन दोनों सब्ज़ियों की क़ीमतें क्रमशः 25 रुपये और 45 रुपये प्रति किलोग्राम थी। उनका मानना था कि कुछ व्यापारी मौके का फायदा उठाने में भी लगे थे। यही सब्ज़ी वे व्यारा कस्बे में जो इसर से 28 किमी दूर है अच्छे रेट पर बेच रहे थे। भिंडी जहां वे 30 रुपये प्रति किलोग्राम (600 रुपये प्रति बीस किलो) के भाव से बेच रहे थे, वहीं ग्वार की क़ीमत 45 रुपये प्रति किलोग्राम (900 रुपये प्रति बीस किलोग्राम) मिल रही थी।

चूंकि भिंडी की खेती में श्रम कम लगता है इसलिए किसान उसे कम क़ीमत पर भी बेच सकते हैं लेकिन यदि इस नई क़ीमत पर उन्हें ग्वार बेचना पड़ेगा तो उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है। कुछ किसानों ने तो ग्वार की फ़सल अपने मवेशियों को खिला दी है या फिर खाद बनाने के लिए खेत जोतकर फ़सल को मिट्टी में दबा दिया है। विजयभाई ने बताया कि “ग्वार की कटाई में मज़दूरी की लागत 260 से 300 प्रति बीस किलोग्राम बैठती है, जबकि इसका मौजूदा बाजार भाव 260 रुपये प्रति बीस किलोग्राम है। ऐसे में मज़दूरी ही नहीं निकल पा रही है, बाकी लागत के बारे में तो बात करना ही बेकार है। जबकि पिछले साल ग्वार हमने 1100 रुपये प्रति 20 किलो के भाव से बेची थी। मैंने तो अपनी फ़सल मवेशियों को खिला दी है और खेतों को भिंडी की अगली फ़सल के लिए जोत डाला है।“

महंगी भिंडी की खेती वे इस उम्मीद से कर रहे हैं कि भविष्य में क़ीमत में सुधार हो। जिन घरों में खेतों में काम करने लायक लोग हैं वे अभी भी ग्वार की फ़सल निकाल रहे हैं और बेच रहे हैं। लेकिन जो ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हैं वे अगली फ़सल के लिए खेतों की जुताई शुरू कर चुके हैं। विजयभाई ने बताया है कि कई किसानों ने तो अपने खेतों का इस्तेमाल सब्ज़ी उगाने के बजाए अपने जानवरों के लिए चारा उगाने में तब्दील कर दिया है। यह दूसरी बात है कि उनके पास चारे की फ़सल के लिए पर्याप्त यूरिया नहीं है, जबकि कुछ किसान आजकल ऑन-फार्म खाद को इस्तेमाल में ला रहे हैं। किसानों के बीच एक समझ आम बन गई दिखती है: सब्जियों की खेतीबाड़ी से गांव में हर साल किसान लाभ कमाते हैं, फिर इस कमाई को वे खरीफ सीजन में लगने वाले ज़रुरी इनपुट और किराये पर मशीनरी लेने में खर्च कर देते हैं, और उनके हाथ कुछ नहीं आता। जबकि इस साल किसानों को पूर्वाभास हो रहा है कि आगामी खरीफ सीजन के दौरान खेतीबाड़ी के काम में उन्हें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

झंखवा कस्बा इस गांव से लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर है और किसानों के लिए अपनी उपज बेचने का यह एक और विकल्प है। यहां पर क़ीमतें थोड़ी बेहतर हैं, एक किलो भिंडी यहां पर 15 रुपये से 20 रुपये के बीच बिक रही है। लेकिन कस्बे तक अपनी उपज ले जा पाने का किसानों के पास कोई ज़रिया नहीं है। इसके साथ ही उन्हें सामाजिक तौर पर लांछन का डर भी सता रहा है और वे उस बात को लेकर भी आशंकित हैं कि गांव से बाहर आने-जाने पर लोग उन्हें कोरोना वायरस के संभावित वाहक के रूप में देख सकते हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 in Rural India-XXVIII: Farmers in Gujarat’s Isar Use Crop as Animal Fodder and to Make Manure

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