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ग्रामीण भारत में कोरोना-10 : उत्तर प्रदेश के महुवातर में आजीविका का ख़तरा

इस इलाक़े में पशुधन पर चलने वाली अर्थव्यवस्था जर्जर हालत में है, जबकि खाद्य सुरक्षा का ख़तरा उन लोगों पर गहरा रहा है जिन्हें इसकी सख़्त ज़रूरत है। इसके अलावा केंद्र की ओर से प्रदान की गई नकद राशि का लाभ भी गाँव तक नहीं पहुँचा है।
ग्रामीण भारत में कोरोना
छवि का उपयोग मात्र प्रतिनिधित्व हेतु। सौजन्य: द हिन्दू

यह एक श्रृंखला की दसवीं रिपोर्ट है जो कोविड-19 से सम्बंधित नीतियों से ग्रामीण भारत के जीवन पर पर पड़ने वाले प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टें शामिल की गई हैं, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गाँवों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गाँव में मौजूद प्रमुख सूचना प्रदाताओं के साथ हुई टेलीफोन वार्ताओं के आधार पर तैयार की गई है। यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश के महुवातर गाँव में जमीनी स्थिति का आकलन करती है, जहां भूमिहीन और छोटी जोत वाले परिवारों के लिए भुखमरी एक वास्तविकता बन चुकी है। इस इलाके में पशुधन से जुड़ी अर्थव्यवस्था की हालत डांवाडोल है, जबकि जिन्हें भोजन की सुरक्षा चाहिए वे आसन्न खतरे को लेकर भयभीत हैं। ना ही केंद्र की और से जारी नकद हस्तांतरण का लाभ गाँव तक पहुँच सका है, जो फसल कटाई का सीजन खत्म हो जाने के बारे में सोचकर पहले से कहीं अधिक चिंतित हैं।

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में घाघरा नदी के तट पर महुवातर गाँव की बसाहट है। इस गाँव में यदि मुख्य जाति समूहों को देखें तो यहाँ पर यादव, धोबी, राजभर, गोंड और कुर्मी परिवार बसे हैं, लेकिन बड़ा तबका यहाँ पर यादवों का ही है, जो कुल आबादी का 70% से 80% तक का है। गांव में सामाजिक और आर्थिक तौर पर इसी जाति के लोगों का दबदबा बना हुआ है और अधिकांश खेती योग्य जमीन के मालिक भी यही लोग हैं। जिनके पास जमीनें हैं वे परिवार यहाँ पर खेती और पशुपालन के धंधे दर जुड़े हुए हैं। यादवों के अलावा शेष जातियों के लोग या तो भूमिहीन हैं या वे खेती योग्य छोटी जोतों के ही मालिक हैं। ये लोग खेती-किसानी, भवन निर्माण के काम और अपने परम्परागत जातीय व्यवसायों से सम्बद्ध हैं। गरीब परिवारों में अपनी नियमित आय की कमी की भरपाई के लिए बकरी पालन का व्यवसाय प्रचलन में है।

खेती पर प्रभाव

गाँव में रबी की मुख्य फसल गेहूं, सरसों, मटर और दालें (काबुली चना, मटर, लतारी, मसूर) हैं। लॉकडाउन के दौरान यहाँ पर खेतों में किसानों और मजदूरों की आवाजाही पर कोई प्रतिबंध लागू नहीं है। परिणामस्वरूप किसानों को अपनी रबी की फसल की कटाई के लिए मजदूरों की कमी का सामना नहीं करना पड़ रहा है। गाँव के खेतिहर मजदूर मुख्य रूप से राजभर जाति से हैं या फिर चमार जाति के मजदूर बगल के गाँव मथिया से आते हैं।

मार्च के अंतिम हफ्ते से यहाँ के किसान अपने खेतों में गन्ने की बुआई की तैयारी में जुटे हुए थे। लेकिन लॉकडाउन के चलते ये लोग बुवाई के समय आवश्यक खाद और अन्य सुरक्षात्मक रसायनों की खरीद कर पाने में असमर्थ रहे और उसके बिना ही इन्हें बुआई करनी पड़ रही है। इससे आने वाले वर्ष में गन्ने की पैदावार पर काफी असर पड़ने की संभावना है।

वहीँ कुछ किसान जो विशेष तौर पर कुर्मी जाति से आते हैं, वे अपने खेतों में सब्जियां उगाते हैं और स्थानीय बाजार में व्यापारियों के हात बेचते हैं। ये किसान भी अपनी फसल में कीड़े लग जाने या किसी अन्य बीमारी से फसल की बर्बादी को रोकने के लिए आवश्यक खाद और कीटनाशक रसायन की खरीद कर पाने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं।

लॉकडाउन के बाद से स्थानीय सब्जी बाजार को बंद कर दिया गया है और पास के शहर के लिए सप्लाई की कड़ी टूट चुकी है। इसलिये जो लोग सब्जियों के उत्पादन से जुड़े हैं, वे अपनी उपज बेच पाने में असमर्थ हैं।

पशुपालन अर्थव्यस्था पर पड़ता असर  

करीब-करीब वे सभी दुकानें जो पशु आहार की वस्तुएं जैसे खली और चोकर बेचा करते थे, लॉकडाउन की वजह से बंद पड़ी हैं। कुछ दुकानों में अगर पशुओं के भोजन का स्टॉक है भी है तो उसे लॉकडाउन से पूर्व की कीमतों से 10% से 20% तक ऊँचे दामों पर बेचा जा रहा है। जो किसान अपना दूध स्थानीय दुग्ध विक्रेताओं के हाथों बेचते हैं, वे इसे ले जाकर बेल्थरा रोड शहर के मिठाई वालों, चाय की दूकान वालों और शहर में घर-घर सप्लाई करते हैं। ज्यादातर दूध की मांग मिठाई और चाय की दुकानों से आती थी, और उनके बीच ही इसकी खपत होती थी।

अब चूंकि ये दुकानें लॉकडाउन के कारण बंद पड़ी हैं, इसलिए दूध की मांग में भारी गिरावट देखने को मिल रही है और ये दुग्ध विक्रेता अब केवल बेलथरा रोड के घरों की जरूरत के हिसाब से ही दूध की खरीद कर रहे हैं और दूध बेच रहे हैं। किसानों द्वारा दूध बेच पाने में असमर्थता के चलते उन्हें मुफ्त में ही ग्रामीणों के बीच इसका वितरण करना पड़ रहा है। हालाँकि शहर में दूध के दामों में कोई बदलाव नहीं आया है या जो दाम दुग्ध उत्पादकों को पहले से मिल रहे थे वही दाम दूध बेचने वाले अभी भी चुकता कर रहे हैं।

पशु व्यापार का काम तो जबसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई है तभी से गौ रक्षकों द्वारा निगरानी की बढती घटनाओं के चलते वह पहले से काफी प्रभावित चल रहा था, जो अब लॉकडाउन के कारण अब पूरी तरह से ठप पड़ चुका है। मवेशियों का व्यापार करने वाले अब जानवरों की खरीद-बिक्री के अपने काम धंधे को गांव-गांव घूमकर नहीं कर सकते हैं, जिन्हें किसान बेचना चाहते हैं। पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए लगने वाला पशु मेला, जिसमें किसान और मवेशियों के व्यापारी अपनी खरीद-बेच के लिए एकत्रित हुआ करते थे, भी लॉकडाउन के चलते बंद पड़ा है।

किसान परिवारों में जहाँ मवेशी पाले जाते हैं वहीँ जो गरीब और भूमिहीन परिवार हैं, वे लोग बकरियों और मुर्गी पालन के व्यवसाय को अपनाए हुए हैं। इन परिवारों को फरवरी में उड़ाई गई उन अफवाहों के चलते काफी नुकसान झेलना पड़ा है, जिसमें यह अफवाह उड़ाई गई थी कि मीट-मुर्गा खाने से कोरोना वायरस फ़ैल रहा है। इस डर से चिकन और बकरे के मीट की मांग काफी हद तक गिर गई थी। आमतौर पर चिकन की कीमत जो 160 रुपये प्रति किलोग्राम के करीब होती है, उसकी कीमत गिरकर 20 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुँच गई थी। बकरी पालन से जुड़े गाँव के एक किसान ने बताया कि आज तक होली का सीजन इन सबकी बिक्री का सबसे अच्छा सीजन हुआ करता था। लेकिन इस साल मुश्किल से ही कोई बकरा बिक सका था।

रोजगार और खाद्य सुरक्षा पर असर

लॉकडाउन की घोषणा के बाद से खेती के अलावा बाकी की सारी गतिविधियां पूरी तरह से ठप पड़ चुकी हैं। भवन निर्माण से जुड़े हुए जिन मजदूरों ने लॉकडाउन लागू हो जाने के बाद के शुरुआती दिनों के दौरान भी आस-पड़ोस के गाँवों में अपना काम जारी रखा था, उन्हें पुलिस की ओर से प्रताड़ित किया गया और पिटाई भी हुई थी। गाँव में जो लोग गैर-कृषि कार्यों से सम्बद्ध धोबी, नाई और लोहार जैसे जाति-आधारित परम्परागत व्यवसायों में संलग्न हैं, सिर्फ इन्हीं लोगों का काम लॉकडाउन के दौरान भी बदस्तूर जारी है।

हालाँकि इस कदम से भूमिहीन और छोटी जोत वाले परिवारों के लिए भुखमरी का खतरा बढ़ गया है। कटाई का सीजन होने के कारण कुछ लोगों को काम-धंधा मिल रहा है, लेकिन ज्यादातर भूमिहीन और छोटी जोत वाले परिवारों के सदस्यों को कोई काम नहीं मिल सका है। गाँव के स्तर पर खाद्य सुरक्षा मुहैय्या करा पाने के किसी भी प्रकार के सरकारी हस्तक्षेप की गैरमौजूदगी के चलते इनमें से कई घर अपने भोजन की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ति कर पाने की समस्या से बुरी तरह से जूझ रहे हैं।

लॉकडाउन के प्रारंभिक चरण (24 मार्च से 27 मार्च) के दौरान, अस्पतालों और बैंकों को छोड़कर सभी दुकानों और काम धंधों को बंद करने के आदेश जारी कर दिए गए थे। यहां तक कि वे दुकानें जो आवश्यक वस्तुओं और खाद्य सामग्री की बिक्री करती थीं वे तक बंद कर दी गईं। जिसकी वजह से अधिकांश आवश्यक वस्तुओं की कीमतें इस अवधि के दौरान असमान छूने लगीं। इसके पीछे की वजह एक तो ये थी कि उन चीजों की वहाँ कमी हो गई थी और बिना पुलिस प्रशासन के निगाह में आये मुहँ मांगे दामों पे इसे किसी भी हालत में खरीदना लोगों ने आवश्यक समझा। खासकर उन अधिकांश खाद्य पदार्थों और आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ चुकी थीं जो स्थानीय स्तर पर पैदा नहीं की जाती हैं। हरी मिर्च की कीमत 80 रुपये प्रति किलोग्राम से उछलकर 500 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुँच गई, वहीँ टमाटर की कीमतों में 40 रुपये प्रति किलो से बढ़कर 80 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई, जबकि चीनी का दाम दोगुना होकर 80 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुँच चुका था।

हालांकि कई समाचार पत्रों की रिपोर्टों में लाइसेंस के आवंटन में भ्रष्टाचार का उल्लेख हो रहा था  लेकिन जबसे सरकार की ओर से आवश्यक वस्तुओं की बिक्री के लिए दुकानों को खुला रखने के लिए लाइसेंस जारी कर दिए गए हैं तबसे 27 मार्च के बाद से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में कमी देखने को मिली है। मिसाल के तौर पर बगल के गाँव मथिया की एक दुकान, को मथिया और महुवातर जैसे आस-पास के गाँवों के लोगों को ज़रूरी सामान कंट्रोल दरों पर बेचने के लिए लाइसेंस दिया गया है।

मनरेगा स्कीम पिछले छह-सात सालों से बंद पड़ी है। इस योजना में शामिल श्रमिकों के जॉब कार्ड अपडेट नहीं किए गए हैं और कई साल बीत गए लेकिन कोई भी नया जॉब कार्ड तक नहीं बनाया गया है। एक मजदूर जिसके पास पिछले छह-सात साल से जॉब कार्ड बना हुआ है और मनरेगा स्कीम के तहत उसे काम भी मिला था, ने बताया है कि सरकार द्वारा मनरेगा के तहत कार्यरत श्रमिकों को किये जाने वाले नकद हस्तांतरण का लाभ उन खाते-पीते घरों के लोगों को मिल रहा है जो ग्राम प्रधान के करीबी माने जाते हैं। नकद हस्तांतरण की स्कीम से गरीब मजदूरों कुछ भी लाभ नहीं हुआ है।

इस बीच राज्य सरकार ने यह भी घोषणा की थी कि जो निर्माण क्षेत्र से सम्बद्ध मजदूर, बैलगाड़ी वाले, छोटे दुकानदार और रिक्शा चालक हैं यदि वे श्रम विभाग के साथ पंजीकृत हैं तो उनके खातों में 1000 रुपये की राशि हस्तांतरित की जाएगी। लेकिन इस गाँव में कोई भी निर्माण मजदूर ऐसा नहीं है जिसने खुद को श्रम विभाग में पंजीकृत करा रखा हो, लिहाजा इनमें से किसी को भी इस नकद हस्तांतरण का लाभ हासिल नहीं हुआ है। इसी तरह छोटे दुकानदारों और बैलगाड़ी वालों के खातों में भी कोई रकम नहीं पहुँची है।

लिहाजा बिना किसी खाद्य सुरक्षा के प्रबंध के और आय में होने वाले नुकसान को सम्बोधित किये सरकार की ओर से लॉकडाउन की नीतियों को लागू किये जाने के परिणामस्वरूप भूमिहीन और छोटी जोत वाले परिवारों पर काफी अधिक बोझ पड़ गया है। बाद के दिनों में सरकार की ओर से जो राहत सम्बन्धी घोषणाएं की गई हैं उनमे से भी अधिकांश उपायों का यहाँ के ग्रामवासियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। लॉकडाउन का पहला हफ्ता बेहद तकलीफदेह बीता, क्योंकि इस अवधि के दौरान कोई भी काम उपलब्ध नहीं था। कई परिवारों को खाने पीने की चीजें उधारी खाते पर खरीदकर या फ्री में और भीख के रूप में हासिल हो सकी थीं। कटाई का सीजन शुरू हो जाने से इस बीच कुछ राहत मिली है। लेकिन अभी भी खेतिहर मजदूरों की इतनी माँग नहीं है कि हर किसी को पर्याप्त काम मिल सके। और एक बार जब कटाई का सीजन खत्म हो जाएगा तो इन परिवारों के सामने एक बार फिर से भूखों मरने की नौबत आने वाली है।

उमेश यादव ट्राई-कॉन्टिनेंटल इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल रिसर्च में शोधकर्ता हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

COVID-19 in Rural India – X: Livelihoods at Risk in Uttar Pradesh’s Mahuvatar

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