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ग्रामीण भारत में कोरोनावायरस-39: लॉकडाउन से बिहार के बैरिया गांव के लोगों की आय और खाद्य सुरक्षा प्रभावित हुई

कुछ उत्तरदाताओं ने बताया है कि मनरेगा के तहत उनके पास जॉब कार्ड बना हुआ है, लेकिन इस स्कीम के तहत उन्हें कोई रोज़गार नहीं मिल पाया है।
ग्रामीण भारत में कोरोनावायरस

यह एक जारी श्रृंखला की 39वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों से पड़ने वाले प्रभावों की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च की ओर से जारी इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गांवों के अध्ययन को संचालित कर रहे हैं। रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद प्रमुख उत्तरदाताओं के साथ संचालित किये गए टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में उन कठिनाइयों के बारे में बातें रखी गईं हैं जिसका सामना बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के बैरिया गावं के निवासी इस लॉकडाउन के बीच में कर रहे हैं।

इस लेख के जरिये बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले के बैरिया गांव में कोरोनावायरस के मद्देनजर सरकार द्वारा लागू किये गए लॉकडाउन से पड़ रहे प्रभावों को समझने की कोशिश की गई है। 2011 की जनगणना के अनुसार इस गांव की कुल आबादी 1,479 लोगों की थी। गांव के अधिकतर निवासियों के लिए खेतीबाड़ी ही उनकी आय का प्रमुख स्रोत है, हालाँकि कुछ ग्रामीण गैर-कृषि गतिविधियों में भी शामिल हैं। वहीं कुछ किसान यहाँ पर खेतिहर मज़दूरों के तौर पर भी कार्यरत हैं या गैर-कृषि कार्यों से सम्बद्ध हैं, क्योंकि उनके पास मौजूद जोतों के आकार इतने बड़े नहीं हैं कि खेतीबाड़ी से ही उनके परिवार का भरण-पोषण हो सके।

खेतीबाड़ी पर महामारी का पड़ता प्रभाव

रबी के मौसम में इस गांव में उगाई जाने वाली प्रमुख फ़सलें गेहूँ, सरसों, बाजरे और मक्के की हैं और इसके साथ ही छोटे पैमाने पर मटर, छोले, अरहर और मसूर की भी खेती की जाती है। खेती के कामकाज में शामिल तकरीबन 77.8% परिवार ऐसे हैं जो अपने ही खेतों में खेतीबाड़ी करके अपनी आय का बंदोबस्त कर पाने में सक्षम हैं, जबकि 22.2%  परिवार अपनी खुद की जमीन पर खेती करने के अलावा पट्टे पर खेत लेकर साझे में खेतीबाड़ी का काम करते हैं, क्योंकि आमतौर पर उनकी खुद की सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए उनकी खुद की खेती की जमीन काफी नहीं है।

लॉकडाउन के पहले चरण की शुरुआत ठीक उस समय हुई थी जब गांव में गेहूं की फसल कटने के लिए तैयार खड़ी थी। कुछ किसानों ने सूचित किया है कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें खेतों में काम के लिए श्रमिकों की कमी का सामना करना पड़ा था। जो किसान फसलों की कटाई के लिए पंजाब से लाये जाने वाले कंबाइन हार्वेस्टरों के भरोसे बैठे थे उन्होंने सूचित किया है कि लॉकडाउन की वजह से इस बार इन मशीनों और साथ में आने वाले ड्राइवर और तकनीशियन काफी विलम्ब से यहाँ पहुंचे थे। इन मशीनों की अनुपलब्धता की वजह से कुछ किसानों को फसल की कटाई के लिए मज़दूरों और थ्रेशरों के इस्तेमाल के लिए मजबूर होना पड़ा था, जिसकी वजह से कटाई में काफी अधिक वक्त लग गया। इस इलाके में हुई बारिश और अंधड़ के चलते भी गेहूँ की फसल की कटाई बाधित हुई थी, और कुछ किसानों को इसकी वजह से नुकसान भी उठाना पड़ा है।

सारिणी: खेतिहर मज़दूरों की ओर से की जाने वाली खेती से सम्बन्धित गतिविधियों की स्थिति

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स्रोत: लेखिका की ओर से की गई गणना पर आधारित

उत्तरदाताओं के अनुसार इन्टरव्यू के समय तक गेहूं की फसल की कटाई का काम संपन्न हो चुका था। इनमें से लगभग 55.6% किसानों ने फसल कटाई का काम अपने-अपने पारिवारिक श्रम-बल का उपयोग करते हुए संपन्न किया था, जबकि बाकियों ने इस काम को भाड़े पर मज़दूर रखकर पूरा किया था। कुल 77.8% किसानों ने बताया है कि जितनी गेहूं की उपज उनके खेतों से हुई है, वह उनके घरेलू खपत के लायक ही है, जबकि 22.2% किसानों ने बताया है कि घरेलू खपत के लिए पर्याप्त गेहूं अलग करने के बाद उनके पास कुछ गेहूं बच जाने वाला है। इनमें से तीन किसानों ने अपने अतिरिक्त उत्पादित गेहूं को या तो स्थानीय व्यापारियों को या पास के बाजार में बेच डाला है। इन सभी ने सूचित किया है कि उन्हें इसके लिए प्रति क्विंटल के हिसाब से मात्र 1,600 से 1,700 रुपये ही प्राप्त हुए हैं, जो कि इस रबी के सीजन के लिए घोषित गेहूं (1,925 रुपये प्रति क्विंटल) के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से काफी कम है।

गांव में उगाई जाने वाली मटर, छोले, अरहर, मसूर की खेती को सिर्फ घरेलू उपभोग के लिए किया जाता है। उत्तरदाताओं ने बताया कि इस बार रबी के सीजन में कुछ किसानों ने खेतों में मक्के की बुआई की थी, और उन्हें उम्मीद थी कि वे बाजार में कच्चे मक्के की बिक्री कर पायेंगे। लेकिन आमतौर पर इस फसल की खरीद के लिए जो मक्का व्यापारी हर साल स्थानीय बाजारों में आया करते थे, वे इस बार लॉकडाउन के चलते नहीं आ सके और नतीजे के तौर पर किसान इस बार अपनी मक्के की फसल को नहीं बेच सके हैं। इन किसानों ने अब सूखे मक्के को घरेलू उपयोग के लिए एवं अपने पशुओं के चारे के तौर पर खपत के लिए इसका भंडारण कर रहे हैं।

उत्तरदाताओं के अनुसार बैरिया में रह रहे कई किसान सिर्फ जीवन-निर्वाह लायक खेतीबाड़ी कर पा रहे हैं, अर्थात अपने घरेलू उपभोग लायक ही फसलों का उत्पादन कर पा रहे हैं। जबकि कुछ अन्य उत्तरदाता ऐसे भी हैं जो मवेशी पालते हैं और दुग्ध विक्रय से जुड़े हैं। लेकिन बाजार, मिठाई की दुकानें, स्थानीय भोजनालय, ढाबे और रेस्टोरेंट आदि बंद पड़े हैं, जिसके कारण उत्तरदाताओं के अनुसार उनकी आय प्रभावित हुई है। उन्होंने सूचित किया है कि उन्हें अपने पशुओं के लिए चारे की खरीद में भी काफी मुश्किलें पेश आई हैं। इसके साथ ही गांव में दूध की खरीद का कोई औपचारिक स्वरूप न होने की वजह से उसकी कोई निर्धारित कीमत नहीं है, क्योंकि कीमतें इस बात पर निर्भर करती है कि दूध को कहाँ पर बेचा जा रहा है। उदाहरण के लिए जो दूध बाजार में बिकने के लिए जाता है उसी को यदि यदि गांव में बेचते हैं तो उसकी कीमत 25 से 30% तक कम मिलती है। लॉकडाउन के शुरुआती चरण में किसानों के पास बाजारों में दूध बेच पाने का कोई विकल्प मौजूद नहीं था, दूध को या तो घरेलू स्तर पर खपाना पड़ रहा था या ओने-पौने दामों में गांव के भीतर ही बेचा जा रहा था।

गैर-कृषि गतिविधियों पर प्रभाव

लॉकडाउन के पहले और दूसरे चरण के दौरान सभी निर्माण कार्य ठप पड़े हुए थे। लॉकडाउन के तीसरे चरण में जाकर इसे फिर से शुरू किया जा सका था, जब जिले में कुछ प्रतिबंधों में ढील देने की शुरुआत हुई थी। निर्माण श्रमिकों के तौर पर काम करने वाले उत्तरदाताओं ने इस बारे में खुलासा करते हुए बताया है कि वे अभी भी काम पर लौटने की प्रतीक्षा में हैं, क्योंकि लॉकडाउन से पहले नियोक्ता जितने लोगों को काम पर रखा करते थे, अब उससे काफी कम श्रमिकों को काम पर रख रहे हैं।

लॉकडाउन के दौरान फेरी वाले और रेहड़ी पटरी पर खाने-पीने की दुकान चलाने वालों के काम भी बंद पड़े हुए थे। स्थानीय बाजारों में दुकानें बंद पड़ी होने की वजह से इनमें जो लोग कार्यरत थे, उन लोगों के पास कोई काम नहीं रह गया था। एक उत्तरदाता जो एक बढ़ई की दुकान में कार्यरत था ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान बाहर से लकड़ी की आपूर्ति नहीं हो सकी थी, जिसके चलते अब उसके पास कोई काम नहीं रहा। एक अन्य उत्तरदाता ने जो लोकल मार्केट में दर्जी का काम करता है ने सूचना दी है कि लॉकडाउन की वजह से दुकाने बंद पड़ी होने के कारण उसके पास भी कोई काम नहीं रह गया था। जबकि एक अन्य उत्तरदाता जो स्थानीय बाजार में एक कपड़े की दुकान पर हेल्पर के बतौर कार्यरत था, उसे भी दुकान बंद होने के वजह से खाली बैठने पर मजबूर होना पड़ा है।

कुछ उत्तरदाताओं ने बताया कि उनके पास भी मनरेगा जॉब कार्ड था, लेकिन इस स्कीम के तहत उन्हें कोई रोजगार नहीं मिल सका है।

आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता पर पड़ता असर

उत्तरदाताओं के अनुसार लॉकडाउन के दौरान पैकेज्ड और डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की कीमतें स्थिर बनी हुई थीं, लेकिन सब्जियों और फलों की कीमतें काफी गिर गई थीं। शादी-ब्याह और धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन नहीं हो सका था, और आस-पास के कस्बों में होटल और रेस्तरां बंद पड़े थे, जिसकी वजह से ताजे उत्पाद की माँग में गिरावट के चलते उनकी कीमतें गिर गई थीं। सब्जियों के उत्पादन से जुड़े किसान अपनी उपज को न तो मण्डियों में ले जा पा रहे थे और ना ही आस-पास के कस्बों बेच पाने में समर्थ थे, इसलिए वे गांव के भीतर ही सस्ते दरों पर अपनी सब्जियों को बेचने के लिए बाध्य थे, जिससे उनकी आय में काफी गिरावट दर्ज हुई है। भिंडी, कद्दू, गोल लौकी, करेला, टमाटर, तोरी और बीन्स जैसी सब्जियों की कीमतें 5 से लेकर 15 रुपये प्रति किलोग्राम के दायरे में सिमट कर रह गई थीं।

इस महामारी ने न सिर्फ बैरिया के निवासियों के स्वास्थ्य को प्रभावित किया है, बल्कि उनके रोजगार, आय और खाद्य सुरक्षा को भी काफी हद तक प्रभावित किया है। हालाँकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से राशन के वितरण का काम जारी है, लेकिन सभी परिवारों को इसका लाभ नहीं मिल सका है। आखिरी बार खाद्यान्न वितरण का कार्यक्रम अप्रैल माह (अंत्योदय के तहत प्रत्येक परिवार को 20 किलो गेहूं और 15 किलोग्राम चावल) के दौरान संपन्न हुआ था। कई उत्तरदाताओं का दावा है कि वे 35 किलोग्राम राशन पाने के हकदार हैं, लेकिन उन्हें केवल 28-30 किलोग्राम मिल सका था। मई महीने का राशन उन्हें अभी तक वितरित नहीं किया गया है।

प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (पीएमजीकेवाई) के तहत जिन 12 परिवारों के पास जन-धन अकाउंट थे, उनके खातों में 500 रुपये स्थानांतरित कर दिए गए थे। इसी तरह मई के पहले सप्ताह में उज्ज्वला योजना के तहत उसके पात्रता वाले परिवारों को एक एलपीजी सिलेंडर की कीमत के बराबर की धनराशि उनके खातों में हस्तांतरित कर दी गई थी। जबकि सर्वेक्षण में शामिल उन्नीस कृषक परिवारों में से केवल छह को ही मई की शुरुआत में पीएम-किसान योजना के तहत 2,000 रुपये प्राप्त होने की सूचना की पुष्टि हो सकी है। जबकि कई अन्य का कहना था कि इस स्कीम के तहत उन्हें पहली किश्त मिली थी, लेकिन बाद के दौर में उन्हें इस स्कीम से बाहर कर दिया गया था, क्योंकि उनके बैंक खातों को आधार कार्ड से लिंक करने का काम नहीं हो सका था।

आवश्यक सेवाओं और बैंकिंग सुविधाओं की उपलब्धता की स्थिति

भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) और सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया (सीबीआई) इन दोनों ही बैंकों की गांव के भीतर एक-एक शाखा मौजूद है। गांव में दो एटीएम भी हैं, हालांकि उत्तरदाताओं के अनुसार शायद ही कभी इनमे नकदी उपलब्ध रहती हो।

इस पूरे लॉकडाउन के दौरान प्रशासन, एनजीओ या नागरिक समाज की ओर से कोरोनावायरस के बारे में गांव के भीतर जागरूकता पैदा करने और इसके रोकथाम के संबंध में कोई हस्तक्षेप या पहल नहीं ली गई है। ग्रामीणों को इस बीमारी के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट मीडिया जैसे कि टीवी, समाचार-पत्रों और सोशल मीडिया के भरोसे ही रहना पड़ा है। पंचायत स्तर पर भी इस मुद्दे से निपटने के लिए कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किये जा सके हैं।

हालाँकि गांव के प्राथमिक विद्यालय परिसर के भीतर एक क्वारंटीन सेंटर को स्थापित किया गया है। जो लोग भी गांव लौटकर आ रहे हैं उन्हें अनिवार्य तौर पर 14 दिनों के लिए क्वारंटीन सेंटर में खुद को रखना आवश्यक है। लेकिन क्वारंटीन सेंटर में समुचित स्क्रीनिंग सुविधाओं के अभाव और सेंटर के खराब हालातों (समुचित साफ़-सफाई, भोजन की व्यवस्था और वहां पर ठहरने की उचित व्यवस्था न होने) के चलते लोग अपने-अपने घरों में चले जा रहे हैं, और इस प्रकार वायरस के सामुदायिक संचरण के मार्ग को प्रशस्त करने का काम कर रहे हैं।

कोरोनावायरस महामारी के चलते कई चरणों में लागू किये गए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन से गांव की खेतीबाड़ी और गैर-कृषि गतिविधियों पर भारी असर पड़ा है। किसान अपनी रबी की फसल की कटाई पूरी कर पाने में सक्षम रहे थे। हालांकि जिन लोगों ने अपनी फसल को बाजार में बेचा था, उन्हें अपनी उपज को एमएसपी की तुलना में काफी कम कीमत पर बेचना पड़ा था। लॉकडाउन को आगे की अवधि तक बढ़ाये जाने के फैसले ने डेयरी उत्पादन से जुड़े किसानों, सब्जी उत्पादकों, रेहड़ी पटरी विक्रेताओं और स्थानीय स्तर पर खाने पीने की स्टाल चलाने वाले लोगों को सबसे अधिक प्रभावित किया है। गांव में राशन वितरण का काम तो हुआ है, हालाँकि उसमें भी अनियमितता देखने को मिली है, और सभी जरूरतमंद घरों को इसका फायदा नहीं मिल पा रहा है। कुछ परिवारों को पीएमजीकेवाई, उज्ज्वला और पीएम-किसान योजनाओं के तहत नकद हस्तांतरण प्राप्त हुआ है, लेकिन कई उत्तरदाताओं को इन लाभों से वंचित रखा गया है। प्रशासन या पंचायत की ओर से गांव में महामारी के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं लिए गए हैं। क्वारंटीन सेंटर में आवश्यक मूलभूत सुविधाएं मौजूद नहीं होने की वजह से जो लोग गांव में वापस लौट रहे हैं उनसे क्वारंटीन प्रोटोकॉल का कड़ाई से पालन नहीं कराया जा सका है।

[यह रिपोर्ट मई के दूसरे सप्ताह के दौरान आयोजित विभिन्न परिवारों के 30 उत्तरदाताओं के साथ किये गए साक्षात्कार पर आधारित है। इनमें से 19 उत्तरदाता खेतीबाड़ी के कामकाज से सम्बद्ध हैं जबकि बाकी के 11 लोग निर्माण मज़दूर, बढ़ई, रिटेल शॉप मालिक और कर्मचारी और रेहड़ी पटरी विक्रेता के तौर पर कार्यरत रहे हैं।]

लेखिका बी. आर. ए. विश्वविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में सहायक प्रोफेसर पद पर कार्यरत हैं

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19 in Rural India-XXXIX: Lockdown Has Affected Income and Food Security in Bihar’s Bairiya Village

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