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ग्रामीण भारत में करोना-29: वर्धा के सेलू तालुका पर लॉकडाउन का प्रभाव

क़रीब-क़रीब सभी छोटे किसानों के बीच ये समझ आम होती जा रही है कि उन्हें सब्ज़ियों की खेतीबाड़ी का काम बंद कर देना चाहिए। इसके पीछे कई सारी वजह है, लेकिन ऐसा हुआ तो बाज़ार में सब्ज़ियों की भारी कमी हो जाएगी और अगले कुछ महीनों में खाने-पीने की चीजों के दाम आसमान छू सकते हैं।
ग्रामीण भारत
प्रतीकात्मक तस्वीर | सौजन्य: विकिपीडिया

यह इस श्रृंखला की 29वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों के फलस्वरूप पड़ रहे प्रभावों की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में कई विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न गांवों का अध्ययन कर रहे हैं। यह रिपोर्ट सेलू तालुका में किसानों, खेतिहर मज़दूरों और ग़ैर-कृषि क्षेत्र में कार्यरत मज़दूरों पर लॉकडाउन से पड़ रहे तात्कालिक प्रभावों का पड़ताल करती है। इस रिपोर्ट को तीन गांवों के सात लोगों के साथ फोन पर हुई बातचीत के बाद तैयार की गई।

सेलू महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले के वर्धा उपखंड में एक तालुका है। यह विदर्भ क्षेत्र में पड़ता है और यह ज़िला मुख्यालय वर्धा से पूर्व में 17 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां के अधिकतर लोगों की आय का मुख्य स्रोत खेती-किसानी ही है।

कान्हापुर गांव का हाल

सेलू तालुका का एक गांव कान्हापुर है जिसकी आबादी लगभग 1200 (2011 की जनगणना के अनुसार) है। यहां के दो खेतिहर मज़दूरों (विनोद दाते और ज्योतिराव शिंदे से 15 अप्रैल 2020 को) और एक महिला किसान (सविता जीवनराव वेल्ले के साथ 9 अप्रैल 2020) के साथ हुई टेलीफोन वार्ता के ज़रिए ये सूचना एकत्र की गई है।

विनोद के अनुसार गांव में क़रीब 150 मज़दूर हैं, जिनमें से ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर हैं। इनमें से अधिकतर फसल की कटाई के काम में लगे थे लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद ही इनका काम छीन गया और इन्हें गांव वापस लौटना पड़ा।

विनोद और ज्योतिराव दोनों ने बताया कि उन्हें पैसे की परेशानी है। विनोद का कहना था कि वह रोज़ाना लगभग 300 रुपये कमा लेता था। इस कमाई का अधिकांश हिस्सा वह दूध और सब्ज़ियों सहित परिवार के खाने पीने पर ख़र्च कर देता था। जबसे लॉकडाउन लागू हुआ है तबसे उसका परिवार सिर्फ चावल और थोड़ी सब्जी पर किसी तरह अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहा है। विनोद पूरे जी-जान से काम की तलाश में है, लेकिन बावजूद इसके कि मज़दूरों की कमी है फिर भी लॉकडाउन के दौरान वह काम पाने में असमर्थ रहा है। ज्योतिराव शिंदे के सामने भी कुछ ऐसे ही सवाल बने हुए हैं और दोनों ही इस बात को लेकर बेहद चिंतित हैं कि यदि जल्दी ही उन्हें काम नहीं मिला तो वे अपने परिवार के खाने पीने की इंतज़ाम कैसे कर पायेंगे।

विनोद के अनुसार मज़दूर राशन की दुकान से एक निश्चित मात्रा में चावल पाने के हकदार हैं, लेकिन गेहूं, दाल और चीनी जैसी अन्य आवश्यक वस्तुएं नहीं मिल रही हैं। ज्योतिराव ने बताया कि राशन बांटने वाले दुकानदार का कहना है कि उसके पास इन चीजों का स्टॉक ख़त्म हो चुका है और अभी तक उसके पास कोई नई खेप नहीं आई है। जिन मज़दूरों के पास नक़दी ख़त्म हो चुकी है वे गांव के भीतर से दूध जैसी कुछ चीज़े उधार हासिल कर ले रहे हैं। लेकिन कुछ अन्य आवश्यक वस्तुएं जैसे कि तेल और मसाले नहीं मिल पा रहे हैं क्योंकि जो दुकान गांव में थी, वो बंद पड़ी है।

सविता जीवनराव येले के पास चार एकड़ ज़मीन है और वे इसमें जैविक खेती करती हैं। वे अपने खेतों में कपास, सोयाबीन, अरहर, सब्जियां, पपीता और काबुली चने की बुआई करती हैं। सविता के मुताबिक़ उनके ग्राहक और व्यापारी उपज की ख़रीद के लिए सीधे उनके पास खेतों तक आते थे। लेकिन लॉकडाउन के कारण यह असंभव हो गया है। अब सविता के पास अपनी उपज को वर्धा शहर तक ले जाकर सीधे ग्राहकों को बेचने के सिवाय कोई चारा नहीं था। इसलिए कुछ अन्य किसानों के साथ मिलकर उन्होंने वर्धा में घर-घर जाकर सब्ज़ी बेचने का काम शुरू कर दिया था।

इसका फ़ायदा भी मिला है, किसानों और ग्राहकों के बीच के बेहतर रिश्तों के चलते कई ग्राहकों ने अब दुगुनी मात्रा में सब्ज़ियां ख़रीदनी शुरू कर दी हैं। लेकिन इस बीच मज़दूरों की कमी से दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि कई खेत मज़दूर लॉकडाउन के तहत लगाए गए प्रतिबंधों के कारण काम पर जाने को लेकर अनिक्छुक हैं। किसान भी मज़दूरों को पहले वाली तयशुदा मज़दूरी दे पाने में असमर्थ हैं, क्योंकि उनकी उपज नहीं बिक पा रही है। सविता के अनुसार, किसानों को या तो अपनी उपज को खेतों में ही छोड़ देना होगा, या मज़दूरी की दरों में कमी करनी होगी, क्योंकि जो मज़दूरी वे पहले दे पाने में सक्षम थे आज उतना चुका पाना संभव नहीं है।

इसके अलावा कपास, सोयाबीन, अरहर जैसी उपज ग्राहकों को सीधे नहीं बेचे जा सकते, क्योंकि इस्तेमाल से पहले इनमें कुछ मात्रा में प्रसंस्करण की ज़रूरत होती है। सविता जैसे किसानों के लिए अपनी न बिकी हुई उपज को स्टोर कर पाने में कठिनाइयां आ रही हैं, क्योंकि उनके पास ख़ास भंडारण सुविधाओं तक पहुंच बना पाना संभव नहीं है। सविता ने यह भी बताया कि गांव में दुग्ध सहकारी संस्था का काम अभी भी बदस्तूर जारी है, लेकिन सहकारी संस्था द्वारा दूध के जो रेट पहले 30 रूपये प्रति लीटर दिए जा रहे थे वह अब घटकर 20-22 रुपये प्रति लीटर रह गई है।

गोदापुर गांव की स्थिति

गोदापुर गांव भी सेलू तालुका में पड़ता है। यह गांव सेलू तालुका के मुख्य बाज़ार से लगभग पांच किमी की दूरी पर है। यहां पर एक छोटी सी चाय स्टाल के मालिक (नाथू नहरे) और एक किसान (प्रमोद मुदे) के साथ 15 अप्रैल 2020 को साक्षात्कार किया गया था।

गांव के नज़दीक ही नाथू एक छोटा सा टी स्टाल चलाते है और चाय व स्नैक्स बेचकर रोज़ाना लगभग 300 से 400 रुपये कमा लेते थे। उसके ज़्यादातर ग्राहक मालवाहक गाड़ियों के ड्राईवर और खेतिहर मज़दूर होते थे। लॉकडाउन के बाद से नाथू को अपना टी स्टाल बंद करना पड़ा है और अब उन्होंने पास के बाज़ार से सब्जियों को ख़रीद कर उसे गांव में बेचना शुरू कर दिया है। पेट्रोल का ख़र्च निकाल दें तो नाथू की रोज़ की कमाई अब 150 से 200 रुपये के बीच ही रह गई है – अर्थात जितना वह पहले चाय बेचकर कमा लेते थे उसका लगभग आधा ही है। नाथू का कहना है कि अब उनका परिवार दूध, सब्जी, मसाले और तेल पर ख़र्च कर पाने की स्थिति में नहीं है। हालांकि वह चावल, गेहूं और चीनी पाने का हकदार है, लेकिन फिलहाल ये सामान राशन की दुकान पर उपलब्ध नहीं हैं। सरकार द्वारा वितरित किए गए (जो किसी भी हालत में पूरा नहीं पड़ता) चावल और चाहे जो भी सब्ज़ी जिसकी बिक्री न हो, उस पर नाथू का परिवार किसी तरह टिका हुआ है। इसको लेकर अभी तक सरकारी कर्मचारियों, एनजीओ या गांव के प्रमुख लोगों की ओर से कोई राहत की पहल नहीं की गई है।

इसी गांव के एक किसान प्रमोद मुदे कपास और पपीते की खेती करते हैं और उनके पास छह बकरियां हैं। बीज और खाद बाज़ार में उपलब्ध न होने के कारण प्रमोद के लिए अपनी फसलों की देखभाल कर पाना मुश्किल होता जा रहा है। फिलहाल पपीते की बिक्री से जो पैसा मिलता है वही उनकी आय का एकमात्र स्रोत है। वह इसे अपनी बाइक पर बेचते है। पेट्रोल और अन्य ख़र्चों को घटाने के बाद उनकी आय कुल मिलाकर बहुत कम होती है। प्रमोद ने भी इस बात की पुष्टि की कि राशन की दुकान पर उन्हें चावल के अलावा कुछ भी नहीं मिला।

प्रमोद और नाथू दोनों के अनुसार, गांव में मनरेगा से जुड़ा कोई काम उपलब्ध नहीं है।

सलाई (पेवाथ) गांव की स्थिति

सेलू तालुका का सलाई (पी) गांव इसके मुख्य बाज़ार से क़रीब 15 किमी दूरी पर स्थित है। यहां 15 अप्रैल 2020 को दो किसानों (सुहास बलवंत लाखे और विश्वनाथ सुपाराव कांबले) के साथ इंटरव्यू किया गया।

सुहास 13 एकड़ ज़मीन के मालिक हैं और अपने खेतों में कपास, सोयाबीन, अरहर, चना और गेहूं की खेती करते हैं। फिलहाल सुहास ने अपनी कुछ फसल तो काट ली थी, लेकिन काफी कुछ खेतों में ही खड़ी है। लॉकडाउन लागू हो जाने के बाद से सुहास अपनी उपज यहां से सबसे नज़दीक के बाज़ार में भी नहीं बेच पाए जो यहां से 18 किमी की दूरी पर है। सुहास के अनुसार उनके पास बेचने के लिए उपज भी है और ख़रीदार भी हैं, लेकिन एक तो ट्रांसपोर्ट का साधन न होने के कारण और साथ ही जगह-जगह पर आने-जाने पर लगी रोक के चलते वे अपनी उपज नहीं बेच पा रहे। बाज़ार खुल तो रहे हैं लेकिन बेहद सीमित समय के लिए और सुहास के पास अपनी उपज ले जाने का कोई साधन नहीं है। वे चाहें तो 1,000 रूपये भाड़े में वाहन उपलब्ध हो जाए लेकिन उनके लिए इतना ख़र्च वहन कर पाना संभव नहीं है।

अपनी परेशानी बयान करते हुए सुहास का कहना था कि खेती से होने वाली आय में गिरावट के कारण उनके परिवार में खाने पीने के सामान कम हो गए है। आगे कहते है कि एकमात्र चावल ही है जो आसानी से उपलब्ध है, क्योंकि बाकी कुछ भी उनके स्टॉक में नहीं बचा। वे आगे कहते हैं कि इन विषम परिस्थितियों में भाड़े पर मज़दूरों को रखने में आ रही दिक्कतों के कारण भी खेतीबाड़ी का कामकाज प्रभावित हुआ है। उनका कहना था कि अगले सीजन के लिए वे थोड़ी सी ज़मीन पर फसल उगाने के बारे में विचार कर रहे हैं। सुहास इस बात से भी नाखुश थे कि सरकारी हो या ग़ैर-सरकारी संगठन, दोनों में से कोई भी किसानों की फसल को बाज़ार तक पहुंचाने में मदद के लिए आगे नहीं आया है।

विश्वनाथ सुपाराव कांबले के पास सात एकड़ ज़मीन है, जिस पर वे कपास, गेहूं, चना और सब्ज़ी उगाते हैं। लॉकडाउन के लागू होने से पहले ही उन्होंने अपने चने और गेहूं जैसी रबी की फसल का 50% हिस्सा बेच दिया था, लेकिन बाकी उपज उन्होंने नहीं बेचने का फैसला किया क्योंकि इसके अच्छे दाम नहीं मिल पा रहे हैं। गर्मियों के सीजन में विश्वनाथ सब्ज़ी की खेती करते हैं, लेकिन इस बार वे उस मात्रा में इसके पौधे नहीं रोप सके जितना कि वे आमतौर पर रोपते रहे हैं क्योंकि बाज़ार में इनके बीज उपलब्ध नहीं थे। हाल-फिलहाल विश्वनाथ के पास गोल लौकी और भिंडी का स्टॉक पड़ा हुआ है लेकिन इसे बेच पाने में असमर्थ हैं। उनका कहना था कि बाज़ार में सब्ज़ी बेचने के लिए उन्हें प्रशासन से लाइसेंस लेना पड़ेगा, तभी जाकर बेच सकते हैं। इस बाबत पिछले हफ्ते ही अर्जी दे दी थी, लेकिन अभी तक लाइसेंस बनकर नहीं आया है।

इसलिए काम चलाने के लिए विश्वनाथ जितना हो सकता है उतना सामान अपनी बाइक पर रखकर बाज़ार ले जाकर बेचते हैं। जब से लॉकडाउन लागू हुआ है, बाज़ार दोपहर तक ही खुले रहते हैं। ऐसे में एक ही समय में कई जगह से किसान आकर बाज़ार में जमा हो जाते हैं और नतीजे के तौर पर बाज़ार में अचानक से माल की आपूर्ति ज़रूरत से ज़्यादा हो जाती है और क़ीमतें गिर जाती हैं। विश्वनाथ का कहना था कि कुछ प्रतिबंधों के साथ बाज़ार को लंबी अवधि तक के लिए खोले रखा जा सकता है, ताकि किसानों को बेहतर दाम मिल सके। इसके साथ ही विश्वनाथ कहते हैं कि वे अब भविष्य में सब्ज़ियों की खेती नहीं करेंगे और नक़दी फसल दोबारा उगाने के लिए खरीफ के सीजन तक इंतजार करेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि यह उनका अकेले का विचार नहीं बल्कि कई अन्य किसानों ने भी ऐसा ही करने का मन बना लिया है, और उनका अनुमान है कि इसके कारण अगले दो या तीन महीनों में सब्ज़ियों की उपलब्धता में काफी कमी देखने को मिल सकती है। विश्वनाथ ने इस बारे में भी बताया कि किराने की दुकानें बंद होने के कारण चीनी, मसाले और दूध जैसी आवश्यक वस्तुएं काफी मुश्किल से मिल पा रही हैं।

जिन गांवों में सर्वेक्षण किया गया था, उन सभी गांवों में एक आम बात यह निकलकर सामने आई है कि आवश्यक वस्तुएं लोगों तक बेहद सीमित मात्रा में पहुंच पा रही हैं और ज़्यादातर लोगों ने खाद्य पदार्थों में कमी को बड़ी समस्या के रूप में बताया है। हालांकि सरकार ने चावल, गेहूं और चीनी मुहैय्या कराने का वादा तो कर रखा था, लेकिन अभी तक सिर्फ चावल ही नसीब हो पाया है। जबकि दाल, मसाले, चीनी और तेल जैसी अन्य आवश्यक वस्तुओं की भारी कमी है।

किसानों के पास जितनी मात्रा में कृषि उत्पाद उपलब्ध हैं, वे उन्हें बाज़ार तक नहीं पहुंचा सकते। और जो लोग सीमित मात्रा में अपने निजी दोपहिया वाहनों से इसे बाज़ार पहुंचा भी दे रहे हैं, उन्हें भी अपनी उपज के उचित दाम नहीं मिल पा रहे हैं, क्योंकि बेहद कम समय के लिए बाज़ार के खुले रहने की बाध्यता इसकी मुख्य समस्या है।

छोटे किसानों के बीच कई वजह से भविष्य में सब्ज़ियों की खेती न करने को लेकर आम राय बन रही है, जिसके पीछे सब्ज़ियों के जल्दी सड़ जाने, बीज की अनुपलब्धता और यातायात की सुविधा की कमी जैसी वजह हैं। इसे देखते हुए लगता है कि अगले कुछ महीनों में सब्ज़ियों की उपलब्धता में काफी कमी आने वाली है और खाद्य-सामग्री के दामों में भारी वृद्धि देखने को मिल सकती है।

लेखक अहमदाबाद स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट के सेंटर फ़ॉर मैनेजमेंट इन एग्रीकल्चर में शोधार्थी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

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