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कोविड-19: दिल्ली में गृह-आधारित श्रमिकों पर बुरी मार, प्रतिदिन 10 रुपये से भी कम की कमाई

उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाकों में रह रहे गृह-आधारित श्रमिकों को इस महामारी के दौरान दोनों समुदायों के बीच पैदा हुए तनावपूर्ण रिश्तों के चलते भयानक कष्टों का सामना करना पड़ रहा है।
गृह-आधारित श्रमिकों पर बुरी मार
प्रतीकात्मक छवि. सौजन्य: नेशनल हेराल्ड

कोरोना वायरस महामारी के इन छह महीनों के दौरान यदि दिल्ली में रह रहे किसी एक तबके को इसकी सबसे बुरी मार पड़ी है तो ये वे श्रमिक हैं जो अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं, और जिनकी आवाज शायद ही कहीं सुनी जाती हो। इनमें ऊँचे ब्राण्ड से लेकर छोटे-मोटे कारखानों तक के लिए कपड़ों के उत्पादन में लगे गृह-आधारित श्रमिक शामिल हैं।

इस साल की शुरुआत में साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में बुरी तरह से झुलसने और बाद में कोरोना वायरस महामारी की मार झेलने के कारण यहाँ की आपूर्ति श्रृंखला पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो चुकी है। अपने इस धंधे को जारी रखने के लिए इनके पास संपर्क का कोई अन्य साधन नहीं रह गया है।

इसके कारण उत्तर पूर्वी दिल्ली में रह रहे इन श्रमिकों के एक बड़े तबके के बीच में आय का कोई स्रोत नहीं बचा है। आज ये लोग खुद को भोजन और कर्ज के अंतहीन दुश्चक्र में घिरा पा रहे हैं जबकि सरकार की ओर से इनके लिए किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा का इंतजाम नहीं है।

‘हालात इतने बदतर हैं, कि जी में आता है कि खुद को फाँसी लगा लूँ’ सोनी भजनपुरा के दंगा प्रभावित इलाके में रहने वाली युवा विधवा हैं। अपने जीवन यापन के लिए वह जन्मदिन के लिए बनाये जाने वाले बैनर बनाने और कपड़ों पर बॉर्डर सिलने का काम किया करती थी। हालांकि जबसे महामारी का प्रकोप शुरू हुआ है, हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं।

वे बताती हैं कि “पहले तो मुझे पका-पकाया खाना मुफ्त में मिल जाया करता था, लेकिन अब ऐसा कुछ भी नहीं है। अपने बच्चों के लिए दूध का इंतजाम मैं पड़ोसियों से उधार माँगकर करती हूं। जिन्होंने काम के ऑर्डर्स दिए थे, वे अब मुझे मेरे काम के पैसे चुकता नहीं कर रहे हैं। ऐसा कोई शख्स नजर नहीं आता, जिससे मैं अपने लिए मदद के लिए संपर्क कर सकूँ।"

वे आगे कहती हैं "मेरी कमाई पूरी तरह से खत्म हो चुकी है।"

भजनपुरा की एक अन्य निवासी बेबी और उसके पति एक फैक्ट्री को गृह-आधारित वस्त्र तैयार कर आपूर्ति करते थे, जो फरवरी के अंतिम सप्ताह में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान आग की भेंट चढ़ चुकी थी।

उन्होने न्यूज़क्लिक को बताया “जबसे दंगे हुए हैं, उसके बाद से हमारे पास आय का कोई साधन नहीं रह गया है। अभी भी हिन्दू-मुस्लिम सम्बंध तनावपूर्ण बने हुए हैं और इस वजह से हमें कोई आर्डर नहीं मिल पा रहा है। चूँकि हमारे पास कोई औपचारिक रोजगार नहीं है, और सारा काम ही रिश्तों पर ही आधारित है।”

वे आगे कहती हैं  “मेरे बच्चों को साहूकारों से झूठ बोलना पड़ता है, मैं ही उनसे ऐसा करने के लिए कहती हूँ। जो कर्ज हमने ले रखे हैं, उसके कारण मैं लगातार खुद को छिपाए फिरती हूँ। हमारे हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि जी में आता है कि खुद को फाँसी लगाकर सब कुछ खत्म कर दूँ।”

श्रमिक अधिकारों के मामले में कार्यरत संगठन आजीविका ब्यूरो के अध्ययन में यह पाया गया है कि इस महामारी के दौरान गृह आधारित श्रमिकों को आठ घंटे प्रतिदिन काम के बदले में 10-15 रुपये से अधिक की कमाई नहीं हो पा रही है। इसकी एक वजह नियोक्ताओं की उदासीनता और शहरी कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच की कमी के चलते है।

उत्तर पूर्वी दिल्ली में रह रहे कुछ श्रमिकों की स्थिति तो इससे भी बदतर हो रखी है क्योंकि उन्हें काफी समय से कोई काम नहीं मिल सका है। शुरू-शुरू में तो इसकी वजह साम्प्रदायिक दंगे थे, और अब लॉकडाउन के चलते यह स्थिति और भी विकराल रूप धारण कर चुकी है।

श्रमिकों की लगातार बिगडती हुई स्थिति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कार्यकर्ता शालिनी सिन्हा का कहना है “इस दौरान दो चीजें घटित हुई हैं। कुछ श्रमिक घरों पर रहकर ही काम करते थे और इसे बाजारों में बेचते थे। बाजार के दोबारा उठ खड़े होने की फिलहाल कोई सूरत नजर नहीं आ रही है, ऐसे में महामारी ने इन श्रमिकों को सबसे अधिक अपना निशाना बना रखा है। दूसरा पहलू उन लोगों के लिए है जो काम का आर्डर बाहर से लाते थे। लेकिन आपूर्ति श्रृंखला के टूट जाने से उन्हीं कोई नया आर्डर नहीं मिला है, और पिछले आर्डर का तैयार माल भी अभी तक नहीं उठाया गया है।”

वे आगे कहती हैं “इन श्रमिकों के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय किराए के भुगतान के सम्बन्ध में बना हुआ है। इसके अलावा बच्चे आजकल घरों में ही हैं और इनके पति भी काम के सिलसिले में बाहर नहीं जा रहे हैं। ऐसे में ये महिलाएं खुद को घिरा हुआ पा रही हैं। इस क्षेत्र में छाई अदृश्यता ने स्थिति को काफी हद तक बिगाड़कर रख दिया है।”

वे कहती हैं, “कपड़ा और वस्त्र उद्योग जिसमें ज्यादातर महिलाएं कार्यरत थीं, वे भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 2.3%, विनिर्माण के क्षेत्र में 7% और निर्यात के क्षेत्र में 13% आय का योगदान करती हैं। चूँकि ज्यादातर महिलाएं गृह-आधारित श्रमिकों के तौर पर अपने घरों में ही रहकर कमाती थीं, ऐसे में वे क्या काम कर रही हैं और उसमें उनकी कितनी मेहनत और समय जाया हो रहा है, इस पर किसी ने तवज्जो नहीं दी थी। ये महिलाएं जो काम अपने घरों के भीतर रहकर करती आई हैं, वह न सिर्फ समुदाय की निगाहों से हमेशा अदृश्य ही रह जाया करता है, बल्कि कानून और नीति निर्माताओं की नजर में भी इन महिलाओं को महिला श्रमिकों के तौर पर मान्यता नहीं मिल सकी है”।

पीरियाडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे 2017-18 के अनुसार भारत में कुल मिलाकर 3 करोड़ गृह-आधारित श्रमिक (एचबीडब्ल्यू) हैं। हालाँकि गृह-आधारित श्रमिकों के लिए काम करने वाले कई संगठनों की मानें तो भारत में एचबीडब्ल्यू के बारे में अनुमान गंभीर तौर पर कम आंके गए हैं। इसमें से लगभग 50% लोग विनिर्माण क्षेत्र में कार्यरत हैं। विनिर्माण क्षेत्र के भीतर कुल एचबीडब्ल्यू श्रमिकों का 52% (78 लाख) हिस्सा परिधान और वस्त्र उद्योग में कार्यरत है।

न्यूज़क्लिक ने इससे पहले भी इस विषय को उठाने का काम किया था, जिसमें इस बात को दर्शाया गया था कि किस प्रकार से गृह-स्थित काम अभी भी सबसे कम दृश्यमान कार्यशक्ति बना हुआ है, जिसे शायद ही किसी भी सरकारी कार्यकर्मों या नीतियों में दर्शाया जाता हो।

इसके अलावा घरों पर रहकर काम करने वाले श्रमिक, असंगठित क्षेत्र की श्रेणी में आने वाले ज्यादातर अन्य श्रमिकों की तुलना में भी सबसे घाटे की स्थिति में जी रहे हैं। चूँकि इन श्रमिकों के पास ठेकेदारों के साथ सौदेबाजी करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती, और अक्सर वे अपने घरों के भीतर भी अलगाव की स्थिति में होते हैं।

ऐसे में अन्य गृह-आधारित श्रमिकों के साथ सीमित संपर्क के अवसरों के चलते इस महामारी काल में उनकी स्थिति पहले से भी बदतर हो चुकी है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें:

COVID-19: Home-based Workers in Delhi Hit Hard, Making Less Than Rs 10 Per Day

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