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जैसे-जैसे ग्रामीण भारत में कोविड फैल रहा है, ढहता स्वास्थ्य ढांचा विफल हो रहा है

बुनियादी सुविधाओं और आवश्यक स्वास्थ्य कर्मियों की कमी स्वास्थ्य केंद्रों और ज़िला अस्पतालों के विशाल नेटवर्क को विफल कर कर रही हैं।
जैसे-जैसे ग्रामीण भारत में कोविड फैल रहा है, ढहता स्वास्थ्य ढांचा विफल हो रहा है

बनगांव उप-स्वास्थ्य केंद्र, सहरसा 

तीन स्तर की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली जिसमें जिला अस्पताल सबसे ऊपर आते हैं और जो बुनियादी स्वास्थ्य ढांचा वर्षों से मौजूद है, लेकिन उसकी उपेक्षा और कम फंडिंग ने इसे इतना खोखला बना दिया है कि कोविड की वर्तमान दूसरी लहर में, यह असहाय ग्रामीण आबादी के बचाव का काम करने में पूरी तरह से विफल है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा प्रकाशित ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी नामक वार्षिक रिपोर्ट जिसे हाल ही में जारी किया गया है वह उस विकट स्थिति को दर्शाती है। इसमें 2019-20 की स्थिति शामिल है।

जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी है, वैसे-वैसे तीन स्तरीय – स्वास्थ्य का ढांचा जिसमें उप-केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) शामिल है - रोगियों को संभालने में पूरी तरह से असमर्थ रहे हैं। मरीजों के चौंकाने वाला उच्च अनुपात से स्वास्थ्य सुविधाओं और सरकार के अपने न्यूनतम मानकों के अनुरूप उचित नहीं बैठता है, जिसमें पानी की आपूर्ति, बिजली, ऑपरेशन थिएटर या लेबर रूम और एक्स-रे मशीन जैसी बुनियादी सुविधाओं का न होना शामिल हैं।

कुछ राज्यों में अत्यधिक स्वास्थ्य कर्मचारी हैं तो कुछ में स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी देखी गई है, लेकिन सभी सुविधाओं में विशेषज्ञों और तकनीशियनों में भारी कमी देखने को मिलती  हैं।

ढहता ढांचा 

जैसा कि नीचे दिया गया चार्ट दिखाता है, उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या में कमी हो रही है, जो बढ़ती आबादी के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं। चार्ट स्पष्ट तौर पर दिखाता है कि 2020 की आबादी के स्तर के लिए क्या जरूरी है और वास्तव में मौजूद क्या है।

इन तीन स्तरीय सुविधाओं को क्रमशः 5,000, 30,000 और 1,20,000 आबादी को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी है। इसका मतलब यह है कि प्रत्येक स्तर पर मौजूदा स्वास्थ्य केंद्र बहुत अधिक आबादी की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। ध्यान दें कि जैसे-जैसे आप स्वास्थ्य सेवाओं पदानुक्रम में ऊपर जाते हैं, कमियाँ भी बड़ी होती जाती है। यदि नए केंद्र खोलकर इसका समाधान किया जाता, तो वर्तमान कोविड संकट से अधिक प्रभावी ढंग से निपटा जा सकता था। अब क्या हो रहा है कि सुविधाओं की कमी का मतलब है कि चिकित्सा में देरी, जिसका अर्थ है कि जैसे-जैसे मरीजों की स्थिति बिगड़ती जाती है, उन्हें सिस्टम के उच्च स्तर पर ले जाना पड़ता है, अंततः वे अस्पतालों में भर्ती होते है। यह स्थिति लोगों को मज़बूरन निजी अस्पतालों के लालची हाथों में सौंप देती है।

मौजूदा स्वास्थ्य केंद्र काफी जर्जर स्थिति में हैं, सरकारी रिपोर्ट यह दिखाने पर मजबूर है कि: लगभग 4 प्रतिशत उप-केंद्र, 13 प्रतिशत प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्र और 9 प्रतिशत सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ही भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों (IPHS) के अनुरूप हैं, जो सुविधाओं के विस्तृत मानदंड को निर्धारित करते हैं, जिन्हे प्रत्येक स्तर पर प्रदान किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, 44,000 से अधिक उप-केंद्रों और 1000 से अधिक पीएचसी में बिजली की आपूर्ति नहीं है, जबकि लगभग 23,000 उप-केंद्रों और लगभग 1800 पीएचसी में पानी की आपूर्ति नहीं है!

लगभग 25,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में से लगभग 28 प्रतिशत के पास कोई सुरक्षित प्रसव केंद्र या लेबर रूम नहीं है – जोकि पीएचसी स्तर की एक बड़ी जरूरत है। कुल 65 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में मानदंडों द्वारा निर्धारित पूरी तरह सुसज्जित ऑपरेशन थियेटर (ओटी) नहीं है। यहां तक कि 30 फीसदी पीएचसी में मरीजों के लिए कम से कम चार बेड का भी इंतजाम भी नहीं हैं।

प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारियों के बिना देखभाल?

नीचे दिए गए दो चार्ट क्रमशः पीएचसी और सीएचसी स्तरों पर कुछ जरूरी स्वास्थ्य कर्मियों की कमी को दर्शाते हैं। डेटा उसी आरएचएस 2019-20 रिपोर्ट से लिया गया है।

ध्यान दें कि कुछ मामलों में, जैसे स्वास्थ्य कर्मी (महिला) या सहायक नर्स अथवा दाई (एएनएम), या प्रयोगशाला तकनीशियन, की कमी व्यवस्था की दुर्बलता को दर्शाती है। यदि ये स्वास्थ्य कर्मी मौजूद नहीं हैं तो प्रसव या रोगियों की देखभाल जैसे बुनियादी काम करना असंभव होगा।

लेकिन, इस अखिल भारतीय एकत्रित आंकड़ों में भी इससे भी बदतर स्थिति सामने नहीं आई है। कुछ राज्यों में कुछ विशेष किस्म के स्वास्थ्य कर्मियों की अधिकता है जबकि अन्य में भारी कमी है। बिहार का ही मामला लें। पीएचसी में डॉक्टरों की आवश्यक संख्या 1,702 है (यानि प्रत्येक पीएचसी में एक)। हालांकि, सरकार ने पीएचसी के लिए डॉक्टरों के 4,129 पदों को  स्वीकृत किया हुआ हैं। शायद, यह उस तथ्य की स्वीकृति है जिसमें प्रत्येक पीएचसी द्वारा कवर की गई आबादी की मूल रूप से की जाने वाली कल्पना से बहुत अधिक है। लेकिन फिर, यहाँ रगड़ है: स्वीकृत पदों में से केवल 1,745 ही भरे गए हैं, और 2,384 डॉक्टरों के पद रिक्त पड़े हैं जिन्हे भरा ही नहीं गया हैं! आधिकारिक तौर पर निर्धारित मानदंड की तुलना में डॉक्टरों की संख्या अधिक है लेकिन स्वीकृत पदों की तुलना में 58 फीसदी की कमी है. जबकि बावजूद उपरोक्त कमियों के देश में कुल कमी की गणना में, बिहार कोई खास कमी नहीं दिखाता है।

ज़्यादातर राज्यों में सभी प्रकार की नियुक्तियों में इसी तरह की अराजकता और विसंगतियां देखी जा सकती हैं।

सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर पर सबसे बड़ी कमी विशेषज्ञों की है। देश के 5,183 सीएचसी में से प्रत्येक में चार विशेषज्ञ ड्यूटी पर होने चाहिए: जिसमें चिकित्सक, सर्जन, बाल रोग विशेषज्ञ, और प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ शामिल हैं। इससे पूरे देश में कुल 20,732 विशेषज्ञ को काम पर होना चाहिए। लेकिन केवल 13,266 पद स्वीकृत किए पाए गए हैं और उनमें से वास्तव में केवल 4,957 विशेषज्ञ ही कार्यरत हैं।

बहुत गरीब आबादी और खराब स्वास्थ्य संकेतक वाले कुछ राज्यों में विशेषज्ञों की संख्या में भारी कमी देखी गई है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश को 2,844 विशेषज्ञों की जरूरत है,  लेकिन वहां सिर्फ 816 विशेषज्ञ काम पर हैं; राजस्थान को 2,192 की जरूरत थी लेकिन उसके पास 438 काम पर हैं; मध्य प्रदेश को 1,236 की जरूरत थी, लेकिन वहाँ केवल 46 कार्यरत हैं। आश्चर्यजनक रूप से, गुजरात जैसे कुछ उन्नत राज्यों में भी विशेषज्ञों की चिंताजनक कमी देखी गई है – वहाँ 1,392 की जरूरत थी, लेकिन केवल 13 विशेषज्ञ ही काम पर है।

इसके अलावा, अन्य प्रमुख स्वास्थ्य कर्मी भी सिरे से गायब हैं, जिसके चलते पूरा ढांचा बेकार हो गया है। इस प्रकार, 56 प्रतिशत रेडियोग्राफर को भी नियुक्त नहीं किए गए हैं। इसका मतलब यह है कि सीएचसी में किसी भी किस्म का एक्स-रे नहीं किया जा सकता है। 

जिला अस्पताल (डीएच) या उप-जिला अस्पताल (एसडीएच) के स्तर पर भारी सड़ांध नज़र आती है। हालांकि, रिपोर्ट में विस्तृत डेटा उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह दर्शाता है कि जिला अस्पतालों में लगभग 10 प्रतिशत डॉक्टरों और 11 प्रतिशत पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी है, और उप-जिला अस्पतालों में 21 प्रतिशत डॉक्टरों और 29 प्रतिशत पैरा मेडिकल स्टाफ की कमी है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए फंड - जिसके तहत यह पूरी ग्रामीण स्वास्थ्य प्रणाली चलती है - केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच 60:40 के अनुपात से साझा की जाती है। हालांकि, केंद्र सरकार राज्य सरकारों की तुलना में इस प्रणाली का वित्तपोषण करने में वित्तीय रूप से बेहतर स्थिति में है। फिर भी, वर्षों से, इस प्रणाली के लिए धन उपलब्ध कराने के लिए बहुत अधिक प्रयास नहीं किए गए है।

नरेंद्र मोदी युग के दौरान, सारा जोर बीमा-आधारित मॉडल पर चला गया है, जो प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित निचले स्तरों की सुविधाओं के मुक़ाबले निजी अस्पतालों को प्रभावी ढंग से केंद्र में रखती है। इसने न केवल महामारी के दौरान लाखों लोगों को गरीबी और कर्ज में धकेल दिया है, बल्कि इसने संकट के इस समय में गरीब तबके को मौजूद किसी भी स्वास्थ्य सेवा की मदद से बेरहमी से वंचित कर दिया है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

As COVID Spreads in Rural India, Crumbling Health Infrastructure Fails to Cope

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