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क्या जातीय उन्मूलन वाली रणनीति सांप्रदायिकता का मुक़ाबला करने में सहायक साबित हो सकती है?

बहुसंख्यकवाद पर सवाल खड़े करने का अर्थ है कि जितना अधिक हम दूसरों के बारे में सवाल खड़े करते हैं उतना ही हम अपने खुद के बारे में और अपनी पहचान को लेकर सवाल खड़े करना है।
Love Jihad

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने तथाकथित लव जिहाद को लेकर उत्तर प्रदेश में एक सक्रिय अभियान को क्यों चला रखा है, इस बारे में किसी भी प्रकार की स्पष्टता का अभाव नहीं है। यह हिन्दू महिलाओं को अपने काबू में रखने, मुस्लिम पुरुषों को अपराधिक तौर पर दर्शाने के साथ हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में बढ़ते सामाजिक मेल-जोल को नियंत्रण में रखने का एक प्रयास मात्र था।

इस सबके बावजूद यह बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो सकी है कि जो लोग लव जिहाद के मुहिम के खिलाफ अभियान में शामिल हैं वे इसी के विरोध में खड़े हैं। यह सच है कि वे यह साबित करना चाहते हैं कि मुसलमान कहीं से भी हिन्दू महिलाओं को अपने चंगुल में फांसने और उनके इस्लाम में धर्मांतरण कराने की किसी भी साजिश का हिस्सा नहीं हैं। वे राज्य सरकार द्वारा दर्ज किये जा रहे “लव जिहाद” से जुड़े झूठे मामलों का भी पर्दाफाश करना चाहते हैं।

इस सबके बावजूद जो लोग लव जिहाद अभियान का विरोध कर रहे हैं, उन्होंने इस मामले के मूल में जाकर बहस नहीं चलाई है, जो कि असल में अंतर-धार्मिक प्रेम और विवाह को एक आपराधिक कृत्य साबित करने का एक कुचक्र है। इस पर कोई यह तर्क पेश कर सकता है कि इसमें “बहस” चलाने जैसी कोई बात ही नहीं है क्योंकि प्रेम करना और अपनी पसंद से शादी करना निजी फैसले के तहत आता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी व्यक्तिगत पसंद ही धार्मिक विभाजन के दोनों ओर मौजूद पूर्वाग्रहों की खिलाफत करने के लिए पर्याप्त है? 

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस बारे में तर्क पेश किया था कि सामूहिक भोजन और अंतर्जातीय विवाह ही “जाति के विनाश” का एकमात्र रास्ता है। तो क्या साझा पड़ोस और अंतर-धार्मिक विवाह से भी धार्मिक पूर्वाग्रहों पर वैसा ही प्रभाव पड़ने जा रहा है जैसा कि सामूहिक-भोज और अंतर्जातीय विवाहों से पड़ सकता है? इन दोनों में अंतर यह है कि दलितों की कोशिश जातीय पहचान के खात्मे को लेकर है, जबकि अल्पसंख्यक जहाँ धार्मिक आधार पर पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाना चाहते हैं, वहीँ वे अपनी विशिष्ट पहचान को वे कायम रखना चाहते हैं।

इसके विपरीत देखें तो हिन्दुओं, मुसलमानों और अन्य धर्मों को मानने वाले लोगों के पास अपनी विशिष्ट पहचान को बचाए रखने का पूरा अधिकार है। यह स्वाभाविक तौर पर किसी भी प्रकार के अंतर-भोजों और अंतर-धार्मिक विवाहों के सक्रिय बढ़ावे पर रोक लगाने का काम करता है। ऐसे में वास्तविक तौर पर देखें तो अंतर-धार्मिक सौहार्द को बढ़ावा देने वाले जैसे उपायों से अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ संघर्ष (जातीय पूर्वाग्रह के खिलाफ एक प्रतिकारी शक्ति के तौर पर) को उपर से थोप पाना संभव नहीं है।

मौजूदा धार्मिक ध्रुवीकरण को देखते हुए धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच बढ़ते खतरे के अहसास और सार्वजनिक बहसों के गिरते स्तर को देखते हुए हमें निश्चित तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय और अन्य लोगों द्वारा अपनी विशिष्ट पहचान को लेकर उठाई जा रही वाजिब चिंताओं को पूर्वाग्रह को भड़काने वाले आह्वानों से अलग करके देखने की जरूरत है। दूसरे शब्दों में कहें तो क्या बहुसंख्यक हिन्दू और मुसलमान महज अपनी-अपनी विशिष्ट पहचान को बचाए रखने की चिंता के चलते अंतर-धार्मिक विवाहों का विरोध करते हैं? या क्या इसकी वजह एक-दूसरे के खिलाफ गहराई में जड़ जमाये वे पूर्वाग्रह हैं जो अंतर-धार्मिक शादियों की राह में बाधा बनकर खड़े हैं?

विभिन्न धर्मों के सदस्यों का यह तर्क हो सकता है कि उनके धार्मिक ग्रंथ और मान्यताएं इस प्रकार के शादी-ब्याह की अनुमति नहीं देते, भले ही धर्मान्तरण इसका एक रास्ता प्रदान करता है। इस बारे में स्पष्ट कर दें कि जहाँ एक ओर जातीय संबंध लंबवत बने हुए हैं, और जातीय ढाँचे में पूर्वाग्रह और भेदभावपूर्ण व्यवहार उसके अविभाज्य अंग के बतौर यथावत बने हुए हैं, जबकि उसकी तुलना में पार्श्विक धार्मिक पहचान अभिन्न तौर पर बहिष्कृत नहीं हैं।

इसलिए अंतर-धार्मिक विवाहों की मनाही पूर्वाग्रह से कहीं अधिक अपनी पहचान को बनाये रखने को लेकर है। किसी हिन्दू द्वारा मुस्लिम से गठबंधन को ठुकराना किसी ब्राह्मण द्वारा दलित से शादी करने से इंकार करने के समान नहीं है। ब्राहमण-दलित विवाह जहाँ मौजूदा पहचानों को अस्थिर करने का काम करता है, क्योंकि वे समाज में मौजूद हैं, वहीँ अंतर-धार्मिक विवाहों से वैसा प्रभाव देखने को नहीं मिल सकता है। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि सांस्कृतिक ध्रुवीकरण का मुकाबला करने के लिए क्या वृहत्तर धार्मिक पहचान को तोड़ने का काम एक आवश्यक पूर्व शर्त के तौर पर नहीं बना हुआ है? यहाँ तक कि धार्मिक पहचान का मामला भी किसी साफ़-सुथरे जत्थे के रूप में मौजूद नहीं है, लेकिन यदि उन्हें कसकर एक दूसरे से अलग कर दिया जाए तो वे साथ-साथ सामंजस्य के साथ नहीं रह सकते। यही वजह है कि उन समाजों में ध्रुवीकरण का काम कहीं ज्यादा मुश्किल भरा है जहाँ पहचान अधिक छिद्रपूर्ण और वैविध्यता लिए हुए है। उदाहरण के लिए केरल और पश्चिम बंगाल में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एक जैसे त्यौहार मनाते हैं। उनकी भाषा और भोजन की आदतें भी समान हैं, लेकिन इस सबके बावजूद वे अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान पर जोर देते हैं।

कोई यह तर्क भी रख सकता है कि व्यक्तियों की अपनी पसंद के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे पूर्वाग्रह से मान्यता हासिल करने से खुद को अलग रखें। मान्यता हासिल करने के लिए व्यक्तिगत पसंद को सक्रिय तौर पर समर्थन दिए जाने की आवश्यकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या “लव जिहाद” के खिलाफ अभियान ने अपनी पसंद से अंतर-धार्मिक विवाह करने का सक्रिय तौर पर समर्थन किया है? क्या हमें यह सवाल नहीं रखना चाहिए कि विवाह के बाद भी धर्मांतरण करना या न करना एक व्यक्तिगत चुनाव का मामला है?

क्या हम सामुदायिक नियंत्रण और बल से अलग करके अपने लिए विकल्पों को चुन सकते हैं? यह प्रश्न महिलाओं द्वारा घूंघट/पर्दा करने को लेकर उत्पन्न हुई बहस के दौरान भी उभरा था। चूँकि घूंघट/पर्दा संस्कृति की पहचान है, कोई मजबूरी नहीं, जब तक महिलाएं इसे अपनाती हैं, वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र हैं। यह कहने के साथ ही हमें यह भी चिन्हित करने की जरूरत है कि कहाँ पर आधिपत्य खत्म होता है और अपने लिए विकल्प चुनने की शुरुआत होती है। इसी प्रकार से क्या सामुदायिक नतीजे भी देखने में आते हैं, या वे गुपचुप ही अपना काम करते जाते हैं?

घूंघट/पर्दा धारण करने के खिलाफ एक सक्रिय अभियान चलाने से एक वैध धार्मिक प्रथा के खिलाफ पूर्वाग्रह को पैदा कर सकता है। इसी प्रकार अंतर-धार्मिक विवाह को बढ़ावा देने वाले एक सक्रिय अभियान को धर्म-विरोधी या अधार्मिक अभियान के तौर पर सामना करना पड़ सकता है, जो कि अंतर-धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिए एक सही रणनीति नहीं हो सकती।

भारत में सांप्रदायिक सौहार्द, जातीय बहिष्कार और लैंगिक भेदभाव के बीच में करीबी सम्बंध रहा है। बाकी दो अन्य को दुरुस्त किये बगैर हम किसी एक को हासिल नहीं कर सकते हैं। हम पाते हैं कि लव जिहाद के बारे में हमारी सार्वजनिक बहसों में जाति और लैंगिक प्रश्न एक दूसरे से अभिन्न रूप से गुंथे हुए हैं, जिसके परिणामस्वरुप इसमें लंबे समय तक गतिरोध बना रहता है। इस भूलभुलैया से बाहर निकलने के लिए व्यक्तिगत पसंद कहीं से भी एक सरल रास्ता नहीं हो सकता, क्योंकि लोग स्वतंत्र रूप से अपनी पसंद को अपना रहे हैं या नहीं, इसकी पहचान कर पाना आसान नहीं है।

इसके अलावा व्यक्तिगत पसंद संरचनात्मक भेदभाव के लिए प्रतीक बन सकता है। उदहारण के लिए वेश्यावृत्ति के काम को हम यौन शोषण के तौर पर देखते थे, लेकिन अब हम इसे एक वैध पेशेवर विकल्प के तौर पर देखते हैं। वेश्यावृत्ति को लेकर किये गए गैर-कलंकित और गैर-आपराधिक प्रयासों ने इस बात की ओर इंगित करना कठिन बना दिया है कि वे कौन सी ढांचागत प्रकृति हैं जो इस प्रकार के हालातों को उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध होती हैं।

इस कोशिश में भारत में अंतर-धार्मिक शादी-ब्याह को एक सकारात्मक कार्य के तौर पर प्रचारित किये जाने की आवश्यकता है। इसे निश्चित रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण और लैंगिक भेदभाव इन दोनों के ही खिलाफ संघर्ष के बतौर स्थापित करने की जरूरत है। जातीय आधार पर बहिष्करण के खिलाफ संघर्ष और अंतर-धार्मिक शादियों के समर्थन को संयोजित करने की भी आवश्यकता है। बहुसंख्य्कीय गतिरोध  अपने निरुदेश्य फच्चर से, इन खुले जटिल एवं संवेदनशील सामाजिक प्रथाओं को बरकरार रखने में लगाये रखेगा। यह इन प्रथाओं पर सार्वजनिक बहसों को संभव बनाता है और लोकतान्त्रिकीकरण के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है।

जो लोग बहुसंख्यकवाद के विरोध में खड़े हैं, उनकी धारणा वैसी ही नहीं हो सकती है जैसा कि बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने वाले लोगों की होती है। उन्हें निश्चित तौर पर पूर्वाग्रहों से हासिल होने वाली मान्यता के बारे में बताना होगा। उन्हें अपनी धारणाओं और व्यवहार में क्रन्तिकारी बदलावों को अंगीकार करना होगा: बहुसंख्यकवाद पर सवाल करने का अर्थ है अपने खुद के और अपनी पहचान के बारे में सवाल खड़े करना, जितना कि यह दूसरों के बारे में सवाल खड़े करना है। 

लेखक सेंटर फॉर पोलिटिकल स्टडीज, जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर के बतौर कार्यरत हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

सार-संक्षेप:

क्या किसी व्यक्ति के निजी चुनाव कि वह किससे विवाह करता है, धार्मिक विभाजन के दोनों ओर मौजूद पूर्वाग्रहों से मुकाबला करने के लिए पर्याप्त है? मान्यता हासिल करने के लिए किसी की निजी पसंद को सक्रिय समर्थन करने की आवश्यकता है। लेकिन केवल और केवल लैंगिक, जातीय और सांप्रदायिकता के साथ मिलकर लड़ने में ही इसका जवाब छिपा है।

धार्मिक पहचान किसी साफ़-सुथरे समूहों के तौर पर मौजूद नहीं है। हालाँकि यदि उन्हें कसकर अलग किया जाता है तो वे भी एक साथ सामंजस्य के साथ नहीं रह सकते। यही वजह है कि उन स्थानों पर ध्रुवीकरण को हासिल कर पाना मुश्किल है जहाँ पहचान कहीं ज्यादा छिद्रों और बहुलता में मौजूद है। केरल और पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं और मुसलमानों द्वारा एक जैसे त्यौहार मनाये जाते हैं, समान बोली-भाषा और भोजन की आदतों को साझा करने के बावजूद वे अपनी विशिष्ट पहचानों को संरक्षित रखना चाहते हैं।

अंतर-धार्मिक विवाह के समर्थन में चलाए जाने वाले सक्रिय अभियान को धर्म-विरोधी या अधार्मिक कहे जाने का सामना करना पड़ सकता है, जो कि अंतर-धार्मिक सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए कोई उचित रणनीति नहीं है। हालाँकि वर्तमान राजनीतिक हालात ने ऐसे संवेदनशील मसलों पर बहस के लिए दरवाजे खोल दिए हैं। जो लोग बहुसंख्यकवाद की मुखालफत करते हैं, वे इन मुद्दों पर सार्वजनिक बहसों को संचालित कर सकेते हैं।

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